(११) विनती (दोहा)
तुम साहब रहमान हो, रहम करो सरकार।
भव सागर में हौं पड़ो, खेइ उतारो पार॥१॥
भव सागर दरिया अगम, जुलमी लहर अनंत।
षट विकार की हर घड़ी, ऊठत होत न अंत॥२॥
इन लहरों की असर तें, गई सुबुद्धी खोइ।
प्रेम दीनता भजन-सँग, तीनहु बने न कोइ॥३॥
आप अपनपौ सब भुले, लहरों के ही हेत।
सो भूले कैसे लहौं, सुख जो शान्ती देत॥४॥
तेहि कारण अति गरज सों, अरज करौं गुरुदेव।
भव-जल लहरन बीच में, पकड़ि बाँह मम लेव॥५॥
बुद्धि शुद्धि कुछ भी नहीं, कहै क्या 'मेँहीँ दास'।
सतगुरु खुद जानैं सभै, बेगि पुराइय आस॥६॥
मेरे मुअलिज जगत में, सतगुरु बिन कोइ नाहिं।
तेहि कारण विनती करौं, हे सतगुरु तोहि पाहिं॥७॥