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वर्णमाला क्रमानुसार

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1. पाँच नौबत बिरतन्त कहौं

(४५) मंगल
पाँच नौबत बिरतन्त कहौं सुनि लीजिये।
भेदी भक्त विचारि सुरत रत कीजिये॥१॥
स्थूल सूक्ष्म सन्धि विन्दु पर परथम बाजई।
दुसर कारण सूक्ष्म सन्धि पर नौबत गाजई॥२॥
जड़ प्रकृति अरु विकृति सन्धि जोइ जानिये।
महाकारण अरु कारण सन्धि सोइ मानिये॥३॥
तिसरि नौबत यहि सन्धि पर सब छन बाजती।
महाकारण कैवल्य की सन्धि विराजती॥४॥
शुद्ध चेतन जड़ प्रकृति सन्धि यहि है सही।
यहँ की धुनि को चौथि नौबत हम गुनि कही॥५॥
निर्मल चेतन केन्द्र और ऊपर अहै।
परा प्रकृति कर केन्द्र सोइ अस बुधि कहै॥६॥
अत्यन्त अचरज अनुपम यहँ से बाजती।
पंचम नौबत 'मेँहीँ' संसृति बिसरावती॥७॥ 

2. प्रथमहिं धरो गुरु को ध्यान

(५८)
प्रथमहिं धारो गुरु को ध्यान।
हो श्रुति निर्मल हो बिन्दु ज्ञान॥१॥
दोउ नैना बिच सन्मुख देख।
इक बिन्दु मिलै दृष्टि दोउ रेख॥२॥
सुखमन झलकै तिल तारा।
निरख सुरत दशमी द्वारा॥३॥
जोति मण्डल में अचरज जोत।
शब्द मण्डल अनहद शब्द होत॥४॥
अनहद में धुन सत लौ लाय।
भव जल तरिबो यही उपाय॥५॥
'मेँहीँ' युक्ति सरल साँची।
लहै जो गुरु सेवा राँची॥६॥

3. प्रभु अकथ अनाम अनामय

(३७) कजली
प्रभु अकथ अनाम अनामय स्वामी, गो गुण प्रकृति परे॥ टेक॥
क्षर अक्षर प्रभु पार परमाक्षर, जा पद सन्त धरे।
अगुण सगुण पर पुरुष प्रकृति पर, सत्त असतहु परे॥१॥
अनन्त अपारा सार के सारा, जा भजि जीव तरे।
'मेँहीँ' कर जोरे प्रभुहिं निहोरे, करु उधार हमरे॥२॥ 

4. प्रभु अकथ अनामी सब पर स्वामी

(३५) ईश्वर-स्वरूप-निरूपण
प्रभु अकथ अनामी सब पर स्वामी, गो गुण प्रकृति परे॥१॥
हो सरब निवासी राम कहासी , सबही से न्यार हरे॥२॥
अव्यक्त अगोचर क्षर अक्षर पर, जो पद संत धरे॥३॥
हैं अनादि अनन्तं सर्व प्रिय कन्तं, व्यापक हैं सगरे॥४॥
प्रभु हैं सर्वदेशी और अदेशी, व्यापकपनहु परे॥५॥
'मेँहीँ' कर जोरे प्रभु को भजो रे, प्रभु भजि जीव तरे॥६॥

5. प्रभु अटल अकाम अनाम

(१२)
प्रभु अटल अकाम अनाम,
हो साहब पूर्ण धनी॥१॥ हो साहब०॥
अति अलोल अक्षर क्षर न्यारा,
शुद्धातम सुख धाम॥२॥ हो साहब०॥
अविगत अज विभु अगम अपारा ,
सत्य पुरुष सतनाम॥३॥ हो साहब०॥
सीम आदि मध अन्त विहीना,
सब पर पूरन काम॥४॥ हो साहब०॥
बरन विहीन, न रूप न रेखा,
नहिं रघुवर नहिं श्याम॥५॥ हो साहब०॥
सत रज तम पर पुरुष प्रकृति पर,
अलख अद्वैत अधाम॥६॥ हो साहब०॥
अगुण सगुण दोऊ तें न्यारा,
नहिं सच्चिदानन्द नाम॥७॥ हो साहब०॥
अखिल विश्व पुनि विश्वरूप अणु,
तुम में करें मुकाम॥८॥ हो साहब०॥
सब तुममें प्रभु अँटै होइ तुछ,
तुम अँटो सो नहिं ठाम॥९॥ हो साहब०॥
अति आश्चर्य अलौकिक अनुपम,
को कहि सक गुण ग्राम॥१०॥ हो साहब०॥
त्रिपुटी द्वन्द्व द्वैत से न्यारा,
लेश न माया नाम॥११॥ हो साहब०॥
करो न कछु कछु होय न तुम बिनु,
सबका अचल विराम॥१२॥ हो साहब०॥
महिमा अगम अपार अकथ अति,
बुद्धि होत हैरान॥१३॥ हो साहब०॥
अविरल अटल स्वभक्ति मोहि को,
दे पुरिये मन काम॥१४॥ हो साहब०॥

6. प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ

(३९)
प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ।
तन इन्द्रिन संग माया देखूँ,
मायातीत धरहु तुम नाऊँ॥१॥
मेधा मन इन्द्रिन गहें माया,
इन्हमें रहि माया लिपटाऊँ।
इन्द्रिन मन अरु बुद्धि परे प्रभु,
मैं न इन्हें तजि आगे धाऊँ॥२॥
करहु कृपा इन्ह संग छोड़ावहु,
जड़ प्रकृति कर पारहि जाऊँ।
'मेँहीँ' अस करुणा करि स्वामी,
देहु दरस सुख पाइ अघाऊँ॥३॥ 

7. प्रभु मिलने जो पथ धरि जाते

(१३१) कजली
प्रभु मिलने जो पथ धरि जाते, घट में बतलाये;
सन्तन घट में बतलाये॥टेक॥
प्रेमी भक्तन धर सो मारग, चलो चलो धाये;
सन्तन घट-पथ हो धाये॥१॥
अन्धकार अरु जोति शब्द, तीनों पट घट के से;
राह यह जावै है ऐसे॥२॥
जोति नाद का मार्ग बना यह, धरा जाय तिल से;
लो धर यत्न करो दिल से॥३॥
बाल नोक से मेँहीँ दर 'मेँहीँ' हो पथ पावें;
सन्त जन तामें धँसि धावें॥४॥

8. प्रभु वरणन में आवैं नाहीं

(३६)
प्रभु वरणन में आवैं नाहीं, अकथ अनामी अहैं सब माहीं॥१॥
प्रत्येक परमाणु अणु, लघु दीर्घ सर्व तनु,
प्रभु जी व्यापक जनु गगन रहाहीं॥२॥
दृश्यह्णरु अदृश्य सब, सहित प्रकृति भव,
प्रभु में अँटहि प्रभु अँटि न सकाहीं॥३॥
अनादि अनन्त प्रभु, निर अवयव विभु,
अछय अजय अति सघन रहाहीं॥४॥
गो गुण अगोचर, आत्म गम्य सूक्ष्म तर,
गुरु-भेद लहि भजि 'मेँहीँ' गति पाहीं॥५॥ 

9. प्रेम-प्रीति चित चौक लगाये

(१४३)
प्रेम प्रीति चित चौक लगाये। आसन प्रेम सुभग धरवाये॥
प्रेम डगर गुरु आनि बिठाये। प्रेम प्रेम जल पात्र मँगाये॥
प्रेम भाव कर चरण पखारे। चरणामृत ले सुरत सुधाये॥
पूरन भाग जगे अब आये। प्रेम थाल गुरु सन्मुख लाये॥
जा में प्रेम थाल भर पूरे। रुचि रुचि साहब भोग लगाये॥
प्रेम पान दे आरति उतारे। गुरु को प्रेम पलंग पौढ़ाये॥
बाबा सतगुरु देवी साहब। 'मेँहीँ' जपत प्रेम मन लाये॥

10. प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये

(९) अपराह्‌ण एवं सायंकालीन विनती

प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये, विनवौं कर जोड़ी।
पल-पल छोह न छोड़िये, सुनिये गुरु मोरी॥१॥
युग-युगान चहुँ खानि में, भ्रमि-भ्रमि दुख भूरी।
पाएउँ पुनि अजहूँ नहिं, रहुँ इन्हतें दूरी॥२॥
पल-पल मन माया रमे, कभुँ विलग न होता।
भक्ति भेद बिसरा रहे, दुख सहि-सहि रोता॥३॥
गुरु दयाल दया करी, दिये भेद बताई।
महा अभागी जीव के, दिये भाग जगाई॥४॥
पर निज बल कछु नाहिं है, जेहि बने कमाई।
सो बल तबहीं पावऊँ, गुरु होयँ सहाई॥५॥
दृष्टि टिकै श्रुति धुन रमै, अस करु गुरु दाया।
भजन में मन ऐसो रमै, जस रम सो माया॥६॥
जोत जगे धुनि सुनि पड़ै, श्रुति चढ़ै अकाशा।
सार धुन्न में लीन होइ, लहे निज घर वासा॥७॥
निजपन की जत कल्पना, सब जाय मिटाई।
मनसा वाचा कर्मणा, रहे तुम में समाई॥८॥
आस त्रास जग के सबै, सब वैर व नेहू।
सकल भुलै एके रहे, गुरु तुम पद-स्नेहू॥९॥
काम क्रोध मद लोभ के, नहिं वेग सतावै।
सब प्यारा परिवार अरु, सम्पति नहिं भावै॥१०॥
गुरु ऐसी करिये दया, अति होइ सहाई।
चरण-शरण होइ कहत हौं, लीजै अपनाई॥११॥
तुम्हरे जोत-स्वरूप अरु, तुम्हरे धुन-रूपा।
परखत रहूँ निशि-दिन गुरु, करु दया अनूपा॥१२॥