(९) अपराह्ण एवं सायंकालीन विनती
प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये, विनवौं कर जोड़ी।
पल-पल छोह न छोड़िये, सुनिये गुरु मोरी॥१॥
युग-युगान चहुँ खानि में, भ्रमि-भ्रमि दुख भूरी।
पाएउँ पुनि अजहूँ नहिं, रहुँ इन्हतें दूरी॥२॥
पल-पल मन माया रमे, कभुँ विलग न होता।
भक्ति भेद बिसरा रहे, दुख सहि-सहि रोता॥३॥
गुरु दयाल दया करी, दिये भेद बताई।
महा अभागी जीव के, दिये भाग जगाई॥४॥
पर निज बल कछु नाहिं है, जेहि बने कमाई।
सो बल तबहीं पावऊँ, गुरु होयँ सहाई॥५॥
दृष्टि टिकै श्रुति धुन रमै, अस करु गुरु दाया।
भजन में मन ऐसो रमै, जस रम सो माया॥६॥
जोत जगे धुनि सुनि पड़ै, श्रुति चढ़ै अकाशा।
सार धुन्न में लीन होइ, लहे निज घर वासा॥७॥
निजपन की जत कल्पना, सब जाय मिटाई।
मनसा वाचा कर्मणा, रहे तुम में समाई॥८॥
आस त्रास जग के सबै, सब वैर व नेहू।
सकल भुलै एके रहे, गुरु तुम पद-स्नेहू॥९॥
काम क्रोध मद लोभ के, नहिं वेग सतावै।
सब प्यारा परिवार अरु, सम्पति नहिं भावै॥१०॥
गुरु ऐसी करिये दया, अति होइ सहाई।
चरण-शरण होइ कहत हौं, लीजै अपनाई॥११॥
तुम्हरे जोत-स्वरूप अरु, तुम्हरे धुन-रूपा।
परखत रहूँ निशि-दिन गुरु, करु दया अनूपा॥१२॥