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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( क / 2   &  क्ष / 1)

1. करिये भाई सतगुरू गुरू पद

(११२)
करिये भाई सतगुरू गुरू पद सेवा॥टेक॥
विषय भोग मन ललचि-ललचि धरे, जाय पड़े यम जेवा।
मात पिता दारा सुत बन्धू, कुटुम्ब न करे तव सेवा॥१॥
धन को गिने निज तन न सहाई, तुम हंसा एक एका।
याते चेति सतगुरु गुरु सेवो, करिहैं सहाइ अनेका॥२॥
गुरु निज भेद दें अधर चढ़न को, गुरुमुख चढ़त बिसेखा।
चढ़त-चढ़त सो टपत गगन सब, जाय मिलत सब सेखा॥३॥
देवी साहब पूरण सतगुरु, जिन सम भेदि न दूजा।
'मेँहीँ' निशिदिन चरण शीश धरि, आप अरपि करु पूजा॥४॥

2. क्या सोवत गफलत के मारे

(१२०)
क्या सोवत गफलत के मारे, जाग जाग मन मेरे।
अन्तकाल संगी ना होगा, संग न चल कोउ तेरे॥१॥
यह धन धाम कुटुम्ब कबीला, सब स्वारथ के चेरे।
अपने-अपने सुख के साथी, हेर न कोउ सुख तेरे॥२॥
तन-मन सुख है ना सुख तेरो, आतम सुख निज तेरे।
तूतन-मन सुख निज कै जान्यो, भयो काल को चेरे॥३॥
दृढ़ परतीत प्रीत करि गुरु से, कर सत्संग सबेरे।
या विधि भव फंदा कटि जैहैं, 'मेँहीँ' कहत हित हेरे॥४॥

3. क्षेत्र क्षर अक्षर के पार में

(४३)
क्षेत्र क्षर अक्षर के पार में, परमालौकिक जेह।
मेँहीँ अन्तर वृत्ति करिके, भजहु निशि दिन तेह॥१॥
युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोक से, चीरि तेजस विन्दु।
सुनो अन्दर नाद ही, लखो सूर्य तारे इन्दु॥२॥
विहंग मीनी चाल चलि ज्यों, सरित सों सरित समाहिं।
त्यों नाद सों नादों में चलि, प्रभु पास भक्तन जाहिं॥३॥
संतों का मेँहीँ मार्ग यह, 'मेँहीँ' सुनो दे कान।
यहि परा भक्ति प्रसिद्ध मार्गहिं, धारु हिय धरि ध्यान॥४॥