(४) छप्पय
जय-जय परम प्रचंड, तेज तम-मोह-विनाशन।
जय-जय तारण तरण, करन जन शुद्ध बुद्ध सन॥
जय-जय बोध महान, आन कोउ सरवर नाहीं।
सुर नर लोकन माहिं, परम कीरति सब ठाहीं॥
सतगुरु परम उदार हैं, सकल जयतिजय-जय करें।
तम अज्ञान महान् अरु, भूल-चूक-भ्रम मम हरें॥१॥
जय-जय ज्ञान अखण्ड, सूर्य भव-तिमिर-विनाशन।
जय-जय-जय सुख रूप, सकल भव-त्रास-हरासन॥
जय-जय संसृति-रोग-सोग, को वैद्य श्रेष्ठतर।
जय-जय परम कृपाल, सकल अज्ञान चूक हर॥
जय-जय सतगुरु परम गुरु, अमित-अमित परणाम मैं।
नित्य करूँ, सुमिरत रहूँ , प्रेम-सहित गुरु नाम मैं॥२॥
जयति भक्ति-भंडार, ध्यान अरु ज्ञान-निकेतन।
योग बतावनिहार, सरल जय-जय अति चेतन॥
करनहार बुधि तीव्र, जयति जय-जय गुरु पूरे।
जय-जय गुरु महाराज, उक्ति-दाता अति रूरे॥
जयति-जयति श्री सतगुरू, जोड़ि पाणि युग पद धरौं।
चूक से रक्षा कीजिये, बार-बार विनती करौं॥३॥
भक्ति योग अरु ध्यान को, भेद बतावनिहारे।
श्रवण मनन निदिध्यास, सकल दरसावनिहारे॥
सतसंगति अरु सूक्ष्म वारता, देहिं बताई।
अकपट परमोदार न कछु, गुरु धरें छिपाई॥
जय-जय-जय सतगुरु सुखद, ज्ञान संपूरण अंग सम।
कृपा-दृष्टि करि हेरिये, हरिय युक्ति बेढंग मम॥४॥