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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( घ / 4)

1. घट बिच अजब तमाशा (चैत )

(५६) चैत
घट बिच अजब तमाशा॥ टेक॥
अधर भूमि पर सुरत जमा के देखो अजब प्रकाशा॥१॥
लखतहिं बने ना कहि सुनि मिले करु निज घट की तलाशा॥२॥
घटहि में सरगुण घटही में निरगुण घट ही में सत पद वासा॥३॥
नहिं परतीत तो गुरु हरि सेवो आपा अरपि बनो दासा॥४॥
जाहिर जहूर सतगुरु देवि साहब भेद बतावयँ खासा॥५॥
'मेँहीँ'कहत सुनो जो शरण गहैं लहैं निज घट के विलासा॥६॥

2. घट बीच अजब तमाशा

(५७)
घट बीच अजब तमाशा, हे साधो, घट बीच अजब तमाशा॥
घट की काली घटा में स्थिर, तड़ित जड़ित परकाशा, हे साधो॥
घट में घट ता माहीँ घट है, तेहु घट में घट पासा, हे साधो॥
सगुण जड़ क्षर घट चारि चौथ में, चेतन अगुण तन खासा, हे साधो॥
'मेँहीँ' शब्द अनाहत सह प्रभु, घट-घट व्यापक पासा, हे साधो॥

3. घट-पट तिहू के पार में

(५५)
घट पट तिहू के पार में साईं बसै हिय अन्तरे।
जौं मिलन को चाहता चटपट से कर संग सन्त रे॥१॥
खटपट सभी मद मान को तज ले गुरु के मन्तरे।
पूरे गुरू का मन्त यहि झटपट निरख अभिअन्तरे॥२॥
बन्द कर पलकों को वो कर मन की छटपट अन्त रे।
मध्य सुखमन बिन्दु झलके लख ले वहँ से पन्थ रे॥३॥
घट पट तिहू के पार जाने का असल यहि पन्थ रे॥
माया की लटपट सब छुटे यहि राह से कहैं सन्त रे॥४॥
थिर होके चल यहि राह पर तम जोत तटपट अन्त रे।
करके धुन पट छट पिलो या टपके पावो कन्त रे॥५॥
देवि साहब की हिदायत मान ले गुणवन्त रे।
'मेँहीँ' कहै सुख शान्ति मिलिहैं भव का होइहैं अंत रे॥६॥

4. घटवा घोर रे अंधरी


(११९) कजली
घटवा घोर रे अंधारी श्रुति आँधरी भई॥१॥
सुधि बुधि भागी तम गुण लागी, गुरु ने सुधी दई।
टकुआ ताकन दिये बताई, तिल खुलि तिमिर फटी॥२॥
चमके तारा सुषमन द्वारा, सहस कमल लख री।
त्रिकुटी सूरज ब्रह्म दरस कर, सुरत शब्द रल री॥३॥
सद्‌गुरु साहब प्रभु को नायब, भेद प्रचारक री।
प्रभु के निर्मल भेद प्रचारैं, 'मेँहीँ' शरण धरी॥४॥