(५५)
घट पट तिहू के पार में साईं बसै हिय अन्तरे।
जौं मिलन को चाहता चटपट से कर संग सन्त रे॥१॥
खटपट सभी मद मान को तज ले गुरु के मन्तरे।
पूरे गुरू का मन्त यहि झटपट निरख अभिअन्तरे॥२॥
बन्द कर पलकों को वो कर मन की छटपट अन्त रे।
मध्य सुखमन बिन्दु झलके लख ले वहँ से पन्थ रे॥३॥
घट पट तिहू के पार जाने का असल यहि पन्थ रे॥
माया की लटपट सब छुटे यहि राह से कहैं सन्त रे॥४॥
थिर होके चल यहि राह पर तम जोत तटपट अन्त रे।
करके धुन पट छट पिलो या टपके पावो कन्त रे॥५॥
देवि साहब की हिदायत मान ले गुणवन्त रे।
'मेँहीँ' कहै सुख शान्ति मिलिहैं भव का होइहैं अंत रे॥६॥