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ध्यान-भजन-हीन, लहिहौ न प्रभु धन।
को कहाँ भये सुभक्त पढ़ि गाइ मात्र मन॥१॥
चित अति चंचल, विषय-रत केवल।
सप्रेम भजन बल, होय न साधन बिन॥२॥
भजन ध्यान साधन, करि चित आपन।
बस करि छन-छन, प्रेम दृढ़ाउ जन॥३॥
राम नाम धुन धरि, प्रेम अति थिर करि।
भव दुख जाय टरि, अस नाम उपासन॥४॥
ध्यान अभ्यास करि नित, होय 'मेँहीँ' निज हित।
अति ही प्रसन्न चित्त, आपन साधन गुण॥५॥
ध्यान दर्पण गुण, अध्यानी अन्ध जाने न।
गुरु देवैं भेद अंजन, करु हेरि ही नयन॥६॥