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छन छन पल पल, समय सिरावे,
नर-तन दुर्लभ, फिर नहिं पावे॥१॥
धन जन परिजन, सहित आपन तन,
सब छाड़ि जैहो काम अन्त न आवे॥२॥
दुर्लभ मानुष तन, करिये गुरु भजन,
बिना रे भजन व्यर्थजनम नसावे॥३॥
गुरु गुरु जपु नाम, गुरु ध्यान धरु राम,
गुरु-पद-नख-मणि सन्मुख लखावे॥४॥
पद-नख-विन्दु धरि, मन दृष्टि थिर करि,
नखतेन्दु भानुमय गुरु रूप पावे॥५॥
यहि विधि ध्यान धरि, दिव्य दृष्टि करि करि,
रामनाम सार धुन गुरु परखावे॥६॥
गुरु ही सो शब्द रूप, शान्तिप्रद औ अनूप,
'मेँहीँ' यही विधि गुरु भजि मोक्ष पावे॥७॥