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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( ब / 2)

1. बार-बार करुँ वीनती

(२६)
बार-बार करुँ वीनती, गुरु साहब आगे।
कृपादृष्टि हेरिय गुरू, चित चरणन लागे॥१॥
अति दयाल दे चित्त सुनो, मम हाल मलीना।
या जग मो सम और ना, दुख-दूषण-भीना॥२॥
चहुँ खानिन में बार बहु, भरमेउँ अज्ञाना।
असीम यातना सहेउँ, तुम पद नहिं चीना॥३॥
अब गुरु दाता कृपा करी, दीन्हों नर देही।
अजहूँ फिरउँ भुलान, काल के मारग में ही॥४॥
तुम बिन ऐसो कोउ ना,सुनु सतगुरु पूरे।
काल-राह से घैंचि के, मोहि करिहैं दूरे॥५॥
काम-लहरि तें माति के, करुँ आनहिं आना।
अन्ध होइ भोगन फँसूँ, सत पंथ भुलाना॥६॥
क्रोध-अगिन में नित जलूँ , नहिं समझउँ काहू।
मात पिता अरु हितहु से, चलुँ टेढ़ी राहू॥७॥
लोभ-कुण्ड में पैठि के, करुँ नित जो कर्मा।
पापरूप दृष्टी भई, कछु सूझ न धर्मा॥८॥
सतगुरु दानि दयाल हो, सुनिये अब मेरी।
अन्ध होइ दुख बहु सहूँ, करु दृष्टि उजेरी॥९॥
तुम बिन दाता कोउ ना, सब सन्त बखानें।
दृष्टि दान मोहि दीजिये, मेटिय अन्ध खानें॥१०॥
और अमित सुनि लीजिये, मोरी अघ करनी।
जेहि वश सकउँ न दृढ़ धरी, तुम्हरी सत शरणी॥११॥
मोह-दुर्ग ते स्वपनेहु, नहिं बाहर जाऊँ।
जाते दुःख अगणित सहूँ, नहिं छूटन पाऊँ॥१२॥
दया करो दाता मेरे, तुम बन्दी-छोरा।
यह सब बन्दी छोड़िये, बहु करौं निहोरा॥१३॥
अहंकार तेमस्त होइ, मैं-मोरि बखानौं।
या विधि हठ वश मान में, नहिं काहू जानौं॥१४॥
करौं अनेक कुचाल प्रभु, कत कहौं बखानी।
तुव सेवा की चाल सभे, मम हिये भुलानी॥१५॥
निज अवगुण जत सबन को, नहिं परखन पाऊँ।
तुम सतगुरु सर्वज्ञ हो, जानहु सब ठाऊँ॥१६॥
मम अन्तर अघ जानि के, सब देहु मिटाई।
अघनाशन दाया करो, अघ देहु नसाई॥१७॥
गुनह मोटरी सिर मेरे, तौलत कठिनाई।
या तर दबि अब मरत हौं, बिन तुम्हरि सहाई॥१८॥
नहिं सहाइ तुम बिन कोइ, सुनु सतगुरु दाता।
गुनह मोटरी फेंकिये, दइ मो सिर लाता॥१९॥
अघ औगुण मति संग से, मम दृष्टि मलीना।
दया करो साईं मेरे, मोहि जानिय दीना॥२०॥
तुम बिनु कोउ नहिं अमल करै, दृष्टी कहँ साईं।
दया धार बरषा करी, देहु दृष्टि बनाई॥२१॥
दया प्रेम बरषा करो, हो प्रेम सरूपा।
प्रेम नाम सतनाम की, मोहि मिलवहु रूपा॥२२॥ 

2. बिना गुरु की कृपा पाये

(१११)
बिना गुरु की कृपा पाये, नहीं जीवन उधारा है॥टेक॥
फँसी श्रुति आइ यम फाँसी, अयन सुधि आपनी नाशी,
भई भव सोग की वासी, कठिन जहँ ते उधारा है॥१॥
गुरु निज भेद बतलावैं, सुरत को राह दरसावैं,
जीव-हित आपही आवैं, सुरत को आइ तारा है॥२॥
गुरू हितु हैं गुरू पितु हैं, गुरू ही जीव के मितु हैं,
गुरु सम कोइ नहिं दूजा, जो जीवों को उधारा है॥३॥
गुरू की नित्त कर पूजा, जगत इन सम नहीं दूजा,
'मेँहीँ' को आन नहिं सूझा, फकत गुरु ही अधारा है॥४॥