ऐन महल पट बन्द कै, चलु सुखमन घाटी हो॥ टेक॥
दृष्टि डोरि स्थिर रहे, तम बिचहि में फाटी हो।
खुले राह असमान की, टूटय भ्रम टाटी हो॥१॥
ज्योति मण्डल धँसि धाय के, निरखत वैराटी हो।
धुर धुन गहि लहि परम पद, बन्धन लेहु काटी हो॥२॥
सन्तन की यह राज रही, भेख भर्म से पाटी हो।
'मेँहीँ'देवी साहब दया, दीन्हीं भ्रम काटी हो॥३॥