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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( अ / 8)

1. अज अद्वैत पूरन ब्रह्म पर की

अज अद्वैत पूरण ब्रह्म पर की। 
आरति कीजै आरत हर की॥१॥
अखिल विश्व भरपुर अरु न्यारो।
कछु नहिं रंग न रेख अकारो॥२॥
घट घट बिन्दु बिन्दु प्रति पूरन।
अति असीम नजदीक न दूर न॥३॥
वाष्पिय तरल कठिनहू नाहीं।
चिन्मय पर अचरज सब ठाहीं॥४॥
अति अलोल अलौकिक एक सम।
नहिं विशेष नहिं होवत कछु कम॥५॥
नहिं शब्द तेज नहीं अँधियारा।
स्वसंवेद्य अक्षर क्षर न्यारा॥६॥
व्यक्त अव्यक्त कछु कहि नहिं जाई।
बुधि अरु तर्क न पहुँचि सकाई॥७॥
अगम अगाधि महिमा अवगाहा।
कहन में नाहीं कहिये काहा॥८॥
करै न कछु कछु होय न ता बिन।
सबकी सत्ता कहै अनुभव जिन॥९॥
घट-घट सो प्रभु प्रेम सरूपा।
सबको प्रीतम सबको दीपा॥१०॥
सोइ अमृत ततु अछय अकारा।
घट कपाट खोलि पाइये प्यारा॥११॥
दृष्टि की कुंजी सुष्मन द्वारा।
तम कपाट तीसर तिल तारा॥१२॥
खोलिये चमकि उठे ध्रुव तारा।
गगन थाल भरपूर उजेरा॥१३॥
दामिनि मोती झालरि लागी।
सजै थाल विरही वैरागी॥१४॥
स्याही सुरख सफेदी रंगा।
जरद जंगाली को करि संगा॥१५॥
ये रंग शोभा थाल बढ़ावैं।
सतगुरु सेइ-सेइ भक्तन पावैं॥१६॥
अचरज दीप-शिखा की जोती।
जगमग-जगमग थाल में होती॥१७॥
असंखय अलौकिक नखतहु तामें।
चन्द औ सूर्य अलौकिक वामें॥१८॥
अस ले थाल बजाइये अनहद।
अचरज सार शब्द हो हदहद॥१९॥
शम दम धूप करै अति सौरभ।
पुष्प माल हो यम नीयम सभ॥२०॥
अविरल भक्ति की प्रीति प्रसादा।
भोग लगाइय अति मर्यादा॥२१॥
प्रभु की आरति या विधि कीजै।
स्वसंवेद्य आतम पद लीजै॥२२॥
अकह लोक आतम पद सोई।
पहुँचि बहुरि आगमन न होई॥२३॥
सन्तन कीन्हीं आरति एही।
करै न परै बहुरि भव 'मेँहीँ'॥२४॥

2.अति पावन गुरु मन्त्र

अति पावन गुरु मंत्र मनहिं मन जाप जपो।
उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो॥१॥
देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू।
गुरु में करैं निवास कहत हैं संत सभू॥२॥
प्रभहू से गुरु अधिक जगत विखयात अहैं।
बिनु गुरु प्रभु नहिं मिलैं यदपि घट माँहि रहैं॥३॥
उर माँहीं प्रभु गुप्त अन्धेरा छाइ रहै।
गुरु गुर करत प्रकाश प्रभू को प्रत्यक्ष लहै॥४॥
हरदम प्रभु रहैं संग कबहुँ भव दुख न टरै।
भव दुख गुरु दें टारि सकल जय जयति करै॥५॥
तन मन धन को अरपि गुरू-पद सेव करो।
'मेँहीँ' आज्ञा पालि दुस्तर भव सुख से तरो॥६॥

3.अद्‌भुत अन्तर की डगरिया

अद्‌भुत अन्तर की डगरिया, जा पर चलकर प्रभु मिलते॥टेक॥
दाता सतगुरु धन्य धन्य जो, राह लखा देते।
चलत पन्थ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते॥१॥
अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते।
सुनत लखत सुख लहत अद्‌भुती, 'मेँहीँ' प्रभु मिलते॥२॥

4. अधः ऊर्ध्व अरु दायें बायें

अधः ऊर्ध्व अरु दायें बायें, पिच्छु पाँचो त्यागि।
षष्ट बीचो बिच एक निशान, दृष्टि की लागि॥१॥
उदित तेजस्‌ विन्दु में, पिलि चलो चाल विहंग।
तहाँ अनहद नाद धरि, चढ़ि चलो मीनी ढंग॥२॥
विहंग मीनी मार्ग दोउ से, चलो हे मन मीत।
मन हो उनमुन चढ़ि सुरत सुन, उठत ध्वनि उद्‌गीथ॥३॥
स्फोट ओ३म्‌ उद्‌गीथ सत ध्वनि, प्रणव नाद अखण्ड।
सृष्टि की ध्वनि आवरण में, गुप्त गुंज प्रचण्ड॥४॥
नाद से नादों में चलि धरु, प्रणव सत ध्वनि सार।
एक ओ३म्‌ सतनाम ध्वनि धरि, 'मेँहीँ' हो भव पार॥५॥

5. अधर डगर को सतगुरु भेद

चैत
अधर डगर को सद्‌गुरु भेद बतावै॥१॥
कज्जल केन्द्र सूई अग्र दर होई,
दृष्टि रथ चढ़ि श्रुति धावै॥२॥
प्रकाश मण्डल तजि शब्द समावै,
अचल अमर घर पावै॥ ३॥
'मेँहीँ' दास आस सद्‌गुरु की,
हरदम शीश नवावै॥ ४॥ 

6. अन्तर के अन्तिम तह में गुरु हैं

अन्तर के अंतिम तह में गुरु हैं, मन पता पाता नहीं।
नैनों के तिल में जोति उनकी, नजर में आता नहीं॥१॥
अंग संग हर वक्त रहता, प्रगट हो आता नहीं।
हो रहे हैरान सागिल, जल्द दिखलाता नहीं॥२॥
खोजते फिरते बहुत-से, इस जगत में जा-ब-जा।
अंतर के अंतिम तह के रह बिन, कोइ उसे पाता नहीं॥३॥
बिन दया संतन की 'मेँहीँ', जानना इस राह को।
हुआ नहीं होता नहीं, वो होनहारा है नहीं॥४॥

7. अपनी भगतिया सतगुरु साहब (बरसाती)

अपनी भगतिया सतगुरु साहब, मोहि कृपा करि देहु हो।
जुगन-जुगन भव भटकत बीते, अब भव बाहर लेहु हो॥१॥
पशु पक्षी कृमि आदिक योनिन, में भरमेउ बहु बार हो।
नर तन अबहिं कृपा करि दीन्हों, अब प्रभु करो उबार हो॥२॥
हरहु भव दुख देहु अमर सुख, सर्व दाता समरत्थ हो।
जो तुम चाहिहु होइहिं सोई, सब कुछ तुम्हरे हत्थ हो॥३॥
करहु अनुग्रह प्रीतम साहब, तुम अंशक मैं अंश हो।
तुम सूरज मैं किरण तुम्हारी, तुम वंशक मैं वंश हो॥४॥
मोहि तोहि इतनेहि भेद हो साहब, यहि भेद भव दुःख मूल हो।
करो कृपा नासो यहि भेदहिं, होउ अति ही अनुकूल हो॥५॥
आस त्रास भय भाव सकल ही, मम मन कर जत जाल हो।
सकल सिमिटि तुम्हरो पद लागे,'मेँहीँ' के यहि अर्ज हाल हो॥६॥

8. अव्यक्त अनादि अनन्त अजय

प्रातःकालीन नाम-संकीर्त्तन

अव्यक्त अनादि अनन्त अजय, अज आदि मूल परमातम जो।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धरा, जिनसे कहिये स्फोट है सो॥१॥
है स्फोट वही उद्‌गीथ वही, ब्रह्मनाद शब्दब्रह्म ओ३म्‌ वही।
अति मधुर प्रणव ध्वनि धार वही, है परमातम-प्रतीक वही॥२॥
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही, है सारशब्द सत्‌शब्द वही।
है सत्‌ चेतन अव्यक्त वही, व्यक्तों में व्यापक नाम वही॥३॥
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही, सर्व कर्षक हरि कृष्ण नाम वही।
है परम प्रचंडिनी शक्ति वही, है शिव-शंकर हर नाम वही॥४॥
पुनि रामनाम है अगुण वही, है अकथ अगम पूर्णकाम वही।
स्वर-व्यंजन रहित अघोष वही, चेतन ध्वनि-सिंधु अदोष वही॥५॥
है एक ओ३म्‌ सत्‌नाम वही, ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही।
******************* मुनि-सेवित गुरु का नाम वही।
भजो ऊँ ऊँ प्रभु नाम यही, भजो ऊँ ऊँ 'मेँहीँ' नाम यही॥६॥