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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( तवर्ग )

  1. तुम साहब रहमान हो रहम करो

1. तुम साहब रहमान हो रहम करो

(११) विनती (दोहा)
तुम साहब रहमान हो, रहम करो सरकार।
भव सागर में हौं पड़ो, खेइ उतारो पार॥१॥
भव सागर दरिया अगम, जुलमी लहर अनंत।
षट विकार की हर घड़ी, ऊठत होत न अंत॥२॥
इन लहरों की असर तें, गई सुबुद्धी खोइ।
प्रेम दीनता भजन-सँग, तीनहु बने न कोइ॥३॥
आप अपनपौ सब भुले, लहरों के ही हेत।
सो भूले कैसे लहौं, सुख जो शान्ती देत॥४॥
तेहि कारण अति गरज सों, अरज करौं गुरुदेव।
भव-जल लहरन बीच में, पकड़ि बाँह मम लेव॥५॥
बुद्धि शुद्धि कुछ भी नहीं, कहै क्या 'मेँहीँ दास'।
सतगुरु खुद जानैं सभै, बेगि पुराइय आस॥६॥
मेरे मुअलिज जगत में, सतगुरु बिन कोइ नाहिं।
तेहि कारण विनती करौं, हे सतगुरु तोहि पाहिं॥७॥

  1. त्राहि गुरु त्राहि गुरु

1. त्राहि गुरु त्राहि गुरु

(९३)
त्राहि गुरु त्राहि गुरु त्राहि गुरु कहु हो।
असार संसार सए गुरु बल तरु हो॥१॥
असार संसार मधे दुख भरपूर हो।
गुरु कृपा बिन होय कबहुँ न दूर हो॥२॥
गुरु कृपा होय भाई होय दुख नाश हो।
स्थूल सूक्ष्म कारण झड़ए सब फाँस हो॥३॥
मन में विचार 'मेँहीँ' प्रभु तेरे साथ हो।
गुरु बिना कभुँ नाहीं पाउ सोइ नाथ हो॥४॥

  1. दया प्रेम सरूप सतगुरु
  2. दिन बीतत जावे, आयु खुटावे

1. दया प्रेम सरूप सतगुरु

(२४) छन्द
दया प्रेम सरूप सतगुरु, मोरि विनती मानिये।
मैं अधम कामी कुलच्छन, मलिन मति मोहि जानिये॥१॥
पर दुख दुखी तुव भक्त गुण, पुनि पर सुखी भक्तहु सुखी।
अस मैं नहीं सपनेहु कभुँ , मैं दुखद करुँ सब जग दुखी॥२॥
परदार परधन पर कभँू, नहिं भक्त निज मन फेरहीं।
मम मन फिरै तिन्ह पर सदा, कोइ कोटि कोटिन घेरहीं॥३॥
दया क्षमा संयुक्त भक्तन्ह, रहैंशीतल सर्वदा।
अति दयाहीन कठोर हूँ मैं, तपउँ अगनी सम सदा॥४॥
कहँ लगि कहुँ निज मति की उलटी, रीति प्रभु सुनि लीजिये।
तनि कहुँ जतन नाहीं मुझे, जेहि तुअ चरण चित दीजिये॥५॥
अस पाउँ सतसंग सिखबहू , चलुँ राह सोइ भक्तन्ह चलैं।
न तो जलत रहिहौं जगत में, सतगुरु-विमुख जहँ नित जलैं॥६॥
गुरु डरत हूँ अस सुनि सही, मन निज स्वभाव न त्यागई।
कभुँ निजउ देउँ सुसिखबहू, पर मनहिं कछु नहिं लागई॥७॥
हारे अहुँ मन ते गुरू, अब टेर के तुमको कहूँ।
हो दीनबन्धु दयाल सतगुरु, जतन सो करु पद गहूँ॥८॥
प्रकाश-मण्डल पद तुम्हारे, मैं पड़ा तम-कूप में।
अब त्राहि-त्राहि पुकार करुँ, गुरु ले चढ़ो दिव रूप में॥९॥
तिल राह होइ जो उठन कहेउ, सो राह मोहि दीखत नहीं।
गुरु करि दया हरि तम के मण्डल, पार तिल करु मोहि गही॥१०॥
तारा-मण्डल में चढ़ाओ, उठो ले दल सहस को।
जहँ ज्योति जगमग चन्द झलकत, गुरु दिखाओ रहस को॥११॥
त्रिकुटी तिहु गुण मूल घर, जहँ ब्रह्म पर राजत रहैं।
गुरु करउँ विनती चरण पड़ि, करु जतन जा या घर लहैं॥१२॥
यहँ सुरज ब्रह्म-प्रकाश गुरु, पुनि ले चलो येहि आगरे।
जहँ शुद्ध ब्रह्म विराजते, रहि सुन्न देश उजागरे॥१३॥
मानसरवर ले धँसो मोहि, दो धरा निज नाम ही।
निज नाम पूरण काम अमृत, धार सार सो नाम ही॥१४॥
पुनि देहु बल चढ़ुँ महासुन्नहिं, अवर बल ते तरन को।
भँवर गुफा में चढ़ा पुनि, जहँ न भवभय टरन को॥१५॥
करि कृपा तहँ चढ़न को बल, सतगुरू मोहि दीजिये।
यहि सतलोक में आनिके गुरु, मोहि निर्मल कीजिये॥१६॥
पुनि नाम निर्गुण पार करिके, अनाम धाम मिलाइये।
यहि भाँति निज घर लाइ मोहि, प्रभु निज कृपा दरसाइये॥१७॥ 

2. दिन बीतत जावे, आयु खुटावे

(१२५)
दिन बीतत जावे, आयु खुटावे,
भजो भजो प्रभु नाम॥१॥
परिजन धन सारा, सुत वित दारा,
नहिं आवै कोउ काम॥२॥
निज तन छुटि जावे, काम न आवे,
यह जग दुख को धाम॥३॥
सब विषय पसारा, भव की जारा,
या में नहिं आराम॥४॥
प्रभु केवल साँचा, अरु सब काँचा,
भजो प्रभु को प्रति याम॥५॥
अन्तर-पथ चालो, प्रभु को पा लो,
प्रभु बिनु नहिं विश्राम॥६॥
गुरु भेद लो सारा, खोलो द्वारा,
'मेँहीँ' पहुँच प्रभु धाम॥७॥

  1. ध्यान भजन हीन, लहिहौ न प्रभु धन
  2. ध्यानाभ्यास करो सद सदही

1. ध्यान भजन हीन, लहिहौ न प्रभु धन

(१३०)
ध्यान-भजन-हीन, लहिहौ न प्रभु धन।
को कहाँ भये सुभक्त पढ़ि गाइ मात्र मन॥१॥
चित अति चंचल, विषय-रत केवल।
सप्रेम भजन बल, होय न साधन बिन॥२॥
भजन ध्यान साधन, करि चित आपन।
बस करि छन-छन, प्रेम दृढ़ाउ जन॥३॥
राम नाम धुन धरि, प्रेम अति थिर करि।
भव दुख जाय टरि, अस नाम उपासन॥४॥
 ध्यान अभ्यास करि नित, होय 'मेँहीँ' निज हित।
अति ही प्रसन्न चित्त, आपन साधन गुण॥५॥
ध्यान दर्पण गुण, अध्यानी अन्ध जाने न।
गुरु देवैं भेद अंजन, करु हेरि ही नयन॥६॥

2. ध्यानाभ्यास करो सद सदही

(३३) कहरा
ध्यानाभ्यास करो सद सदही, चातक दृष्टि बनाई हो।
लखत लखत छवि बिन्दु प्रभू की, ज्योति मंडल धँसि धाई हो॥१॥
राम नाम धुन सतधुन सारा, शब्द केन्द्र तें आई हो।
ता धुन भजत मिलो प्रभु से निज, आवागमन नसाई हो॥२॥
गुरु की भक्ति साधु की सेवा, बिनु नहिं कछुहू पाई हो।
याते भजो गुरू गुरु नित ही, रहो चरण लौ लाई हो॥३॥
विन्दु चन्द तब सूर प्रकाशे, शब्द-लहर लहराई हो।
जो अति सिमिटि रहै सुखमन में, ताको पड़ै जनाई हो॥४॥
'मेँहीँ' सतगुरु की बलिहारी, जिन यह युक्ति बताई हो॥
धन्य-धन्य सतगुरु मेरे पूरे, निसदिन तुव शरणाई हो॥५॥

  1. नमामी अमित ज्ञान रूपं कृपालं
  2. नहीं थल नहीं जल
  3. नाहिंन करिये जगत सों प्रीती
  4. निज तन में खोज सज्जन
  5. नित प्रति सत्संगकर ले प्यारा
  6. नैन सों नैनहिं देखिय जैसे
  7. नैनों के तारे चश्म रोशन
  8. नोकते सफेद सन्मुख

1. नमामी अमित ज्ञान रूपं कृपालं

(१४) सद्‌गुरु-स्तुति
नमामी अमित ज्ञान, रूपं कृपालं।
अगम बोध दाता, सुबुधि निधि विशालं॥१॥
क्षमाशील अति धीर , गंभीर ज्ञानं।
धरम कील दृढ़ थीर, सम धीर ध्यानं॥२॥
जगत्‌-त्राणकारी, अघारी उदारं।
भगत प्राण रूपं, दया गुण अपारं॥३॥
नमो सत्‌गुरुं, ज्ञान दाता सुस्वामी।
नमामी नमामी, नमामी नमामी॥४॥
हरन भर्म भूलं, दलन पाप मूलं।
करन धर्म पूलं, हरन सर्व शूलं॥५॥
जलन भव विनाशन, हनन कर्म पाशन।
तनन आश नाशन, गहन ज्ञान भाषण॥६॥
युगल रत्न पुरुषार्थ परमार्थ दाता।
दया गुण सुमाता, अमर रस पिलाता॥७॥
नमो सत्‌गुरुं सर्व, पूज्यं अकामी।
नमामी नमामी, नमामी नमामी॥८॥
सरब सिद्धि दाता, अनाथन को नाथा।
सुगुण बुधि विधता, कथक ज्ञान गाथा॥९॥
परम शांतिदायक, सुपूज्यन को नायक।
परम सत्सहायक, अधर कर गहायक॥१०॥
महाधीर योगी, विषय-रस-वियोगी।
हृदय अतिअरोगी, परम शान्ति-भोगी॥११॥
नमो सद्‌गुरुं सार, पारस सुस्वामी।
नमामी नमामी, नमामी नमामी॥१२॥
महाघोर कामादि दोषं विनाशन।
महाजोर मकरन्द मन बल हरासन॥१३॥
महावेग जलधार, तृष्णा सुखायक।
महासुक्ख भण्डार, सन्तोष दायक॥१४॥
महा शांति-दायक, सकल गुण को दाता।
महा मोह-त्रासन, दलन धर सुगाता॥१५॥
नमो सद्‌गुरुं, सत्य धर्मं सुधामी।
नमामी नमामी, नमामी नमामी॥१६॥
जो दुष्टेन्द्रियन नाग गण विष अपारी।
हैं सद्‌गुरु सुगारुड़, सकल विष संघारी॥१७॥
महा मोह घनघोर, रजनी निविड़ तम।
हैं सद्‌गुरु वचन दिव्य सूरज किरण सम॥१८॥
महाराज सद्‌गुरु हैं, राजन को राजा।
हैं जिनकी कृपा से सरैं सर्व काजा॥१९॥
भने 'मेँहीँ' सोई परम गुरु नमामी।
नमामी नमामी, नमामी नमामी॥२०॥ 

2. नहीं थल नहीं जल

(४२) आत्मा
नहीं थल नहीं जल नहीं वायु अग्नी।
नहीं व्योम ना पाँच तन्मात्र ठगनी॥
ये त्रय गुण नहीं नाहिं इन्द्रिन चतुर्दश।
नहिं मूल प्रकृति जो अव्यक्त अगम अस॥
सभी के परे जो परम तत्त्व रूपी।
सोई आत्मा है सोई आत्मा है॥१॥
न उद्‌भिद्‌ स्वरूपी न उष्मज स्वरूपी।
न अण्डज स्वरूपी न पिण्डज स्वरूपी॥
नहीं विश्व रूपी न विष्णु स्वरूपी।
न शंकर स्वरूपी न ब्रह्मा स्वरूपी॥ सभी के०॥२॥
कठिन रूप ना जो तरल रूप ना जो।
नहीं वाष्प को रूप तम रूप ना जो॥
नहीं ज्योति को रूप शब्दहु नहीं जो।
सटै कुछ भी जा पर सोऊ रूप ना जो॥ सभी के०॥३॥
न लचकन न सिकुड़न न कम्पन है जामें।
न संचालना नाहिं विस्तृत्व जामें॥
है अणु नाहिं परमाणु भी नाहिं जामें।
न रेखा न लेखा नहीं विन्दु जामें॥ सभी के०॥४॥
नहीं स्थूल रूपी नहीं सूक्ष्म रूपी।
न कारण स्वरूपी नहीं व्यक्त रूपी॥
नहीं जड़ स्वरूपी न चेतन स्वरूपी।
नहीं पिण्ड रूपी न ब्रह्माण्ड रूपी॥ सभी के०॥५॥
है जल थल में जोइ पै जल थल है नाहीं।
अगिन वायु में जो अगिन वायु नाहीं॥
जो त्रयगुण गगन में न त्रयगुण अकाशा।
जो इन्द्रिन में रहता न होता तिन्हन सा॥ सभी के०॥६॥
मूल माया की सब ओर अरु ओत प्रोतहु।
भरो जो अचल रूप कस सो सुजन कहु॥
भरो मूल माया में नाहीं सो माया।
अव्यक्त हू को जो अव्यक्त कहाया॥ सभी के०॥७॥
ब्रह्मा महाविष्णु विश्वरूप हरि हर।
सकल देव दानव रु नर नाग किन्नर॥
स्थावर रु जंगम जहाँ लौं कछू है।
है सब में जोई पर न तिनसा सोई है॥ सभी के०॥८॥
जो मारे मरै ना जो काटे कटै ना।
जो साड़े सड़ै ना जो जारे जरै ना॥
जो सोखा ना जाता सोखे से कछू भी।
नहीं टारा जाता टारे से कछू भी॥ सभी के०॥९॥
नहीं जन्म जाको नहीं मृत्यु जाको।
नहीं बाल यौवन जरापन है जाको॥
जिसे नाहिं होती अवस्था हू चारो।
नहीं कुछ कहाता जो वर्णहु में चारो॥ सभी के०॥१०॥
कभी नाहिं आता न जाता है जोई।
कभी नाहिं वक्ता न श्रोता है जोई॥
कभी जो अकर्त्ता न कर्त्ता कहाता।
बिना जिसके कुछ भी न होता बुझाता॥ सभी के०॥११॥
कभी ना अगुण वा सगुण ही है जोई।
नहीं सत्‌ असत्‌ मर्त्य अमरहु ना जोई॥
अछादन करनहार अरु ना अछादित।
न भोगी न योगी नहीं हित न अनहित॥ सभी के०॥१२॥
त्रिपुटी किसी में न आवै कभी भी।
औ सापेक्ष भाषा न पावै कभी भी॥
ओंकार शब्दब्रह्म हू को जो पर है।
हत अरु अनाहत सकल शब्द पर है॥ सभीके०॥१३॥
जो टेढ़ों में रहकर भी टेढ़ा न होता।
जो सीधों में रहकर भी सीधा न होता॥
जो जिन्दों में रहकर न जिन्दा कहाता।
जो मुर्दों में रहकर न मुर्दा कहाता॥ सभी के०॥१४॥
भरो व्योम से घट फिरै व्योम में जस।
भरो सर्व तासों फिरै ताहि में तस॥
नहीं आदि अवसान नहिं मध्य जाको।
नहीं ठौर कोऊ रखै पूर्ण वाको॥ सभी के०॥१५॥
हैं घट मठ पटाकाश कहते बहुत-सा।
न टूटै रहै एक ही तो अकाशा॥
है तस ही अमित चर अचर हू को आतम।
कहैं बहु न टूटै न होवै सो बहु कम॥ सभी के०॥१६॥
न था काल जब था वरतमान जोई।
नहीं काल ऐसो रहेगा न ओई॥
मिटैगा अवस काल वह ना मिटैगा।
है सतगुरु जो पाया वही यह बुझेगा॥ सभी के०॥१७॥
सरव श्रेष्ठ तनधर की भी बुधि नगहती।
जो ऐसो अगम सन्तवाणी ये कहती॥
करै पूरा वर्णन तिसे 'मेँहीँ' कैसे।
है कंकड़-वणिक कहै मणि-गुण को जैसे॥ सभी के०॥१८॥

3. नाहिंन करिये जगत सों प्रीती

(१२२) होली
नाहिंन करिये जगत सों प्रीती॥टेक॥
जगत अथाह भयंकर भवनिधि, जहँ सब दुख की रीती।
जहँ सब भूल भुलावन कौतुक, समुझि पड़े नहिं नीती॥
रहे जहँ छाई अनीती॥१॥
छनहिं फुलावत छन मुरझावत, जगत-विटप की रीती।
और फरत फल हरष-शोक दोइ, डार-पात विपरीती॥
जो चाहै तिसै यम जीती॥२॥
संतन जगत भयंकर करनी, जानिसिखावय नीती।
कहैं कृपा से सुनो हो जिवन प्रिय, यह जग भरमक भीती॥
तजत यहि दुख जाइ जीती॥३॥
सन्त वर्त्तमान बाबा देवी साहब, घट पट की सब रीती।
कहै 'मेँहीँ' कह जानहु जिव सब, तजि सकिहौ भर्म भीती॥
अरु यमहु को लैहौ जीती॥४॥

4. निज तन में खोज सज्जन

(५४)
निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना॥१॥
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना॥२॥
तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना॥३॥
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना॥४॥
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं।
गुरु की कृपा से 'मेँहीँ', तहँ पहुँचि खोजना॥५॥

5. नित प्रति सत्संग कर ले प्यारा

(१३४)
नित प्रति सत्संग कर ले प्यारा, तेरा कार सरै सारा।
सार कार्य को निर्णय करके, धर चेतन धारा॥१॥
धर चेतन धारा, पिण्ड के पारा, दशम दुआरे का।
जोति जगि जावै, अति सुख पावै, शब्द सहारे का॥२॥
लख विन्दु-नाद तहँ त्रै बन्द दै के सुनो सुनो 'मेँहीँ'।
ब्रह्म-नाद का धरो सहारा आपन तनमेँहीँ॥३॥

6. नैन सों नैनहिं देखिय जैसे

(४०)
नैन सों नैनहिं देखिय जैसे।
त्वचहिं त्वचा सुख पाइये जैसे॥१॥
आत्म परमात्महिं पेखै तैसे।
आत्म परमात्म मिलन सुख तैसे॥२॥
यह दरस परस अति दुर्लभ बात।
बुद्धि परे मन पर की बात॥३॥
ध्यावै अति लौ लावै जोइ।
अरु सदाचार पालै दृढ़ होइ॥४॥
सो 'मेँहीँ' सो दुर्लभ पावै।
नहिं फिर भव महँ भटका खावै॥५॥ 

7. नैनों के तारे चश्म रोशन

(३४)
नैनों के तारे चश्म रोशन क्यों नजर आते नहीं।
रूह रोशन आत्म भूषण क्यों पकड़ जाते नहीं॥१॥
नख से सिख लौं बिन्दु प्रति में तुम रमे हो हे प्रभो।
प्रति पकड़ में तुम भरे हो क्यों धरे जाते नहीं॥२॥
सर्व रूपी हो कहाते फिर अरूपी हो गये।
सूक्ष्मतर मन बुद्धि हू से क्यों गहे जाते नहीं॥३॥
प्रति अंश में अंतर व बाहर घट के व्यापक व्योम ज्यों।
त्योंहि तुम हू सर्वव्यापक क्यों प्रकट होते नहीं॥४॥
तुम में निज में भेद बुद्धी को जो सकते हैं मिटा।
वह तुम्हीं तुम वही 'मेँहीँ' प्रश्न पुनि रहते नहीं॥५॥ 

8. नोकते सफेद सन्मुख

(६७)
नोकते सफेद सन्मुख झलके झला झली।
शहरग में नजर थिर कर तज मन की चंचली॥१॥
सन्तों ने कही राह यही शान्ति की असली।
शान्ति को जो चाहता तज और जो नकली॥२॥
यह जानता कोइ राजदाँ गुरु की शरण जो ली।
इनके सिवा न आन जो मद मान चलन ली॥३॥
अति दीन होके जिसने सत्संग सुमति ली।
अपने को सोई 'मेँहीँ' गुरु शरण में कर ली॥४॥