(४२) आत्मा
नहीं थल नहीं जल नहीं वायु अग्नी।
नहीं व्योम ना पाँच तन्मात्र ठगनी॥
ये त्रय गुण नहीं नाहिं इन्द्रिन चतुर्दश।
नहिं मूल प्रकृति जो अव्यक्त अगम अस॥
सभी के परे जो परम तत्त्व रूपी।
सोई आत्मा है सोई आत्मा है॥१॥
न उद्भिद् स्वरूपी न उष्मज स्वरूपी।
न अण्डज स्वरूपी न पिण्डज स्वरूपी॥
नहीं विश्व रूपी न विष्णु स्वरूपी।
न शंकर स्वरूपी न ब्रह्मा स्वरूपी॥ सभी के०॥२॥
कठिन रूप ना जो तरल रूप ना जो।
नहीं वाष्प को रूप तम रूप ना जो॥
नहीं ज्योति को रूप शब्दहु नहीं जो।
सटै कुछ भी जा पर सोऊ रूप ना जो॥ सभी के०॥३॥
न लचकन न सिकुड़न न कम्पन है जामें।
न संचालना नाहिं विस्तृत्व जामें॥
है अणु नाहिं परमाणु भी नाहिं जामें।
न रेखा न लेखा नहीं विन्दु जामें॥ सभी के०॥४॥
नहीं स्थूल रूपी नहीं सूक्ष्म रूपी।
न कारण स्वरूपी नहीं व्यक्त रूपी॥
नहीं जड़ स्वरूपी न चेतन स्वरूपी।
नहीं पिण्ड रूपी न ब्रह्माण्ड रूपी॥ सभी के०॥५॥
है जल थल में जोइ पै जल थल है नाहीं।
अगिन वायु में जो अगिन वायु नाहीं॥
जो त्रयगुण गगन में न त्रयगुण अकाशा।
जो इन्द्रिन में रहता न होता तिन्हन सा॥ सभी के०॥६॥
मूल माया की सब ओर अरु ओत प्रोतहु।
भरो जो अचल रूप कस सो सुजन कहु॥
भरो मूल माया में नाहीं सो माया।
अव्यक्त हू को जो अव्यक्त कहाया॥ सभी के०॥७॥
ब्रह्मा महाविष्णु विश्वरूप हरि हर।
सकल देव दानव रु नर नाग किन्नर॥
स्थावर रु जंगम जहाँ लौं कछू है।
है सब में जोई पर न तिनसा सोई है॥ सभी के०॥८॥
जो मारे मरै ना जो काटे कटै ना।
जो साड़े सड़ै ना जो जारे जरै ना॥
जो सोखा ना जाता सोखे से कछू भी।
नहीं टारा जाता टारे से कछू भी॥ सभी के०॥९॥
नहीं जन्म जाको नहीं मृत्यु जाको।
नहीं बाल यौवन जरापन है जाको॥
जिसे नाहिं होती अवस्था हू चारो।
नहीं कुछ कहाता जो वर्णहु में चारो॥ सभी के०॥१०॥
कभी नाहिं आता न जाता है जोई।
कभी नाहिं वक्ता न श्रोता है जोई॥
कभी जो अकर्त्ता न कर्त्ता कहाता।
बिना जिसके कुछ भी न होता बुझाता॥ सभी के०॥११॥
कभी ना अगुण वा सगुण ही है जोई।
नहीं सत् असत् मर्त्य अमरहु ना जोई॥
अछादन करनहार अरु ना अछादित।
न भोगी न योगी नहीं हित न अनहित॥ सभी के०॥१२॥
त्रिपुटी किसी में न आवै कभी भी।
औ सापेक्ष भाषा न पावै कभी भी॥
ओंकार शब्दब्रह्म हू को जो पर है।
हत अरु अनाहत सकल शब्द पर है॥ सभीके०॥१३॥
जो टेढ़ों में रहकर भी टेढ़ा न होता।
जो सीधों में रहकर भी सीधा न होता॥
जो जिन्दों में रहकर न जिन्दा कहाता।
जो मुर्दों में रहकर न मुर्दा कहाता॥ सभी के०॥१४॥
भरो व्योम से घट फिरै व्योम में जस।
भरो सर्व तासों फिरै ताहि में तस॥
नहीं आदि अवसान नहिं मध्य जाको।
नहीं ठौर कोऊ रखै पूर्ण वाको॥ सभी के०॥१५॥
हैं घट मठ पटाकाश कहते बहुत-सा।
न टूटै रहै एक ही तो अकाशा॥
है तस ही अमित चर अचर हू को आतम।
कहैं बहु न टूटै न होवै सो बहु कम॥ सभी के०॥१६॥
न था काल जब था वरतमान जोई।
नहीं काल ऐसो रहेगा न ओई॥
मिटैगा अवस काल वह ना मिटैगा।
है सतगुरु जो पाया वही यह बुझेगा॥ सभी के०॥१७॥
सरव श्रेष्ठ तनधर की भी बुधि नगहती।
जो ऐसो अगम सन्तवाणी ये कहती॥
करै पूरा वर्णन तिसे 'मेँहीँ' कैसे।
है कंकड़-वणिक कहै मणि-गुण को जैसे॥ सभी के०॥१८॥