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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( पवर्ग )

  1. पाँच नौबत बिरतन्त कहौं
  2. प्रथमहिं धरो गुरु को ध्यान
  3. प्रभु अकथ अनाम अनामय
  4. प्रभु अकथ अनामी सब पर स्वामी
  5. प्रभु अटल अकाम अनाम
  6. प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ
  7. प्रभु मिलने जो पथ धरि जाते
  8. प्रभु वरणन में आवैं नाहीं
  9. प्रेम-प्रीति चित चौक लगाये
  10. प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये

पाँच नौबत बिरतन्त कहौं

(४५) मंगल
पाँच नौबत बिरतन्त कहौं सुनि लीजिये।
भेदी भक्त विचारि सुरत रत कीजिये॥१॥
स्थूल सूक्ष्म सन्धि विन्दु पर परथम बाजई।
दुसर कारण सूक्ष्म सन्धि पर नौबत गाजई॥२॥
जड़ प्रकृति अरु विकृति सन्धि जोइ जानिये।
महाकारण अरु कारण सन्धि सोइ मानिये॥३॥
तिसरि नौबत यहि सन्धि पर सब छन बाजती।
महाकारण कैवल्य की सन्धि विराजती॥४॥
शुद्ध चेतन जड़ प्रकृति सन्धि यहि है सही।
यहँ की धुनि को चौथि नौबत हम गुनि कही॥५॥
निर्मल चेतन केन्द्र और ऊपर अहै।
परा प्रकृति कर केन्द्र सोइ अस बुधि कहै॥६॥
अत्यन्त अचरज अनुपम यहँ से बाजती।
पंचम नौबत 'मेँहीँ' संसृति बिसरावती॥७॥ 

प्रथमहिं धरो गुरु को ध्यान

(५८)
प्रथमहिं धारो गुरु को ध्यान।
हो श्रुति निर्मल हो बिन्दु ज्ञान॥१॥
दोउ नैना बिच सन्मुख देख।
इक बिन्दु मिलै दृष्टि दोउ रेख॥२॥
सुखमन झलकै तिल तारा।
निरख सुरत दशमी द्वारा॥३॥
जोति मण्डल में अचरज जोत।
शब्द मण्डल अनहद शब्द होत॥४॥
अनहद में धुन सत लौ लाय।
भव जल तरिबो यही उपाय॥५॥
'मेँहीँ' युक्ति सरल साँची।
लहै जो गुरु सेवा राँची॥६॥

प्रभु अकथ अनाम अनामय

(३७) कजली
प्रभु अकथ अनाम अनामय स्वामी, गो गुण प्रकृति परे॥ टेक॥
क्षर अक्षर प्रभु पार परमाक्षर, जा पद सन्त धरे।
अगुण सगुण पर पुरुष प्रकृति पर, सत्त असतहु परे॥१॥
अनन्त अपारा सार के सारा, जा भजि जीव तरे।
'मेँहीँ' कर जोरे प्रभुहिं निहोरे, करु उधार हमरे॥२॥ 

प्रभु अकथ अनामी सब पर स्वामी

(३५) ईश्वर-स्वरूप-निरूपण
प्रभु अकथ अनामी सब पर स्वामी, गो गुण प्रकृति परे॥१॥
हो सरब निवासी राम कहासी , सबही से न्यार हरे॥२॥
अव्यक्त अगोचर क्षर अक्षर पर, जो पद संत धरे॥३॥
हैं अनादि अनन्तं सर्व प्रिय कन्तं, व्यापक हैं सगरे॥४॥
प्रभु हैं सर्वदेशी और अदेशी, व्यापकपनहु परे॥५॥
'मेँहीँ' कर जोरे प्रभु को भजो रे, प्रभु भजि जीव तरे॥६॥

प्रभु अटल अकाम अनाम

(१२)
प्रभु अटल अकाम अनाम,
हो साहब पूर्ण धनी॥१॥ हो साहब०॥
अति अलोल अक्षर क्षर न्यारा,
शुद्धातम सुख धाम॥२॥ हो साहब०॥
अविगत अज विभु अगम अपारा ,
सत्य पुरुष सतनाम॥३॥ हो साहब०॥
सीम आदि मध अन्त विहीना,
सब पर पूरन काम॥४॥ हो साहब०॥
बरन विहीन, न रूप न रेखा,
नहिं रघुवर नहिं श्याम॥५॥ हो साहब०॥
सत रज तम पर पुरुष प्रकृति पर,
अलख अद्वैत अधाम॥६॥ हो साहब०॥
अगुण सगुण दोऊ तें न्यारा,
नहिं सच्चिदानन्द नाम॥७॥ हो साहब०॥
अखिल विश्व पुनि विश्वरूप अणु,
तुम में करें मुकाम॥८॥ हो साहब०॥
सब तुममें प्रभु अँटै होइ तुछ,
तुम अँटो सो नहिं ठाम॥९॥ हो साहब०॥
अति आश्चर्य अलौकिक अनुपम,
को कहि सक गुण ग्राम॥१०॥ हो साहब०॥
त्रिपुटी द्वन्द्व द्वैत से न्यारा,
लेश न माया नाम॥११॥ हो साहब०॥
करो न कछु कछु होय न तुम बिनु,
सबका अचल विराम॥१२॥ हो साहब०॥
महिमा अगम अपार अकथ अति,
बुद्धि होत हैरान॥१३॥ हो साहब०॥
अविरल अटल स्वभक्ति मोहि को,
दे पुरिये मन काम॥१४॥ हो साहब०॥

प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ

(३९)
प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ।
तन इन्द्रिन संग माया देखूँ,
मायातीत धरहु तुम नाऊँ॥१॥
मेधा मन इन्द्रिन गहें माया,
इन्हमें रहि माया लिपटाऊँ।
इन्द्रिन मन अरु बुद्धि परे प्रभु,
मैं न इन्हें तजि आगे धाऊँ॥२॥
करहु कृपा इन्ह संग छोड़ावहु,
जड़ प्रकृति कर पारहि जाऊँ।
'मेँहीँ' अस करुणा करि स्वामी,
देहु दरस सुख पाइ अघाऊँ॥३॥ 

प्रभु मिलने जो पथ धरि जाते

(१३१) कजली
प्रभु मिलने जो पथ धरि जाते, घट में बतलाये;
सन्तन घट में बतलाये॥टेक॥
प्रेमी भक्तन धर सो मारग, चलो चलो धाये;
सन्तन घट-पथ हो धाये॥१॥
अन्धकार अरु जोति शब्द, तीनों पट घट के से;
राह यह जावै है ऐसे॥२॥
जोति नाद का मार्ग बना यह, धरा जाय तिल से;
लो धर यत्न करो दिल से॥३॥
बाल नोक से मेँहीँ दर 'मेँहीँ' हो पथ पावें;
सन्त जन तामें धँसि धावें॥४॥

प्रभु वरणन में आवैं नाहीं

(३६)
प्रभु वरणन में आवैं नाहीं, अकथ अनामी अहैं सब माहीं॥१॥
प्रत्येक परमाणु अणु, लघु दीर्घ सर्व तनु,
प्रभु जी व्यापक जनु गगन रहाहीं॥२॥
दृश्यह्णरु अदृश्य सब, सहित प्रकृति भव,
प्रभु में अँटहि प्रभु अँटि न सकाहीं॥३॥
अनादि अनन्त प्रभु, निर अवयव विभु,
अछय अजय अति सघन रहाहीं॥४॥
गो गुण अगोचर, आत्म गम्य सूक्ष्म तर,
गुरु-भेद लहि भजि 'मेँहीँ' गति पाहीं॥५॥ 

प्रेम-प्रीति चित चौक लगाये

(१४३)
प्रेम प्रीति चित चौक लगाये। आसन प्रेम सुभग धरवाये॥
प्रेम डगर गुरु आनि बिठाये। प्रेम प्रेम जल पात्र मँगाये॥
प्रेम भाव कर चरण पखारे। चरणामृत ले सुरत सुधाये॥
पूरन भाग जगे अब आये। प्रेम थाल गुरु सन्मुख लाये॥
जा में प्रेम थाल भर पूरे। रुचि रुचि साहब भोग लगाये॥
प्रेम पान दे आरति उतारे। गुरु को प्रेम पलंग पौढ़ाये॥
बाबा सतगुरु देवी साहब। 'मेँहीँ' जपत प्रेम मन लाये॥

प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये

(९) अपराह्‌ण एवं सायंकालीन विनती

प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये, विनवौं कर जोड़ी।
पल-पल छोह न छोड़िये, सुनिये गुरु मोरी॥१॥
युग-युगान चहुँ खानि में, भ्रमि-भ्रमि दुख भूरी।
पाएउँ पुनि अजहूँ नहिं, रहुँ इन्हतें दूरी॥२॥
पल-पल मन माया रमे, कभुँ विलग न होता।
भक्ति भेद बिसरा रहे, दुख सहि-सहि रोता॥३॥
गुरु दयाल दया करी, दिये भेद बताई।
महा अभागी जीव के, दिये भाग जगाई॥४॥
पर निज बल कछु नाहिं है, जेहि बने कमाई।
सो बल तबहीं पावऊँ, गुरु होयँ सहाई॥५॥
दृष्टि टिकै श्रुति धुन रमै, अस करु गुरु दाया।
भजन में मन ऐसो रमै, जस रम सो माया॥६॥
जोत जगे धुनि सुनि पड़ै, श्रुति चढ़ै अकाशा।
सार धुन्न में लीन होइ, लहे निज घर वासा॥७॥
निजपन की जत कल्पना, सब जाय मिटाई।
मनसा वाचा कर्मणा, रहे तुम में समाई॥८॥
आस त्रास जग के सबै, सब वैर व नेहू।
सकल भुलै एके रहे, गुरु तुम पद-स्नेहू॥९॥
काम क्रोध मद लोभ के, नहिं वेग सतावै।
सब प्यारा परिवार अरु, सम्पति नहिं भावै॥१०॥
गुरु ऐसी करिये दया, अति होइ सहाई।
चरण-शरण होइ कहत हौं, लीजै अपनाई॥११॥
तुम्हरे जोत-स्वरूप अरु, तुम्हरे धुन-रूपा।
परखत रहूँ निशि-दिन गुरु, करु दया अनूपा॥१२॥

  1. बार-बार करुँ वीनती
  2. बिना गुरु की कृपा पाये

बार-बार करुँ वीनती

(२६)
बार-बार करुँ वीनती, गुरु साहब आगे।
कृपादृष्टि हेरिय गुरू, चित चरणन लागे॥१॥
अति दयाल दे चित्त सुनो, मम हाल मलीना।
या जग मो सम और ना, दुख-दूषण-भीना॥२॥
चहुँ खानिन में बार बहु, भरमेउँ अज्ञाना।
असीम यातना सहेउँ, तुम पद नहिं चीना॥३॥
अब गुरु दाता कृपा करी, दीन्हों नर देही।
अजहूँ फिरउँ भुलान, काल के मारग में ही॥४॥
तुम बिन ऐसो कोउ ना,सुनु सतगुरु पूरे।
काल-राह से घैंचि के, मोहि करिहैं दूरे॥५॥
काम-लहरि तें माति के, करुँ आनहिं आना।
अन्ध होइ भोगन फँसूँ, सत पंथ भुलाना॥६॥
क्रोध-अगिन में नित जलूँ , नहिं समझउँ काहू।
मात पिता अरु हितहु से, चलुँ टेढ़ी राहू॥७॥
लोभ-कुण्ड में पैठि के, करुँ नित जो कर्मा।
पापरूप दृष्टी भई, कछु सूझ न धर्मा॥८॥
सतगुरु दानि दयाल हो, सुनिये अब मेरी।
अन्ध होइ दुख बहु सहूँ, करु दृष्टि उजेरी॥९॥
तुम बिन दाता कोउ ना, सब सन्त बखानें।
दृष्टि दान मोहि दीजिये, मेटिय अन्ध खानें॥१०॥
और अमित सुनि लीजिये, मोरी अघ करनी।
जेहि वश सकउँ न दृढ़ धरी, तुम्हरी सत शरणी॥११॥
मोह-दुर्ग ते स्वपनेहु, नहिं बाहर जाऊँ।
जाते दुःख अगणित सहूँ, नहिं छूटन पाऊँ॥१२॥
दया करो दाता मेरे, तुम बन्दी-छोरा।
यह सब बन्दी छोड़िये, बहु करौं निहोरा॥१३॥
अहंकार तेमस्त होइ, मैं-मोरि बखानौं।
या विधि हठ वश मान में, नहिं काहू जानौं॥१४॥
करौं अनेक कुचाल प्रभु, कत कहौं बखानी।
तुव सेवा की चाल सभे, मम हिये भुलानी॥१५॥
निज अवगुण जत सबन को, नहिं परखन पाऊँ।
तुम सतगुरु सर्वज्ञ हो, जानहु सब ठाऊँ॥१६॥
मम अन्तर अघ जानि के, सब देहु मिटाई।
अघनाशन दाया करो, अघ देहु नसाई॥१७॥
गुनह मोटरी सिर मेरे, तौलत कठिनाई।
या तर दबि अब मरत हौं, बिन तुम्हरि सहाई॥१८॥
नहिं सहाइ तुम बिन कोइ, सुनु सतगुरु दाता।
गुनह मोटरी फेंकिये, दइ मो सिर लाता॥१९॥
अघ औगुण मति संग से, मम दृष्टि मलीना।
दया करो साईं मेरे, मोहि जानिय दीना॥२०॥
तुम बिनु कोउ नहिं अमल करै, दृष्टी कहँ साईं।
दया धार बरषा करी, देहु दृष्टि बनाई॥२१॥
दया प्रेम बरषा करो, हो प्रेम सरूपा।
प्रेम नाम सतनाम की, मोहि मिलवहु रूपा॥२२॥ 

बिना गुरु की कृपा पाये

(१११)
बिना गुरु की कृपा पाये, नहीं जीवन उधारा है॥टेक॥
फँसी श्रुति आइ यम फाँसी, अयन सुधि आपनी नाशी,
भई भव सोग की वासी, कठिन जहँ ते उधारा है॥१॥
गुरु निज भेद बतलावैं, सुरत को राह दरसावैं,
जीव-हित आपही आवैं, सुरत को आइ तारा है॥२॥
गुरू हितु हैं गुरू पितु हैं, गुरू ही जीव के मितु हैं,
गुरु सम कोइ नहिं दूजा, जो जीवों को उधारा है॥३॥
गुरू की नित्त कर पूजा, जगत इन सम नहीं दूजा,
'मेँहीँ' को आन नहिं सूझा, फकत गुरु ही अधारा है॥४॥

  1. भजु गुरु नामा, लहु विश्रामा
  2. भजु मन सतगुरु दयाल
  3. भजु मन सतगुरु दयाल गुरु दयाल
  4. भजु मन सतगुरु सतगुरु
  5. भजो भजो गुरु नाम हो
  6. भजो भजो गुरुदेव हो भाई
  7. भजो सत्तनाम, सत्तनाम
  8. भजो सत्यगुरु सत्यगुरु
  9. भजो साध गुरु साध गुरु
  10. भजो हो गुरु चरण कमल
  11. भजो हो मन गुरु उदार
  12. भाई योग हृदय वृत्त केन्द्र बिन्दु

भजु गुरु नामा, लहु विश्रामा

(८८)
भजु गुरु नामा, लहु विश्रामा,
बिनुगुरु भजन न चैन रे॥
भजु गुरु नाम, भजु गुरु नाम,
भजो गुरू पद पूरन काम॥
राम आदि अवतार, देव मुनि सन्त आर,
गुरु-पद भजते, अहमति तजते,
करते गुरु-पद ध्यान रे॥१॥ भजु०॥
घट तम कूप में, जुग-जुग जीव भ्रमे,
ले गुरु भेद, जा तम छेद,
गुरु-पद-नख बिन्दु देख रे॥२॥ भजु०॥
 पद नख बिन्दु लख, एक टक दृष्टि रख,
सो बिन्दु तिल तारा, दशम दुआरा,
जगमग मणि गुरु जोति रे॥३॥ भजु०॥
सहस्र कमल दल, झलमल झलमल,
पूर्ण विधु गुरु रूपा, अतिहि अनूपा,
लखि जुड़वत हिय नैन रे॥४॥ भजु०॥
त्रिकुटी महल चढ़ दुरगम गुरु गढ़,
जहाँ ब्रह्म दिवाकर रूप गुरू धर,
करैं परम परकाश रे॥५॥ भजु०॥
सुन्न अरु महासुन्न, भँवर गुफाहु गुन,
तहाँ सत धुन धारा, गुरु रूप सारा,
धरि स्रुति मिलु सतनाम रे॥६॥ भजु०॥
अलख अगम सत, अनीह अनाम अकथ,
गुरु मूल सरूपा, 'मेँहीँ' अनूपा,
भजि मिलि हो भव पार रे॥७॥ भजु०॥

भजु मन सतगुरु दयाल

(८५)
भजु मन सतगुरु दयाल, गुरु दयाल प्यारे॥१॥
गुरु पद को बड़ प्रताप, भक्तन को हरत ताप,
अति कराल काल काँप, अस प्रभाव न्यारे॥२॥
गुरु गुरु अति सुखद जाप, जापक जन हरत ताप,
गुरु ही सुख रूप आप, अमित गुणन धारे॥३॥
गुरु गुरु सब जाप भूप, अनुपम सत शान्ति रूप,
उपमा में अति अनूप, दायक फल चारे॥४॥
गुरु गुरु जप गुरु दयाल, गुरु दयाल गुरु दयाल,
निश दिन गुरु गुरु दयाल, 'मेँहीँ' उर धारे॥५॥

भजु मन सतगुरु दयाल गुरु दयाल

(८५)
भजु मन सतगुरु दयाल, गुरु दयाल प्यारे॥१॥
गुरु पद को बड़ प्रताप, भक्तन को हरत ताप,
अति कराल काल काँप, अस प्रभाव न्यारे॥२॥
गुरु गुरु अति सुखद जाप, जापक जन हरत ताप,
गुरु ही सुख रूप आप, अमित गुणन धारे॥३॥
गुरु गुरु सब जाप भूप, अनुपम सत शान्ति रूप,
उपमा में अति अनूप, दायक फल चारे॥४॥
गुरु गुरु जप गुरु दयाल, गुरु दयाल गुरु दयाल,
निश दिन गुरु गुरु दयाल, 'मेँहीँ' उर धारे॥५॥

भजु मन सतगुरु सतगुरु

(३०)
भजु मन सतगुरु सतगुरु सतगुरु जी॥१॥
जीव चेतावन हंस उबारन,
भव भय टारन सतगुरु जी। भजु०॥२॥
भ्रम तम नाशन ज्ञानप्रकाशन,
हृदय विगासन सतगुरु जी। भजु०॥३॥
आत्म अनात्म विचार बुझावन,
परम सुहावन सतगुरु जी। भजु०॥४॥
सगुण अगुणहिं अनात्म बतावन,
पार आत्म कहैं सतगुरु जी। भजु०॥५॥
मल अनात्म ते सुरत छोड़ावन,
द्वैत मिटावन सतगुरु जी। भजु०॥६॥
पिण्ड ब्रह्माण्ड के भेद बतावन,
सुरत छोड़ावन सतगुरु जी। भजु०॥७॥
गुरु-सेवा सत्संग दृढ़ावन,
पाप निषेधन सतगुरु जी। भजु०॥८॥
सुरत-शब्द मारग दरसावन,
संकट टारन सतगुरु जी। भजु०॥९॥
ज्ञान विराग विवेक के दाता,
अनहद राता सतगुरु जी। भजु०॥१०॥
अविरल भक्ति विशुद्ध के दानी,
परम विज्ञानी सतगुरु जी। भजु०॥११॥
प्रेम दान दो प्रेम के दाता,
पद राता रहें सतगुरु जी। भजु०॥१२॥
निर्मल युग कर जोड़ि के विनवौं,
घट-पट खोलिय सतगुरु जी। भजु०॥१३॥

भजो भजो गुरु नाम हो

(८७)
भजो भजो गुरु नाम हो प्यारे, भजो भजो गुरु नामा हो॥१॥
तन धन दारा सपन है सारा, अन्त न आवै कामा हो॥२॥
घट में तेरे घोर अन्धेरा, सोइ भरम को जामा हो॥३॥
सतगुरु पद-नख-बिन्दु निरखि के, त्यागि चलो तम धामा हो॥४॥
घट भीतर गुरु जोति अचरजी, निरखि गहो सतनामा हो॥५॥
सत्य नाम धुन राम सार सो, गुरु नाम पूरण कामा हो॥६॥
परखि सुरत सों नाम निर्मल यह, लहु 'मेँहीँ' विश्रामा हो॥७॥

भजो भजो गुरुदेव हो भाई

(९२)
भजो भजो गुरुदेव हो भाई, गुरू गुरू गुरुदेव जी॥ टेक॥
तन मन धन जन अर्पण करि-करि, करो करो गुरु सेव जी।
विधि औ हरि हर पावत नाहीं, बिना गुरू प्रभु भेव जी॥१॥
अति दुस्तर भव निधि के माहीं, खेवटिया गुरुदेव जी।
भक्ति नाव में लेहिं चढ़ाई, पार करें भव खेव जी॥२॥
सहित त्रिदेव कोटि तैंतिस सुर, करें सदा गुरु सेव जी।
राम कृष्णादि सकल अवतारण, सेवें तजि अहमेव जी॥३॥
देव पितर सह पूरण ब्रह्मऽरु अगम अनाम की सेव जी।
गुरु सेवा सम कोउ न सेवा, 'मेँहीँ' कर गुरु सेव जी॥४॥ 

भजो सत्तनाम, सत्तनाम

(७७) संकीर्त्तन
भजो सत्तनाम, सत्तनाम, सत्तनाम ए॥१॥
सत्तनाम के आधार, पर ही थिर है संसार।
जानैं सन्तन विचार॥ भजो ०॥२॥
सत्तनाम धार सार, सभी घट में पसार।
पावै बेधै असार॥ भजो ०॥३॥
धुन अनहत अपार, परम पुरुष को अकार।
सत्तनाम सोई सार॥ भजो ०॥४॥
सत्तनाम परम नाद, सभी घट में बिसमाद।
मिलै सतगुरु परसाद॥ भजो ०॥५॥ 

भजो सत्यगुरु सत्यगुरु

(९०)
भजो सत्यगुरु सत्यगुरु सत्यगुरु ए॥१॥
गुरु ज्ञान को विचार, मुख तें करते उचार,
होता संशय संहार॥भजो०॥२॥
सभी ममता पसार, भव बंधन असार,
गुरु लेते निवार॥भजो०॥३॥
सभी इन्द्रिन को भोग, गुरु कहते हैं रोग,
करा देते वियोग॥भजो०॥४॥
इस तन के नौ द्वार, में पूर्ण अंधकार,
श्रुत फँसी है मँझार॥भजो०॥५॥
गुरु भेद देवैं सार, खुलै बन्द दशम द्वार,
हो ब्रह्माण्ड में पैसार॥भजो०॥६॥
छूटै पिण्ड अंधकार, लखो जोति चमत्कार,
यह गुरु से ही उपकार॥भजो०॥७॥
गुरु सार शब्द भेद, देइ मिटते भव खेद,
धुन धरिये जोति छेद॥भजो०॥८॥
करि सत धुन को ध्यान, लहैं सन्त सब अनाम,
यही निर्मल निर्वाण॥भजो०॥९॥ 

भजो साध गुरु साध गुरु

(८९)
भजो साध गुरु साध गुरु साध गुरु ए॥१॥
गुरु दाता दयाल, वह काटैं यम जाल,
पल में कर दें निहाल॥भजो०॥२॥
गुरु कहते सत ज्ञान, सुनके मिटता अज्ञान,
सुख होता महान॥भजो०॥३॥
गुरु ज्ञान सूर्य रूप, उनकी जोति अनूप,
उर के नासैं तम कूप॥भजो०॥४॥
गुरु खोलैं तिल द्वार, हो ब्रह्माण्ड में पैसार,
लखिये जोती अपार॥ भजो०॥५॥
देइ सुरत शब्द भेद, मिटा देते भव खेद,
करिये गुरु की उमेद॥भजो०॥६॥ 

भजो हो गुरु चरण कमल

(८३)
भजो हो गुरु चरण कमल, भव भय भ्रम टारनं॥१॥
अति कराल काल व्याल, विषम विष निवारणं॥२॥
दीन बन्धु प्रेम सिन्धु, ज्ञान खड्‌ग धारणं॥३॥
महा मोह कोह आदि, दानव संघारणं॥४॥
सर्वेश्वर रूप गुरु, भगतन को तारणं॥५॥
'मेँहीँ' जपो गुरु गुरु, गुरु गुरु मन मारनं॥६॥

भजो हो मन गुरु उदार

(८६)
भजो हो मन गुरु उदार, भव अपार तारणं॥१॥
ज्ञानवान अति सुजान, प्रेम पूर्ण हृदय ध्यान,
विगत मान सुख निधान, दास भाव धारणं॥२॥
रहे जहाँ सतसंग नित्त, सुजन जन सों नेह हित्त,
शब्द तार धरे सार, प्रकृति पार उतारनं॥३॥
छन-छन मन ध्यान रत्त, श्रुति रमे धुन राम सत,
प्रेम मगन जग में भ्रमण, करि करि जन तारणं॥४॥
पलहू नहिं अनत चैन, सतसंग में दिवस रैन,
सरब जगत सुक्ख दैन, भक्तजन उधारनं॥५॥
जग में गुरु ही आधार, 'मेँहीँ' नहिं आन सार,
गुरु बिनु सब अंधकार, सूर्य चन्द्र तारनं॥६॥

भाई योग हृदय वृत्त केन्द्र बिन्दु

(७०) कजली
भाई योग हृदय वृत केन्द्र बिन्दु, जो चमचम चमकै ना॥टेक॥
नजर जोड़ि तकि धँसै ताहि में, धुनि सुनि पावै ना।
सुरत शब्द की करै कमाई, निज घर जावै ना॥१॥
निज घर में निज प्रभु को पावै, अति हुलसावै ना।
'मेँहीँ' अस गुरु सन्त उक्ति, यम-त्रास मिटावै ना॥२॥ 

  1. मंगल मूरति सतगुरू
  2. मन तुम बसो तीसरो नैना
  3. मास आसिन जगत बासिन
  4. मेध मन संग जेते
  5. मोहि दे दो भगती दान

मंगल मूरति सतगुरू

(३) प्रातःकालीन गुरु-स्तुति॥ दोहा॥
मंगल मूरति सतगुरू, मिलवैं सर्वाधार।
मंगलमय मंगल करण, विनवौं बारम्बार॥१॥
ज्ञान-उदधि अरु ज्ञान-घन, सतगुरु शंकर रूप।
नमो नमो बहु बार हीं, सकल सुपूज्यन भूप॥२॥
सकल भूल-नाशक प्रभू , सतगुरु परम कृपाल।
नमो कंज पद युग पकड़ि, सुनु प्रभु नजर निहाल॥३॥
दया दृष्टि करि नाशिये, मेरो भूल अरु चूक।
खरो तीक्ष्ण बुधि मोरि ना, पाणि जोडि कहुँ कूक॥४॥
नमो गुरू सतगुरु नमो, नमो नमो गुरुदेव।
नमो विघ्न हरता गुरू, निर्मल जाको भेव॥५॥
ब्रह्म रूप सतगुरु नमो, प्रभु सर्वेश्वर रूप।
राम दिवाकर रूप गुरु, नाशक भ्रम-तम-कूप॥६॥
नमो सुसाहब सतगुरु, विघ्न विनाशक द्‌याल।
सुबुधि विगासक ज्ञान-प्रद, नाशक भ्रम-तम-जाल॥७॥
नमो-नमो सतगुरु नमो, जा सम कोउ न आन।
परम पुरुषहू तें अधिक, गावें संत सुजान॥८॥

मन तुम बसो तीसरो नैना

(७४) कजली
मन तुम बसो तीसरो नैना महँ तहँ से चल दीजो रे॥टेक॥
स्थूल नैन निज धार दृष्टि दोउ सन्मुख जोड़ो रे।
जोड़ि जकड़ि सुष्मन में पैठो गगन उड़ीजो रे॥१॥
तन संग त्यागि त्यागि उड़ि लीजो धर धरीजो रे।
'मेँहीँ' चेतन जोति शब्द की सो पकड़ीजो रे॥२॥

मास आसिन जगत बासिन

(१३७) बारहमासा
मास आसिन जगत बासिन, चेत चित में लाइये।
जीवनों थोड़ो अहै क्यों, जगत में गफिलाइये॥
ना भयो जग काहु को, कितनो कोउ अपनो कियो।
करि जतन जो याहि त्याग्यो, शांति-सुख सो ही लियो॥१॥
कातिक काया नीच माया, मुत्र-बुन्द से है बनो।
माहिं पूरन मलन सों जो, जाय नहिं सकलो गनो॥
ऐसो तन संग कहा गरबसि, मूढ़ अतिहि अजान रे।
नाम भजु अभिमान तजु, छनभंगु तन मस्तान रे॥२॥
अगहन दाहन प्रकृति भोगन, गहन को जो धावहीं।
क्लेश पावहिं हारि आवहिं, कबहुँ नहिं तृपतावहीं॥
भोगन सकल प्रत्यक्ष रोगन, जानि के हटते रहो।
गुरु टहल सत्संग-सेवन, में सदा डटते रहो॥३॥
पूस चोरी फूस पर-त्रिय, नशा हिंसा त्यागहू।
गुरु टहल सत्संग ध्यान में, दिवस निशि अनुरागहू॥
तरते गये जो अस किये सब, राय राणा रंक हो।
विप्र भंगी अपढ़ पढ़ुआ, करो तरिहौ न शंक हो॥४॥
माघ भूखा बाघ काल के, मुख पड़ो है बाबरे।
होश कर चेतो सबेरे, बचो ध्यानके दाव रे॥
काल मुख से निबुकि भागो, ध्यान के बल भाइ रे।
ऐसो औसर खोइहौ तो, रोइहौ पछिताइ रे॥५॥
मास फागुन मस्त होइ के, कियो बहुत बनाव हो।
ऊँच महलन जटित मणिगण, सुख तबहुँ नहिं पाव हो॥
कूल भल अरु रूप भल, अरु त्रिया भल पायो सही।
सुख तबहुँ नाहीं मिले, बिन ध्यान के स्वपनहुँ कहीं॥६॥
चैत सुख की चिन्त करहु, तो विविध कर्महिं त्यागहू।
ध्यान में लवलीन रहिकै, गुरु चरण अनुरागहू॥
विविध नेम अचार जप-तप, तिरथ व्रत मख दानहू।
कबहुँ सरवर ना करै जो, ध्यान बन पलहू कहूँ॥७॥
वैशाख सकलो साख ग्रन्थन, की रहै जानत कोऊ।
ध्यान बिन मन अथिर जौं, तो शांति नहिं पावै सोऊ॥
फिरै चहुँ दिशि जगत में, अरु वक्तृता देता फिरै।
ध्यान बिनु नहिं शान्ति आवै, लोगहू कितनहु घिरै॥८॥
जेठ उतरी हेठ सूरत, पिण्ड में वासा करी।
भूलि गइ घर आदि अपना, भव में सब सुधि गइ हरी॥
सुरत चेत अचेत छोड़ो, तू शिखर कीवासिनी।
माया में मगनो नहीं, यह अहै दारुण फाँसिनी॥९॥
आषाढ़ तम अति गाढ़ में, नीचो पड़ी री सूरती।
उद्धार कर निज गुरु दया, ले हेर प्रभु बिन्द मूरती॥
दोउ नयन बीचो बीच सन्मुख, एकटक देखत रहो।
आपही वह विन्दु झलके, पट गिरा निरखत रहो॥१०॥
सावन शिखर सोहावनो पर, धीरे-धीरे चढ़ि चलो।
तारा चन्दा सूर पूरा, नूर तजि शब्दहिं रलो॥
घट-घट में होता आपही, यह शब्द अगम अपार है।
प्रभु नाम निर्मल राम यह, शब्द सार सकल अधार है॥११॥
भादो भव दुख यों तजो, प्रभु नाम अवलम्बन करी।
पर नाम सो बिनु ध्यान कोउ न, परखि कै थम्भन करी॥
देवी साहब कहैं 'मेँहीँ', सुनो चित्त लगाइ के।
गुरु भक्ति बिनु नाहीं सफलता, सन्त कहैं सब गाइ के॥१२॥

मेध मन संग जेते

(४१)
मेधा मन संग जेते दरशन।
मेधा मन संग जेते परशन॥१॥
दिव्य दृष्टि से हू जो दरशन।
दिव्य अंग का हू जो परशन॥२॥
सब मायामय दरशन परशन।
प्रभु दरश परश हैं ये हीं सतजन॥३॥
प्रकृति पार मन बुद्धि के पारा।
जड़ के सब आवरणन पारा॥४॥
गुरु हरि कृपा से अस हो जोई।
'मेँहीँ' दरसन पावै सोई॥५॥

मोहि दे दो भगती दान

(२३)
मोहि दे दो भगती दान,
सतगुरु हो दाता जी॥१॥
दस दिशि विषय जाल से हूँ घेरो,
टरत नहीं अज्ञान॥२॥
गाढ़ अविद्या प्रबल धार में,
भये हूँ बहि हैरान॥३॥
निज बुधि बल को कछु न भरोसा,
गुरु तव आस न आन॥४॥
जग के सब सम्बन्धिन देखे,
तुम बिनु हित न महान॥५॥
बाहर अन्तर भक्ति कराई,
दीजै आतम ज्ञान॥६॥
नात्म द्वैत से बाहर कीजै,
यहि विनती नहिं आन॥७॥