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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( चवर्ग )

  1. चलु चलु चलू भाई

1. चलु चलु चलू भाई

(१०७)
चलु चलु चलू भाई, धरु गुरु पद धाई,
होउ भाई दृढ़ अनुरागी, भ्रम त्यागी हो भाई॥१॥
तन-सुख मन-सुख, इन्द्री-सुख सब दुःख,
तजि दे विषय दुखदाई, भ्रम खाई हो भाई॥२॥
तन नव द्वार हो रामा, अति ही मलीन हो ठामा,
त्यागि चढ़ु दशम दुआरे, सुख पाउ रे भाई॥३॥
भजु भाई गुरु गुरू, गुरु रूप ध्यान धरू,
सनमुख बिन्दु निरेखो, सुख देखो रे भाई॥४॥
गुरु बिनु ज्ञान नाहीं, गुरु बिनु ध्यान नाहीं,
'मेँहीँ' न गुरु बिन आने, उपकारी हो भाई॥५॥

  1. छन छन पल पल समय सिरावे

1. छन छन पल पल समय सिरावे

(१२६)
छन छन पल पल, समय सिरावे,
नर-तन दुर्लभ, फिर नहिं पावे॥१॥
धन जन परिजन, सहित आपन तन,
सब छाड़ि जैहो काम अन्त न आवे॥२॥
दुर्लभ मानुष तन, करिये गुरु भजन,
बिना रे भजन व्यर्थजनम नसावे॥३॥
गुरु गुरु जपु नाम, गुरु ध्यान धरु राम,
गुरु-पद-नख-मणि सन्मुख लखावे॥४॥
पद-नख-विन्दु धरि, मन दृष्टि थिर करि,
नखतेन्दु भानुमय गुरु रूप पावे॥५॥
यहि विधि ध्यान धरि, दिव्य दृष्टि करि करि,
रामनाम सार धुन गुरु परखावे॥६॥
गुरु ही सो शब्द रूप, शान्तिप्रद औ अनूप,
'मेँहीँ' यही विधि गुरु भजि मोक्ष पावे॥७॥

  1. जनि लिपटो रे प्यारे जग परदेसवा
  2. जय जय परम प्रचण्ड तेज तम
  3. जय जय राम जय जय राम
  4. जय जय राम जय जय राम कहु राम
  5. जय जयति सद्‌गुरु जयति जय जय
  6. जहाँ सूक्ष्म नाद ध्वनि आज्ञा
  7. जीव उद्धार का द्वार पुकार कहा
  8. जीवो! परम पिता निज चीन्हो
  9. जेठ मन को हेठ करिये
  10. जौं निज घट-रस चाहो

1. जनि लिपटो रे प्यारे जग परदेसवा

(१२१)
जनि लिपटो रे प्यारे जग परदेसवा सुख कछु इहवाँ नाहिं॥टेक॥
यह परदेसवा काल को भेसवा जो रे आवयँ दुख पाहिं।
सुधि करो प्यारे हो आपन देश के जहवाँ क्लेश कछु नाहिं॥१॥
निज कायागढ़ में ऐन महल होय आपन घर पथ पाहिं।
चलु चलु यहि पथ हाँकत दृष्टि रथ धनि सतगुरु बतलाहिं॥२॥
जौं नहिं समझहु सतगुरु पद गहु परगट सतगुरु आहिं।
बाबा देवी साहब परगट सतगुरु 'मेँहीँ' जा पद बलि जाहिं॥३॥ 

2. जय जय परम प्रचण्ड तेज तम

(४) छप्पय
जय-जय परम प्रचंड, तेज तम-मोह-विनाशन।
जय-जय तारण तरण, करन जन शुद्ध बुद्ध सन॥
जय-जय बोध महान, आन कोउ सरवर नाहीं।
सुर नर लोकन माहिं, परम कीरति सब ठाहीं॥
सतगुरु परम उदार हैं, सकल जयतिजय-जय करें।
तम अज्ञान महान्‌ अरु, भूल-चूक-भ्रम मम हरें॥१॥
जय-जय ज्ञान अखण्ड, सूर्य भव-तिमिर-विनाशन।
जय-जय-जय सुख रूप, सकल भव-त्रास-हरासन॥
जय-जय संसृति-रोग-सोग, को वैद्य श्रेष्ठतर।
जय-जय परम कृपाल, सकल अज्ञान चूक हर॥
जय-जय सतगुरु परम गुरु, अमित-अमित परणाम मैं।
नित्य करूँ, सुमिरत रहूँ , प्रेम-सहित गुरु नाम मैं॥२॥
जयति भक्ति-भंडार, ध्यान अरु ज्ञान-निकेतन।
योग बतावनिहार, सरल जय-जय अति चेतन॥
करनहार बुधि तीव्र, जयति जय-जय गुरु पूरे।
जय-जय गुरु महाराज, उक्ति-दाता अति रूरे॥
जयति-जयति श्री सतगुरू, जोड़ि पाणि युग पद धरौं।
चूक से रक्षा कीजिये, बार-बार विनती करौं॥३॥
भक्ति योग अरु ध्यान को, भेद बतावनिहारे।
श्रवण मनन निदिध्यास, सकल दरसावनिहारे॥
सतसंगति अरु सूक्ष्म वारता, देहिं बताई।
अकपट परमोदार न कछु, गुरु धरें छिपाई॥
जय-जय-जय सतगुरु सुखद, ज्ञान संपूरण अंग सम।
कृपा-दृष्टि करि हेरिये, हरिय युक्ति बेढंग मम॥४॥

3. जय जय राम जय जय राम

(७९)
जय-जय राम, जय-जय राम,
जय-जय राम, कहु जय-जय राम,
जयति जयति जय राम, हो राम राम॥१॥
सबमें व्यापक सब तें न्यारा,
सब घट एकहि राम, हो राम राम॥२॥
मेंहदी में लाली घीउ दूध में,
फूल में वास समान, हो राम राम॥३॥
रूप न रस नहिं, नहिं गन्ध परसन,
नहीं शब्द नहिं नाम, हो राम राम॥४॥
एक अनीह अरूप अनामा,
अज अव्यक्त सो राम, हो राम राम॥५॥
मन बुद्धि इन्द्रिन को गम नाहीं,
आत्म-गम्य सो राम, हो राम राम॥६॥
पिण्ड में गुप्त ब्रह्माण्ड में गुप्त सो,
अत्यन्त विलक्षण राम, हो राम राम॥७॥
पिण्ड ब्रह्माण्ड परे प्रत्यक्ष सो,
सरब परे पर धाम, हो राम राम॥८॥
गुरु भगती करि गुरु गुर लहि भजि,
'मेँहीँ' पाइये राम, हो राम राम॥९॥

4. जय जय राम जय जय राम कहु राम

(८०)
जय जय रामा जय जय राम कहु राम॥१॥
राम कहु राम कहु राम कहु प्यारे हो,
राम कहु राम कहु रामा॥ जय जय०॥२॥
त्रिकुटी परे शब्द-सरिता पार में,
प्रत्यक्ष विराजैं रामा॥ जय जय०॥३॥
अव्यक्त अगोचर भव पीड़ा हर,
द्वन्द्वद्वैत बिन रामा॥ जय जय०॥४॥
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट,
सुरति पहुँचि लहे रामा॥ जय जय०॥५॥
सुरति शब्द सों चढ़िय अगम घर,
घट अन्तर पुजि रामा॥ जय जय०॥६॥
'मेँहीँ' दास दया सतगुरु की,
पाइय पद निरवाना॥ जय जय०॥७॥

5. जय जयति सद्‌गुरु जयति जय जय

(१६) छन्द
जय जयति सद्‌गुरु जयति जय जय, जयति श्री कोमल तनुं।
मुनि वेष धरन करन मुनिवर, जयति कलिमल दल हनं॥
जय जयति जीवन मुक्त मुनिवर, शीलवन्त कृपालु जो।
सो कृपा करि कै करिय आपन, दास प्रभु जी मोहि को॥
जय जयति सद्‌गुरु जयति जय जय, सत्य सत्‌ वक्ता प्रभू।
हरि कुमति भर्महिं सुमति सत्य को, पाहि मोहि दीजै अभू॥
यह रोग संसृति व्यथा शूलन्ह, मोह के जाये सभै।
अति विषम सर बहु होय बेध्यो, मोहि अब कीजै अभै॥
प्रभु! कोटि कोटिन्ह बार इन्ह दुख, मोहि आनि सतायेऊ।
यहु बार जहु एक वचन आशा, आय तहु में समायेऊ॥
बिनु तुव कृपा को बचि सकै, तिहु काल तीनहु लोक में।
प्रभु शरण तुव आरत जना तू, सहाय जन के शोक में॥

6. जहाँ सूक्ष्म नाद ध्वनि आज्ञा

(७५)
जहाँ सूक्ष्म नाद ध्वनि आज्ञा आज्ञाचक्र करो डेरा।
द्वार सूक्ष्म सुष्मन तिल खिड़की पील करो पारा॥१॥
नयन कान दोउ जोड़ि छोड़ि करि मन मानस सकलो।
टुक टिको सामने प्रेम नेम करि अधर डगर धर लो॥२॥
जगमग जोति होति ध्वनि अनहद गैब का बज बाजा।
ध्वनि सुनि सुनि चढ़ना सत ध्वनि धरना 'मेँहीँ' सर काजा॥३॥

7. जीव उद्धार का द्वार पुकार कहा

(१०३)
जीव उद्धार का द्वार पुकार कहा,
घट भीतर ही सत संतों ने॥ टेक॥
संसृतिसंताप से काँप रहे,
भव भौंर भ्रमत जिव हाँफ रहे,
तिन्हें ढाढ़स दे समुझाय कहे,
गुरु नाम सुमर सत संतों ने॥१॥
गुरु ध्यान धरो मन में अपने,
तिल द्वार लखो तन में अपने।
श्रुति जोड़ि चलो धुनि धारण में,
ये यत्न कहे सत संतों ने॥२॥
पँच केन्द्रन पै पाँचो बजती,
अनहद नौबत जोती जरती।
कहुँ केवल ध्वनि अनुभव करती,
सूरत तन में कहे संतों ने॥३॥
सत सन्तन की सत युक्ति यही,
यहि से भव बंधन दूर सही।
होता 'मेँहीँ' शंका न रही,
सत सत्य कहा सत संतों ने॥४॥

8. जीवो! परम पिता निज चीन्हो

(१३५)
जीवो! परम पिता निज चीन्हो, कहते सन्तन हितकारी॥ टेक॥
द्वैत प्रपंच के सागर बूड़ो, सहो दुक्ख भारी।
तन मन इन्द्रिन संग अजाना, हो होती खवारी॥१॥
गुरु गम से सुष्मन में पैठि के, अन्तर पथ धारी।
ब्रह्म जोति ब्रह्मनाद धार धरि, हो सबसे न्यारी॥२॥
द्वैत पार तन मन बुधि पारा, ज्ञान होय सारी।
'मेँहीँ' सो पितु चीन्ह में आवैं, दुक्ख टरै भारी॥३॥ 

9. जेठ मन को हेठ करिये

(१३८) चौमासा
जेठ मन को हेठ करिये, मान मद बिसराइये।
गुरु सद्‌गुरु पद सेव करि-करि, कठिन भव तरि जाइये॥
आषाढ़ गाढ़ अन्धार घट में, जातें दुख अपार है।
गुरु कृपा तें भेद लहि तम,तोड़ि दुख निवारिये॥
सावन सुखमन दृष्टि आनत, दामिनि छिन-छिन दमकई।
हील डोल तजि सुरत थिर करि, प्रणव तार उगाइये॥
भादो भव दुख छोड़ि चलिये, जोति छेदि पड़ाइये।
सारशब्द में लीन होइ कर, 'मेँहीँ' गुरु-गुण गाइये॥

10. जौं निज घट-रस चाहो

(१३२)
जौं निज घट रस चाहो॥टेक॥
तो अपने को पाँच पाप से, हरदम खूब बचाहो॥१॥
है एक झूठ नशाँ है दुसरा, तिसर नारि पर केहो॥२॥
चौथी चोरी पंचम हिंसा, दिल से इन्हें अलगाहो॥३॥
'मेँहीँ' सहजहिं इन्हसे बचन चहो, गुरु पद टहल कमाहो॥४॥