श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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The salient principals of Sikhism


ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥

गुरमति सिद्धांत:

‘किव कूड़ै तुटै पालि’

हर वक्त की सांझ

हरेक प्राणी का ये जीवन तज़रबा है कि जिस चीज़ के साथ दिन–रात हर वक्त साथ रहा जाए, वह चीज़ प्यारी लगने लगती है। जनम के समय से ही, पहले जीव को माँ के दूध के साथ, फिर माता–पिता के साथ, फिर बहन–भाईयों के साथ हमेशा साथ बना रहता है और उनके साथ उनका मोह–प्यार बनता जाता है। ज्यों–ज्यों जीव बड़ी उम्र का होता जाता है, त्यों–त्यों दिखाई देते संसार के और पदार्थ बरतने आरम्भ करता है। साक–संगों के साथ, घर के साथ, धन–पदार्थों के साथ इसका अपनत्व बड़ता ही जाता है। ये मेरे माता–पिता हैं, वे कोई और हैं; ये मेरी बहन है, वह कोई और है; ये हमारा घर है, वह किसी और का है– इस तरह सहजे–सहजे जीव के मन में मेर–तेर और भेद–भाव भी बनने लग जाता है। इसके साथ–साथ ही और सब के मोह–प्यार से अपने शरीर का मोह–प्यार जीव के अंदर ज्यादा प्रबल होता जात है।

इस अपनत्व का नतीजा

छोटे बच्चों को ही देख लो! शारीरिक अपनत्व के कारण ही बालक अपने छोटे और कमजोर बहन–भाईयों से भी कोई खाने–पीने वाली चीज़ छीन के खुद खा लेता है, कई बार उनको धमका के भी खुश होता है। सहजे–सहजे यह प्रवृक्ति पकती जाती है और बढ़ती जाती है। और कमजोर हम–उम्र वालों के साथ भी यही सलूक शुरू कर देता है, और, इस में उसको कोई बुराई नज़र नहीं आती।

ज्यों–ज्यों मनुष्य बड़ी उम्र का होता जाता है, यह शारीरिक अपनत्व; अपनों के साथ मोह–प्यार, अपने घर का मोह, अपनी जायदाद की खींच – यह सब कुछ उसके मन में जोर डालती जाती है, और इसकी खातिर ही दिन–रात दौड़–भाग करते रहना उसकी जिंदगी का निशाना बना रहता है।

अनदेखे के साथ सांझ कैसे बने?

जिस करतार ने ये दुनिया रची हुई है, वह इन आँखों से मनुष्य को दिखाई नहीं देता। दिखाई देता है ये जगत, दिखता है ये घर–घाट; ये धन–पदार्थ। सो, कुदरती तौर पर इसी के साथ ही मनुष्य का प्यार बन सकता है और बना रहता है। इस दिखाई देते के साथ ही मनुष्य एक–मेक हुए जाता है। और कर भी क्या सकता है? जब कभी अपने किसी अति–प्यारे को मौत छीन के ले जाती है, जब कभी दिन–रात मेहनत करके जोड़ा हुआ धन किसी कारण छिन जाता है, तब ठोकर तो तगड़ी बजती है, पर, फिर उसी दौड़–भाग में व्यस्त हो जाता है। और करे भी क्या? दिखता ही जो यही कुछ है। अन–दिखा इसके मन से से कहीं दूर ही टिका रहता है। अन–दिखे से दूरी दिन–ब–दिन बढ़ती ही जाती है।

जीवन का सहारा

देखें पशु–पक्षियों की तरफ़! धरती पर उगा हुई घास–बूटी बहुत सारी हैं, इनके शरीर की पालना के लिए। यह मनुष्य ही है जिसको अपने शरीर की परवरिश के लिए अन्न पैदा करने के लिए दिन–रात मेहनत करनी पड़ती है। हर वक्त सिर्फ शरीर से सामना होने की वजह से मनुष्य को सिर्फ शरीर ही अपना स्वै लगने लगता है, इसी को पालते रहना ही इसकी जिंदगी का निशाना बना रहता है।

मनुष्य नित्य यह भी देखता है कि अन्न–धन की कमी के कारण अनेकों लोग भटक–भटक के मर जाते हैं। सो, अन्न–धन ही मनुष्य के जीवन का सहारा बन जाता है।

इससे उपजी कमियाँ

मेर–तेर, अपने–पराए की समझ – इस तरह के संस्कार तो छोटी उम्र से जीव के मन में पनपने शुरू हो जाते हैं। इसका असर पड़ने लग जाता है, अन्न–धन की कमाई पर। किन तरीकों से कमाया जाए–ये बात सोचने की आश्यक्ता नहीं प्रतीत होती। जितना ज्यादा कमाओ, उतना ही ज्यादा कामयाब मनुष्य का जीवन। सो, क्या होता है? क्या हो रहा है? पराया हक छीन सकना– यह मनुष्य की समझदारी और बुद्धिमक्ता समझी जाने लग पड़ी और समझी जा रही है।

पराए हॅक से अनेकों मानसिक रोग

जब धन कमाना ही जीवन का निशाना बन जाए; जब मनुष्य जितना ही धनवान उतना ही कामयाब समझा जाने लग जाए; तब स्वाभाविक तौर पर यही परिणाम निकलता है कि धन–कमाने के कोझे ढंग मनुष्य के मन पर अपना जोर डाल लेते हैं। मनुष्य अनपढ़ हों चाहे पढ़े–लिखे, माया जोड़ने का गलत रास्ता किसी का लिहाज नहीं करता। अगर अनपढ़ता में डाके–ठॅगी छीना–झपटी आदि तरीके चल पड़ते हैं, तो पढ़े–लिखे लोग रिश्वत आदि का शिकार हो जाते हैं।

जगत में क्या देख रहे हैं? पड़ोसी की तरक्की देख के जलन; पड़ोसी को नुकसान पहुँचाने के लिए उसकी निंदा–चुग़ली, लालच की बाढ़, वैर–विरोध, पराया रूप देख के उस तरफ बुरी निगाह, ‘मैं बड़ा हूँ, मैं समझदार हूँ, दुनिया सबसे ज्यादा मेरा आदर–सम्मान करे’ –इस तरफ गरूर और अहंकार। बात क्या, चारों तरफ विकारों के शोले धधक रहे हैं। कोई घर देख लो, कोई गाँव देख लो, कोई शहर देख लो, घर–घर यही आग लगी हुई है, हरेक हृदय अनेकों रोगों से तपा हुआ है।

इस जलने से कौन बचाता है

इस जलने से वही बचा सकता है जो खुद इस तपस से बचा हुआ है; वही बचा सकता है जो खुद दुनिया की किरत–कार करता हुआ भी सद्–कृत कमाने वाला है; वही बचा सकता है जो खुद गृहस्ती होता हुआ भी सद्–गृहस्ती है। डूब रहे ने डूब रहे को क्या बचाना हुआ? और, दुनियादारों से अलग किसी जंगल के बियाबानों में, किसी पहाड़ की गुफा में, बैठा भी क्या जाने दुनियादारों की मानसिक मुश्किलों को? अगर दुनिया के सारे ही लोग काम–काज छोड़ के अलग–थलग हो बैठें तो रोटियाँ पेड़ों को नहीं लग जानी? – और, रोटी के बिना पेट की आग शांत नहीं हो सकती।

सो, कौन है वह बचाने वाला? गुरसिखों वाली बोली में हम उसको ‘गुरू’ कहते हैं जो गृहस्ती होता हुआ गृहस्थियों की मुश्किलों को जानता हुआ पवित्र जीवन–राह बताता है।

सीधी–सपाट बात

बहते दरिया का कुछ पानी बाढ़ के दिनों में उछल के किनारों से आगे अलग किसी छप्पड़ व तालाब में जा पड़े, दरिया से उसका संबंध टूट जाए, तो वक्त गुजरने पर उसमें कीड़े पड़ जाते हैं, उसका रंग खराब हो जाता है, उसमें से बदबू आने लगती है।

सृजनहार करतार जिंदगी का दरिया है, सारे जीव उस दरिया की लहरें हैं। जब तक ये लहरें दरिया के अंदर हैं, इनकी जिंदगी का पानी स्वच्छ है। जब सिर्फ माया कमाने के तालाब पोखर में पड़ कर जीव–लहरें दरिया–प्रभू से अलग हो जाती हैं, तो इनमें अनेकों ही आत्मिक–मानसिक रोगों की बदबू पैदा हो जाती है।

बस! यही है भेद जो ‘गुरू’ आ के विलक रहे लोगों को, तृष्णा अग्नि में जल रहे व्यक्तियों को समझाता है।

एक ही आदि रोग, एक ही दवाई

अपने और अपने परिवार के शारीरिक निर्वाह की खातिर धन–पदार्थ कमाते–कमाते मनुष्य धन–पदार्थ को ही अपनी जिंदगी का सहारा समझ लेता है। यह जिंद है तो परमात्मा की अंश, पर, जैसे जगत की माया प्रत्यक्ष दिखाई देती है वह परमात्मा इन आँखों से नहीं दिखता मनुष्य को उसके अस्तित्व का उसकी हस्ती का यकीन कैसे आए? उसकी तरफ कैसे मुड़े? सो, जीव–आत्मा और परमात्मा के बीच माया के मोह की दूरी पड़ जाती है, एक दीवार सी बन जाती है। ये दूरी, ये अंतर, ये दीवार सी ही, असल आदि रोग है, मूल रोग है। इसी मूल रोग से अनेकों मानसिक रोग पैदा हो के जगत को नर्क बना रहे हैं। इसका इलाज? इसका इलाज ये है कि सृजनहार करतार से मेल बनाया जाए। जिसको बार–बार याद करते रहें, उसके साथ प्यार बन जाता है। जिससे गहरा प्यार हो जाता है उसके साथ स्वभाव भी मिलने लगता है, और इस तरह उसके साथ एक–रूप हो जाया जाता है, उसका किया हरेक काम अच्छा लगने लगता है। ज्यों–ज्यों जिंद के श्रोत सृजनहार के साथ मेल–जोल बनता जाता है, वही जिंद का सहारा बनता जाता है। ये बात समझ में आने लग जाती है कि धन–पदार्थ सिर्फ कुछ दिनों के शारीरिक निर्वाह के लिए कमाना है, ये हमारा सदा का साथी नहीं है। फिर, जो सदा का साथी नहीं, उसकी खातिर ठॅगी–फरेब, निंदा–ईष्या, वैर–विरोध सहेड़ के इस चंद–दिनों के जीवन को नरक क्यों बनाया जाए?

कर्म और उनका प्रभाव

कोई गाँव का छोटा बच्चा अपनी माँ के साथ शहर में आए जहाँ हर वक्त आगे–पीछे छाबे वाले मिठाई आदि बेचते हों। उस छोटे बच्चे को कोई आकर्षण नहीं होता कि अपने माँ के पीछे पड़े माँ से जिद करे कि वह उसे मिठाई वगैरा ले के दे। क्यों? क्योंकि उसने कभी मिठाई ना देखी ना कभी खाई। उसके अपने अंदर प्रेरणा कैसे उठे? पर, यदि माँ किसी एक छाबे वाले से कुछ ले कर बच्चे को खिला दे, फिर देखो उस बच्चे का हाल। जैसे जैसे कोई भी छाबे वाला आएगा, बच्चा माँ के पीछे पड़ा रहेगा कि मुझे ये चीज ले दे ये चीज खिला दे। ये अंतर क्यों? बालक की जीभ ने मिठाई का स्वाद चख लिया है, उसके मन में वह स्वाद टिक गया है। छाबे वाले को देखते ही मन में टिके हुए वह संस्कार जाग उठते हैं, और बच्चे को प्रेरित करते हैं मिठाई खाने के लिए।

जो भी कर्म मनुष्य करता है उसके संस्कार उसके अंदर टिक जाते हैं, उसके मन का हिस्सा बन जाते हैं। मन क्या है? मनुष्य के अच्छे–बुरे किए संस्कारों का समूह, किए कर्मों के छुपे हुए चित्र–गुप्त चित्र। ये गुप्त–चित्र, चित्र–गुप्त, एक तो मनुष्य के अब तक के किए हुए कर्मों के गवाह हैं, दूसरे वैसे ही और कर्म करने की प्रेरणा करते रहते हैं।

जब से दुनिया बन रही है जब तक बनी रहेगी, मनुष्य की मानसिक संरचना के बारे में कुदरति का ये नियम अटल चला आ रहा है, अटल चलता रहेगा। पर हाँ, मनुष्य की ये मानसिक संरचना खास नियमों के अनुसार बदल भी सकती है और बदलती रहती है। अच्छे और बुरे किए कर्मों के संस्कारों का मनुष्य के मन में सदा दंगल चलता रहता है। ताकतवर धड़ा कमजोर धड़े को और भी ज्यादा कमजोर करने का यत्न सदा करता रहता है। दुनिया के काम–काज में मनुष्य का जिस तरह के कर्मों से सामना करना पड़ता है उसके अंदरूनी वैसे ही संस्कार जाग के बाहरी प्रेरणा के साथ मजबूत हो के दूसरे धड़े के संस्कारों को दबोच लेते हैं।

गुरू अपनी बाणी के द्वारा मनुष्य को परमात्मा के गुण–गान में जोड़ता है, सिफत–सालाह में टिकाता है। इस सिफत–सालाह को यान से सुनना ही परमात्मा में समाधि लगानी है। ज्यों–ज्यों मनुष्य गुरू की बाणी के माध्यम से सृजनहार करतार में जुड़ता है, त्यों–त्यों मनुष्य के अंदर भले संस्कार जाग के बलवान होते जाते हैं और बुरे संस्कार बल–हीन हो के मिटने आरम्भ हो जाते हैं। इसी का नाम है ‘मन को मारना’, ‘स्वै भाव मिटाना’, ‘गुरू की शरण पड़ना’।

गुरू मिलता है प्रभू की मेहर से

मनुष्य के अपने वश की बात नहीं कि अपने आप को सही जीवन–राह पर चला सके। खुद तो ये अपने शरीर के साथ, धन–पदार्थों के साथ, माया के मोह के साथ एक–मेक हुआ रहता है, मन के मायावी संस्कारों के तले दबा रहता है। और, वह संस्कार इसको सदा मीठे लगने हुए। माया हुई ही मीठी गुड़ जैसी। अपने इस मीठे स्वै को ये कैसे मारे? मरने का विचार ही कैसे आए?

सो, प्रभू मेहर करता है, जीव को गुरू से मिलाता है। जिसके भाग्य जागते हैं, वह माया के मोह की नींद में से सचेत होता है। उसको समझ आती है कि इस चंद–रोजा जीवन की खातिर गलत तरीकों से धन–पदार्थ नहीं कमाना, ये धन–पदार्थ सदा के साथी नहीं हैं। असल साथी है सृजना करने वाला परमात्मा, जो मेरे अंदर बस रहा है, जो सबमें बस रहा है, जो जगत के ज़ॅरे–ज़ॅरे में बस रहा है। बस! ज्यों–ज्यों प्रभू की याद में डुबकी लगाता है, मनुष्य का जीवन पलटता जाता है, मनुष्य की किरत–कार पवित्र होती जाती है।

गुरू कौन है

शारीरिक तौर पर सदा यहाँ किसी ने टिके नहीं रहना। कुदरत के नियमों के अनुसार जगत–रचना के समय से ही मनुष्य की मानसिक संरचना के नियम अटल चले आ रहे हैं। ये नियम सदा के लिए अटल चला आ रहा है कि जिंदगी के दरिया परमात्मा में जुड़े रहने से ही पवित्र–जीवन हासिल हो सकता है। गुरू ने ये सारे नियम अपनी बाणी में समझा दिए हैं। सो, ये बाणी सदा के लिए मनुष्य के सही जीवन की अगुवाई करती रही है, करती रहेगी। श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज बाणी को ध्यान से पढ़ के देखें। आरम्भ से ले कर आखिर तक इसी ही विचार की व्याख्या है कि ‘किव कूड़ै तुटै पालि’। गुरू बाणी है, और बाणी ही गुरू है, सदा–स्थिर गुरू है। गुरू का शारीरिक इतिहास मनुष्य की अगुवाई के लिए पद्–चिन्ह हैं। ये इतिहास गुरबाणी कें अनुकूल ही हो सकता है। शारीरिक जामे में गुरू की कथनी और करनी मुकम्मल तौर पर एक–रूप ही रहे हैं।

अनुपान– अमृत वेला और साध संगति

किसी शारीरिक रोग का इलाज करने के लिए सिर्फ दवाई ही काफी नहीं हुआ करती। ये ध्यान रखना भी जरूरी होता है कि दवा दूध, पानी, चाय, शर्बत आदि किस चीज से खानी है। कोई दवाई खाली पेट सवेरे ही खानी होती है, कोई रोटी के बाद, कोई पहले। इसी तरह खुराक का भी पूरा ध्यान रखना होता है। कोई चीज़ खानी होती है, कोई नहीं खानी होती।

आत्मिक और मानसिक रोगों के लिए भी ऐसे ही नियम हैं। रोग है ‘जगत का मोह’ इसकी दवाई है ‘प्रभू चरणों में जुड़ना’। सूरज उदय होते ही मनुष्य की सुरति जगत के धंधों में बिखर जाती है। दुनिया के काम भी मन लगा के करने पर ही सफल होते हैं। और, मन तो एक तरफ ही लग सकता है– चाहे प्रभू की याद में जुड़े, चाहे रोजी कमाने के लिए आवश्यक दौड़–भाग की तरफ। सो, सबसे बढ़िया बात यही है कि दुनिया की दौड़–भाग से पहले–पहले ही मनुष्य आत्मिक रोगों को दूर करने वाली दवा प्रयोग कर लिया करे। गुरमति की बोली में इस तरह कह लो कि सिख अमृत वेला में उठ के स्नान आदि से शारीरिक आलस दूर कर के गुरबाणी में मन जोड़े, प्रभू की सिफत–सालाह में टिके।

‘एक एक दो ग्यारह’ की कहावत हमारी बोली में प्रसिद्ध है। जैसे दुनियावी दौड़–भाग में यह ‘गुर’ बड़ा ही जरूरी है वैसे ही आत्मिक जीवन को ऊँचा करने के लिए भी यह बड़ी सहायता करता है। गुरसिखी की बोली में इसको कहते हैं ‘साध संगति’। सो, अमृत वेला में उठ के सिख गुरद्वारे साध–संगति में जाए। वैसे तो जितने ही ज्यादा सत्संगी हों, उतना ही ज्यादा आत्मिक आनंद मिलता है; पर, मिले हुए मन वाले दो लोग भी मिल के गुरू की बाणी गा रहे हैं, पढ़ रहे हैं, तो वे ‘साध–संगति’ कर रहे हैं। ये साध–संगति एक स्कूल है जहाँ मनुष्य ने उच्च आत्मिक जीवन सीखना है।

अनुपान – स्कूल की पढ़ाई का अभ्यास

साध–संगति में अमृत वेला में जा के मनुष्य ने परमात्मा के चरणों में जुड़ना है; प्रभू की सिफत–सालाह करनी है– यह तो है दवाई आत्मिक रोगों को दूर करने के लिए। वह रोग है ‘जगत का मोह’ ‘माया की पकड़’। इस दवाई के साथ–साथ गुरू की बाणी के द्वारा उस अनुपान का भी हर रोज चेता करते रहना है, जो इस दवा का पूरा असर करने में मदद करें। वह है ‘हक की कमाई’, ‘ख़लकत की सेवा’ आदि।

जैसे स्कूल में से विद्यार्थी जो सबक पढ़ के आता है घर आ के उसने उस सबक को ध्यान से याद करना होता है, वैसे ही सत्संग में से सीखे हुए शबद का अभ्यास मनुष्य ने सारा दिन के काम–काज के वक्त करते रहना है। अगर ये अनुपान काम–काज के वक्त भूल गए, तो सवेर के वक्त बरती हुई दवा असर नहीं करेगी, आत्मिक रोग टिका ही रहेगा।

परहेज़, संयम

ये एक साधारण सी बात है कि जो मनुष्य संयम नहीं रखता, उसको दवाई कोई असर नहीं कर सकती। परहेज़ बहुत ही जरूरी है।

यही हाल है आत्मिक रोगों का। मनुष्य अमृत वेला में उठ के साध–संगति में जा के प्रभू की सिफत–सालाह की दवाई प्रयोग कर आए, गुरू की बाणी का पाठ कर ले, पर अगर वह सारा दिन काम–काज में, कार्य–व्यवहार में संयम नहीं बरतता तो आत्मिक रोग वैसे ही बने रहेंगे।

रोजी कमाने के आम तौर पर चार–पाँच ही तरीके हैं– खेती, दुकानदारी, व्यापार, नौकरी और मजदूरी। हरेक मनुष्य अच्छी तरह स्वयं ही जानता है कि वह अपना काम पूरी इमानदारी से कर रहा है कि नहीं। अगर नहीं करता तो वह पराया हक खा रहा है।

काम–वश हो के पराए रूप को बुरी नियत से देखना, पर–स्त्री–गामी होना – जीवन सफर में एक बहुत बड़ी कमी है। ईष्या, निंदा, अहंकार, लालच आदि अनेकों ही जीवन की ठोकरें हैं जिनसे सदा बच के रहना है; नहीं तों अमृत वेला की ली गई दवाई रोग काट नहीं सकेगी।

अब तक की विचार का निचोड़

माया का मोह कई रूपों में जीव को प्रभू–चरणों से विछोड़े रखता है, जीव अनेकों विचारों में उलझा रहता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरू मिलाता है। गुरू अपनी बाणी से मनुष्य को प्रभू–चरणों में जोड़ता है, अमृत–बेला में उठने का, साध–संगति में जुड़ के नाम–सिमरन का अभ्यासी बनने की ताकीद करता है। और, साथ–साथ वह सिखाता है कि हक की कमाई करनी है उस कमाई में से विक्त अनुसार ख़लकत की सेवा करनी है। पराए धन, पराए तन, पराई निंदा आदि से परहेज करते रहना है। गुरू अपने उपदेश से, अपनी करणी से, मनुष्य को ऊँचे आचरण वाला मनुष्य बनाता है, मनुष्य को देवता बना देता है। जीवात्मा को परमात्मा के साथ एक कर देता है।

पर, कई भुलेखे

बुराईयों को अपने अंदर से दूर कर के ऊँचा और पवित्र आचरण बनाना बहुत ही मुश्किल काम है, पहाड़ पर चढ़ने जैसा कठिन काम है। किसी भी एक बुराई का जोर विचार के देख लो। क्या दूसरों की निंदा करने की पड़ चुकी आदत छोड़ना कोई आसान काम है? ये एक ऐसा चस्का है कि घंटों इसी बुरी आदत में गुजर जाते हैं, अपने कई काम वैसे ही बिगड़ जाते हैं, पर निंदक निंदा नहीं छोड़ सकता।

सो, इस आसान जीवन–राह से हट के मनुष्य सिर्फ धार्मिक रस्में करने को ही धरम समझ लेता है। ये रस्में पूरी करके अपने आप में ये मान्यता बना लेता है कि मैं धर्मी बन रहा हूँ। देखना ये होता है कि ऐसी किसी मिथी हुई धार्मिक रस्म के करने से जीवन में कोई अंतर आया है अथवा नहीं, कोई बुरी आदत पहले से कमजोर हुई है अथवा नहीं।

अ. तीर्थ–स्नान

वैसे तो दिन सारे ही एक जैसे ही हैं। पर, मनुष्य किसी खास एक दिन को पवित्र मान के उस दिन किसी तीर्थ पर स्नान करके समझ लेता है कि मैं पुन्य कर्म कर आया हूँ। सिर्फ फर्ज निभा लेना ही काफी नहीं है। जरूरत इस बात की है, कि क्या तीर्थ–स्नान की बरकति से हॅक की कमाई करने की आदत बन गई है, पर–स्त्री की तरफ विकार भरी निगाह पड़ने से हट गई है, किसी से ईष्या तो नहीं रही, किसी का नुकसान देख के मन खुश तो नहीं होता। अगर तीर्थ–स्नान से मन में भली दिशा में इस तरह का बदलाव नहीं आया, तो तीर्थ–स्नान से आत्मिक जीवन के लिए क्या पाया?

आ– त्याग

गृहस्ती मनुष्य समझता है कि मनुष्य घर छोड़ के जंगल के आगोश में जा बैठा है उस पर माया के मोह का प्रभाव नहीं पड़ता। पर, यह भारी भुलेखा है। सर्व–व्यापक परमात्मा सारी ख़लकत में बसता है। यदि उसे ख़लकत में नहीं देखा, अगर ख़लकत की सेवा नहीं की, अगर ख़लकत से रूठ कर अलग जा बैठे तो मनुष्य के अंदर प्रेम–प्यार कैसे पैदा हो सकता है? परमात्मा है प्यार–स्वरूप। रूखे स्वभाव वाले त्यागी का, प्यार–स्वरूप–प्रभू से मेल होना असंभव है। शरीर को भोजन चाहिए, कपड़ा चाहिए, इसका भार गृहस्ती के कांधों पर क्यों पड़े? सामाधियों के आसरे रिद्धियाँ–सिद्धियाँ आदि करामाती शक्तियाँ हासिल करने से ‘त्यागी’ मनुष्य बल्कि ज्यादा विहवल हो जाता है। किसी को श्राप का डर देता है, किसी को वर का लालच देता है। परमात्मा से तो इसकी दूरी बनी ही रही, ख़लकत से भी।

इ– मूर्ति

जिससे प्यार हो, स्वाभाविक तौर पर जी करता है कि उसकी सूरत हमारी आँखों के सामने टिकी रहें। पर, ये प्यार है दुनियावी प्यार, दुनियावी रिश्तेदारों वाला प्यार। शरीर सदा साथ नहीं निभ सकते। मनुष्य का जी लोचता है कि मेरे अत्यंत प्यारे संबंधी की शारीरिक शक्ल सदा के लिए मेरे पास टिकी रहे; अगर वह शारीरिक तौर पर मुझसे विछुड़ जाए तो भी उसकी तस्वीर से, उसकी मूर्ति से, मैं उसको देख सका करूँ।

पर, जिस महापुरुष को, जिस अवतार को, जिस गुरू को मनुष्य अपना ईष्ट बनाता है, उसको बनाता है अपना आत्मिक जीवन ऊँचा करने के लिए। आत्मिक जीवन की उच्चता ये है कि मनुष्य के अंदर मेर–तेर मिटे, वैर–विरोध दूर हो, नफरत–ईष्या खत्म हो; अपने अंदर बसता परमात्मा सारी ख़लकत में बसता दिखे ता कि मनुष्य सब का भला माँगे, ज्यादती करने वाले का भी भला माँगे। ये आत्मिक उच्चता तब ही मनुष्य के अंदर पैदा हो सकती है यदि ये ऊँचे और पवित्र जीवन वाले अपने ईष्ट की आत्मा के साथ जुड़ा रहे। उच्च महापुरुष की आत्मा है उसकी बाणी। ज्यों–ज्यों मनुष्य अपने ईष्ट महापुरुष की बाणी के साथ जुड़ता है, उसके अंदर आत्मिक जीवन उच्चता बनाने वाले गुण बढ़ते–फूलते हैं।

जो मनुष्य अपने ईष्ट के आत्मिक जीवन से, आत्मा से, बाणी से एक–मेक होने की बजाए उसकी तस्वीर बना के उसकी मूर्ति बना के अपनी आँखों से, उस तस्वीर को, उसकी मूर्ति को अपने दिमाग़ में बसाने का यतन करने लग जाता है, तो वह सदीवी आत्मा की जगह नाशवंत शरीर के साथ ही प्यार बनाता है। आत्मिक उच्चता किनारे ही रह जाती है। नित्य मूर्ति के आगे धूप–बक्ती धुखा के पूजा करने वाला मनुष्य कभी यह सोचने की जहमत ही नहीं कर सकता, नहीं करता, कि इस उद्यम से मन में से बुराईयाँ कितनी कमजोर हुई हैं, कितनी कम हुई हैं। इस तरह, ये एक रस्मी उद्यम बन के ही रह जाता है।

भगवान की मूर्ति बनानी तो है ही एक अलौकिक बात। उसकी तस्वीर उसकी मूर्ति तो बन ही नहीं सकती। हाँ, सारी दुनिया के जीव–जन्तु उसकी ही मूर्तियाँ हैं। इनको पैदा करके इनमें वह बसता भी है और इनसे निर्लिप अलग भी है। भगवान की मूर्ति बना के उस करने वाला मनुष्य उसकी सर्व–व्यापकता भुला के उसको सिर्फ उसकी मूर्ति में ही देखने का यत्न करता रहता है और देखने का आदी हो जाता है। सर्व–व्यापक को सारी ख़लकत में देखने की आदत बना के जिस हृदय ने विशाल बनना था, वह संकुचित हो के ख़लकत से कटा रहता है। उसमें सर्व–व्यापक के उच्च गुण पुल्कित होने की जगह मेर–तेर, वैर–विरोध, नफ़रत–ईष्या पैदा करने वाली बुराईयाँ ही बढ़ती जाती हैं।

गुरमति की पटड़ी:

गृहस्थ में रहते हुए, काम–काज करते हुए मनुष्य ने अमृत–बेला में उठ के सत्संग में जा के परमात्मा की याद में नित्य जुड़ना है। काम–काज में कमाई सदा हॅक की ही करनी है, और, उसमें से जरूरतमंदों की सेवा भी करते रहना है, सेवा भी करनी है विनम्रता में रह कर। दिन में भी जब भी सबॅब बने, भले मनुष्यों की सोहबत करनी है। कुसंग से बचना है। किसी को कोई तकलीफ़ देनी अथवा किसी का कोई नुकसान करना तो एक तरफ रहा, किसी का दिल भी कभी कड़वे बोल बोल के नहीं दुखाना। दूसरे द्वारा हुई ज्यादती को बर्दाश्त करना है, बुराई करने वाले के साथ भी भलाई ही करनी है। परमात्मा की याद की इतनी आदत पकानी है कि चलते–फिरते–सोते हुए –जागते हुए हर वक्त ये याद मन में टिकी रहे। इस याद की बरकति से मन को सदा विकारों से रोकते रहना है। इस तरह अंदर पुराने टिके हुए बुरे संस्कार सहजे–सहजे मिटते–मिटते बिल्कुल ही मिट जाएंगे, आचरण इतना ऊँचा हो जाएगा कि जीवात्मा और परमात्मा एक–रूप हो जाएंगे। बस! यही है मुक्ति। मुक्ति से भाव है विकारों से सम्पूर्ण आजादी। जो मनुष्य इस अवस्था पर पहुँच गया, उसकी परमात्मा से दूरी समाप्त हो गई। उसको अपने अंदर और बाहर हर जगह हरेक जीव में वह सृजनहार प्रभू ही दिखने लगा। वह कभी छुप के भी कोई विकार नहीं कर सकता। छुपे भी तो किससे? देखने वाला तो उसको अपने ही अंदर बैठा सदा प्रत्यक्ष दिखाई देता है। सुख आए चाहे दुख आए, उसको सब कुछ परमात्मा की रजा में आया दिखता है, और रज़ा उसको मीठी लगने लग जाती है।

जीवन–यात्रा की इस पटड़ी पर मनुष्य को गुरू चलाता है, अपने उपदेश से, अपनी बाणी से, अपने जीवन–पद्–चिन्हों से। और, गुरू मिलता है परमात्मा की मेहर से।

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मूलमंत्र और शीर्षक
का
ठीक जगह का निर्णय

छपाई वाली (पहले छापेखाने वाली) श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की ‘बीड़ों’ (संस्करणों) में ये देखने में आता है कि जब कोई नया राग आरम्भ हो अथवा नया शबद–संग्रह शुरू हो तो शुरुवात में कई जगह पहले मूलमंत्र लिखा हुआ है और कई जगह ‘राग’ और ‘महले’ वाला शीर्षक लिखा हुआ है। कई वर्षों से श्रद्धालु प्रेमी सज्जन इन ‘बीड़ों’ से पाठ करते आ रहे हैं, शायद कभी किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया होगा कि यह विक्षेप्ता क्यों है।

जब शिरोमणी गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी अमृतसर ने श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की ‘बीड़’ की छपाई का काम अपने हाथों में लिया, तो प्रबंधकों ने छपाई आरम्भ करने से पहले श्री करतारपुर साहिब वाली उस ‘बीड़’ के साथ सुधाई की (मिला कर देखी) जो भाई गुरदास जी ने लिखी हुई है।

जो सज्जन इस सुधाई के काम पर लगाए गए, उनको उस ‘बीड़’ का लिखने का ढंग देख के ये नया ख्याल सूझा कि उस ‘बीड़’ में मूलमंत्र हर जगह पर ‘बीड़’ के पन्ने पर दाहिनी तरफ और आखिर पर ही लिखा हुआ है। छोटा मूल मंत्र ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’ तो दाहिनी तरफ एक ही पाल में समाप्त हो जाता है; पर जहाँ कहीं सारा मूलमंत्र लिखा हुआ है, वह उसी पक्ति में खत्म नहीं हो पाया क्योंकि हर जगह लिखना आरम्भ ही होता है पन्ने के अर्ध से दाहिनी ओर को। मूलमंत्र के बाकी बचे हिस्से को दूसरी व तीसरी पंक्ति में लिखा गया है; पर वह भी ऊपरी पंक्ति के नीचे की पंक्ति में। मूलमंत्र को कहीं भी बाई तरफ नहीं आने दिया गया।

उन सज्जनों ने कमेटी का ध्यान इस ओर दिलवाया। प्रबंधकों ने पंथ के कुछ मुखी विद्वानों का गठन करके इस पर निर्णय करवाया।

चार जरूरी बातें

मूलमंत्र की लिखाई के बारे में चार बातें सामने आ गई;

हरेक जगह मूलमंत्र पन्ने के दाहिनी तरफ ही है। साबत मूलमंत्र का पहली पंक्ति से बचा हुआ हिस्सा लिखने के वक्त भी पन्ने का दाहिना हिस्सा ही प्रयोग किया गया है।

कई जगहों पर यह मूलमंत्र शबद–संग्रह से ऊँचा रखा गया है।

‘राग’ और ‘महले’ वाला शीर्षक सदा ही पन्ने के बाई तरफ लिखा गया है। अगर कहीं शीर्षक लंबा हो गया है, तो इसको पन्ने के अर्ध से दाहिनी तरफ को नहीं जाने दिया गया। शीर्षक का बाकी बचा हिस्सा फिर से बाई तरफ ही पहले हिस्से के नीचे लिख दिया है।

शीर्षक और मूलमंत्र – इन दोनों के बीच पन्ने पर बहुत सारी जगह को खाली कोरा रखा गया है।

विद्वानों का फैसला

इस तरह गठित विद्वान सज्जन इस नतीजे पर पहुँचे कि पन्ने पर हर जगह मूलमंत्र को दाहिनी तरफ रख के मूलमंत्र को आदर–सत्कार दिया गया है। श्री हरिमन्दिर साहिब की परिक्रमा करने के वक्त सिख श्री हरिमन्दिर साहिब को दाएं हाथ ही रखता है। सो, श्री करतारपुर साहिब वाली ‘बीड़’ में मूलमंत्र को हमेशा प्राथमिकता दी हुई है। पढ़ने से पहले मूलमंत्र ही पढ़ना है। पुराने समय में लिखने का ढंग यही था कि आरम्भिक मंगलाचरण को दाहिनी तरफ ‘पहल’ दी जाए।

आगे हमेशा के लिए पाठकों को गलती से बचाने के लिए और सीधा व स्पष्ट राह दिखाने के लिए विद्वानों ने यह फैसला किया कि ‘बीड़’ छापने के वक्त मूलमंत्र को ‘पहले’ छापा जाए। पंजाबी की लिखाई बाई तरफ से दाहिनी ओर को जाती है। सो, इस फैसले के अनुसार मूलमंत्र, पन्ने के दाहिनी तरफ छापे जाने की जगह बाँई ओर से शुरू किया गया। सिर्फ इसी तरीके से मूलमंत्र को ‘पहल’ मिल सकती थी।

मत–भेद

जैसे सारे ही श्री गुरू ग्रंथ साहिब में अलग–अलग गुरू–व्यक्तियों और भगतों की बाणी लिखने की तरतीब एक–सार है एक जैसी है, वैसे ही विद्वानों के उस फैसले के मुताबिक मूलमंत्र को भी वह जगह मिल गई जो कहीं भी ना बदले। मूलमंत्र को हर जगह ‘पहल’ मिल गई। यह ‘पहल’ तो पहले भी मिली हुई थी, पर पाठ करने के समय गलती करने की संभावना बन रही थी।

सिख कौम के सामने एक नया सुझाव आया। कई सज्जनों ने इसको पसंद किया, कईयों को ये बुरा लगा। आहिस्ता–आहिस्ता शिरोमणी गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी के इस काम की विरोधता शुरू हो गई। विरोध इस हद तक जा पहुँचा कि आखिर शिरोमणी कमेटी ने अपने प्रबंध में श्री गुरू ग्रंथ साहिब की छपाई का काम अभी बंद कर दिया है।

जब मत–भेद वाली चर्चा पंथ में जोरों पर थी, तब ये खींचातानी भी शुरू हो गई थी कि मूलमंत्र, की सही जगह का निर्णय करने के लिए कौन सी ‘बीड़’ को ‘आधार’ माना जाए। श्री करतारपुर साहिब वाली ‘बीड़’ में तो मूलमंत्र सदा पन्ने के दाहिनी तरफ ही है; पर अनय कई हस्त–लिखित ‘बीड़ों’ में मूलमंत्र को बाई तरफ ला के कहीं मूलमंत्र को पहले लिखा हुआ है और कहीं ‘राग’ वाला शीर्षक पहले है। अपनी–अपनी जगह हरेक ‘बीड़’ ही पंथ में परवान है।

पंथ के विद्वान मिल के अभी तक श्री गुरू ग्रंथ साहिब में मूलमंत्र की सही जगह का ऐसा निर्णय नहीं कर सके जो सारे पंथ को मंजूर हो।

टीकाकार की जिंमेवारी

जैसे गुरू पातशाह ने मेहर की, मुझे दिसंबर 1920 में पहले ये सूझ मिली कि सारे श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की बोली उस समय के ‘व्याकरण’ के अनुसार है। धरती पर कभी भी कहीं भी ये नहीं हो सकता कि किसी ‘बोली’ का कोई ‘व्याकरण’ ना हो। आम जनता की अनपढ़ता के कारण अथवा किसी और कारण से यह तो हो सकता है कि वह ‘व्याकरण’ लिखती रूप में ना गया हो। 13 साल की मेहनत में जोड़ कर पातशाह ने मुझे श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का ‘व्याकरण’ लिख के सिख पंथ के सामने रखने में सफलता बख्शी।

उस ‘व्याकरण’ के आधार पर मैं कई बाणियों के टीके भी पंथ के सामने रखता गया। नया रास्ता था। पहले–पहल थोड़ी–बहुत विरोधता होनी कुदरती बात थी। पर, आज का पढ़ा–लिखा नवयुवक आहिस्ता–आहिस्ता मेरे साथ हो चला। आखिर, गुरू–पातशाह की कृपा से सारे ही श्री गुरू ग्रंथ साहिब का टीका तैयार हो के और छाप के बाणी के प्रेमियों के हाथों में पहुँच गया है। मैं कई जगहों पर गलतियाँ कर गया होऊँगा। पर, पाठक ये अवश्य देखेंगे कि जो ‘गुरबाणी व्याकरण’ मैंने सन् 1939 में छाप के पंथ के सामने पेश किया था, मैं ये टीका लिखने के वक्त उसी कसौटी पर बने रहने का यतन करता रहा हूँ।

मेरी कोई बिसात नहीं कि मूलमंत्र वाले जिस मतभेद को पंथ के विद्वान अब तक हल नहीं कर सके, उसके बारे में मैं नाचीज़ कोई राय देने का साहस करूँ। पर जिस ‘व्याकरण’ अनुसार गुरू पातशाह की मेहर से ये टीका लिखना सफल हुआ है, अगर मैंने मूलमंत्र की सही जगह के बारे में उस ‘व्याकरण’ को नहीं बरता, तो मैं टीकाकर वाली जिम्मेवारी निभाने में गलती कर जाऊँगा। टीके में भी कई गलतियां रह गई होंगी। मूलमंत्र के बारे में विचार करते हुए भी मुझे ठोकरें लग सकती हैं। गुरू पातशाह और पातशाह का पंथ बख्शने वाला है।

‘छापे की ‘बीड़’ से विश्लेषण:

देखें 1430 सफों वाली ‘बीड़’ का पन्ना 901, शबद महला ९ के।

ये तीन शबदों का संग्रह है। इसको आखिरी ओर से पढ़ना शुरू करो। आखिरी शबद की पहली तुक है ‘प्रानी नाराइन सुधि लेहि’। इस शबद का शीर्षक पढ़ें। क्या है? शीर्षक है ‘रामकली महला ९’।

अब इससे ऊपर के दूसरे शबद की पउड़ी देखिए। वह है ‘साधो कउन जुगति अब कीजै’। इस का शीर्षक भी पढ़ें। क्या है? शीर्षक है ‘रामकली महला ९’।

अब इससे ऊपर के पहले शबद की पउड़ी की तुक को पढ़ें वह है ‘रे मन ओटि लेहु हरि नाम’। अब इस का शीर्षक पढ़ें। क्या है? शीर्षक है ‘रागु रामकली महला ९’।

अब छापे की ‘बीड़’ का पन्ना 1008, शबद महला ९ के।

यह संग्रह भी तीन शबदों का है। इस संग्रह को भी आखिरी तरफ से देखना शुरू करें।

आखिर शबद की पहली तुक है ‘माई मै मन को मानु न तिआगिओ’। इसका शीर्षक देखो। क्या है? शीर्षक है ‘मारू महला ९’।

अब इससे ऊपर का शबद पढ़ो। उसकी पहली तुक है ‘अब मै कहा करउ री माई’। इसका भी शीर्षक देखो। क्या है? शीर्षक है ‘मारू महला ९’।

अब इस संग्रह का सबसे ऊपर का पहला शबद देखो। उसकी पहली तुक है ‘हरि को नामु सदा सुखदाई’। इसका शीर्षक क्या है? शीर्षक है ‘मारू महला ९’।

अब देखते हैं छापे की ‘बीड़’ का पन्ना 1186, शबद महला ९ के।

इस संग्रह में पाँच शबद हैं। इस संग्रह को भी आखिरी तरफ से देखना शुरू करें।

आखिर शबद की पहली तुक है ‘कहा भूलिओ रे झूठे लोभ लाग’। इस शबद का शीर्षक देखो। क्या है? शीर्षक है ‘बसंत महला ९’।

इससे ऊपरी शबद की पहली तुक है ‘मन कहा बिसारिओ राम नामु’। इस शबद का भी शीर्षक है ‘बसंत महला ९’।

अब इससे ऊपरी शबद की पहली तुक पढ़ें। वह है ‘माई मै धनु पाइओ हरि नामु’। इस शबद का शीर्षक क्या है? शीर्षक है ‘बसंत महला ९’।

अब देखिए इससे पहला शबद। पहली तुक है ‘पापी हीअै मै कामु बसाइ’। इस शबद का शीर्षक है ‘बसंत महला ९’।

आईए अब सबसे पहले शबद पर। इसकी पहली तुक है ‘साधो इहु तनु मिथिआ जानो’। इस शबद का शीर्षक देखो। क्या है? शीर्षक है ‘रागु बसंतु हिंडोल महला ९’।

निर्णय

पाठकों के सामने सिर्फ तीन संग्रह पेश किए गए हैं। इनमें से हरेक संग्रह के शुरू में है मूलमंत्र ‘ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि’।

पाठक इस तरफ ध्यान दें कि हरेक संग्रह के हरेक शबद की शीर्षक ऐ जैसा ही है। पहला संग्रह था राग रामकली का, और, हरेक शबद का शीर्षक भी था ‘रामकली महला ९’। दूसरा संग्रह था राग मारू का; और, हरेक शबद का शीर्षक भी था ‘मारू महला ९’। तीसरा संग्रह था राग बसंत का; और यहाँ भी यही बात थी कि हरेक शबद की शीर्षक था ‘बसंतु महला ९’।

और किस्म का संग्रह

अब छापे वाली ‘बीड़’ में से पाठकों के सामने एक और किस्म के संग्रह पेश किए जाते हैं।

देखें छापे की ‘बीड़’ का पन्ना 1171,‘महला १ बसंतु हिंडोल घरु २’।

इस संग्रह के चार शबद हैं। इसका सबसे आखिरी शबद देखें।

इसकी पहली तुक है ‘साचा साहु गुरू सुखदाता, हरि मेले भुख गवाऐ’।

इस शबद का शीर्षक क्या है? शीर्षक है ‘बसंतु हिंडोल महला १’।

अब देखें इसके ऊपर का शबद जिसकी पहली तुक है ‘राजा बालकु नगरी काची, दुसटा नालि पिआरो’।

इस शबद का शीर्षक क्या है? शीर्षक है ‘बसंतु हिंडोल महला १’।

अब पढ़िए इससे ऊपर का शबद। उसकी पहली तुक है ‘साहुरड़ी वथु सभु किछु साझी, पेवकड़ै धन वखे’। इसका भी शीर्षक है ‘बसंतु हिंडोल महला १’।

अब इस संग्रह का सबसे पहला शबद देखें। इसकी पहली तुक है ‘सालग्राम बिप पूजि मनावहु, सुक्रित तुलसी माला’।

इस शबद का शीर्षक क्या है? जरा ध्यान से देखना जी। शीर्षक है ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’। ये क्या?

अब छापे की ‘बीड़’ का पंन्ना 1178 देखें। ‘बसंतु हिंडोल महला ४ घरु २’।

इस संग्रह में पाँच शबद हैं। इसको भी पिछली तरफ से देखना शुरू करें। आखिरी शबद की पहली तुक है;

‘आवण जाणु भइआ दुखु बिखिआ, देह मनमुख सुंञी सुंञु’।

इस शबद का शीर्षक क्या है? शीर्षक है ‘बसंतु हिंडोल महला ४’।

अब लें इससे पहले का शबद। इसकी पहली तुक है;

‘मनु खिनु खिनु भरमि भरमि बहु धावै, तिलु घरि नही वासा पाईअै’।

इस शबद का शीर्षक देखें। क्या है? शीर्षक है ‘बसंतु हिंडोल महला ४’।

चलें अब इससे ऊपर के शबद की ओर। पहली तुक है;

‘मेरा इकु खिनु मनूआ रहि न सकै, नित हरि हरि नाम रसि गीधे’। इसका भी शीर्षक देखें। क्या है? शीर्षक है ‘बसंतु हिंडोल महला ४’।

आईए, अब इससे पहले शबद को देखें। इसकी पहली तुक है ‘तुम् वड पुरख वड अगम गुसाई, हम कीरे किरम तुमनछे’। पढ़िए अब इस शबद का शीर्षक। शीर्षक है ‘बसंतु महला ४ हिंडोल’।

अब देखते हैं इस संग्रह का सबसे पहला शबद। उसकी पहली तुक है ‘राम नामु रतन कोठड़ी, गढ़ मंदरि ऐक लुकानी।’

इस शबद का शीर्षक पढ़े जी। ध्यान से पढ़ें जी। शीर्षक है ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’। अरे, ये क्या? फिर ध्यान से पढ़ लेना जी । यही है ना?

पाठकों का ऐतराज़

पाठक शायद कहें कि ये दो संग्रह अगर मैंने उनके सामने पेश किए हैं, इनके सबसे पहले शबद की शीर्षक मैंने गलत पेश किया है। वह शीर्षक तो है ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’ से पहले लिखा हुआ।

पाठक सज्जन जी! जो कुछ लिखा हुआ है उसको पढ़ो। जिस तरतीब से लिखा हुआ है उसी तरतीब से पढ़ो। हम अपनी ओर से गलत दलीलें ना घड़ें। शबद के शुरू में साथ ही लिखे हुए शब्दों ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’ को हम अन–लिखित मिथ के आँखों से ओझल नहीं कर सकते। जिस तरीके से और शबदों के शीर्षक पढ़ते आए हो, वही तरीका यहाँ भी बरतो।

दो किस्म के संग्रह:

दो गुंझलें

जिस शबद का शीर्षक है ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’, वह किस–किस ‘राग’ का शबद है और किस गुरू–व्यक्ति की रचना है? अगर कोई पाठक सज्जन इस प्रश्न का उक्तर ढूँढने के लिए ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’ से आगे बढ़ के शबद का ‘राग’ और ‘महला’ बताता है, तो बात सीधी और साफ है कि यह उसकी अपनी ही मान्यता है।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दूसरी किस्म के कई ऐसे संग्रह हैं, जिनमें एक–एक सौ शबद से भी ज्यादा ‘वधीक’ हैं। ऐसे संग्रहों में पहले शबद को छोड़ के बाकी हरेक शबद का शीर्षक एक जैसा है। सिर्फ पहले शबद का शीर्षक है ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’। ये फर्क क्यों?

नियम–बद्ध और आसान

जो पाठक मेरे लिखे टीके की पहली पोथी के दूसरे लेख ‘अंदरूनी संरचना’ को ध्यान से पढ़ चुके हैं, वे जानते हैं कि गुरू अरजन साहिब ने सारी बाणी की तरतीब आदि की संरचना ऐसी नियम–बद्ध की हुई है और इतनी आसान है कि किसी भी पाठक को कभी भी कोई गलती नहीं लग सकती। सारी ही संरचना ऐसी है कि हरेक पाठक इसको आसानी से समझ सकता है। पर, इस दूसरी गुंझल वाले फर्क को कोई भी पाठक जबानी याद करके चेते नहीं रख सकता। भला, अगर कोई विरला पाठक याद भी कर सकता है तो प्रश्न ये उठता है कि उसकी याद–शक्ति पर ये ज्यादा भार क्यों?

जिन संग्रहों के शुरू में मूलमंत्र ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’ दर्ज है, उनमें कैसी सीधी–सपाट और आसानी से याद रहने वाली यह मर्यादा है कि उनके हरेक शबद का शीर्षक एक जैसा है।

गलती की संभावना

श्री करतारपुर साहिब वाली ‘बीड़’ में मूलमंत्र दाहिनी तरफ लिखा हुआ है। और भी कई पुरानी हस्त–लिखित ‘बीड़ों’ में यही बात देखी गई है।

अगर मूलमंत्र को हर जगह पहले ही पढ़ना आवश्यक है, तो हस्त–लिखित ‘बीड़ों’ से पाठ करने वाले पाठक को हर वक्त सचेत रहने की जरूरत रहती है। पहले वह दाहिनी ओर से मूलमंत्र को पढ़ ले, और, फिर बाई ओर से शीर्षक पढ़ के बाणी का पाठ शुरू करे। यह सावधानी बनाए रखनी कोई आसान काम नहीं है। पाठक अनेकों बार गलती कर सकता है और कर जाता है।

वैसे इस गलती से बचने के लिए हस्त–लिखित ‘बीड़ों’ में प्रबंध साफ मौजूद है। प्रबंध ये है कि मूलमंत्र पन्ने के दाहिनी ओर आखिर में है, तथा शीर्षक और मूलमंत्र के बीच आम तौर पर काफी जगह खाली रख के दूरी बनाई हुई है।

हिदायत का लिखित रूप में ना होना

पर, हरेक पाठक को कैसे पता हो कि हस्त–लिखित ‘बीड़’ से पाठ करने के वक्त पहले दाहिनी तरफ लिखे मूल–मंत्र का पढ़ना है, और फिर बाई तरफ आ के ‘शीर्षक’ पढ़ के बाणी का पाठ शुरू करना है?

जब उस समय जब हस्त–लिखित ‘बीड़ें’ ही थीं, पाठ करने के बारे में कोई ऐसा निर्देश था भी, तो वह हिदायत सिर्फ सीना–ब–सीना ही थी। और ज़बानी चले आ रहे निर्देश आखिर बदल भी सकते हैं।

ज्यों–ज्यों गुरसिखों की गिनती बढ़ती गई, और ज्यों–ज्यों श्री गुरू ग्रंथ साहिब की ज्यादा ‘बीड़ों’ की जरूरत पड़ती गई, ‘बीड़ों’ के लिखारी कातिबों की गिनती भी ज्यादा होती गई। हस्त–लिखित ‘बीड़ों’ पर पाठ करने की बाबत यदि कोई सीना–ब–सीना हिदायत थी, तो वह सहजे–सहजे बिसरती गई। ‘बीड़ों’ के लिखारियों ने लिखने के वक्त अपनी–अपनी समझ बरतनी शुरू कर दी। ये बात थी भी कुदरती। ऐसा प्रतीत होता है कि जिनको सीना–ब–सीना हिदायत का अभी पता था उन्होंने या तो शीर्षक और मूल–मंत्र के बीच के रिक्त स्थान को प्रति बनाते समय (उतारा करते वक्त) कायम रखा, और, या खुल्लम–खुल्ला मूलमंत्र को लिखने में ‘पहल’ दे दी। उन्होंने मूलमंत्र को हरेक शबद–संग्रह में दाहिनी तरफ विशेष जगह दे कर रखी, अथवा मूलमंत्र को पन्ने के बाई ओर से ही लिखना शुरू कर दिया। जिनको उस हिदायत का पता नहीं था, उन्होंने शीर्षक और मूलमंत्र के बीच के रिक्त स्थान को खत्म ही कर डाला। इस तरह मूलमंत्र की ‘पहल’ के बारे में दो किस्म की ‘बीड़ें’ बन गई।

मेरा ना–जानना

दिसंबर 1920 में गुरू तेग बहादर साहिब जी की शहीदी दिन पर खालसा हाई स्कूल गुजरांवाले के होस्टल के गुरद्वारे में रखे हुए अखंड पाठ में पाठ करते हुए मुझे पहली बार यह समझ पड़ी कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब की बाणी की बोली किसी खास व्याकरण के अनुसार है।

यह व्याकरण लिखने में मेरे 13 साल लग गए। छप के ये पाठकों के हाथ संन् 1939 में पहुँच भी गया।

पर, संन् 1951 तक मेरा ध्यान कभी इस तरफ नहीं गया कि छपी हुई ‘बीड़ों’ में ‘मूल–मंत्र’ किसी एक पक्के ठिकाने पर नहीं है।

पहली समझ

संन् 1951 की बात है। मैं अभी खालसा कालेज अमृतसर में ही था। अमृतसर शहर के किताबें बेचने वाले एक–दो दुकानदार सज्जनों द्वारा छपे हुए इश्तिहार और ट्रैक्ट मिलने शुरू हो गए। ये इश्तिहार आदि शिरोमणी गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी के विरुद्ध थे।

कमेटी ने पंथ की चिरों की तमन्ना पूरी करने के लिए अपना प्रेस चला के श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की ‘बीड़’ का काम अपने हाथों में ले लिया था। दुकानदार सज्जनों द्वारा ये आंदोलन था कि कमेटी द्वारा छपी ‘बीड़’ में कई अशुद्धियाँ हैं, और कमेटी ने ‘मूल–मंत्र’ को हर जगह बाणी के आरम्भ में दर्ज कर दिया है।

दुकानदारों के ट्रैक्ट आदि पढ़ के मैंने शिरोमणी गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी को चिट्ठी लिखी कि कुछ सज्जनों द्वारा किए जा रहे इस आंदोलन के बार में कमेटी का क्या पक्ष है। शिरोमणी कमेटी के दफतर से मुझे एक छपा हुआ ट्रैक्ट मिला। मैंने वह सारा ट्रैक्ट ध्यान से पढ़ा। मेरी आँखें खुल आई कि सारे श्री गुरू ग्रंथ साहिब में हर जगह ‘मूल–मंत्र’ की सही जगह बाणी के आरम्भ में ही होनी चाहिए।

पक रही दाल में से एक ही दाना

हमारे देश की कहावत है कि पक रही दाल में से एक ही दाना देखा जाता है और दाल की हालत का पता चल जाता है। जब हम ये देखते हैं के श्री गुरू ग्रंथ साहिब में हर जगह हरेक ‘राग’ के आरम्भ में सबसे पहले श्री गुरू नानक देव जी की बाणी दर्ज है। भगतों की बाणी दर्ज करते वक्त सबसे पहले जगह मिली हुई है भगत कबीर जी को। इस तरह मूलमंत्र के संबंध में भी कोई ही बँधा हुआ नियम होगा।

रागों का ततकरा (विषय–अनुक्रमणिका)

शिरोमणी कमेटी द्वारा छपे हुए ट्रैक्ट में सबसे पहले रागों के अनुक्रमणिका (ततकरे) का वर्णन था। श्री करतारपुर वाली ‘बीड़’ में, जो भाई गुरदास जी के हाथों की लिखी हुई है, ‘बीड़’ के शुरू में ही रागों का ततकरा जैसे लिखा हुआ है, वह शिरोमणी कमेटी के ट्रैक्ट में इस प्रकार दिया हुआ था;

सूची पत्र पोथी का ततकरा रागां का;

41 जोतीजोति समावणे का चरित्र–-------------------ੴ सतिनाम करतापुरख निरभउ

संबत 1661 मिती भादउ वदी ऐकम १–---------------निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं

पोथी लिखि पहुँचे–-------------------------------------गुरप्रसादि

40 नीसाणु गुरू जीउ के दसखता महला ५---------------..811– तुखारी... ... ... ...
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745 मारू..............................974 राग माला तथा सिंघलादीप

राजे शिवनाभ की बिधि

यहाँ मूलमंत्र दाहिनी तरफ लिखा हुआ है। रागों के पृष्ठों का ततकरा पढ़ने के लिए पहले ‘मूल–मंत्र’ को ही पढ़ना पड़ेगा। नहीं तो इसको ‘745 मारू’ के बाद पढ़ना पड़ेगा। ये भारी भूल होगी। सो यहाँ से ही ‘मूलमंत्र’ की चाबी मिल जाती है। श्री करतारपुर साहिब वाली ‘बीड़’ में ‘मूल–मंत्र’ हर जगह दाहिनी तरफ है। पाठ करने के वक्त इसको पहल देनी है।

एक विषोश एकत्र श्री करतारपुर में:

बड़ी सादी और सीधी–साधी बात थी। पर, ईश्वर जाने क्यों? शिरोमणी कमेटी के इस उद्यम की सहजे–सहजे विरोधता बढ़ती गई। आखिर 9 मई संन् 1954 को श्री करतार पुर साहिब में सिख संगतों की सभा हुई, जिसमें ‘मूलमंत्र’ के बारे में निर्णय करने के लिए एक सब–कमेटी बनाई गई।

मैं उस दिन श्री करतारपुर गया हुआ था, और उस दिन के एकत्र में पेश हुए विचारों को सुनता रहा था।

उस सब–कमेटी ने 30मई 1954 को श्री करतारपुर जा के ही अपना फैसला इस तरह दिया;

“हम, जिनके हस्ताक्षर नीचे हैं, जिनको 9 मई 1954 यहीं पर संगति ने इस काम के लिए चुना था, आज सभी पक्षों की विचार सुन के इस फैसले पर पहुँचे हैं कि जो बीड़ श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की भविष्य में छपे उसमें मंगलों की तरतीब इस प्रकार रखी जाए जैसे कि करतारपुर वाली बीड़ में है। जहाँ मंगल ऊँचा है वह राग से पहले आए। जहाँ उसी पंक्ति में बाद में आया है अथवा निम्न है अथवा दूसरी पंक्ति में है, वह राग के बाद।

नौवें पातशाह के शबदों में मंगल की तरतीब अकाल तख्त वाली बीड़ से जिस की जिल्द सुनहिरी है, और जो बीड़ दमदमा साहिब गुरद्वारा मंजी साहिब में है, उसे उसके अनुसार कर दी जाए।”

(दस्तख़त मैंबरों के)

नोट: 30 मई सन् 1954 को मूल–मंत्र के बारे में सब–कमेटी का फैसला सुनने के लिए मैं श्री करतारपुर साहिब नहीं गया था।

तसल्ली ना करा सका:

यह ‘फैसला’ समूची कौम की तसल्ली ना करा सका। मसला बना ही रहा। रागों के ततकरे में लिखे ‘मूल–मंत्र’ का हल ही यह ‘फैसला’ नहीं बता रहा। अगर ये मान लें कि ततकरे वाला मूल–मंत्र बाई हाथ वाली लिखत के एैन सामने है, तो ‘फैसले’ के मुताबिक इसको कहाँ पढ़ेंगे? ‘पहले’ तो पढ़ नहीं सकते।

नई सब–कमेटी:

शिरोमणी कमेटी के प्रधान साहिब मास्टर तारा सिंघ जी ने इस ‘फैसले’ की शब्दावली को स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित तीन लोगों की फिर एक सब–कमेटी बनाई;

जस्टिस हरनाम सिंह जी, जज हाई कोर्ट पंजाब।
बावा हरिकिशन सिंह जी प्रिंसीपल सिख नैशनल कालिज कादियां।
साहिब सिंह

(नोट: मैं तब शहीद सिख मिशनरी कालेज अमृतसर का प्रिंसीपल था)।

इस सब–कमेटी ने इस प्रकार फैसला किया;

“शिरोमणी गु: प्र: कमेटी की अंतरिंग कमेटी के प्रस्ताव नं: 728 तिथि 9.5.1955 अनुसार प्रधान साहिब शिरोमणी गु: प्र: कमेटी श्री मास्टर तारा सिंह जी ने 20.10.1955 को दासों को नियत किया कि करतारपुर साहिब वाली बीड़ के दर्शन कर के मंगलाचरण संबंधी अपने विचार बतौर सिफारिश पेंश करें। सो, दासों ने श्री करतारपुर साहिब की पावन बीड़ के दर्शन किए और खास समय तक पड़ताल की, जिस द्वारा दास इस नतीजे पर पहुँचे कि श्री करतारपुर साहिब वाली पावन बीड़ में मंगलाचरण को राग के शीर्षक से हर जगह पहल दी गई है, और इस बीड़ के अनुकूल यही बात है कि मंगलाचरण पहले ही छपें।”

(सही) बावा हरिकिशन सिंह

प्रिंसीपल सिख नैशनल कालज कादियां 29.10.1956

(सही) साहिब सिंह

प्रिंसीपल शहीद सिख मिशनरी कालेज अमृतसर –29.10.1956

(सही) हरनाम सिंह 8.11.1956

हस्तलिखित ‘बीड़’ से पाठ करने के बारे में मेरा तज़रबा

अँजल का चक्कर मुझे 16 मई 1962 से गाँव सिधवा बेट (जिला लुधियाना) में ले गया। वह गाँव जगराव से जलंधर को जाने वाली सड़क पर है। सड़क गाँव के बीच में से गुजरती है। सड़क से पूर्व दिशा चढ़ती तरफ में दुकानदार और व्यापारी सज्जन बसते हैं, पश्चिम की ओर एतराई की ओर जिमींदार। आज से बहुत समय पहले जिमींदार सज्जन तो सरवरिए थे, और पूरब दिशा वाले कई वाशिंदे बाबा राम राय जी की गद्दी के श्रद्धालू थे। पर अब ये बात नहीं रही।

बाबा राम राय जी की गद्दी के श्रद्धालु एक घर में हस्त–लिखित ‘बीड़’ चली आ रही है। पुरानी श्रद्धा उनकी भी खत्म हो चुकी है, पर घर में ‘बीड़’ अभी मौजूद है। इस ‘बीड़’ में गुरू तेग बहादर साहिब की बाणी नहीं है।

मूल मंत्र का स्थान (उक्त ‘बीड़’ में)

उस ‘बीड़’ में मूलमंत्र हर जगह दाहिनी तरफ ही है। अगर सारा मूलमंत्र लिखा है, तो उसको आम तौर पर दो पंक्तियों में लिखा है दाहिनी तरफ ही। बाई ओर मूल मंत्र बिल्कुल नहीं लाया गया। ‘राग’ और ‘महले’ वाला शीर्षक बाई ओर लिखा गया है। दोनों के बीच काफी जगह खाली पड़ी है। हर जगह आम तौर पर यही तरीका बरता गया है।

हस्त–लिखित ‘बीड़’ का प्रकाश

कई गुरद्वारों में और कई सिख घरों में अभी तक हस्त–लिखित ‘बीड़’ का प्रकाश किया जाता है। उस गाँव सिधवां बेट के एक सिख–घर में उस हस्त–लिखित ‘बीड़’ का प्रकाश होता है जिसका मैंने ऊपर वर्णन किया है। गली मुहल्ले के कुछ वसनीक सिख उस ‘बीड़’ से हर रोज पाठ करते हैं।

मैंने भी दोनों दिन जा के उसके दर्शन किए, हर बार दो–दो घंटे खर्च किए। मुझे जरूरत मूलंमंत्र के बारे में ही थी।

छोटा मूल मंत्र;

(उ) मूल मंत्र ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’

छोटे आकार का ये मूलमंत्र पन्ने के दाहिनी तरफ थोड़ी जितनी जगह में ही लिखा हुआ है। कई जगह ये विषोश तौर पर बड़ा करके लिखा हुआ है। कई जगह इसके ऐन सामने बाई तरफ ‘राग’ और महले वाला शीर्षक है। दोनों के बीच दो–दो तीन–तीन इंच पृष्ठ खाली रखा हुआ है।

मैं पाठकों के सामने उदाहरण के तौर पर कुछ पृष्ठों को रखूँगा;

पृष्ठ नं: 71

रागु गउड़ी गुआरेरी महला ४...........‘ੴ सतिगुर प्रसादि’॥

चउपदे॥ पंडितु सासत सिमिति पढ़िआ॥ ......

यहाँ अगर हम शब्द ‘रागु’ से पाठ शुरू करें, तो शब्द ‘चउपदे’ के बाद पढ़ना पड़ेगा। पाठ इस प्रकार बनेगा: रागु गउड़ी गुआरेरी महला ४ ‘ੴ सतिगुर प्रसादि’॥ चउपदे॥ पंडितु सासत सिमिति पढ़िआ॥ ......

(नोट: ये भी देखना कि विश्राम चिन्ह भी आप्रासंगिक से बन गए हैं)।

पर ये विश्राम चिन्ह (॥ ) तो हमें इजाजत ही नहीं देता कि हम इसका पाठ करें। ध्यान से देखना जी। शीर्षक का शब्द ‘महला ४’ के आगे को विराम–चिन्ह नहीं है। विराम चिन्ह शब्द ‘चउपदे’ के साथ है। इसका प्रत्यक्ष भाव ये है कि शीर्षक शब्द ‘राग’ से शुरू करके ‘चउपदे’ पर जा के समाप्त होता है। यह सारा एक साथ ही पढ़ना पड़ेगा।

अच्छा! साधारण मर्यादा के अनुसार हमने शब्द ‘राग’ से पाठ शुरू किया और सारा शीर्षक, सिर्फ शीर्षक, पढ़ के समाप्त करके हम दूसरी पंक्ति पर जा पहुँचे। अब क्या ‘मूलमंत्र’ पढ़ने के लिए हमने दोबारा वापस पहली पंक्ति की तरफ जाना है? अथवा हमने शब्द ‘चउपदे’ से आगे का पाठ शुरू करना है? मूलमंत्र पढ़ने के लिए दोबारा पहली पंक्ति की ओर पलटना तो बड़ा ही अजीब और बेतुका सा तरीका लगता है। क्या हरेक पाठक को पहले ये ढंग समझाया जाएगा? फिर भी ये याद नहीं रह सकता। अथवा, फिर मूलमंत्र अल्रग ही रहने दिया जाए, इसे पढ़ना ही छोड़ दें। इस तरह तो ये बेअर्थ बन के रह गया।

पाठक फिर इस मुश्किल को समझ लें।

(अ) हम ‘शीर्षक’ को दो हिस्सों में नहीं बाँट सकते, क्योंकि विश्राम–चिन्ह (॥ ) रोक डालता है। हमें अवश्य शब्द ‘चउपदे’ तक पहुँचना होगा।

(आ) ‘शीर्षक’ समाप्त करने के लिए हम दूसरी पंक्ति तक पहुँच गए। अब ‘मूल मंत्र’ पढ़ने के लिए हमें दोबारा पहली पंक्ति की ओर जाना पड़ रहा है।

(इ) अगर ये ढंग ना बरता जाए, तो ‘मूलमंत्र’ अलग ही पड़ा रह जाएगा, इसका पाठ नहीं हो सकेगा।

अब देखें छापे की ‘बीड़’ पन्ना 163;

वहाँ यही शीर्षक आदि इस तरह छपा हुआ है;

गउड़ी गुआरेरी महला ४ चाउथा पउपदे

ੴ सतिगुर प्रसादि॥ पंडितु सासत सिम्रिति पढ़िआ॥ ......

हस्त–लिखित ‘बीड़’ से इसमें फर्क थोड़ा सा ध्यान से देखने वाले हैं;

शब्द ‘चउपदे’ से अगला विश्राम–चिन्ह ‘॥’ हटा दिया गया है।

ये शब्द ‘चउपदे’ से आगे हस्त–लिखित ‘बीड़’ में ‘शबद’ शुरू हो जाता है जिसकी पहली तुक है ‘पंडितु सासत सिमिति पढ़िआ’। पर, छापे की ‘बीड़’ में ‘चउपदे’ के आगे ‘मूल मंत्र’ ‘ੴ सतिगुर प्रसादि॥’ छपा हुआ है। हस्त–लिखित ‘बीड़’ वाली तरतीब उलट–पुलट कर दी गई है।

नोट: हस्त–लिखित ‘बीड़’ में ‘राग’ और ‘महले’ वाला शीर्षक समाप्त होने पर हमेशा विश्राम–चिन्ह ‘॥’ लिखा मिलता है। पर, छापे की ‘बीड़ों’ में जहाँ–जहाँ इस शीर्षक को मूलमंत्र से पहलें छापा गया है, वहाँ–वहाँ इसका विश्राम–चिन्ह ‘॥’ हटा दिया गया है और शीर्षक, मूलमंत्र और बाणी की तरतीब आगे–पीछे कर दी गई है।

नोट: आगे और जितने भी प्रमाण मैं हस्त–लिखित ‘बीड़’ में से पेश करूँगा, उनके साथ छापे वाली ‘बीड़’ के सिर्फ ‘पन्ने’ ही दे दूँगा। नहीं तो यह लेख बहुत बढ़ता जाने के कारण पाठकों के लिए बोरियत का कारण बन जाएगा। पाठक स्वयं देख लें कि हर जगह उपरोक्त एतराज बनते गए हैं।

पृष्ठ नं: 98

राग गउड़ी गुआरेरी महला ३....ੴ सतिगुर प्रसादि॥

असटपदीआ॥ मन का सूतकु....

(देखें छापे वाली ‘बीड़’ का पन्ना 229)

पृष्ठ नं: 101

राग गउड़ी गुआरेरी महला ५....ੴ सतिगुर प्रसादि॥

असटपदीआ॥ जब इहु मन महि करत गुमाना॥
(देखें छापे वाली ‘बीड़’ का पन्ना 235)

पृष्ठ नं: 158 (दूसरी तरफ)

राग आसा महला ५....ੴ सतिगुर प्रसादि॥

घरु २॥ जिनि लाई प्रीति सोई फिरि खाइआ॥ ....

(देखें छापे वाली ‘बीड़’ का पन्ना 370)

इन ऊपर दिए हुए तीन प्रमाणों का पाठ करने में भी वही मुश्किलें हैं जो पहले प्रमाण में दी गई हैं। ऐसे और कितने ही प्रमाण इस उपरोक्त लिखी ‘बीड़’ में से दिए जा सकते हैं।

(अ) सारा मूलमंत्र

ੴ सतिनाम करतापुरख निरभउ निरवैरु

अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥

ये सारा मूलमंत्र उस हस्त–लिखित ‘बीड़’ में से पढ़ने में रुकावटें पड़ रही हैं।

पाठकों के सामने मैं थोड़े ही प्रमाण रखूँगा;

पृष्ठ नं: 42

राग माझ महला ४ चउपदे....ੴ सतिनाम करतापुरख निरभउ निर

घरु १॥ हरि हरि नामु.........वैरु अकालमूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥

(देखें छापे वाली ‘बीड़’ का पन्ना 94)

यहाँ सारा ही मूलमंत्र दिया गया है। पर है यह भी ‘बीड़’ के पन्ने की दाहिनी तरफ ही, निरोल दाहिनी ओर। चाहे ये दो पंक्तियों में लिखा हुआ है, पर, दूसरी पंक्ति भी दाहिनी तरफ ही है। बाई तरफ इसको नहीं आने दिया गया।

इस मूलमंत्र को पढ़ने के लिए मूलमंत्र से भी ज्यादा मुश्किल आ बनी है। ध्यान से देखना जी। मूलमंत्र का कुछ हिस्सा दाहिनी तरफ है, उसके एैन सामने है शीर्षक का कुछ हिस्सा। अगली पंक्ति में मूलमंत्र का बाकी हिस्सा पहले हिस्से के बिल्कुल नीचे है, और उसके ऐन सामने शीर्षक का बाकी का हिस्सा लिख के विश्राम–चिन्ह दे के शबद शुरू किया गया है।

अब इसको पढ़ें। पाठ नीचे लिखे अनुसार बन जाएगा;

राग माझ महला ४ चउपदे....ੴ सतिनाम करतापुरख निरभउ नि

घरु १॥ हरि हरि नामु.........रवैरु अकालमूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥

इसको ध्यान से पढ़ना जी। पहली पंक्ति के आखिर में मूलमंत्र का ‘नि; आ के दूसरी पंक्ति में ‘घरु १’ के साथ शुरू हो गई है। शब्द ‘निरवैरु’ का ‘नि’ पहली पंक्ति में रह गया। उससे आगे शीर्षक का शब्द ‘घरु १’ आ गया। ये एक नई किसम की मुश्किल बन गई है। छोटे मूलमंत्र वाली परेशानियां पहले की तरह ही कायम हैं।

पृष्ठ नं: 250 (दूसरी तरफ)

राग सोरठि महला १...........ੴ सतिनाम करतापुरख निरभउ निरवै

चउपदे घरु १॥ ................रु अकालमूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥

(अब देखें छापे वाली ‘बीड़’ का पन्ना 595)

पृष्ठ नं: 295

राग जैतसरी महला ४...........ੴ सतिनाम करतापुरख

निरभउ निरवैरु

चउपदे घरु १॥ ..................... अकालमूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥

मेरै हीअरै रतनु नामु हरि बसिआ.....

(देखें छापे वाली ‘बीड़’ का पन्ना 696)

पृष्ठ नं: 305 (दूसरी साईड)

राग तिलंग महला १ घरु१.....ੴ सतिनाम करतापुरख निरभउ निरवैरु

चउपदे॥ ............................... अकालमूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥

यक अरज गुफतम पेसि तो

(देखें छापे वाली ‘बीड़’ का पन्ना 721)

(इ) अब पाठकों के सामने तीसरी किस्म पेश की जाती है। इसमें भी मूलमंत्र सारा ही है। दो पंक्तियों में लिखा हुआ है। ये भी सिर्फ दाहिनी तरफ। दूसरी पंक्ति वाला हिस्सा भी पहले हिस्से के तले दाहिनी तरफ ही। अंतर यह है कि मूलमंत्र वाली पहली आधी पंक्ति संग्रह की अन्य लिखत से मोटी करके विशेष तौर पर लिखी हुई है।

पृष्ठ नं: 729

राग धनासरी महला १....ੴ सतिनाम करता पुरख निरभउ निरवैर अकाल

चउपदे घरु १॥ .............मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥

जीउ डरत है आपणा कै सिउ करी पुकार॥ .....

(देखें छापे वाली ‘बीड़’ का पन्ना 660)

पृष्ठ नं: 374

राग रामकली महला १ ........ੴ सतिनाम करतापुरख निरभउ निरवैर

चउपदे घरु १॥ ..........................अकालमूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥

कोई पढ़ता सहसाकिरता कोई पढ़ै पुराना॥ .....

(देखें छापे वाली ‘बीड़’ का पन्ना 876)

किस नतीजे पर पहुँचे हैं?

जहाँ तक उस गाँव सिधवां बेट वाली हस्त–लिखित ‘बीड़’ के पाठ का संबंध है, और हर जगह पहले ‘राग; और ‘महले’ वाले शीर्षक को पढ़ने का यतन किया जाए, तो दूसरी पंक्ति में पहुँच के शीर्षक का पाठ समाप्त कर के फिर नए सिरे पहली पंक्ति के दाहिनी तरफ जा के ‘मूलमंत्र’ का पाठ करना पड़ता है। ये बात हरेक पाठक को हर वक्त याद नहीं रह सकती। और, अनेकों बार वह मूलमंत्र का पाठ करने से ही रह जाएगा।

उस हस्त–लिखित ‘बीड़’ का सही पाठ का मुझे तो एक ही सही हल मिला था वह ये था कि जब भी कोई नया राग अथवा नया संग्रह शुरू हो जहाँ मूलमंत्र भी दिया हुआ है, वहाँ सदा पहले मूलमंत्र का पाठ कर लिया जाए। और मूलमंत्र हर जगह पर दाहिनी तरफ ही है।

धार्मिक पुस्तकों का मंगलाचरण लिखने का ये पुरातन तरीका था। सदा ही पृष्ठ के दाहिनी तरफ आधे तक लिखना। पर, पाठ करते वक्त, खास तौर पर अखंड पाठ करते वक्त, मूलमंत्र को दाहिनी तरफ से पहले पढ़ लेने की मर्यादा पाठक को हर वक्त चेते नहीं रह सकती।

सो, शिरोमणी गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी ने ये ठीक ही किया था कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब की छपाई में मूलमंत्र को ‘पहल’ दे दी थी। इस तरह पाठ करने वाले का गलती करने की संभावना बिल्कुल ही खत्म हो गई थी।

छापे की ‘बीड़ो’ में मूलमंत्र का शीर्षक से कभी पहले और कभी बाद में छपने का ढंग श्री गुरू ग्रंथ साहिब की बाणी की अंदरूनी एक–सार संरचना से मेल नहीं खाता।

(नोट: ये मेरी निजी राय है। पर, मैंने ‘दर्पण’ के छपने के वक्त ‘मूलमंत्र’ को छापे की ‘बीड़ों’ की तरह ही रखा है। ये जिंमेवारी समूचे सिख पंथ की है कि इस मामले पर गंभीरता से विचार के प्रयोग में लाए। अकेले–दुकेले की मनमर्जी की कार्यवाही पंथ में बिगाड़ पैदा कर सकती है। )

(मैं उस गाँव सिधवां बेट के वाशिंदे सरदार सज्जन सिंह जी रिटायर्ड पटवारी का धन्यवाद करता हूँ। उन्होंने अपनी व्यस्तताओं में से समय निकाल के दो बार हस्त–लिखित ‘बीड़’ का दर्शन करने मेरे साथ जा के सारा वक्त मेरी मदद के लिए वहीं टिके रहते रहे।)

(नोट:वह हस्त–लिखित ‘बीड़’ जिसका मैंने वर्णन किया है, अब उस गाँव के बड़े गुरद्वारे में लाई गई है। मैं शिरोमणि गु; प्र; कमेटी के जिंमेवार सज्जनों से विनती करता हूँ कि वे इस कीमती ग्रंथ को वहाँ से मंगा के अपनी लाईब्रेरी में रखें जहाँ इस तरह की अन्य हस्त–लिखित ‘बीड़ें’ रखी हुई हैं।)

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ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥

संस्कृत शब्द ‘भय’ से

पंजाबी शब्द ‘भउ’

भुलेखा

सत्यार्थ प्रकाश (उर्दू छाप) की चौथी एडीशन के पृष्ठ 399 पर ‘नानक पंथ’ के बारे में लिखते हुए सतिगुरू नानक देव जी के बारे में इस प्रकार लिखा हुआ मिलता है: “वेद आदि शास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। अगर जानते होते, तो ‘निरभय’ शब्द को ‘निरभौ’ क्यों लिखते... उन गँवारों के सामने जिन्होंने संस्कृत कभी सुनी भी नहीं थी ‘संस्कृती सतोत्र’ (सहसकिरती सलोक) बना कर संस्कृत के भी पंडित बन गए होंगे...उन को अपनी शोहरत की ख्याहिश जरूर थी...जब कुछ खुद–पसंदी थी, तो इज्जत–शोहरत के लिए कुछ दंभ भी किया होगा....।”

सतिगुरू जी का आदर्श:

कड़वीं बातों का उक्तर कड़वे शब्दों में देना बड़ा ही असभ्य उद्यम है। पर अस्लियत को स्वयं समझना व औरों को समझने–योग्य बनाना हरेक मनुष्य का फर्ज है। हम दावा तो नहीं करते कि सतिगुरू जी संस्कृत के विद्वान थे, अथवा, वे हमें संस्कृत में लिखी वेद आदि धर्म–पुस्तकें पढ़ाने आए थे। वे तो धरती पर बिलकते–जलते जीवों को जीवन का सही रास्ता बता के ‘खुनक नामु खुदाइआ’ दे के ठंडक देने आए थे। लोगों को उनकी कमियां और जीवन का सही रास्ता तब ही बताया जा सकता था, जब वे लोगों के साथ उनके समझ आने वाली बोली में बातें करें। जगत में आया हरेक गुरू पैग़ंबर अवतार यही कुदरती तरीका बरतता आया है, और यही बरता जा सकता था।

बोली बदलती रहती है:

भौगोलिक हालात और जलवायु के अनुसार हरेक देश की अपनी–अपनी बोली है। फिर, हरेक बोली समय के मुताबिक बदलती भी आई है। हमारे देश में कई सदियों पहले एक समय था जब प्रचलित बोली के अनुसार विद्वान ऋषियों ने वेद–मंत्र उचारे। उस बोली को हम पुरानी संस्कृत कहते हैं। वह पुरानी संस्कृत समय के बदलने के साथ बदलती गई। स्मृतियाँ और पुराण आदि पुस्तकें व उनके भी बाद के समय के नवीन संस्कृत पुस्तकों की बोली में फर्क आ गया। इस नवीन संस्कृत को अच्छी तरह समझ सकने वाला अगर ‘ऋग्वेद’ का पाठ करे तो उसे हैरानी होती है कि ऋग्वेद की भाषा उसकी समझ से परे है।

पहली संस्कृत:

वेदों में जो ‘गाथा’ नाम के छंद मिलते हैं उनकी बोली पुरानी संस्कृत से अलग है। इससे ये सिद्ध होता है कि वेदों के समय में भी लोगों की आम बोल–चाल की अलग भाषा थी। विद्वानों ने वैदिक समय की इस बोली का नाम ‘पहली प्राक्रित’ रखा है। अशोक के शिलालेखों आदि में जो बोली मिलती है, उसको ‘दूसरी प्राक्रित’ अथवा ‘पाली’ कहते हैं। पहली प्राक्रित के प्रचार से कई सौ साल बाद दूसरी प्राक्रित का जन्म हुआ। वैदिक समय के विद्वानों ने ‘वैदिक भाषा’ को आम बोल–चाल की बोली से बचा के रखने के लिए इसके व्याकरण बनाए, और इस संभाल के रखी हुई बोली का नाम ‘संस्कृत’ रख लिया। सो, यह ‘संस्कृत’ भी ‘पहली प्राक्रित’ की किसी शाखा से ‘शुद्ध हो के’ बनी थी।

पाली:

दूसरी प्राक्रित और पहली प्राक्रित के वे व्यंञन कम हो गए जो कानों को चुभने लगे थे। उनकी जगह ‘स्वर’ के प्रयोग होने के कारण बोली पहले से और ज्यादा मीठी और बोलने में आसान हो गई। इस ‘दूसरी प्राक्रित’ अथवा ‘पाली’ की भी सहजे–सहजे कई शाखाएं बन गई, जिनमें से मगधी, शऊरसेनी और महाराष्ट्री मुख्य हैं। सहजे–सहजे इन प्राक्रितों ने भी संस्कृत की ही तरह साहित्यिक रूप धारण कर लिया, बोल–चाल की भाषा इनसे अलग हो गई। इस बोल–चाल की भाषा का नाम ‘अपभ्रंश’ पड़ गया। विद्वानों का ख्याल है अलग–अलग राज्यों में अलग–अलग किस्म की ‘अपभ्रंश’ बोली जाती थी। जब ‘अपभ्रंशों’ में भी काव्य रचना होने लग पड़ी, तब आधुनिक बोलियों का जन्म आरम्भ हुआ।

अपभ्रंश:

अपभ्रंशों के प्रचार का ठीक–ठीक समय अभी तक नहीं निर्धारित किया जा सका है; पर जो प्रमाण मिलते हैं उनसे सिद्ध होता है कि ईसवीं की ग्यारवीं सदी तक अपभ्रंश भाषा में काव्य रचना होती रही। प्राक्रित बोली के अंतिम व्याकरण–कर्ता हेमचंद्र ने, जो ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ है, ने अपने व्याकरण में ‘अपभ्रंशों’ के नमूने दिए हैं। सो, हमारे देश की बोली इस तरह बदलती चली आ रही है, और हरेक देश की हरेक बोली का भी यही हाल समझो।

जगत नियम–बद्ध:

कादर की कुदरति में कहीं भी कोई काम बग़ैर नियम के नहीं हो रहा। जैसे करतार ने जो जगत रचना की है विशेष नियमों के अनुसार है। वैसे ही समय–समय पर जो ‘बोली’ बोली जाती रही है वह भी नियमों में हो रही है। जब–जब यह बदलती जाती है, ये तब्दीली भी खास नियमों के अनुसार ही हुआ करती है। कभी यह नहीं हो सका कि किसी देश के दस लोग मिल के अपनी बोली के शब्दों को जान–बूझ के मोड़–तोड़ के कोई और नई बोली घड़ लें और ये नई बोली देश में प्रचलित हो गई हो।

बोली के दो अंग:

‘बोली के दो अंग होते हैं– ‘वर्णात्मक’ और ‘भावात्मक’। एक अंग वह है जो ‘वर्णों’ अक्षरों से बना है और उच्चारण में प्रयोग होता है। दूसरा है उन अक्षरों से बने शब्दों का ‘भाव’।

बोली का जन्म, विकास और मौत:

संसार के अनेकों पदार्थों की तरह ‘बोली’ का ‘जन्म’, ‘विकास’ और ‘नाश’ होता है। कुछ कारणों से ‘बोली’ का जन्म होता है, कुछ खास हालातों में वह बढ़ती–फूलती है और फिर समय पा के उसका नाश हो जाता है।

बोली और नदी कई बातों में मिलती–जुलती हैं। जैसे श्रोत के पास नदी का रास्ता बहुत टेढ़ा, तंग और संकरा सा होता है; वैसे ही अपनी आरम्भक अवस्था में बोली की चाल भी बे–ढंगी सी होती है। खुले मैदान में पहुँच के नदी का प्रवाह कुछ और तरह का हो जाता है, नदी में जल भी ज्यादा हो जाता है और गहराई भी ज्यादा। मैदान में नदी आहिस्ता–आहिस्ता सीधी बहती है। यही हालत बोली की होती है। जैसे नदियों में आस–पास का पानी आ मिलता है, वैसे ही बोली में भी इधर–उधर से नए शब्द आ मिलते हैं। नदी के पानी की ही तरह खास–खास नियमों के अनुसार नए शब्द बोली में आ के मिल सकते हैं। जैसे अनुकूल धरती के समाप्त हो जाने पर नदी किसी दूसरी नदी में अथवा समुंद्र में जा पड़ती है, वैसे ही बोली भी अपने बोलने वालों के नष्ट हो जाने पर अथवा किसी और तरह के विघन पड़ जाने पर समाप्त हो जाती है।

भौगोलिक हालत और हवा–पानी का असर:

बोली दरअसल परमात्मा की दी हुई एक शक्ति है। इसका आरम्भ और प्रफुल्लता आदि भी कुदरती तौर पर होते हैं। मनुष्य अपने–आप जानबूझ के उसमें कोई कम–ज्यादा नहीं कर सकता।

देश की भौगोलिक हालत से भी बोली का संबंध है, यहाँ तक कि जलवायु का भी बोली पर बड़ा असर पड़ता है। किसी देश के लोग ‘ट’ का उच्चारण नहीं कर सकते, और कई देशों के लोगों के मुँह से ‘त’ नहीं निकलता। समय के साथ साथ लोग कई पुराने उच्चारण भूल जाते हैं और नए उच्चारण करने लग पड़ते हैं।

मनुष्य फेफड़ों के द्वारा साँस ले के ‘आवाज़’ (नाद) पैदा करता है। फेफड़ों की हवा को अलग–अलग तरीकों से नाद–यंत्रों द्वारा दबा के बाहर निकालने से ‘विकसित–नाद’ (प्रत्यक्ष आवाज़) पैदा होती है। जब साँस फेफड़ों से कंठ–नाली में आता है तब उस नाली की ‘सुर–तंतियों’ में कंपन पैदा होती है। ये कंपन निकलती साँस के साथ मिल जाता है। कंठ के ऊपरी हिस्से में पहुँच के साँस नाक के द्वारा या मुँह से बाहर निकलता है। अगर मुँह बंद रहे, तो साँस के बाहर निकलने का रास्ता सिर्फ नाक ही है।

नाक के रास्ते साँस को बाहर निकालने के लिए यह जरूरी है कि तालू का मुलायम हिस्सा और कंठ की घंडी सीधी पलमदी रहे। यदि ये दोनों पीछे हटा लिए जाएं तो साँस मुँह में आ जाता है, पर अभी तक यह ‘व्यक्त नाद’ नहीं बना। आगे इस के राह में जीभ कई रुकावटें डालती है, पहले मुलायम तालू पर, फिर कठोर तालू पर और फिर आखिर में ऊपरी दाँतों के मसूड़ों पर। जब हम ‘क’, ‘च’, ‘त’ आदि अक्षरों का सहजे–सहजे उच्चारण करते हैं, तो जीभ की रुकावटों की प्रत्यक्ष समझ आ जाती है।

जीभ की इन रुकावटों के कारण विद्वानों ने सारे अक्षरों के निम्नलिखित हिस्से किए हैं;

वे अक्षर जिनका उच्चारण ‘कंठ’ (संघी) में होता है;

....अ, ह, क, ख, ग, घ

मुलायम तालू से जीभ के लगा के उच्चारे जाने वाले अक्षर;

....इ, य, श, ष, च, छ, ज, झ

कठोर तालू से;

.... र, ट, ठ, ड, ढ, ख़

दाँतों से

.... ल, स, त, थ, द, ध

नीचे से

.... उ, व, प, फ, ब, भ

नोट: ङ, ञ, ण, न और म का उच्चारण उपरोक्त लिखे स्थानों

से नाक में से साँस निकालने से होता है।

अक्षरों की आपस में अदला–बदली:

बोलने के वक्त ‘कान–नली’ की ‘सुर–तंतियां’ मुलायम और कठोर तालू दाँतों और जीभ का आपस में मिश्रित और गहरा संबंध पड़ने के कारण इन पाँचों ही वर्गों के अक्षर अपने वर्ग में और दूसरे वर्गों के अक्षरों के साथ भी बदलते रहते हैं। मेरे छोटे बेटे की जीभ का तंदुआ बहुत बढ़ा हुआ था जिसके कारण वह जीभ बाहर नहीं निकाल सकता था। डाक्टर से कटवाया, पर कुछ ज्यादा कट गया। तंदुआ जीभ का स्तंभ होता है। इस स्तंभ के कमजोर हो जाने के कारण वह बच्चा अपनी जीभ तालू के साथ नहीं लगा सकता था। नतीजा ये निकला कि तालू के साथ जीभ को लगाने से दो अक्षर उचारे जाने हैं, उनको वह बोल नहीं सकता। वह कहें– काका! कह– ‘भापा जी’। वह कहे– ‘भापा गा’। अक्षर ‘ज’ की जगह ‘ग’ और ‘इ’ की जगह ‘अ’ ही बोल पाता था। थोड़ा बड़ा हो के जब उसके तंदुए में जरा ताकत आई तब ये नुक्स दूर हो गया।

समय की तब्दीली और देश की भौगोलिक हालत का भी असर पड़ता रहता है। दूसरे देशों से आ के बसने वालों की बोली भी सहजे–सहजे अपना प्रभाव डाल लेती है। ऐसे कई कारणों के मिलने के कारण शब्दों का वर्णात्मक रूप बदलता रहता है।

शब्दों के उच्चारण बदलने के बारे में नियम और उदाहरण:

पुरानी प्राक्रित, नवीन प्राक्रित और अपभ्रंश में से ही हो के पुरातन पंजाबी में कैसे शब्दों का उच्चारण–आत्मिक रूप बदलता गया– इस बात को समझने के लिए कुछ नियम और उदाहरण दिए जाते हैं।

संस्कृत शब्दों के अंदर के हिस्से में आए हुए किसी–किसी वर्ग के दूसरे व चौथे अक्षर (ख, घ, फ, थ, ध आदि) और ‘ख़’ की जगह प्राक्रित और पंजाबी में ‘ह’ हो जाता है, जैसे;

संस्कृत -------------प्राक्रित/पंजाबी

अधुना---------------हुणि (ध का ह बन गया)

सुरभि---------------सुरही (भ का ह)

पुष्प----------------पुहप (ष से ह)

नख----------------नंहु (ख से ह)

क्षोभ---------------खोह (भ से ह)

सुखावह------------सुहावा (ख से ह)

सौभाग्य------------सुहाग (भ से ह)

कुठार---------------कुहाड़ा (ठ से ह)

बधिर---------------बहिरा (–बोला) (ध से ह)

वीथी---------------वीही (–गली) (थ से ह)

अगर शब्दों के आरम्भ में दॅुत अक्षर हो जिस दॅुत का पहला अक्षर ‘स’ हो, तो पंजाबी में उससे पहले ‘अ’ और बढ़ाया जाता है, अथवा, ‘स’ उड़ जाता है, जैसे;

संस्कृत ---------------पंजाबी

स्नान------------------असनान, नान्

स्तम्भ-----------------असथंभ, थंभ

स्थान-----------------असथान, थां

स्नेह------------------असनेह, नेह

स्वरूप----------------असरूप, रूप

स्ना (अरबी शब्द) ---------------असनाई, नांई

स्थिर------------------------------असथिर, थिर

स्थल------------------------------असथल, थल

पर, अगर दॅुत अक्षर का पहला अक्षर ‘स’ और ‘त’ हो, तो ‘अ’ पहले बढ़ाने की जगह दॅुत के बदले ‘थ’ हो जाता है। अगर यह ‘दॅुत’ शबद के बीच में आए तो भी ये तब्दीली हो जाती है; जैसे,

संस्कृत ------------पंजाबी

स्तोक---------------थोड़ा

वस्तु----------------वॅथु

हस्त----------------हॅथ

हस्तिन्-------------हाथी

स्तन----------------थन

अस्ति---------------आथि

स्तम्भ---------------थंभ

प्रस्तर---------------पॅथर

स्तबक---------------थॅबा

संस्कृत शब्द के व्यंञन (जो शब्दों के आरम्भ में ना हों) की जगह प्राक्रित और पंजाबी में ‘स्वर’ अक्षर की अदला–बदली का बहुत ज्यादा रिवाज बढ़ गया। कई शब्दों में इतने ‘व्यंञन’ हट के ‘स्वर’ हो जाते हैं कि शब्द का नया रूप और का और ही हो जाता है।

संस्कृत -------------प्राक्रित---------------पंजाबी

द्तकरृृ--------------जुअअरो--------------जुआरी

डाकिनी---------------डाइनी-----------------डैण

सुकुमार---------------सोअॅल---------------सोहल

प्राकारा----------------पाआर----------------वाड़

मदकल---------------मअगल---------------मैगल

कचग्रह----------------कअॅगह---------------कंघा (कॅघा)

रजनि-----------------रअणि----------------रैणि

भागिनी---------------भअणि----------------भैण

नदि-------------------नाइ--------------------नैं

यदि-------------------जाइ-------------------जे

जीभ की सहायता से मुलायम तालू और कठोर तालू से उचारे हुए अक्षर आपस में अदल–बदल जाते हैं, भाव, ‘त’ –वर्ग की जगह ‘ट’ – हो जाता है, जैसे;

संस्कृत ----------प्राक्रित---------------पंजाबी

सुखद---------------सुहद---------------सुहंढणा

स्थान---------------ठाण----------------ठां, ठांउ, थां, थांउ

र्वतुल---------------बटुआ

पन घट------------पन कत

दण्ड---------------डंडा

5. एक ही वर्ग के अक्षर संस्कृत से प्राक्रित में आते–आते आपस में बदल जाते हैं, जैसे;

‘प’ की जगह ‘व’ अथवा ‘उ’;

‘म’ की जगह ‘व’;

‘व’ की जगह ‘म’;

‘घ’ की जगह ‘क’;

‘प’ की जगह ‘ब’;

संस्कृत ------------पंजाबी

यादव---------------जादव (–राइआ)

नाम-----------------नांव

अपुत्र---------------अउतु (अवॅुत)

मण्डप--------------मंडवो...........मंडूआ

कपाल--------------कउल

मदकल-------------मैगल

संस्कृत का ‘ट’ (जो शब्द के आरम्भ में ना हो) पंजाबी में ‘त’ हो जाता है।

कटक---------------कड़ा

कटुक---------------कड़वा

त्रिकुटी--------------तिऊड़ी

निकटि--------------नजदीक

य, व। संस्कृत का ‘य’ दो स्वरों (‘इ’ और ‘अ’) के मेल से बना है। ‘व’ के दो स्वरों (‘उ’ और ‘अ’) के जोड़ से। प्राक्रित और पंजाबी में जहाँ अक्षर अलग करके प्रयोग करने की रिवाज था, वहाँ इस ‘व’ और ‘य’ के अंग भी अलग–अलग किए लग जाने पड़े। दॅुत अक्षर में बरता हुआ ‘व’ और ‘य’ आमतौर पर ‘स्वर’ ही बदला जाता था।

......... (व)

संस्कृत--------------पंजाबी

अवगुण--------------अउगुण

अवघट--------------अउहठ

सर्वस्व--------------सरबसु

वृक्ष------------------रॅुख

लवण---------------लूण

द्विगुण-------------दूणा

.......... (य)

दयालु---------------दइआल (दैआल)

भयान---------------भइआन (भैआन)

भुयंग---------------भुइअंगम

हय------------------है

‘र’ और ‘ल’ आपस में बदल जाते हैं;

दयालु---------------दैआर

हरिद्रा---------------हलदी

वलमीक-------------वरमी

दॅुत अक्षर में बरते हुए ‘र’ का प्राक्रित और पंजाबी में अलोप हो जाता है;

समर्थ---------------समॅथ

कीर्ति---------------किॅति

पुर्व------------------पॅुब

पराक्रम-------------पराकउ

गर्व-----------------गॅब

आर्य----------------अईआ

मर्या----------------मईआ

भार्या----------------डंडु (भॅजा)

वर्ग------------------वॅग

यहाँ तक हम विचार कर चुके हैं कि कैसे कुदरती तौर पर श्रोत, जलवायु व अन्य देशों के वाशिंदों से संबंध बनने के कारण पंजाबी की सदियों पहले की बोली बदल–बदल के पुरातन पंजाबी के रूप में आई।

‘भय’ और ‘भउ’

ऊपर दिए नियमों के अलावा, जब संस्कृत और पंजाबी के अन्य शब्दों का समानांतर अध्ययन किया जाए, तो निम्न–लिखित और नियम स्पष्ट तौर पर प्रयोग में आए दिखने लगते हैं;

संस्कृत शबद का आखिरी ‘य’ प्राक्रित और पंजाबी में ‘उ’ हो जाता है;

संस्कृत -------------प्राक्रित पंजाबी

निर्णय----------------निरणउ

परिचय----------------परचउ

प्रिय-------------------प्रिउ

वायु-------------------वाउ

विनय-----------------बिनउ

निश्चय---------------निसचउ

न्याय------------------निआउ

उदय-------------------उदउ

हृदय-------------------हिआउ

अक्षय------------------अक्षउ (अख्उ)

प्रलय------------------परलउ

उपाय------------------उपाउ

‘त्रय’–दश (त्रयदशी) ---------------‘त्रउ’–दसी

क्षय---------------खउ

भय---------------भउ

सत्यार्थ प्रकाश में गुरू नानक साहिब के बारे में लिखा है कि वे संस्कृत नहीं जानते थे पर अपने आप को संस्कृत का विद्वान प्रकट करने का यतन करते थे क्योंकि उन्होंने संस्कृत ‘भय’ की जगह ‘भउ’ बरता है।

उपरोक्त विचार को सामने रखने से ये बात बिल्कुल ही निर्मूल साबित हो जाती है।

‘भउ से ‘भै’ और ‘भइ’:

पुरानी पंजाबी में ये सारे शब्द ‘उकारांत’ (उ–अंत वाले) गिने गए हैं। पुलिंग ‘उकारांत संज्ञाओं की कारक–रूप साधना’ को ध्यान से देखने पर समझ आ जाती है कि गुरू ग्रंथ साहिब में शब्द ‘भउ’ के दूसरे रूप ‘भै’ और ‘भइ’ (भय) कैसे प्रयोग किए गए हैं।

कर्ता–कारक एक–वचन के रूप में:

‘भउ’ भागा निरभउ मनि बसै॥ अंम्रितु नामु रसना नित जपै॥३॥३४॥ (रामकली महला ५)

बहुवचन

‘भै’ बिनसे निरभउ हरि धिआइआ॥ साधसंगि हरि के गुण गाइआ॥१॥५६॥ (गउड़ी महला ५)

करण–कारक एक वचन के रूप में:

सतिगुर कै ‘भइ’ भ्रमु भउ जाइ॥ ‘भै’ राचै सच रंगि समाइ॥१॥ रहाउ॥१॥ (गउड़ी महला ३)

नोट: यहाँ दूसरी तुक में शब्द ‘भै’ अधिकरण कारक, एक वचन है। भइ–भउ से। भै–भउ में।

अपादान कारक, एकवचन:

गिरि तर जल गुआला ‘भै’ राखिओ राजा रामि माइआ फेरी॥३॥३॥९॥ (भैरउ नामदेव जी)

‘संबंधकों के साथ:

‘भै’ महि रचिओ सभ संसारा॥ तिसु भउ नाही जिसु नाम अधारा॥१६॥३॥१३२॥ (भैरउ नामदेव जी)

सिमरत नाम ‘भै’ पारि उतरीआ॥१॥ रहाउ॥१२०॥ .... (गउड़ी महला ५)

‘भै’ विचि अगनि कढै वेगार॥ ..... (आसा दी वार महला १)

शब्द ‘भउ’ भगत बाणी में भी;

शब्द ‘भउ’ भगत बाणी में भी मिलता है, जहाँ से बात साफ सिद्ध होती है कि संस्कृत का शब्द ‘भय’ का प्राक्रित रूप ‘भउ’ बहुत प्रचलित हो चुका था;

माइआ मोहु मनि आगलड़ा प्राणी जरा मरण ‘भउ’ विसरि गइआ॥

कुटंबु देखि बिगसहि कमला जिउ, पर घरि जोहहि कपट नरा॥१॥२॥ (श्री राग त्रिलोचन जी)

भभा भेदहि भेद मिलावा॥ अब ‘भउ’ भानि भरोसउ आवा॥३०॥ (गउड़ी कबीर जी, बावन अखरी)

गुड़ ु करि गिआनु, धिआनु करि महूआ, ‘भउ’ भाठी मन धारा॥

सुखमन नारी सहजि समानी पीवै पीवनहारा॥१॥२॥ (रामकली कबीर जी)

आखिरी हरेक ‘व्यंञन’ की ‘उ’ में तब्दीली:

संस्कृत के सिर्फ ‘य’–अंत वाले शब्द ही प्राक्रित में ‘उ’–अंत नहीं बन गए, बल्कि आखिर का हरेक व्यंञन की ‘उ’ स्वर में तब्दीली होने लग पड़ी।

वंनगी के तौर पर कुछ उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं;

संस्कृत -------------पंजाबी/प्राक्रित

पराक्रम---------------पराकउ

नाम------------------नाउ

भाव------------------भाउ

संपति----------------संपउ

शत-------------------सउ

अमृत-----------------अमिउ

स्वार्थ-----------------सुआउ

पाद-------------------पांउ

घृत-------------------घिउ

स्वाद-----------------सुआउ

प्रसाद----------------पसाउ

काग-----------------कांउ

ताव-----------------तांउ

स्थान---------------थांउ

अनुराग-------------अनुराउ

घ्राण-----------------घ्राउ

अलाप---------------अलाउ

भगत जैदेव जी

भगत जैदेव जी संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं। उन पर ये दूषण नहीं लगाया जा सकता कि वे संस्कृत विद्या के प्रवीण नहीं थे। आप ने प्रेमा–भगती के रंग में ‘गीत गोविंद’ (संस्कृत का एक सुप्रसिद्ध पुरातन महाकाव्य) पुस्तक कविता के रूप में लिखी है। यह पुस्तक संस्कृत के विद्वानों में बहुत मान–सम्मान पा चुकी है क्योंकि इसकी कविता बहुत रसीली है। पाठकों की सेवा में उस पुस्तक में से एक छोटा सा छंद भेटा किया जा रहा है;

सुरूपं ष्शरीरं, नवीनं कलत्रं,

धनं मेरू तुल्यं, वचश्चारू चित्रं।

हरे रंघ्रि सुग्मे, मनश्चेदलग्नं,

तत: किं, तत: किं, तत: किं, तव: किम॥

भगत जैदेव जी के दो शबद श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी में मिलते हैं। उनमें से एक गूजरी राग में है। इस शबद में शब्द ‘भय’ दो रूपों में मिलता है– ‘भय’ और ‘भइअ’। इसी तरह संस्कृत शब्द ‘मय’ का रूप, ‘मइआ’ (मयआ) दिया गया है।

केवल राम नाम मनोरमं॥ बदि अंम्रित तत मइअं॥

न दनोति जसमरणेन जनम जराधि मरण भइअं॥१॥ रहाउ॥

(गुजरी जैदेव जी)

कवि दमोदर:

ऊपर दिए गए प्रमाण तो श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी में दर्ज बाणी में से हैं। आईए उस समय के किसी अन्य पंजाबी कवि की रचना देखते हैं।

गुरू नानक देव जी मुगल बादशाह बाबर के समय में हुए हैं, गुरू अंगद साहिब हिमायूँ के समय, और गुरू अमरदास जी अकबर के काल दौरान। अकबर के दरबार में ही गोइंदवाल साहिब के खत्रियों और ब्राहमणों ने मिल के श्री गुरू अमरदास जी के विरुद्ध शिकायत की थी।

अकबर के राज्यकाल के दौरान पंजाबी का एक प्रसिद्ध कवि हुआ है जिसका नाम था दामोदर। ये दामोदर जाति का गुलाटी अरोड़ा, झंग इलाके का रहने वाला था। इसकी जिंदगी में हीर–रांझे के इश्क के खेल घटित हुए, जो इसने आँखों से देखे और काव्य–रूप में लिखे। अपने किस्से ‘हीर’ में दमोदर इस प्रकार लिखता है;

नाउ दमोदर जाति गुलाटी, आइआ सिकि सिआली।

अपने मन विच मसलति कीती, बहि के इथाई जालीं।1।....

पातशाही जो अकबर संदी, हील न हुजति काई।3।........

अॅखीं डिॅठा किॅसा कीता, मैं तां गुणी न कोई।

शउक शउकि उठी है मैंडी, तां दिलि उॅमक होई।

असां मूँहों अलाइआ उहो, जो कुझ नज़र पइओई।

आख दमोदर अॅगे किॅसा, जोई सुणे सभ कोई।7।

दमोदर की कविता में से भी यही बात साफ तौर पर साबित हो जाती है कि उस समय संस्कृत शब्द ‘भय’ का पंजाबी रूप ‘भउ’ आम प्रयोग में था। दमोदर लिखता है, जब रांझा जी–भिआणा तख़्त हजारा छोड़ के झंग आया, तब हीर के पिता चूचक को इस तरह कहने लगा;

आइआ तॅकि तुसादी सामै, ना फिरि घरां नूं जाई।

गलीआं कॅख असाडे वैरी, चंगा जावण नाही।

केती तैंडै पिछै खांदी, कमी किसै नूं नाही।

आख दमोदर, मूलि न ‘भउ’ करि, देह खूंडी महीं चराई।243।

यहाँ शब्द ‘भउ’ करम कारक, एक वचन है।

जी दे ‘भै’ उठिआ धीदो, वैंदा है चुप कीती।

जेहे आऐ तेहे चॅले, इह गॅल असां जो कीती।....

देहि दुआइ मित्र मिलनि असानूँ,असी चॅले जिनां दी नीती।171।

भै– भउ के कारण।

यहाँ शब्द ‘भै’ करण कारक, एक वचन है।

सारी विचार का नतीजा:

इस सारी विचार से प्रत्यक्ष नतीजा यही निकलता है कि संस्कृत शब्द ‘भय’ के प्राक्रित और पंजाबी रूप ‘भअ’, ‘भै’, ‘भउ’ आम प्रचलित हो चुके थे। इस लिए श्री गुरू नानक देव जी ने भी यही रूप बरते हैं, ना कि अपने आप को संस्कृत का विद्वान जाहिर करने के लिए।

सहसकिरती सलोक:

बाकी रहे सतिगुरू जी के ‘सहसक्रित सलोक’। यहॉ भी किया हुआ ऐतराज़ ठीक नहीं है। ये तो हैं ‘सहसकिरती सलोक’। संस्कृत, प्राक्रित और पंजाबी के शब्दों का आपस में समानांतर अध्ययन करने पर बोली के बदलने का एक और नियम मिल जाता है;

अगर संस्कृत के किसी शब्द के शुरू में अक्षर ‘सं’ हो, और इस ‘सं’ का अगला अक्षर भी ‘स’ अथवा ‘श’ हो, तो प्राक्रित और पंजाबी में अक्षर ‘सं’ की जगह ‘सह’ हो जाता है, और कभी–कभी यह ‘सह’ की जगह ‘सै’ बन जाता है; जैसे:

संस्कृत ------------पंजाबी/प्राक्रित

संशय---------------सहसा, संहसा

संस्कृत ------------सहसा किरता

संसार---------------सैसार

जैसे शब्द ‘संस्कृत’ का प्राक्रित का रूप ‘सहसा किरता’ है, वैसे ही वह सारी ही बाणी जो सहसकिरती सलोक’ के शीर्षक तले है ‘संस्कृत’ के शलोक नहीं हैं, प्राक्रित बोली के शलोक हैं।

(गुरमति गुरबाणी और गुरू इतिहास की खोज के बारे में मेरे और लेख पढ़ने के लिए मेरी पुस्तकें ‘सिखु सिदकु न हारे’, ‘गुरबाणी और इतिहास बारे’, ‘बुराई दा टाकरा’, ‘सरबत दा भला’, ‘धरम अते सदाचार’, ‘गुरमति प्रकाश’ पढ़ें। मिलने का पता है– सिंघ ब्रदर्ज, बाजार माई सेवां, अमृतसर)।

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भगत बेणी जी
और
गुरू नानक साहिब
बेणी जी के तीन शबद

बेणी जी के जीवन का हाल किसी सिख इतिहासस में से नहीं मिलता। पर, एक बात पक्के तौर पर बताई जा रही है कि बेणी जी गुरू नानक देव जी के समय से पहले हो चुके हैं। सतिगुरू जी के बाद के समय में नहीं हुए।

बेणी जी के तीन शबद श्री गुरू ग्रंथ साहिब के निम्न–लिखित रागों में मिलते हैं’ सिरी राग, रामकली और प्रभाती। किस गुरू–व्यक्ति के हाथ भगत जी के ये शबद आए? – ये बात समझने के लिए इन तीन शबदों को बारी–बारी से ध्यान लगा कर पढ़िए;

सिरी राग वाले शबद का शीर्षक:

भगत बेणी जी का पहला शबद सिरी राग में है। इसका शीर्षक इस प्रकार है: ‘सिरी राग बाणी भगत बेणी जीउ की॥ पहरिआ कै घरि गावणा।’

शीर्षक के आखिरी हिस्से का भाव है– इस शबद को उस ‘घर’ में गाना है जिस ‘घर’ में वह शबद जिसका शीर्षक है ‘पहरे’। यह बाणी ‘पहरे’ भी इसी सिरी राग में ही है, और इसका घरु ‘१’ है। सो, बेणी जी के इस शबद को ‘घर’ पहले में गाना है।

शीर्षकों में शब्द ‘घर’ का प्रयोग:

साधारण तौर पर शबदों के आरम्भ में शीर्षक के तौर पर ‘राग’ और ‘महला’ लिखि के शब्द ‘घर’ भी लिखा हुआ मिलता है, जैसे;

सिरी राग महला १ घरु १

सिरी रागु महला १ घरु ४

सिरी रागु महला ३ घरु १

सिरी रागु महला ४ घरु १

सिरी रागु महला ५ घरु १

‘असटपदीआं’ के शुरू में, ‘छंतों’ के आरम्भ में भी इसी तरह ‘घरु १’, ‘घरु २’, ‘घरु ४’ आदिक शब्द लिखे मिलते हैं।

शब्द ‘घरु’ प्रयोग के सं बंध में भगतों के शबदों में भी यही नियम बरता हुआ मिलता है, जैसे;

भैरउ कबीर जीउ घरु १

भैरउ कबीर जीउ असटपदी घरु २

भैरउ नामदेउ जीउ घरु १

भैरउ नामदेउ जीउ घरु २

इस शीर्षक में भेद की बात:

इसी दृष्टिकोण से सिरी राग में दर्ज किए हुए भगत बेणी जी के शबद का शीर्षक देखें। यहाँ लिखा है ‘पहरिआ कै घरि गावणा’। अब देखें इसी राग में बाणी ‘पहरे’ के शीर्षक को, यहाँ लिखा है ‘घरु १’। सो, बेणी जी के शबद का भी ‘घर १’ ही है, पर, सोचने वाली बात यह है कि दो अक्षर ‘घरु १’ लिखने की जगह ‘घरु १’ लिखने की जगह दस अक्षरों वाली तुक ‘पहिरिआ कै घरि गावणा’ क्यों लिखी गई है। क्या इस इशारे में कोई खास भेद नहीं है? बेणी जी का यह शबद और गुरू नानक साहिब के ‘पहिरिआ’ के दोनों शबद मिला के ध्यान से पढ़ें, फिर यह भेद खुल जाएगा।

छंद की चाल:

छंद की चाल देखने के लिए दोनों शबदों की तुकें पढ़ें;

अ. रे नर गरभ कुंडल जब आछत, उरध धिआन लिव लागा॥

मिरतक पिंडि पद मद ना अहिनिसि, ऐकु अगिआन सु नागा॥

ते दिन संमलु कसट महा दुख, अब चितु अधिक पसारिआ॥

गरभ छोडि म्रित मंडल आइआ, तउ नरहरि मनहु विसारिआ॥१॥ बेणी जी

आ. पहिलै पहरै रैनि कै वणजारिआ मित्रा हुकमि पइआ गरभासि॥

उरध तपु अंतरि करे वणजारिआ मित्रा, खसम सेती अरदासि॥

खसम सेती अरदासि वखाणै, उरध धिआनि लिव लागा॥

नामरजादु आइआ कलि भीतरि, बाहुड़ि जासी नागा॥ म: १॥

पाठ करने में छंद की चाल तकरीबन एक जैसी ही है।

विषय–वस्तु (मज़मून) की सांझ:

अब दोनों शबदों के विषय–वस्तु को ध्यान से विचारें, जो दोनों शबदों में इस प्रकार है;

अ. जब तक माँ के पेट में रहता है, सृजनहार प्रभू में ध्यान जोड़े रखता है; पर जनम ले के यहाँ माया में व्यस्त हो जाता है।

जो ख्याल बेणी जी ने अपने शबद के पहले बंद में दिया है, वह सतिगुरू जी ने ‘पहरे’ के दो ‘बंदों’ में विस्तार से दिया है। पहले ‘पहरे’ में तो सिर्फ यही कहा है कि माँ के पेट में जीव परमात्मा को याद रखता है। ‘दूसरे बंद’ में हजूर कहते हैं कि जनम ले कर;

दूजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा विसरि गइआ धिआनु॥

हथो हथि नचाईअै वणजारिआ मित्रा जिउ जसुधा घरि कानु॥ ....

जिनि रचि रचिआ तिसहि न जाणै मन भीतरि धरि गिआनु॥

कहु नानक प्राणी दूजै पहरै, विसरि गइआ धिआनु॥२॥

आ. बेणी जी के दूसरे तीसरे ‘बंद’ में माया के प्रभाव का वर्णन है, कि;

‘खिनु खिनु मोहि बिआपै’,

‘पंच प्रगट संतापै’,

‘उछलिआ कामु’

‘सरु अपसरु न पछाणिआ’,

‘सुत संपति देखि इहु मनु गरबिआ’

‘भग मुखि जनमु विगोइआ’,

रसु मिसु मेधु अंम्रित बिखु चाखी’,

‘जपु तपु संजमु छोडि सुक्रित मति’।

सतिगुरू नानक देव जी के दोनों ‘पहरिओं’ के तीसरे और दूसरे बंदों में भी यही वर्णन है;

‘धनु जोबन सिउ चितु’,

‘बिकलु भइआ संगि माइआ’,

‘अहिला जनमु गवाइआ,’

‘भरि जोबनि मै मति’,

‘अहिनिसि कामि विआपिआ’

‘होरि जाणै रस कस मीठे’,

‘तीरथ वरत सुचि संजम नाही।’

इ. बेणी जी बंद नंबर 4 से 5 में बिरध अवस्था का हाल बताने के वक्त कहते हैं कि जवानी विषय–विकारों में गवा के जीव अंत में पछताता है;

‘पुंडर केस कुसम ते धउले’,

‘काइआ कमलु कुमलाणा’,

‘थाका तेजु’

‘उडिआ मनु पंखी’

‘लोचन कछू न सूझै’

यही बात गुरू नानक देव जी कहते हैं;

‘सरि हंस उलथड़े आइ’,

‘जोबनु घटै जरूआ जिणै’

‘जमि पकड़ि चलाइआ’

‘अंति कालि पछतासी’

‘अखी अंधु’।

साँझे शब्द:

गुरू नानक साहिब जी और भगत बेणी जी के इन शबदों में कई शब्द साँझे हैं:

बेणी जी– गरभ कुंडल, अहिनिसि, चेति, बिसारिआ, उछलिआ कामु, रस मिसु अंम्रितु, संजम, बिआपै, पछुतावहिगा, पछुताणा, बुधि नाठी, मान।

गुरू नानक साहिब– गरभासि, अहिनिसि, चेति, विसरि गइआ, कामि विआपिआ, रस कस मीठ, संजम, विआपै, पछुतासी, पछुताइ, बुधि विसरजी, माणु।

हू–ब–हू वही तुक:

सिर्फ शब्द ही सांझे नहीं हैं; एक जगह तो आधी तुक ही हू–ब–हू मिलती है:

बेणी जी– ‘उरध धिआन लिव लागा’।

गुरू नानक देव– ‘उरध धिआनि लिव लागा’।

इन ऊपर दिए हुए प्रमाणों से ये साफ दिखाई देता है कि जब सतिगुरू नानक देव जी ने ‘पहिरे’ की दो अष्टपदियां उचारीं थीं, बेणी जी का ये शबद उनके पास मौजूद था।

यहाँ ये बात भी खास याद रखने वाली है कि दोनों ही शबद एक ही राग में हैं।

दूसरा शबद रामकली में:

भगत बेणी जी का दूसरा शबद रामकली राग में है, इसके ‘नौ’ बंद हैं। सो, इसको अष्टपदी भी कहा जा सकता है। 1430 सफे वाली बीड़ के सफा 974 पर ये शबद दर्ज है। इसी ही राग में सफा 903 पर सतिगुरू नानक देव जी की भी एक अष्टपदी है। दोनों को मिला के पढ़ने पर इनमें विचारों की भी सांझ मिलती है। कविता के दृष्टिकोण से बेणी जी का यह शबद एक बहुत सुंदर रचना है, पर अलंकारों के कारण मुश्किल अवश्य हो गई है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे गुरू नानक देव जी ने बेणी जी के ख्यालों को साफ शब्दों में बयान कर दिया है।

सांझे शब्द:

दोनों में कई शब्द सांझे मिलते हैं। ‘रहाउ’;

बेणी जी– ‘गुर गमि– चीनै बिरला कोइ’॥

गुरू नानक– ‘गुरमुखि’ हरि हरि मीठा लागै॥

बेणी– (बंद नं: 2)

ता ‘बाजे’ सबद ‘अनाहद’ बाणी॥

साखी ‘जागी’, ‘गुरमुखि’ जाणी॥

गुरू नानक (बंद नं: 2)

धुनि ‘जागी’

‘वाजै अनहदु’....‘गुरबचनी’

बेणी जी–

समाधि सुंन, दुरमति, रतन, जागत रहै, पांचउ इंद्री।

गुरू नानक–

सुंन समाधि, दुरमति, नाम रतनु, जाग रहे, पंच तसकर॥

ज्यों–ज्यों इन दोनों शबदों को ध्यान लगा के बार–बार पढ़ेंगे, इनमें ज्यादा से ज्यादा सांझ मिलेगी। यहाँ भी नतीजा यही निकलता है कि बेणी जी का यह शबद गुरू नानक साहिब के पास मौजूद था। राग रामकली वाले शबदों से सिरी राग वाले दोनों शबदों में सांझ बहुत ज्यादा और गहरी है, और अकेली यही सांझ साबित करने वाली काफी है कि पहली ‘उदासी’ के वक्त जब सतिगुरू नानक देव जी ने हिन्दू तीर्थों पर जाने के मौके पर लंका तक सारे हिन्दोस्तान का चक्कर लगाया था, तब आप उस इलाके में भी गए जहाँ के वाशिंदे भगत बेणी जी थे और उनकी बाणी वहाँ से हासिल की। गुरू साहिबान की अपनी श्री मुख बाणी पर विचार वक्त हम ये देख चुके हैं कि सतिगुरू नानक जी अपनी बाणी स्वयं ही संभालते रहे। अब हमने स्पष्ट देखा है कि बेणी जी के श्री राग वाले शबद के साथ मिलते–जुलते और हर तरफ से सटीक दो ‘पहिरे’ गुरू साहिब ने उसी राग में लिखे। इससे ये जाहिर होता है कि सतिगुरू जी ने भगत बेणी जी का ये शबद भी अपनी सारी बाणी के साथ ही संभाल के रखना था पर ये नहीं हो सकता था कि गुरू नानक साहिब भगत जी का सिर्फ एक ही शबद ले आते और मिल सकने पर भी बाकी के शबद छोड़ आते। रामकली वाले दोनों शबदों को हम देख आए हैं कि विचारों और शब्दावली की काफी सांझ है; हाँ, यह ठीक है कि उतनी नहीं जितनी श्री राग वाले शब्दों में है। पर, यह जरूरी नहीं था कि सतिगुरू जी हरेक भगत और हरेक शबद के संबंध में अपना भी कोई ना कोई शबद उचारते।

तीसरा शबद प्रभाती में (मजेदार सांझ):

अब लीजिए बेणी जी का तीसरा शबद जो राग प्रभाती में दर्ज है। गुरू गं्रथ साहिब के पृष्ठ 1351 पर। अगर इसी ही राग में गुरू नानक साहिब जी के शबद नं: 14 को देखें जो पृष्ठ 1331 पर दर्ज है, तो इन दोनों शबदों में अजीब मजेदार सांझ दिखाई देगी।

दोनों शबदों में पाँच–पाँच ‘बंद’ हैं।

हरेक ‘बंद’ में चार–चार तुकें हैं।

दोनों शबदों की इन तुकों की बनावट तकरीबन एक जैसी ही है; जैसे,

बेणी–

तनि चंदनु मसतकि पाती॥ रिद अंतरि कर तल काती॥

ठग दिसटि बगा लिव लागा॥ देखि बैसनो प्रान मुख भागा॥१॥

कलि भगवत बंद चिरांमं॥ क्रूर दिसटि रता निस बादं॥१॥ रहाउ॥

गुरू नानक–

गीत नाद हरख चतुराई॥ रहस रंग फुरमाइसि काई॥

पैन्णु खाणा चीति न पाई॥ साचु सहजु सुखु नामि वसाई॥१॥

किआ जानां किआ करै करावै॥ नाम बिना तनि किछु न सुखावै॥१॥ रहाउ॥

भगत बेणी जी सारे शबद में उस पाखंडी का हाल बता रहे हैं;

‘जिनि आतम ततु न चीनि्आ॥’

और कहते हैं कि उस अंधे के सारे धर्म फोके हैं;

‘सभ फोकट धरम अबीनिआ॥’

आखिर में बेणी जी कहते हैं कि परमात्मा का सही सिमरन वही मनुष्य कर सकता है जो गुरू के सन्मुख हो, गुरू के बिना रास्ता नहीं मिलता,

‘कहु बेणी गुरमुखि धिआवै॥ बिनु सतिगुर बाट ना पावै॥’

हम फरीद जी की बाणी पर विचार करते समय उनके सूही राग के शबद में देख आए हैं, कि फरीद जी ने माया–ग्रसित इन्सान की जो काली तस्वीर खींची है उसके मुकाबले पर सतिगुरू नानक देव जी ने नाम में रंगे हुए सौभाग्यशाली व्यक्ति की खूबसूरत मूरति बनाई है। इसी तरह यहाँ भी बेणी जी के दिखाए हुए ‘मनमुख’ के मुकाबले पर सतिगुरू जी उस भाग्यशाली का जीवन बयान करते हैं जिसको;

‘गुर का सबदु महा रसु मीठा॥ अैसा अंम्रितु अंतरि डीठा॥

चिनि चाखिआ पूरा पदु होइ॥ नानक ध्रापिओ तनि सुखु होइ॥’

अगर इन दोनों शबदों को और भी ज्यादा गहरी नजर से देखें, तो कहीं–कहीं विचार का मेल भी हुआ दिखाई देता है; जैसे,

पाखंडी के

अ.---------------‘तनि चंदनु’

आ.---------------‘मुखि खीर’

इ.---------------‘दुइ धोती करम’

ई.---------------‘पग नाचसि चितु अकरम’

गुरू नानक साहिब:

‘नामि बिना तनि किछु न सुखावै’

‘पैन्ण खाणा चीति न पाई’

‘कीरति करम कार निज संदा’

‘गीत नाद हरख चतुराई।

‘.......चीति न पाई।’

अस्लियत:

यहाँ भगत बेणी जी के तीनों ही शबद पेश किए हैं। अस्लियत तलाशने के चाहवान सज्जन इन शबदों से सहज ही इस नतीजे पर पहुँच जाएंगे कि भगत बेणी जी के ये सारे शबद सतिगुरू नानक देव जी के पास मौजूद थे। इनके साथ के मिलते–जुलते ख्याल सतिगुरू जी ने अपने शबदों में भी बताए, और उसी राग में अपने शबद भी दर्ज किए जिस राग में भगत बेणी जी के शबद थे। सो, जहाँ तक भगत बेणी जी का संबंध श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के साथ है, निसंग हो के यह कहा जा सकता है कि ना ही भगत बेणी जी की रूह श्री गुरू अरजन देव जी के पास आई थी कि मेरी बाणी श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज करो और ना ही गुरू अरजन साहिब ने इस भगत जी की बाणी उनके किसी पंजाब–वासी श्रद्धालू से ली। ये शबद सतिगुरू जी (गुरू अरजन देव जी) को उसी ‘खजाने’ में से मिले थे जिसमें पहले चारों गुर–व्यक्तियों की सारी बाणी इकट्ठी की हुई थी, और जो गुरू नानक देव जी से लेकर तरतीब–वार अगले गुरू–व्यक्तियों तक गुरू–गद्दी स्थानांतरण के समय में पहुँचती रही थी।

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गुरू नानक देव जी का संक्षेप जीवन ब्यौरा

(तलवंडी राय भुइ में संन् 1469 से अक्टूबर 1504 तक)

जनम– तलवंडी (वैशाख सुदी 3, वैशाख 20, संमत 1526) तद्नुसार 15 अप्रैल 1469। उम्र 7 में साल में पांधे (अध्यापक) के पास पढ़ने। उम्र 9 साल में जनेऊ। उम्र 11 साल, रिश्ता बटाले से बाबा मूले चोणें द्वारा (वैशाख वदी 1, संमत 1542); उसी साल शादी।

उम्र 20 साल; उदास और चुप, वैद्य वाली साखी (आस पास से जंगलों में से दूर–दूर से साधू लोग आ के टिकते थे, उनसे रोजाना देश के हालात के बारे में सुनते थे उसी पर गहरी विचार में पड़े हुए चुप और उदास, माता–पिता चिंतत, और वैद्य बुलाया गया)।

उम्र 28 साल, जन्म बाबा श्री चंद। उम्र 31 साल, जन्म बाबा लक्ष्मी चंद।

उम्र 34 साल, साखी खरा सौदा।

उम्र 35 साल 6 महीने (नवंबर संन् 1504), भाई जैराम जी (बहन बेबे नानकी के पति) ने चिट्ठी भेजी कि यहाँ हमारे पास आओ। पिता कालू जी की आज्ञा अनुसार आप सुल्तानपुर जैराम जी के पास चले गए।

सुल्तानपुर में:

नवंबर 1504 से अक्टूबर 1507 तक सुल्तानपुर रहे।

नवाब दौलत खान के मोदी, परिवार को यहीं बुला लिया। पिता कालू जी भी मिलने आए। भाई मर्दाना भी पास आ के रहे।

मैलसी का भाई भगीरथ सिख बना, इसकी मार्फत से लाहौर का भाई सन्मुख सिख हुआ, गुरू जी के पास ही रहा। सुल्तानपुर छोड़ने से पहले इसको भी व्यापार के लिए भेज दिया।

उम्र 38 साल 6 महीने (सितंबर 1507) साखी वेई नदी। काज़ी और नवाब के साथ नमाज़।

...परिवार को बाबा मूला के सुपुर्द। भाई मर्दाने को साथ लिया।

पहली उदासी

(गुरू नानक साहिब की दूर–देशांतरों की यात्रा को ‘उदासी’ कहा जाता है, ये तीन चरणों में रहीं)

पहली उदासी, अक्टूबर 1507 से 1515 तक हिन्दू तीर्थ देखे।

माता–पिता को मिलने तलवंडी; अैमनाबाद, मलिक भागो; साई बॅुढण शाह (जहाँ कीरतपुर बसा)।

हरिद्वार, पश्चिम की तरफ पानी देना, वैश्णव साधू का चौका। नानक मता, कान फटे जोगी, यहाँ से 30 कोस पर रीठों का जंगल, मीठा रीठा। अयोध्या, प्रयाग, बनारस, पण्डित चतुरदास ‘सालग राम बिप्र....’। गइआ (गया) ‘दीवा मेरा ऐकु नामु’।

पटना, सालस राय जौहरी और अधरका, 4 महीने, गोरखपुर।

आसाम (धनपुर) नूरशाह की साखी, जादू टूणे। कलकत्ते से जगन्नाथपुरी, ‘गगन मै थाल...’।

समुंद्र के किनारे, रामेश्वर तीर्थ, राजा शिव नाभ। पश्चिमी किनारा सोमनाथ, द्वारका।

नर्बदा नदी के किनारे, ‘मन्दिर ओअंकार’, शिव का मन्दिर, इस संबंधी बाणी ‘ओअंकार’। ठॅगों और मनुष्य–भक्षियों से मुलाकात, कौडा।

रिआसत बीकानेर, अनभी सरेवड़ा ‘सिरु खोहाइ...’, पुष्कर तीर्थ मथुरा, ‘कितै देसि न आइआ’। बिद्रावन ‘वाइनि चेले...’।

दिल्ली, सिकंदर का हाथी मरा, पानीपत। कुरुक्षेत्र, पंडित नानू, ‘मास’ की चर्चा।

सुल्तानपुर बेबे नानकी जी को मिले, तलवंडी माता–पिता को।

पॅखो के रंधावे (रावी नदी के किनारे) परिवार को मिलने गए थे, करोड़ी मल, करतारपुर बसाया (13 माघ संमत 1572, संन् 1516 का आरंभ)। माता पिता भी यहाँ। दो साल यहाँ रहे।

दूसरी उदासी

दूसरी उदासी, 1 साल, उक्तर खण्ड, करतारपुर से (संन् 1517 से 1518)

पसरूर, ऐमनाबाद, स्यालकोट, हमज़ा गौंस की साखी।

पंडित ब्रहमदास और कमाल, सुमेर पर्वत, जोगियों और सिद्धों को मिले।

स्याल कोट, मूला खत्री। संन् 1518 में करतारपुर वापस।

तीसरी उदासी

तीसरी उदासी 3 साल, पश्चिम देश, संन् 1518 से 1521 तक, करतारपुर से।

पाकपॅटन, शेख ब्रहम। तुलंभा, सज्जन ठॅग, ‘उजल कैहा...’। रिआसत बिहावलपुर रोहड़ी सॅखर, साध बेला।

मक्का, मुल्ला ने पैरों से घसीटा, रुकनदीन की चर्चा, खड़ाऊँ निशानी, मदीना।

बग़दाद कब्रिस्तान में, कीर्तन, मूल मंत्र, ‘पाताला पाताल...’ बलख बुखारा; काबुल (पिशौर) गोरख हटड़ी।

हसन अब्दाल, वली कन्धारी की साखी। डेरा, शहु सोहागण की साखी डिंगा, एक जोगी का चालीसा।

ऐमनाबाद, (संन् 1521) बाबर का हमला। करतारपुर वापिस आए। (उदासियां खत्म)

करतारपुर में 1521 से सितंबर 1539 तक

रमदास का बालक बूढ़ा (बाबा बॅुढा जी)।

बाबा लहिणा जी अक्टूबर संन् 1532 में।

अचल वटाले, जोगियों के साथ चर्चा, ‘सिध गोसटि’ (सिद्धों के साथ गोष्ठी, मार्च 1539) मुल्तान, 1539।

गुरुता–गद्दी बाबा लहणा जी को असू सुदी 5, 1596 (सितंबर 1539), जोती जोति (देहांत) असू सुदी 10, 1596 (सितंबर 1539)। कुल उम्र 70 साल, 5 महीने 7 दिन।

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गुरू अंगद साहिब जी

जन्म मॅते की सरां (जिला फिरोजपुर) अप्रैल संन 1504।

बाबर के हमले के समय (संन 1524) 20 साल की उम्र में पिता खडूर साहिब आ गए, यहाँ पर बुआ भी थी और ससुराल भी थी। पिता बाबा फेरू जी देवी के भक्त थे। उनका देहांत संन 1526 में। पिता की जगह ‘संग’ के जत्थेदार (मुखिया) बने।

संन 1532 में (उम्र 28 साल) खडूर के वासी भाई जोधे से गुरू नानक देव जी की बाणी सुन के दर्शन की तमन्ना। देवी को जाते हुए राह में करतारपुर में गुरू जी के दर्शन किए और वहीं पर रह गए।

सतिगुरू (नानक देव जी) की निगरानी में 6 साल तक सिख धर्म पर चलने की मेहनत; गुरू नानक देव जी ने आपको तैयार किया गरीबों से प्यार करने के लिए। गरीबों वाले ही काम करवाए– 1. पशुओं के चारे के बंडल (पंडें), 2. सर्द ऋतु में धरमशाला की दीवार का निर्माण, 3. कटोरा गंदे कीचड़ में, 4. मरी चुहिया धर्मशाला में, 5. सर्दी ऋतु में आधी रात को रावी दरिया पर कपड़े धोना और, 6. तीन दिन लगातार बरसात में मस्ताने लंगर के लिए बबूल की लकड़ियों का इन्तजाम, 7. धाणक रूप, मुर्दा खाने का हुकम मिलना।

सितंबर संन 1539 (असू सुदी 5, संमत 1596) गुरू बने। ख़ालक को ख़लकति में देखने और प्रभू की रजा में राजी रहने की शिक्षा का संगतों में प्रचार किया।

संन् 1552 में खडूर साहिब में जोती–जोति समाए। कुल उम्र 48 साल।

साखियां–

अ. गरीबी, गारीबों से प्यार, ख़ालिक को ख़लकति में देखने के संबंध में;

जोगियों की जमात और गरीबी की माँग।

बादशाह हिमायूँ का आना, गरीबों पर तलवार उठाने से रोका।

लांगरी सिख भाई माहणा।

आ. रज़ा में राज़ी रहने के संबंध में;

भाई जीवा।

तपा शिवनाथ।

नोट: गुरू बन के हुकम अनुसार, संन् 1539 से 1552 तक खडूर साहिब में रिहायश रखी।

“फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु॥ ”

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गुरू अमरदास जी

जन्म– गाँव बासरके जिला अमृतसर, अप्रैल संन 1479 (गुरू नानक 1469)। संन 1541 तक बासरके रहे। संन 1522 से 1541 तक 19 साल हर साल हरिद्वार जाते रहे 62 साल की उम्र तक।

संन् 1541 में हरिद्वार से वापस आते हुए रास्ते में एक वैश्णव साधू मिला जो गाँव बासरके तक साथ आया, उसके पूछने पर गुरू को तलाशने की चाहत पैदा हुई। गुरू अंगद साहिब जी की सुपुत्री बीबी अमरो जी से (जो आपके भतीजे से ब्याही हुई थी) बाणी सुन के गुरू अंगद जी के पास आए संन् 1541 में।

संन् 1541 से 1552 तक (शेरशाह सूरी का जमाना) खडूर साहिब रहे 11 साल;

अ. हर रोज आधी रात सतिगुरू जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से जल लाना।

आ. गोइंदवाल बसाया संन 1546 में। परिवार, अन्य बिरादरी, और भाई जेठा जी (गुरू रामदास जी) को गुरू आज्ञा अनुसार यहाँ ला बसाया।

इ. माघ महीने (जनवरी संन् 1552) बरखा पाले में ब्यासा से पानी की गागर लाते हुए जुलाहे की खड्डी से ठोकर, जुलाही का ताना।

गुरू बने जनवरी संन् 1552 में, तब उम्र थी 73 साल के करीब। संन 1552 से 1574 तक गोइंदवाल रहे 22 साल 6 महीने।

बीबी भानी जी की शादी भाई जेठा जी के साथ संन् 1553 में।

संन 1555, भतीजे सावण मॅल को हरीपुर काँगड़े भेजा, अगले साल वहाँ का राजा रानियों के साथ दर्शनों के लिए आया, एक रानी के पर्दा करने पर ऐतराज।

1557, गुरू अंगद साहिब के साहिबजादे बाबा दातू ने गोइंदवाल में भरी सभा में आ के सतिगुरू जी को लात मारी, सतिगुरू जी ने बल्कि क्षमा माँगी कि उनके नर्म पैर को चोट लगी होगी।

1558, हिन्दू तीर्थों पर, इसका वर्णन गुरू रामदास जी ने तुखारी राग में किया है ‘नावण पुरबु अभीचु, गुर सतिगुर दरसु भइआ’।

जाति–पाति की कुरीति रोकने के लिए हरेक नए आए हुए पर बंदिश कि दर्शन वह करे जो पहले लंगर में रोटी खाऐ।

खत्रियों ब्राहमणों के उकसाने और खोजियों की छेड़खानी, पानी के लिए बावली लगवाई संन 1559। अकबर आया। परगना झबाल की जागीर बीबी भानी जी को। सती की कुप्रथा रोकने के लिए गुरू जी ने अकबर को प्रेरित किया।

संन् 1570, अमृतसर बसाने का हुकम (गुरू) रामदास जी को।

सितंबर 1574, जोती–जोति समाए, गोइंदवाल में, इसका वर्णन राग रामकली की बाणी ‘सदु’ में बाबा सुंदर जी ने किया है। कॅुल उम्र 95 साल चार महीने।

गुरू अमरदास जी के जीवन के साथ संबंध रखने वाले;

पंडित माई दास, भाई माणिक चंद, सॅचन सॅच, गंगोशाह, मथो मुरारी, भाई प्रेमा, माई पोतरे।

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गुरू रामदास जी

जन्म– लाहौर चूना मंडी, अक्टूबर संन 1534। छोटी ही उम्र में माता जी का देहांत, 7 साल की उम्र में (संन 1541) पिता जी भी गुजर गए। नानके बासरके; नानी यहाँ ले आई, 5 साल बासरके रहे।

संन् 1546 में गोइंदवाल आए (तब उम्र 12 साल)। 1552 में गुरू अमरदास जी भी गुरू बन के खडूर साहिब से गोइंदवाल आ के रहे।

संन 1553, गुरू अमरदास जी की लड़की बीबी भानी जी के साथ शादी। (नोट: तब उम्र 19 साल; 7 साल के उम्र में बासरके आए थे जो गुरू अमरदास जी की जन्म–भूमि और इनका नानका गाँव था। गुरू अमरदास जी इनको यहाँ से गोइंदवाल ले आए थे; सो, इस गहरी सांझ को 12 साल हो चुके थे, जब परस्पर दुनियावी रिश्ता कायम हुआ)।

संन् 1558, गुरू अमरदास जी के साथ तीर्थों पर गए; राह में आँखों देखा हाल आपने गुरू बन के तुखारी राग के एक छंत में लिखे– ‘नावण पुरबु अभीचु’।

संन 1559, बाउली की सेवा।

संन 1560, अकबर ने झबाल के परगने की जागीर बीबी भानी जी के नाम लगाई।

ब्राहमण–खत्रियों की शिकायत पर जब अकबर ने गुरू अमरदास जी को लाहौर बुलाया, तो सतिगुरू ने आपको (रामदास जी को) अपनी जगह पर भेजा।

गुरू अमरदास जी के हुकम अनुसार संन 1570 में अमृतसर बसाना आरम्भ किया।

भाई रामे और इनकी परख; बाउली के पास थड़े (बैठने के लिए) बनवाने।

सितंबर 1574 में गुरू बने और अमृतसर आ रहे।

नोट: तीनों ही पुत्र गुरू अमरदास जी के होते हुए ही पैदा हुए।

अ. बाबा पिरथी चंद जी संन 1557

आ. बाबा महा देव जी संन् 1560

इ. गुरू अरजन साहिब जी संन् 1563 (अप्रैल)

बाबा श्री चंद जी बारठ से मिलने आए।

भाई गुरदास जी को आगरे की तरफ प्रचार के लिए भेजा।

‘मसंद’ मुकॅरर किए।

संन् 1581 गुरू अरजन साहिब को गुरुता–गद्दी दी, बाबा पिरथी चंद का विरोध; बीबी भानी और गुरू रामदास जी को साथ ले के गोइंदवाल आ गए।

यहाँ अगस्त 1581 में जोती–जोति समाए।

कुल उम्र 47 साल।

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गुरू अरजन साहिब जी

जन्म तिथि–वैसाख वदी 7, संमत 1620, 19 वैशाख (15 अप्रैल संन 1563), तब अकबर का शासन था।

जन्म स्थान–गोइंदवाल। यहाँ 11 साल रहे, भादरों सुदी 15 संमत 1631 तक जब गुरू अमरदास जी जोती–जोति समाए।

11 साल की उम्र से ‘चॅक गुरू’ में पिता गुरू रामदास जी के साथ आ गए।

गुरुता गद्दी मिला सावन 1638 (जुलाई 1581) में, तब उम्र थी 18 साल। गुरयाई के बाद पिता गुरू रामदास जी गोइंदवाल चले गए। यहाँ गुरू रामदास जी जोती–जोति समाए भाद्रों सुदी 3, संमत 1638 (1 सितंबर 1581)।

रस्म पगड़ी (दस्तारबंदी) भादरों सुदी 14, 1638। भॅट जिनकी बाणी श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, इस समय यहाँ आए और उन्होंने दर्शन करके बाणी उचारी।

असू संमत 1638 (सितंबर 1581) में वापस ‘चॅक गुर’ (अमृतसर); यहाँ रहे 1638 से 1646 तक, 8 साल, यहाँ,

अ. बाबा पृथी चंद (बड़े भाई) की विरोधता;

आ. सॅते बलवंड की साखी।

इ. ‘हरि मंदर’ साहिब की नींव रखी कॅतक सुदी 5, संमत 1645 (अक्टूबर 1588) तब उम्र साढ़े पच्चिस साल।

शादी संमत 1646 में, गाँव ‘मऊ’ परगना फिल्लौर।

माझे के गाँवों की संभाल– वैसाख संमत 1647 (संन 1590) से दक्षिण की तरफ –तरन तारन बसाया, खडूर, गोइंदवाल, सहराली, खानपुर आदि सारे इलाके में;

ब्यासा से उक्तर में (चढ़ाई की ओर) करतारपुर बसाया, दोआबे के अनेकों सरवरिए लोग सिख बने।

दखिण की तरफ (उतराई की ओर) – वडाली, (यहाँ गुरू हरिगोविंद साहिब का जन्म 21 हाड़ वदी 1, 19 जून 1595)। अकाल आया हुआ था। अनेकों गाँवों में कूएँ लगवाए। छे–हरटा। लाहौर 8 महीने। काल के कारण बिमारियां, शहर निवासियों की अटुट सेवा। अकबर भी लाहौर आया हुआ था काल के कारण। आगे रावी दरिया के साथ–साथ मदर, जंबर, चूनियां, बहड़वाल आदिक गाँवों–कस्बों में से होते हुए गोइंदवाल पहुँचे थे संन् 1598 के आखिर में। अकबर लाहौर से वापस आते हुए यहाँ गुरू जी को मिला। सतिगुरू जी ने किसानों का मामला मुआफ करवाया।

पहाड़ों की तरफ– अमृतसर थोड़ा समय ठहर के सहसरा, डेहरा बाबा नानक, करतारपुर, कलानौर, बारठ आदिक गाँवों–कस्बों में दो साल का चक्कर लगा के संन 1601 के आरम्भ में वापस अमृतसर।

अमृतसर 1601 से 1606 तक।

गुरू हरिगोविंद साहिब (बालक) को सीतला।

गुरू ग्रंथ साहिब जी की बीड़ तैयार की। भाद्रों सुदी 1 संमत 1661 (सितंबर संन 1604) को हरि मंदर साहिब में पहला प्रकाश, ग्रंथी बाबा बुढा जी।

बाबा प्रिथी चंद की मौत 27 मॅघर 1662 (नवंबर संन 1605)।

अकबर की मौत 17 अक्टूबर संन 1605। जहाँगीर तख़्त पर बैठा। उसके पुत्र खुसरो की बग़ावत 6 अप्रैल संन 1606। खुसरो पंजाब को। गोइंदवाल के रास्ते लाहौर। आगे चिनाब नदी के किनारे सोधरे के पास गिरफतार। 1 मई को कैदी बन के लाहौर। उसके साथी कतल।

गुरू अरजन साहिब की शहीदी

बाग़ी खुसरों की सहायता की शिकायतें।

जहाँगीर द्वारा राजद्रोह का दूषण। शाही हुकम कि गुरू अरजन देव जी को सियासत और यासा के कानून अनुसार दण्ड दिया जाए।

उबलती देग़, गरम रेत, गर्म लोह, आखिर में छालों से भरे हुए शरीर को दरिया रावी के ठंढे पानी में। जेठ सुदी चौथ संमत 1663, हाड़ की पहली (30 मई संन 1606) को शहीद हुए।

अ. जहाँगीर अपनी ‘तुज़क’ में यूँ लिखता है;

“दर गोइंदवाल कि बर किनारे दरीआऐ बिआह वाकिअ अस्त, हिंदूऐ बूद अरजुन नाम दर लिबासे पीरी व शैखी। चुनाचि बिसीआरे अज़ सादह लौहाने हनूद बल्कि नादानो सफ़ीआने इसलाम मुकैदे अतवारो औज़ाऐ ख़ुद साख़तह, कौसे पीरी व वलाइत रा बुलंद आवाज़ह गरदानीदह बूद। व ऊ रा गुरू मे–गुफ़तंद। व अज़ अतराफो जवानब गोलानो गोल प्रसतां ब–ऊ रजू आवुरदह इअतकादे तमाम ब–ऊ इज़हार मे–करदंद। अज़ सिह चहार पुश्त ऊ ई दुकान रा गरम मे–दाशतंद। मॅुदतहा ब–ख़ातर मे–गुज़श्त कि ई दुकाने बातिल रा बर–तरफ़ बाइद साख़त या ऊ रा दर जरगाऐ अहले इस्लाम बाइद आवुरद......।

अमर करदम, कि ऊ रा हाज़िर साख़तंद, व मसकानो मनाज़लो फरज़ंदाने ऊ रा ब–मुरतज़ा ख़ां इनाइत नमूदम, व असबाबो अमवाले ऊ रा ब–कैदे ज़ब्त आवुरदह, फ़रमूदम कि ऊ रा ब–सयासत व ब–यासा रसानंद।”

हिन्दी अनुवाद:

“गोइंदवाल में जो कि ब्यास दरिया के किनारे पर है पीरों–बुज़ुर्गों के भेष में अरजुन नाम का एक हिन्दू था जिसने बहुत सारे भोले–भाले हिन्दुओं, बल्कि मूर्ख और बेसमझ मुसलमानों को भी अपनी रहत–बहत का श्रद्धालू बना के अपने वली ओर पीर होने का ढोल बहुत ऊँचा बजाया हुआ था, वे उसको गुरू कहते थे। हर तरफ़ से फरेबी और ठॅगी–पसंद लोग उसके पास आ के उस पर अपनी पूरी श्रद्धा प्रकट करते थे। तीन चार पीढ़ियों से उन्होंने ये दुकान चलाई हुई थी।

काफ़ी समय से मेरे दिल में ये विचार उठ रहा था कि इस झूठ की दुकान को बंद करना चाहिए अथवा उस (गुरू) को मुसलमानी फिरके में ले आना चाहिए.....

मैंने हुकम दिया कि उसको हाज़िर किया जाए और मैंने उसके घर–घाट और बच्चे मुरतज़ा ख़ां के हवाले कर दिए; और उसका माल–अस्बाब ज़ब्त कर के हुकम दिया कि उसको सियासत और यासा के कानून अनुसार दण्ड दें।”

आ. भाई रतन सिंघ ‘प्राचीन पंथ प्रकाश’ में लिखता है;

के गुर अरजुन दरीआइ न बोड़यो?

के गुर तेग बहादर सीस न तोरयो?

के साहिबज़ादे नाहि मराऐ?

शीर–ख़ोर तोहि नाहि कुहाऐ?

इ. दरिया रावी में डुबाने के संबंध में, मुन्शी मोहन लाल भी ‘उम्दहतूत–तवारीख़’ में लिखता है; ‘बाअद अज़ ज़हूरे बाअज़े मुकॅदमाते न–मुलायम ज़ाते आली रा दर बहरे रावी अंदाख़तंद’।

अनुवाद:‘कुछ अत्याचार करने के बाद उस महापुरुष (गुरू) को उन्होंने दरिया रावी में फेंका’।

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गुरू तेग़ बहादर साहिब

(1621–1675)

संक्षेप जीवन

जन्म स्थान– अमृतसर, गुरू के महल।

पिता– गुरू हरि गोविंद साहिब जी।

जन्म तारीख– वैसाख वदी 5, 5 वैशाख, संमत् 1678। दिन ऐतवार। संन 1621, अप्रैल 1।

बाल उम्र– गुरू हरि गोविंद साहिब संन 1630 तक अमृतसर रहे, फिर यहाँ से परिवार समेत करतारपुर (जिला जलंधर) चले गए। पिता जी के साथ आप भी।

संन 1634 में पैंदे ख़ां बार्गी हो के लाहौर से फौज ले के चढ़ाई कर दी। करतारपुर जंग हुआ। तब (गुरू) तेग़ बहादुर साहिब भी वहीं थे। इस जंग के बाद गुरू हरिगोबिंद साहिब कीरतपुर चले गए, (गुरू) तेग़ बहादर साहिब सतिगुरू जी की आज्ञा अनुसार अपनी माता समेत अपने नानके गाँव बकाले में आ गए।

गुरियाई– गुरू हरिक्रिशन साहिब (आठवीं गुरू जोति) दिल्ली में जोती–जोति समाए 3 वैशाख (चेत्र सुदी 14) संमत 1721 (30 मार्च संन 1664)। उनकी अगले गुरू गद्दी पर बैठने के लिए योग्य व्यक्ति के बारे में आखिरी हिदायत कि ‘बाबा बकाले’।

इस हिदायत के चलते गुरू गद्दी के 22 दावेदार बकाले आ के बैठ गए। मक्खण शाह लुबाणा नामक व्यापारी वासी जिला टांडा जेहलम, अपने मुनाफे में से पाँच सौ मोहरें ले के दर्शनों के लिए आया। गुरू तेग बहादर साहिब उन 22 दावेदारों से अलग ही टिके हुए थे। मक्खण शाह ने ढूँढ ही लिए। सावण की पूरनमासी, संन 1664।

विरोधियों की चोट:

बाबा धीरमल के मसंद शीहें ने बंदूक से वार किया, पर निशाना चूक गया। साथियों की सहायता से शीहें ने गुरू घर में से जो सामान मिला लूट लिया, और बाबा धीरमल समेत करतारपुर को।

सतिगुरू जी की उदारता:

मक्खण शाह ने बंदूक की आवाज़ सुन कर सिख–साथियों समेत बाबा धीरमल का पीछा किया। लूटा हुआ माल छीन लाए, ‘आदि बीड़’ भी ले आए। सतिगुरू जी ने वह सारा सामान और ‘बीड़’ भी वापस भिजवा दी, अगस्त संन् 1664।

श्री अमृतसर जी का दर्शन:

संन 1665 शुरू में, भाई मक्खन शाह भी साथ ही। पुजारियों को डर कि कहीं हमारी रोजी–रोटी बंद ना हो जाए, दरबार साहिब के दरवाजे बंद करके चले गए। गुरू जी हरिमंदिर साहिब के दर्शन किए बग़ैर ही वापिस। जहाँ इन्तजार में बैठे रहे वहाँ अब गुरद्वारा थड़ा साहिब।

गाँव वॅले की संगति ने सेवा की। उस गाँव में हर साल माघ की पूरनमासी का मेला। वॅले से वापस बकाले। बकाले से करतारपुर के रास्ते कीरतपुर।

आनंदपुर बसाना:

1634 से 1664 तक तीस साल कीरतपुर ही केन्द्रिय गुरू स्थान बना रहा। गुरू तेग़ बहादर साहिब ने रियासत कहलूर के राजे दीपचंद से गाँव माखोवाल की ज़मीन मूल्य लेकर नगर आनंदपुर बसाया। 26 असू संमत 1722 (अक्टूबर संन 1665) को आनंदपुर की नींव रखी गई थी।

पूरब देश की तरफ दौरा;

हिन्दू कौम के विरुद्ध औरंगज़ेब की सख़्ती वाली नीति; पूरबी बंगाल और उड़ीसा की तरफ खास सख़ि्तयां।

घबराई हुई हिन्दू जनता को दिलासा देने के लिए सतिगुरू जी पूरब देश को। परिवार समेत।

मालवा और बांगर का इलाका:

जैसे गुरू अरजन साहिब ने काल और मुश्किल के समय माझे में खास जोर लगाया था, वैसे ही गुरू तेग़ बहादर साहिब जी ने मालवे और बांगर में लोगों की आर्थिक और सदाचारिक हालत सुधारने की तरफ विशेष ध्यान दिया। सिॅख कौम की दसवंध की भेटा ने गरीब लोगों को बहुत ढारस दी।

मूलोवाल:

आनंदपुर से चल के घनौली, रोपड़, दादूमाजरा, नौलखा आदिक गाँवों में से हो के गाँव मूलोवाल पहुँचे। यहाँ पाँच दिन ठिकाना किया।

साबो की तलवंडी:

मूलोवाल से फरवाही, हंढाइआ, भंदेहर, खीवा, भिॅखी आदिक गाँवों में सतिगुरू जी जरूरत मुताबिक ठहरे। भिॅखी से आगे गाँव दलेउ, अलीशेर, खिआला, मौड़, माईसरखाना आदिक से होते हुए साबो की तलवंडी पहुँचे। यहाँ अब गुरद्वारा दमदमा साहिब। तलवंडी में सतिगुरू जी कई दिन टिके।

बांगरदेस (करनाल, रोहतक, हिसार के जिले)

धमधाण:

कई गाँवों में से होते हुए धमधाण। भाई रामदेव को संगतों में जल की सेवा के कारण भाई मीहां नाम दिया। पूरब देश की ओर सिख धर्म का प्रचार करने भेजा।

कुरुक्षेत्र:

कैथल, थनेसर, कुरुक्षेत्र पहुँचे। सूरज ग्रहण का समय।

कड़ा माणकपुर:

थनेसर से बनी बदर, कड़ा माणकपुर। जोगीराज मलूक दास। श्रद्धावान बना। पाँच दिन यहाँ।

उक्तर प्रदेश:

मथुरा, आगरा (माई थान के पास गुरद्वारा इस याद में)। इटावा, कानपुर, (गंगा के किनारे डेरा)। इलाहाबाद (प्रयाग), डेरा किया अईयापुर के महॅले, अब वहाँ एक पक्की संगति (गुरद्वारा) है।

प्रयाग से मिर्जापुर ही, काशी (रेशम के महॅले ठिकाना)।

बिहार प्रांत (ससराम, गया, पटना, मुंगेर);

काशी से ससराम (शेरशाह यहाँ पैदा हुआ था)। ससराम से गया। यहाँ से पटना। भाई जैते हलवाई के घर डेरा। परिवार को यहीं छोड़ कर आगे आसाम की ओर चल पड़े। पटने से मुंगेर, भागलपुर, राज महल।

बंगाल:

राज महल से मालदा, मुर्शिदाबाद, ढाका। गुरू नानक देव जी ने बंगाल में प्रचार करने के लिए ढाके को केन्द्र बनाया था।

गुरू तेग बहादर साहिब अभी ढाका में ही थे जब पटने से (गुरू) गोबिंद सिंघ जी के जन्म की खबर पहुँची, 26 दिसंबर संन् 1666।

आसाम:

उक्तरी आसाम के छोटे से अहोम कबीले ने अपने देश के भौगोलिक हालात की मदद से मुग़ल हकूमत ली और करारे हाथ दिखाए। औरंगज़ेब ने दिसंबर संन् 1667 में मिर्जा राजा जै सिंह के पुत्र राजा राम सिंह को आसाम की तरफ जाने का हुकम दिया।

तब गुरू तेग़ बहादर साहिब आसाम में पहुँच चुके थे। सतिगुरू जी ने बीच में पड़ कर दोनों पक्षों की सुलह कराई, संन् 1670।

पंजाब की ओर वापसी:

औरंगज़ेब ने समूचे भारत के लिए नया हुकम जारी किया कि काफिरों की सब पाठशालाएं और मन्दिर गिरा दिए जाएं, धार्मिक रस्मों और तालीम को खत्म कर दिया जाए।

इस नई नीति का असर सुन देख के सतिगुरू जी वापस पंजाब को आए।

पटने पहुँच के बहुत ही कम समय के लिए रुके। परिवार को वहीं टिके रहने दिया। बकसर, बनारस, अयुध्या आदिक में से होते हुए ढाई तीन महीनों में आनंदपुर साहिब वापस। थोड़े ही समय बाद सारे परिवार को भी पटने से वापस बुला लिया।

कश्मीरी पंडित:

कश्मीर पंडितों का गढ़ था। कश्मीर के सूबेदार शेर अफ़गान ख़ां ने तलवार के जोर से कश्मीरी पंडितों को मुसलमान बनाना शुरू कर दिया। कश्मीरी पण्डितों ने मुग़लों की तलवार के आगे झुकने से पहले गुरू तेग बहादर जी का आसरा लिया। सतिगुरू जी ने उनकी बाँह पकड़ी।

औरंगज़ेब हसन अब्दाल के इलाके:

पठान कबीलों ने सिर उठाया। औरंगज़ेब इनको दबाने के लिए खुद 26 जून संन् 1674 को हसन अब्दाल जा पहुँचा। डेढ़ साल वहाँ टिका रहा। 26 मार्च संन 1676 को दिल्ली वापस पहुँचा।

सतिगुरू जी का देश रटन:

कश्मीरी पण्डितों को मदद का भरोसा दे के सतिगुरू जी देश में सहमी हुई हिन्दू जनता के बीच में निडरता निर्भयता का प्रचार करने चल पड़े।

आनंदपुर से कीरतपुर, फैजाबाद, समाणा, कैंथल, लॅखण माजरा, रोहतक।

खास सेवक तो पाँच ही रखे थे– भाई मतीदास, भाई दियाला, भाई गुरदिक्ता, भाई ऊदा, भाई जैता– पर रास्ते में लोग हुंम–हुमा के दर्शनों के लिए आ इकट्ठे होते थे।

तुर्क हाकमों द्वारा रिर्पोटें:

तुर्क हाकिमों ने लोगों की बदलती दशा देख के औरंगज़ेब के पास रिर्पोटें भेजनी शुरू कर दीं कि गुरू तेग बहादर अपने साथ लुटेरे धाड़वी (हमलावर) ले के हिन्दुओं को डरा–डरा के उनका धन–माल लूट रहा है।

गिरफतारी के हुकम:

हसन अब्दाल औरंगज़ेब के पास तुर्क हाकिमों की खबरें पहुँची, कश्मीरी पण्डितों की अर्जी भी कि अगर गुरू तेग बहादर साहिब मुसलमान बन गए, तो हम भी बन जाएंगे। लाहौर के हाकम को (गुरू तेग़ बहादर की) गिरफतारी के हुकम जारी, हिदायत कि उनको मुसलमान बनाने का हुकम किया जाए।

इतने में सतिगुरू जी आगरे के इलाके में। उनके साथ सिर्फ पाँच सिख।

शहर आगरे में सतिगुरू जी की गिरफतार पाँच सिखों समेत। दिल्ली लाए गए। संन् 1675। मुसलमान बनने से इन्कार।

भयानक मौत के डरावे और शहीदी:

औरंगज़ेब का दूसरा हुकम हसन अब्दाल से कि सतिगुरू जी को कत्ल कर दिया जाए।

डराने के लिए सतिगुरू जी के सामने पहले भाई मतीदास जी को आरे से चिराया गया, फिर भाई दियाला जी को उबलती देग़ में डाल के शहीद कर दिया गया।

11 नवंबर 1675 सतिगुरू जी को तलवार से शहीद किया गया। दिन बृहस्पतिवार 11 मॅघर संमत् 1732, मघॅर सुदी 5। अब वहाँ है गुरद्वारा सीसगंज, चाँदनी चौक, दिल्ली।

भाई जैते की हिम्मत:

लोगों की वहाँ भीड़, चारों तरफ़ हाहाकार मची हुई थी। उस हफड़ा–तफ़ड़ी में भाई जैते को मौका, सीस वहाँ से उठा कर सीधा आनंदपुर को।

रकाब गंज, लॅखी वणजारा:

सख़्त पहरे लगे हुए थे, भाई ऊदा मुसलमानी पहरावे में। सिख वणजारे लॅखी शाह से मुलाकात। वह सात सौ बैल चूने–कली के लाद के ले जा रहा था। दोनों ने सलाह बनाई। चूना–कली दिल्ली के किले में फेंक के बैलों को चाँदनी चौक में से ले के चला। पहरेदार परे हट गए। मौका ताड़ के उस धूल भरी आँधी भाई ऊदै जी ने सतिगुरू जी का धड़ एक बैल पर लाद लिया। शहर से तीन मील पर लॅखी का गाँव रकाब गंज। वहाँ पहुँचते ही धड़ लॅखी ने अपने मकान में रख के घर को आग लगा दी।

धूल भरे तूफान के हटने के बाद पहरेदारों ने देखा कि धड़ भी ग़ायब। रकाब गंज पहुँचे। लॅखी का घर जल रहा था, वह ‘लूटे गए मारे गए’ का शोर मचा रहा था। लॅखी पर शक ना हुआ।

अब वहाँ गुरद्वारा रकाब गंज है।

सीस अनंदपुर:

भाई जैता जी सीस लेकर आनंदपुर साहिब जा रहा था, भाई ऊदा जी भी उनके साथ जा मिले। दोनों आनंदपुर साहिब पहुँचे। सतिगुरू जी के सीस का संस्कार अनंदपुर में करवाया, वहाँ अब गुरद्वारा सीसगंज बना हुआ है।

(अनुवाद संपूर्ण 23 जून 2017, शिवालिक सिटी, मोहाली)

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