श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1425

सलोक महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रते सेई जि मुखु न मोड़ंन्हि जिन्ही सिञाता साई ॥ झड़ि झड़ि पवदे कचे बिरही जिन्हा कारि न आई ॥१॥ धणी विहूणा पाट पट्मबर भाही सेती जाले ॥ धूड़ी विचि लुडंदड़ी सोहां नानक तै सह नाले ॥२॥ {पन्ना 1425}

शब्दार्थ: रते = (प्रेम रंग में) रंगे हुए। सोई = वह (मनुष्य) ही (बहुवचन)। जि = जो (मनुष्य)। जिनी = जिन्हों ने। सिञाता = समझा, गहरी सांझ डाली हुई है। साई = साई, पति प्रभू। झड़ि झड़ि पवदे = बार बार झड़ते हैं। कचे बिरही = कमजोर प्रीत वाले। कारि = कारी, मुआफिक (देखो, 'गुर की मति जीइ आई कारि' = पंन्ना 220)।1।

धणी = मालिक प्रभू। विहूणा = बिना। पाट = रेशम। पटंबर = पट+अंबर, पॅट के कपड़े। भाहि = आग। सेती = से। भाही सेती = आग से। जाले = जला दिए हैं। लुडंदड़ी = लेटती। सोहां = मैं सुंदर लगती है। नानक = हे नानक! सह नाले = पति से। तै नाले = तेरे साथ। तै सह नाले = हे पति! तेरे साथ।2।

सरलार्थ: हे भाई! वे मनुष्य ही (प्रेम-रंग में) रंगे हुए हैं, जो (पति-प्रभू की याद से कभी भी) मुँह नहीं मोड़ते (कभी भी प्रभू की याद नहीं भुलाते), जिन्होंने पति-प्रभू के साथ गहरी सांझ डाली हुई है। पर जिनको (प्रेम की दवाई) मुआफिक नहीं बैठती (ठीक असर नहीं करती,) वह कमजोर प्रेम वाले मनुष्य (प्रभू चरणों से इस तरह) बार-बार टूटते हैं (जैसे कमजोर कच्चे फल टाहनी से)।1।

हे नानक! (कह- हे भाई!) (मैंने तो वह) रेशमी कपड़े (भी) आग के साथ जला दिए हैं (जिनके कारण जीवन) पति-प्रभू (की याद) से वंचित ही रहे। हे पति-प्रभू! तेरे साथ (तेरे चरणों में रह के) मैं धूल-मिट्टी में लिबड़ी हुई भी (अपने आप को) सुंदर लगती हूँ।2।

गुर कै सबदि अराधीऐ नामि रंगि बैरागु ॥ जीते पंच बैराईआ नानक सफल मारू इहु रागु ॥३॥ {पन्ना 1425}

शब्दार्थ: कै सबदि = के शबद से। अराधीअै = सिमरना चाहिए। नामि = नाम में (जुड़ने से), नाम से। रंगि = प्रेम रंग से। बैरागु = विकारों से उपरामता। जीते = जीते जाते हैं, वश में आ जाते हैं। पंच बैराईआ = (कामादिक) पाँचों वैरी। सफल = कामयाब। मारू = खत्म कर देने वाली (दवा)। रागु = हुलारा, प्यार का हुलारा (emotion, feeling)।3।

सरलार्थ: हे भाई! गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए। (प्रभू के) नाम की बरकति से, (प्रभू के प्रेम-) रंग की बरकति से (मन में विकारों की ओर से) उपरामता (पैदा हो जाती है), (कामादिक) पाँचों वैरी बस में आ जाते हैं। हे नानक! ये प्रेम-हिलौरे (विकार-रोगों को) खत्म कर देने वाली कारगर दवा हैं।3।

जां मूं इकु त लख तउ जिती पिनणे दरि कितड़े ॥ बामणु बिरथा गइओ जनमु जिनि कीतो सो विसरे ॥४॥ {पन्ना 1425}

शब्दार्थ: जां = जब। मूं = मेरा, मेरी ओर। त = तब। लख = लाखों ही (मेरी ओर)। तउ = तेरी। जिती = जितनी भी। तउ जिती = तेरी जितनी भी (सृष्टि है)। दरि = (तेरे) दर पर। कितड़े = कितने ही, अनेकों, यह सारे अनेकों। पिनड़े = माँगने वाले, मंगते। बामणु जनंमु = (सबसे ऊँचा समझे जाने वाला) ब्राहमण (के घर का) जनम (भी)। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कीतो = पैदा किया है। सो = वह (परमात्मा)।4।

सरलार्थ: हे प्रभू! जब तू एक मेरी ओर है, तब (तेरे) पैदा किए हुए लाखों ही (जीव मेरी ओर हो जाते हैं)। (ये) तेरी जितनी भी (पैदा की हुई सृष्टि है, तेरे) दर पर (यह सारे) अनेकों ही मंगते हैं।

हे भाई! जिस परमात्मा ने पैदा किया है, अगर वह भूला रहे (मनुष्य को पैदा करने वाला वह भूल जाए), तो (सबसे ऊँचा समझे जाना वाला) ब्राहमण (के घर का) जनम (भी) व्यर्थ चला गया।4।

सोरठि सो रसु पीजीऐ कबहू न फीका होइ ॥ नानक राम नाम गुन गाईअहि दरगह निरमल सोइ ॥५॥ {पन्ना 1425}

शब्दार्थ: सोरठि = एक रागिनी।

सो रसु = वह (नाम-) रस। पीजीअै = पीना चाहिए। कबहू = कभी भी। फीका = बेस्वादा। गाईअहि = गाने चाहिए। सोइ = शोभा। निरमल सोइ = बेदाग शोभा।5।

सरलार्थ: हे भाई! वह (हरी-नाम-) रस पीते रहना चाहिए, जो कभी भी बेस्वादा नहीं होता। हे नानक! परमात्मा के नाम के गुण (सदा) गाए जाने चाहिए (इस तरह परमात्मा की) हजूरी में बेदाग़ शोभा मिलती है।5।

जो प्रभि रखे आपि तिन कोइ न मारई ॥ अंदरि नामु निधानु सदा गुण सारई ॥ एका टेक अगम मनि तनि प्रभु धारई ॥ लगा रंगु अपारु को न उतारई ॥ गुरमुखि हरि गुण गाइ सहजि सुखु सारई ॥ नानक नामु निधानु रिदै उरि हारई ॥६॥ {पन्ना 1425}

शब्दार्थ: प्रभि = प्रभू ने। न मारई = ना मारे, नहीं मारता, नहीं मार सकता। निधानु = खजाना। सारई = संभालता है, हृदय में बसाए रखता है। अगंम = अपहुँच। टेक अगंम = अपहुँच प्रभू का आसरा। मनि = मन में। तनि = तन में। धारई = धारे, बसाता है, बसाए रखता है। रंगु = प्रेम रंग। अपार = कभी ना खत्म होने वाला (अ+पार)। को = कोई जीव। न उतारई = न उतारे, दूर नहीं कर सकता। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। गाइ = गाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सारई = सारे, संभालता है। रिदै = हृदय में। उरि = हृदय में। हारई = धारे, टिकाए रखता है।6।

सरलार्थ: हे भाई! जिन (मनुष्यों) की प्रभू ने खुद रक्षा की, उनको कोई मार नहीं सकता। हे भाई! (जिस मनुष्य के) हृदय में परमात्मा का नाम खजाना बस रहा है, वह सदा परमात्मा के गुण याद करता रहता है। जिसको एक अपहुँच प्रभू का (सदा) आसरा है, वह अपने मन में तन में प्रभू को बसाए रखता है। (जिसके हृदय में) कभी ना खत्म होने वाला प्रभू-प्रेम बन जाता है, उस प्रेम-रंग को कोई उतार नहीं सकता।

हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है, और आत्मिक अडोलता में (टिक के आत्मिक) आनंद माणता रहता है। हे नानक! (गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) परमात्मा के नाम का खजाना अपने हृदय में (इस तरह) टिकाए रखता है (जैसे हार गले में डाल के रखा जाता है)।6।

करे सु चंगा मानि दुयी गणत लाहि ॥ अपणी नदरि निहालि आपे लैहु लाइ ॥ जन देहु मती उपदेसु विचहु भरमु जाइ ॥ जो धुरि लिखिआ लेखु सोई सभ कमाइ ॥ सभु कछु तिस दै वसि दूजी नाहि जाइ ॥ नानक सुख अनद भए प्रभ की मंनि रजाइ ॥७॥ {पन्ना 1425}

शब्दार्थ: करे = (जो काम परमात्मा) करता है। सु = उस (काम) को। मानि = मान, मसझ। दुयी = दूसरी, और और, अन्य। गणत = चिंता। लाहि = दूर कर। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = देख के। आपे = खुद ही। लेहु लाइ = (अपने चरणों में) जोड़ ले। मती = मति, बुद्धि। उपदेसु = शिक्षा। विचहु = (सेवक के) अंदर से। भरमु = भटकना। जाइ = दूर हो जाए। धुरि = धुर दरगाह से। सोई = वह (लिखा लेख) ही। सभ = सारी लुकाई। तिस दै वसि = उस (परमात्मा) के वश में। जाइ = जगह। भऐ = हो जाते हैं। मनि = मान के। रजाइ = रजा, भाणा, हुकम।7।

तिस दै: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'दै' के कारण हटा दी गई है।

सरलार्थ: हे भाई! (जो काम परमात्मा) करता है, उस (काम) को अच्छा समझ, (और अपने अंदर से) और तरह की चिंता-फिकरें दूर कर।

हे प्रभू! (जीवों के किए कर्मों के अनुसार) धुर दरगाह से जो लेख (इनके माथे पर) लिखा जाता है, सारी दुनिया (उस लेख के अनुसार ही हरेक) कार करती है (क्योंकि) हरेक कार उस (परमात्मा) के वश में है; (उसके बिना जीवों के लिए) और कोई जगह (आसरा) नहीं है।

हे नानक! परमात्मा की रजा को मान के (जीव के अंदर आत्मिक) सुख-आनंद बने रहते हैं।7।

गुरु पूरा जिन सिमरिआ सेई भए निहाल ॥ नानक नामु अराधणा कारजु आवै रासि ॥८॥ पापी करम कमावदे करदे हाए हाइ ॥ नानक जिउ मथनि माधाणीआ तिउ मथे ध्रम राइ ॥९॥ नामु धिआइनि साजना जनम पदारथु जीति ॥ नानक धरम ऐसे चवहि कीतो भवनु पुनीत ॥१०॥ {पन्ना 1425}

शब्दार्थ: जिनि = जिस (जिस) ने। सेई = वह (सारे) ही। निहाल = प्रसन्न चिक्त। कारजु आवै रासि = (हरेक) काम, सिरे चढ़ जाता है, काम सफल हो जाता है।8।

करदे हाइ हाइ = दुखी होते रहते हैं। मथनि = मथती रहती हैं। ध्रमराइ = धरमराज।9।

धिआइनि = (बहुवचन) ध्याते हैं। पदारथु = कीमती चीज। जीति = जीत के। चवहि = बोलते हैं। अैसे = इस तरह। भवनु = जगत, संसार। पुनीत = पवित्र।10।

सरलार्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने पूरे गुरू को (गुरू के उपदेश को) याद रखा, वह सारे प्रसन्न-चिक्त हो गए। हे नानक! (गुरू का उपदेश यह है कि परमात्मा का) नाम सिमरना चाहिए (सिमरन की बरकति से) जीवन-मनोरथ सफल हो जाता है।8।

हे भाई! विकारी मनुष्य (विकारों के) काम करते रहते हैं। हे नानक! (विकारियों को) धरमराज (हर वक्त) इस तरह दुखी करता रहता है जैसे मथानियां (दूध) मथती हैं।9।

हे भाई! जो भले मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं, वे इस कीमती मनुष्य जीवन की बाज़ी जीत के (जाते हैं)। हे नानक! जो मनुष्य (मनुष्य के जीवन का) मनोरथ (हरी-नाम) उचारते रहते हैं, वे जगत को भी पवित्र कर देते हैं।10।

खुभड़ी कुथाइ मिठी गलणि कुमंत्रीआ ॥ नानक सेई उबरे जिना भागु मथाहि ॥११॥ सुतड़े सुखी सवंन्हि जो रते सह आपणै ॥ प्रेम विछोहा धणी सउ अठे पहर लवंन्हि ॥१२॥ सुतड़े असंख माइआ झूठी कारणे ॥ नानक से जागंन्हि जि रसना नामु उचारणे ॥१३॥ म्रिग तिसना पेखि भुलणे वुठे नगर गंध्रब ॥ जिनी सचु अराधिआ नानक मनि तनि फब ॥१४॥ {पन्ना 1425}

शब्दार्थ: खुभड़ी = बुरी तरह चुभी रहती है। कुथाइ = गलत जगह में। गलणि = जिल्लत। मंत्र = उपदेश, शिक्षा। कुमंत्र = बुरी शिक्षा। कुमंत्रीआ = बुरी मति लेने वाली। सेई = वह लोग ही। उबरे = बचते हैं। जिना मथाहि = जिनके माथे पर।11।

सुतड़े = प्रेम लगन में मस्त रहने वाले। सवंनि् = सोते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं। सहु = पति। सह आपणै = अपने शहु के (प्रेम रंग) में। रते = रंगे हुए। विछोहा = विछोड़ा। धणी = मालिक प्रभू। सउ = से। लवंनि् = लौ लौ करते रहते हैं (बिना मतलब बोलते रहते हैं)।12।

असंख = अनगिनत। कारणे = की खातिर। से = वे (बहुवचन)। जि = जो।13।

म्रिग तिसना = मृग तृष्णा, ठग नीरा। पेखि = देख के। वुठे = जब आ बसे, जब दिखाई दे गए। नगर गंध्रब = गंधर्व नगर, हरी चंद की नगरी, हवाई किला। सचु = सदा कायम रहने वाला हरी नाम। मनि = मन में। तनि = तन में। छब = सुंदरता, फॅब।4।

सरलार्थ: हे भाई! बुरी मति लेने वाली (जीव-स्त्री माया के मोह की जिल्लत में) गलत जगह पर बुरे हाल चुभी (धँसी) रहती है, (पर यह) जिल्लत (उसको) मीठी (भी लगती है)। हे नानक! वह मनुष्य ही (माया के मोह की इस जिल्लत में से) बच निकलते हैं, जिनके माथे पर भाग्य (जाग उठते हैं)।11।

हे भाई! जो मनुष्य अपने पति-प्रभू के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, प्रेम-लगन में मस्त रहने वाले वे मनुष्य आनंद से जीवन व्यतीत करते हैं। पर, जिन मनुष्यों को पति से प्रेम का विछोड़ा रहता है, वह (माया की खातिर) आठों पहर (कौऐ की तरह) काँव-काँव करते रहते हैं।12।

हे भाई! नाशवंत माया की खातिर अनगिनत जीव (मोह की नींद में) सोए रहते हैं। हे नानक! (मोह की इस नींद में से सिर्फ) वही लोग जागते रहते हैं, जो (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम जपते रहते हैं।13।

हे भाई! (जैसे) ठॅग-नीरे को देख के (हिरण भूल जाते हैं कि और जान गवा लेते हैं, वैसे ही माया की) बनी गंधर्व-नगरी को देख के (जीव) गलत राह पर पड़े रहते हैं। हे नानक! जिन मनुष्यों ने सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरा, उनके मन में उनके तन में (आत्मिक जीवन की) सुंदरता पैदा हो गई।14।

ऊपर जाएँ!

धन्यवाद!