श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुर रामदास घरि कीअउ प्रगासा ॥ सगल मनोरथ पूरी आसा ॥ तै जनमत गुरमति ब्रहमु पछाणिओ ॥ कल्य जोड़ि कर सुजसु वखाणिओ ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: गुर रामदास घरि = गुरू रामदास (जी) के घर में। कीअउ प्रगासा = प्रकट हुए। जनमत = जनम लेते ही, आदि से ही। गुरमति = गुरू की मति ले के। जोड़ि कर = हाथ जोड़ के। कर = हाथ (बहुवचन)।

सरलार्थ: (हे गुरू अरजुन!) कॅल् कवि हाथ जोड़ के (आपकी) सिफत उचारता है, (आप ने) गुरू रामदास (जी) के घर में जनम लिया, (उनके) सारे मनोरथ और आशाएं पूरी हुई। जनम से ही आप ने गुरू की मति के द्वारा ब्रहम को पहचाना है (परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली हुई है)।

भगति जोग कौ जैतवारु हरि जनकु उपायउ ॥ सबदु गुरू परकासिओ हरि रसन बसायउ ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: कौ = को। जैतवारु = जीतने वाला। रसन = जीभ पर।

सरलार्थ: आप ने भगती के जोग को जीत लिया है (भाव, आपने भगती का मिलाप पा लिया है)। हरी ने (आप को) 'जनक' पैदा किया है। (आप ने) गुरू शबद को प्रकट किया है, और हरी को (आप ने) जीभ पर बसाया है।

गुर नानक अंगद अमर लागि उतम पदु पायउ ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास भगत उतरि आयउ ॥१॥ {पन्ना 1407}

सरलार्थ: गुरू नानक देव, गुरू अंगद साहिब और गुरू अमरदास जी के चरणों में लग के, (गुरू अरजन साहिब जी ने) उक्तम पदवी पाई है; गुरू रामदास (जी) के घर में गुरू अरजुन भगत पैदा हो गया है।1।

बडभागी उनमानिअउ रिदि सबदु बसायउ ॥ मनु माणकु संतोखिअउ गुरि नामु द्रिड़्हायउ ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: उनमानिअउ = पूरन खिलाव में है। रिदि = हृदय में है। गुरि = गुरू ने।

सरलार्थ: (गुरू अरजन) बहुत भाग्यशाली है, पूर्ण खिलाव में है। (आपने) हृदय में शबद बसाया है; (आपने अपने) माणक-रूप मन को संतोख में टिकाया है; गुरू (रामदास जी) ने (आप को) नाम दृढ़ कराया है।

अगमु अगोचरु पारब्रहमु सतिगुरि दरसायउ ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास अनभउ ठहरायउ ॥२॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: सतिगुरि = सतिगुरू (रामदास जी) ने। दरसायउ = दिखाया है। अनभउ = ज्ञान। ठहरायउ = स्थापित किया है। अगमु = अपहुँच प्रभू। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।

सरलार्थ: सतिगुरू (रामदास जी) ने (आप को) अगम अगोचर पारब्रहम दिखा दिया है। गुरू रामदास (जी) के घर में अकाल-पुरख ने गुरू अरजुन (जी) को ज्ञान-रूप स्थापित किया है।2।

जनक राजु बरताइआ सतजुगु आलीणा ॥ गुर सबदे मनु मानिआ अपतीजु पतीणा ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: जनक राजु = जनक का राज (भाव, ज्ञान का राज)। आलीणा = समाया हुआ है, पसरा हुआ है। अपतीजु = ना पतीजने वाला मन।

सरलार्थ: (गुरू अरजन साहिब ने) ज्ञान का राज बरता दिया है, (अब तो) सतिगुरू बरत रहा है। (आप का) मन गुरू के शबद में माना हुआ है, और यह ना पतीजने वाला मन पतीज गया है।

गुरु नानकु सचु नीव साजि सतिगुर संगि लीणा ॥ गुरु अरजुनु घरि गुर रामदास अपर्मपरु बीणा ॥३॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: साजि = उसार के। सतिगुर संगि = गुरू (अरजन देव) में। अपरंपरु = बेअंत हरी। बीणा = बना हुआ है।

सरलार्थ: गुरू नानक देव स्वयं 'सचु'-रूप नींव उसार के गुरू (अरजन देव जी) में लीन हो गया है। गुरू रामदास (जी) के घर में गुरू अरजुन देव अपरंपर-रूप बना हुआ है।3।

खेलु गूड़्हउ कीअउ हरि राइ संतोखि समाचरि्यओ बिमल बुधि सतिगुरि समाणउ ॥ आजोनी स्मभविअउ सुजसु कल्य कवीअणि बखाणिअउ ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: गूढ़उ = आश्चर्य। हरि राइ = अकाल-पुरख ने। समाचरि्यय्ओ = विचारता है (गुरू अरजुन)। बिमल = निर्मल। सतिगुरि = गुरू (अरजुन) में। समाणउ = समाई है। आजोनी = जूनों से रहत। संभविअउ = (स्वयं भु) अपने आप से प्रकट होने वाला। कल् कवीअणि = कल् आदि कवियों ने।

सरलार्थ: अकाल पुरख ने (यह) आश्चर्य (भरी) खेल रची है, (गुरू अरजुन) संतोख में विचर रहा है। निर्मल बुद्धि गुरू (अरजुन) में समाई हुई है। आप जूनियों से रहित और स्वयंभु हरी का रूप हैं। कल् आदि कवियों ने (आप का) सुंदर यश उचारा है।

गुरि नानकि अंगदु वर्यउ गुरि अंगदि अमर निधानु ॥ गुरि रामदास अरजुनु वर्यउ पारसु परसु प्रमाणु ॥४॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: वर्उ = वर दिया है। निधानु = खजाना। परसु = परसना, छूना। पारसु प्रमाणु = पारस जैसा।

सरलार्थ: गुरू नानक (देव जी) ने गुरू अंगद को वर बख्शा; गुरू अंगद (देव जी) ने (सब पदार्थों के) खजाना (गुरू) अमरदास (जी) को दिया। गुरू रामदास जी ने (गुरू) अरजुन (साहिब जी) को वर दिया; और उन (के चरणों) को छूना पारस की छोह जैसा हो गया।4।

सद जीवणु अरजुनु अमोलु आजोनी स्मभउ ॥ भय भंजनु पर दुख निवारु अपारु अन्मभउ ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: पर दुख = पराए दुख। अनंभउ = ज्ञान रूप।

सरलार्थ: (गुरू) अरजन (साहिब) सद-जीवी हैं, (आपका) मूल्य नहीं आँका जा सकता, (आप) जूनियों से रहत और स्वयंभू हरी का रूप है; (गुरू अरजन) भय दूर करने वाले, पराए दुख हरने वाले, बेअंत और ज्ञान-स्वरूप है।

अगह गहणु भ्रमु भ्रांति दहणु सीतलु सुख दातउ ॥ आस्मभउ उदविअउ पुरखु पूरन बिधातउ ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: अगह = जो पहुँच से परे है। अगह गहणु = पहुँच से परे जो हरी है उस तक पहुँच वाला। आसंभउ = उत्पक्ति रहत, अजन्मा। अदविअउ = प्रकट हुआ है। बिधातउ = बिधाता, करतार।

सरलार्थ: (गुरू अरजन साहिब जी की) उस हरी तक पहुँच है जो (जीवों की) पहुँच से परे है, (गुरू अरजन) भरम और भटकना को दूर करने वाला है, सीतल है और सुखों को देने वाला है; (मानो) अजन्मा, पूरन पुरख सृजनहार प्रकट हो गया है।

नानक आदि अंगद अमर सतिगुर सबदि समाइअउ ॥ धनु धंनु गुरू रामदास गुरु जिनि पारसु परसि मिलाइअउ ॥५॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: आदि = आरम्भ से ले के। सतिगुरि सबदि = सतिगुरू के शबद में। समाइअउ = (गुरू अरजन) लीन हुआ है। जिनि = जिस (गुरू रामदास जी) ने। परसि = (गुरू अरजन को) परस के। पारसु = पारस (बना के)।

सरलार्थ: गुरू नानक, गुरू अंगद और गुरू अमरदास जी की बरकति से, (गुरू अरजन देव) सतिगुरू के शबद में लीन है। गुरू रामदास जी धन्य हैं, जिसने गुरू (अरजन जी को) परस के पारस बना के अपने जैसा कर लिया है।5।

जै जै कारु जासु जग अंदरि मंदरि भागु जुगति सिव रहता ॥ गुरु पूरा पायउ बड भागी लिव लागी मेदनि भरु सहता ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: जासु = जिस (गुरू अरजन जी) का। मंदरि = (हृदय = रूप) घर में। सिव = कल्याण स्वरूप हरी। जुगति सिव रहता = हरी से जुड़ा हुआ रहता है। मेदनि = पृथ्वी। मेदनि भरु = धरती का भार।

सरलार्थ: जिस गुरू की महिमा जगत में हो रही है, जिसके हृदय के भाग्य जाग उठे हैं, जो हरी से जुड़ा रहता है, (जिसने) बड़े भाग्यों से पूरा गुरू पा लिया है, (जिसकी) बिरती (हरी में) जुड़ी रहती है, और जो धरती का भार सह रहा है;

भय भंजनु पर पीर निवारनु कल्य सहारु तोहि जसु बकता ॥ कुलि सोढी गुर रामदास तनु धरम धुजा अरजुनु हरि भगता ॥६॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: तोहि = तेरा। बकता = कहता है। कुलि सोढी = सोढी कुल में। गुर रामदास तन = गुरू रामदास (जी) का पुत्र। धरम धुजा = धर्म के झण्डे वाला।

सरलार्थ: (हे गुरू अरजुन जी!) तू भय दूर करने वाला, पराई पीड़ा हरने वाला है, कवि कलसहार तेरा यश कहता है। गुरू अरजुन साहिब गुरू रामदास जी का पुत्र, सोढी कुल में धर्म के झण्डे वाला, हरी का भगत है।6।

नोट: पहले सवईयों में भॅट का नाम 'कल्' आ रहा था, इस सवईऐ में नाम 'कल्सहार' आया है, अगले सवईयों में फिर 'कल्' आएगा। सवईयों का क्रमांक भी उसी कड़ी में जारी है। सो, 'कल्सहार' और 'कल्' एक ही कवि हैं।

ध्रम धीरु गुरमति गभीरु पर दुख बिसारणु ॥ सबद सारु हरि सम उदारु अहमेव निवारणु ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: ध्रंम = धरम। पर = पराए। सारु = श्रेष्ठ। उदारु = खुले दिल वाला। अहंमेव = अहंकार।

सरलार्थ: (गुरू अरजन देव जी ने) धैर्य को अपना धर्म बनाया हुआ है, (गुरू अरजन) गुरमति में गहरा है, पराए दुख दूर करने वाला है, श्रेष्ठ शबद वाला है, हरी जैसा उदार-चिक्त है, और अहंकार को दूर करता है।

महा दानि सतिगुर गिआनि मनि चाउ न हुटै ॥ सतिवंतु हरि नामु मंत्रु नव निधि न निखुटै ॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: न हुटै = नहीं खत्म होता। न निखुटै = खत्म नहीं होता। गिआनि = ज्ञानवान। मनि = मन में। नवनिधि = नौ खजाने।

सरलार्थ: (आप) बड़े दानी हैं, गुरू के ज्ञान वाले हैं, (आप के) मन में उत्साह कभी कम नहीं होता। (आप) सतिवंत हैं, हरी का नाम-रूप मंत्र (जो, मानो) नौ-निधियां (हैं, जो आप के खजाने में से) कभी खत्म नहीं होती।

गुर रामदास तनु सरब मै सहजि चंदोआ ताणिअउ ॥ गुर अरजुन कल्युचरै तै राज जोग रसु जाणिअउ ॥७॥ {पन्ना 1407}

शब्दार्थ: तनु = पुत्र। सरब मै = सर्व मय, सरब व्यापक। सहजि = सहज अवस्था में। गुर अरजुन = हे गुरू अरजुन देव जी! कल्हुचरै = कल्+उचरै, कल् कहता है। तै = आप ने, तूने। राज जोग रसु = राज और जोग का आनंद।

सरलार्थ: गुरू रामदास जी का सपुत्र (गुरू अरजन जी) सर्व-व्यापक (का रूप) है; (आपने) आत्मिक अडोलता में (अपना) चँदोआ ताना हुआ है (भाव, आप सहज रूप में आनंद ले रहे हैं)। कल् कवि कहता है, "हे गुरू अरजुन देव! तूने राज और जोग का आनंद समझ लिया है" (भोग रहा है)।7।

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