श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

सवये स्री मुखबाक्य महला ५ ॥

आदि पुरख करतार करण कारण सभ आपे ॥ सरब रहिओ भरपूरि सगल घट रहिओ बिआपे ॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: पुरख = सर्व व्यापक। करण कारण = करण का कारण, सृष्टि का आदि। भरपूरि = व्यापक। सगल घट = सारे घटों में। रहिओ बिआपे = व्याप रहा है, पसर रहा है, हाजर नाजर है।

सरलार्थ: हे आदि पुरख! हे करतार! तू खुद ही सारी सृष्टि का मूल है। तू सब जगह भरपूर है; (भाव, कोई जगह ऐसी नहीं, जहाँ तू ना हो)। तू सब शरीरों में मौजूद है।

ब्यापतु देखीऐ जगति जानै कउनु तेरी गति सरब की रख्या करै आपे हरि पति ॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: देखीअै = देखते हैं। जगति = जगत में। पति = मालिक।

सरलार्थ: हे (सबके) मालिक अकाल पुरख! तू सारे जगत में पसरा हुआ दिखाई दे रहा है। कौन जानता है कि तू किस तरह का है? तू स्वयं ही सब (जीवों) की रक्षा करता है।

अबिनासी अबिगत आपे आपि उतपति ॥ एकै तूही एकै अन नाही तुम भति ॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: अबिनासी = नाश ना होने वाला। अबिगत = अव्यक्त जो व्यक्ति से रहित हो, शरीर से रहित, अदृष्ट, इन आँखों से ना दिखने वाला। आपे आपि = अपने आप से। उतपति = पैदाइश। अन = अन्य, कोई और। तुम भति = तुम भांति, तेरे जैसा।

सरलार्थ: (हे आदि पुरख!) तू कभी नाश होने वाला नहीं है, तू इन आँखों से नहीं दिखता; तेरी उत्पक्ति तेरे अपने आप से ही है। तू केवल एक ही एक है, तेरे जैसा और कोई नहीं है।

हरि अंतु नाही पारावारु कउनु है करै बीचारु जगत पिता है स्रब प्रान को अधारु ॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: पारावारु = इस पार उस पार, हद बंदी। स्रब प्रान के = सारे प्राणियों का। आधारु = आसरा।

सरलार्थ: (हे भाई!) हरी का अंत और हदबंदी नहीं (पायी जा सकती)। कौन (मनुष्य) है जो (उसकी हदबंदी को ढूँढने के लिए) विचार कर सकता है? हरी सारे जगत का पिता है और सारे जीवों का आसरा है।

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥१॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: दरि = दर पर, (अकाल-पुरख के) दरवाजे पर। तुलि = प्रवान। ब्रहम समसरि = अकाल पुरख के समान, अकाल-पुरख का रूप। जीह = जीभ। बखानै = कहै, कह सकती है। बलि = सदके। सद = सदा।

सरलार्थ: (हरी का) भगत सेवक (गुरू) नानक (हरी के) दर पर परवान (हुआ है) और हरी जैसा है। (मेरी) एक जीभ (उस गुरू नानक के) क्या (गुण) कथन कर सकती है? मैं (गुरू नानक से) सदके हूँ, सदके हूँ, सदा सदके हूँ।1।

नोट: पद 'हाँ कि' सवईऐ की टेक-मात्र ही बरता गया है।

अम्रित प्रवाह सरि अतुल भंडार भरि परै ही ते परै अपर अपार परि ॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। प्रवाह = झरने, वहण, चश्मे। सरि = सरें, चलते हैं। अतुल = जो तोले ना जा सकें। भंडार = खजाने। भरि = भरे पड़े हैं। अपर अपार = बेअंत।

सरलार्थ: (हे अकाल पुरख!) (तुझसे) अमृत के प्रवाह चल रहे हैं, तेरे ना तुल सकने वाले खजाने भरे पड़े हैं; तू परे से परे हैं और बेअंत है।

आपुनो भावनु करि मंत्रि न दूसरो धरि ओपति परलौ एकै निमख तु घरि ॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: भावनु = मर्जी। करि = करता है। मंत्रि = मंत्र में, मंत्रणा में, सलाह में। दूसरो = किसी और को। न धरि = नहीं धरता है, तू नहीं लाता। ओपति = उत्पक्ति, जगत की पैदायश। परलौ = प्रलय, जगत का नाश। ऐकै निमख = एक निमख में, आँख झपकने जितने समय में। तु = (तव) तेरे।

सरलार्थ: तू अपनी मर्जी करता है; किसी और को अपनी सलाह में नहीं लाता, (भाव, तू किसी और से सलाह नहीं करता) तेरे घेरे में (भाव, तेरे हुकम में) जगत की पैदायश और अंत आँख झपकने जितने समय में हो जाते हैं।

आन नाही समसरि उजीआरो निरमरि कोटि पराछत जाहि नाम लीए हरि हरि ॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: आन = कोई और। समसरि = बराबर, समान, जैसा। उजीआरो = प्रकाश, रौशनी। निरमरि = निर्मल, साफ (संस्कृत: निर्माल्य, pure, Clean, Stainless. इससे प्राक्रित और पंजाबी रूप निरमल, निरमारि, निरमरि)। कोटि पराछत = करोड़ों पाप। जाहि = दूर हो जाते हैं।

सरलार्थ: कोई और हरी जैसा नहीं है; उसका निर्मल प्रकाश है; उस हरी का नाम लेने से करोड़ों पाप दूर हो जाते हैं।

जनु नानकु भगतु दरि तुलि ब्रहम समसरि एक जीह किआ बखानै ॥ हां कि बलि बलि बलि बलि सद बलिहारि ॥२॥ {पन्ना 1385}

सरलार्थ: हरी का भगत दास (गुरू) नानक (हरी के) दर पर प्रवान (हुआ है) और हरी जैसा ही है। (मेरी) एक जीभ (उस गुरू नानक के) क्या (गुण) कह सकती है? मैं (गुरू नानक से) सदके हूँ, सदके हूँ, सदा सदके हूँ।2।

सगल भवन धारे एक थें कीए बिसथारे पूरि रहिओ स्रब महि आपि है निरारे ॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: सगल भवन = सारे मंडल, सारे लोक। धारे = बनाए, थापे। ऐक थें = एक (अपने आप) से। बिसथारे = खिलारा, पसारा। पूरि रहिओ = व्यापक है। निरारे = निराला, निवेकला, न्यारा।

सरलार्थ: उस हरी ने सारे लोक बनाए हैं; एक अपने आप से ही (यह संसार का) विस्तार किया है; खुद ही सब में व्यापक है (और फिर) है (भी) निर्लिप।

हरि गुन नाही अंत पारे जीअ जंत सभि थारे सगल को दाता एकै अलख मुरारे ॥ {पन्ना 1385}

शब्दार्थ: थारे = तेरे। अलख = जो लखा ना जा सके, जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। को = का। मुरारे = हे मुरारि! मुर नाम के दैत्य का वैरी (अकाल-पुरख के नामों में से एक ये नाम भी बरता गया है)।

सरलार्थ: हे बेअंत हरी! तेरे गुणों का अंत और पार नहीं (पड़ सकता)। सारे जीव-जंतु तेरे ही हैं, तू एक खुद ही सबका दाता है। तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।

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धन्यवाद!