श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा महला ५ ॥ बिखै दलु संतनि तुम्हरै गाहिओ ॥ तुमरी टेक भरोसा ठाकुर सरनि तुम्हारी आहिओ ॥१॥ रहाउ ॥ जनम जनम के महा पराछत दरसनु भेटि मिटाहिओ ॥ भइओ प्रगासु अनद उजीआरा सहजि समाधि समाहिओ ॥१॥ कउनु कहै तुम ते कछु नाही तुम समरथ अथाहिओ ॥ क्रिपा निधान रंग रूप रस नामु नानक लै लाहिओ ॥२॥७॥२६॥ {पन्ना 1303}

शब्दार्थ: बिखै दलु = विषियों का दल। संतनि तुम्रै = तेरे संत जनों द्वारा। गाहिओ = गाह लिया है, वश में कर लिया है। ठाकुर = हे ठाकुर! आहिओ = चाहता हूँ।1। रहाउ।

पराछत = पाप। भेटि = भेट के, भेट कर के। मिटाहिओ = मिटा लेते हैं। प्रगासु = (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश। उजीआरा = उजाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाहिओ = लीन रहते हैं।1।

तुम ते = तुझसे। समरथ = सारी ताकतों का मालिक। अथाहिओ = अथाह, बेअंत गहरा। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! लाहिओ = लाहा, लाभ।2।

सरलार्थ: हे (मेरे) ठाकुर! मुझे तेरी टेक है, मुझे तेरा (ही) भरोसा है, मैं (सदा) तेरी ही शरण चाहता हूँ। तेरे संत जनों की संगति से मैंने (सारे) विषौ (-विकारों) के दल को वश में कर लिया है।1। रहाउ।

हे (मेरे) ठाकुर! (जो भी भाग्यशाली तेरी शरण पड़ते हैं, वे) तेरे दर्शन करके जन्म-जन्मांतरों के पाप मिटा लेते हैं, (उनके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ की) रोशनी हो जाती है, आत्मिक आनंद का प्रकाश हो जाता है, वह सदा आत्मिक अडोलता की समाधि में लीन रहते हैं।1।

हे मेरे ठाकुर! कौन कहता है कि तुझसे कुछ भी हासिल नहीं होता? तू सारी ताकतों का मालिक प्रभू (सुखों का) अथाह (समुंद्र) है। हे नानक! (कह-) हे कृपा के खजाने! (जो मनुष्य तेरी शरण पड़ता है, वह तेरे दर से तेरा) नाम-लाभ हासिल करता है (यह नाम ही उसके वास्ते दुनिया के) रंग-रूप-रस हैं।2।7।26।

कानड़ा महला ५ ॥ बूडत प्रानी हरि जपि धीरै ॥ बिनसै मोहु भरमु दुखु पीरै ॥१॥ रहाउ ॥ सिमरउ दिनु रैनि गुर के चरना ॥ जत कत पेखउ तुमरी सरना ॥१॥ संत प्रसादि हरि के गुन गाइआ ॥ गुर भेटत नानक सुखु पाइआ ॥२॥८॥२७॥ {पन्ना 1303}

शब्दार्थ: बूडत प्रानी = (विकारों में) डूब रहा मनुष्य। जपि = जप के। धीरै = (पार लांघ सकने के लिए) हौसला हासिल कर लेता है। बिनसै = नाश हो जाता है। भरमु = भटकना। पीरै = पीड़ा।1। रहाउ।

सिमरउ = मैं सिमरता हूँ। रैनि = रात। जत कत = जिधर किधर। पेखउ = मैं देखता हूँ।1।

संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। गुर भेटत = गुरू को मिलते हुए।2।

सरलार्थ: हे भाई! (संसार-समुंद्र में) डूब रहा मनुष्य (गुरू के माध्यम से) परमात्मा का नाम जप के (पार लांघ सकने के लिए) हौसला प्राप्त कर लेता है, (उसके अंदर से) माया का मोह मिट जाता है, भटकना दूर हो जाती है, दुख-दर्द नाश हो जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! मैं (भी) दिन-रात गुरू के चरणों का ध्यान धरता हूँ। हे प्रभू! मैं जिधर-किधर देखता हूँ (गुरू की कृपा से) मुझे तेरा ही सहारा दिख रहा है।1।

हे नानक! गुरू की कृपा से (जो मनुष्य) परमात्मा के गुण गाने लग पड़ा, गुरू को मिल के उसने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया।2।8।27।

कानड़ा महला ५ ॥ सिमरत नामु मनहि सुखु पाईऐ ॥ साध जना मिलि हरि जसु गाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा प्रभ रिदै बसेरो ॥ चरन संतन कै माथा मेरो ॥१॥ पारब्रहम कउ सिमरहु मनां ॥ गुरमुखि नानक हरि जसु सुनां ॥२॥९॥२८॥ {पन्ना 1303}

शब्दार्थ: सिमरत = सिमरते हुए। मनहि = मन में। पाईअै = प्राप्त कर लेते हैं। मिलि = मिल के। जसु = सिफतसालाह। गाईअै = गाना चाहिए।1। रहाउ।

प्रभ = हे प्रभू! रिदै = हृदय में। बसेरो = ठिकाना। चरन संतन कै = संत जनों के चरणों में।1।

कउ = को। मनां = हे मन! गुरमुखि = गुरू की शरण पडत्र कर। सुनां = सुनूँ।1।

सरलार्थ: हे भाई! संत-जनों की संगति में मिल के परमात्मा की सिफतसालाह के गीत गाते रहना चाहिए (क्योंकि) परमात्मा का नाम सिमरते हुए मन में आनंद प्राप्त किया जा सकता है।1। रहाउ।

हे प्रभू! मेहर करके (मेरे) हृदय में (अपना) ठिकाना बनाए रख। हे प्रभू! मेरा माथा (तेरे) संतजनों के चरणों पर टिका रहे।1।

हे नानक! (कह-) हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम सिमरता रह। गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा की सिफतसालाह के गीत सुना कर।2।9।28।

कानड़ा महला ५ ॥ मेरे मन प्रीति चरन प्रभ परसन ॥ रसना हरि हरि भोजनि त्रिपतानी अखीअन कउ संतोखु प्रभ दरसन ॥१॥ रहाउ ॥ करननि पूरि रहिओ जसु प्रीतम कलमल दोख सगल मल हरसन ॥ पावन धावन सुआमी सुख पंथा अंग संग काइआ संत सरसन ॥१॥ सरनि गही पूरन अबिनासी आन उपाव थकित नही करसन ॥ करु गहि लीए नानक जन अपने अंध घोर सागर नही मरसन ॥२॥१०॥२९॥ {पन्ना 1303}

शब्दार्थ: मन = हे मन! परसन = छूना। रसना = जीभ। भोजनि = भोजन से। त्रिपतानी = तृप्त रहती है। अखीअन कउ = आँखों को। संतोख = शांति।1। रहाउ।

करननि = कानों में। पूरि रहिओ = भरा रहता है, टिका रहता है। कलमल = पाप। मल = मैल। हरसन = दूर कर सकने वाला। पावन धावन = पैरों से दौड़ भाग। पंथा = रास्ता। सुख पंथा = सुख देने वाला रास्ता। काइआ = काया, शरीर। सरसन = स+रसन, रस सहित, हुल्लारे वाले।1।

गही = पकड़ी। उपाव = उपाय (शब्द 'उपाउ' का बहुवचन)। आन = अन्य, और। करु = हाथ (एकवचन)। गहि लीऐ = पकड़ लिए। अंध घोर = घोर अंधेरा। सागर = समुंद्र। मरसन = (आत्मिक) मौत।2।

सरलार्थ: हे मेरे मन! (जिन मनुष्यों के अंदर)! प्रभू के चरण-छूने के लिए तड़प होती है, उनकी जीभ परमात्मा के नाम की (आत्मिक) खुराक से तृप्त रहती है, उनकी आँखों को प्रभू-दीदार की ठंड मिली रहती है।1। रहाउ।

हे मेरे मन! (जिन मनुष्यों के अंदर प्रभू के चरण छूने की चाहत होती है, उनके) कानों में प्रीतम-प्रभू की सिफतसालाह टिकी रहती है जो सारे पाप सारे ऐबों की मैल दूर करने के समर्थ है, उनके पैरों की दौड़-भाग मालिक-प्रभू (के मिलाप) के सुखद रास्तेपर बनी रहती है, उनके शारीरिकअंग संत जनों (के चरणों) के साथ (छू के) उल्लास में बने रहते हैं।1।

हे मेरे मन जिन मनुष्यों ने सर्व-व्यापक नाश-रहित परमात्मा की शरण पकड़ ली, वह (इस शरण को छोड़ के उसके मिलाप के लिए) और-और उपाय करके थकते नहीं फिरते। हे नानक! (कह-) प्रभू ने जिन अपने सेवकों का हाथ पकड़ लिया होता है, वह सेवक (माया के मोह के) घोर-अंधकार भरे संसार-समुंद्र में आत्मिक मौत नहीं सहते।2।10।29।

कानड़ा महला ५ ॥ कुहकत कपट खपट खल गरजत मरजत मीचु अनिक बरीआ ॥१॥ रहाउ ॥ अहं मत अन रत कुमित हित प्रीतम पेखत भ्रमत लाख गरीआ ॥१॥ अनित बिउहार अचार बिधि हीनत मम मद मात कोप जरीआ ॥ करुण क्रिपाल गुोपाल दीन बंधु नानक उधरु सरनि परीआ ॥२॥११॥३०॥ {पन्ना 1303}

शब्दार्थ: कुहकत = कुहकते हैं (मोरों की तरह)। खपट = नाश करने वाले, आत्मिक जीवन को तबाह करने वाले। कपट = खोट। खल = दुष्ट (कामादिक)। गरजत = गरजते हैं। मीचु = मौत, आत्मिक मौत। मरजत = मारती है। बरीआ = बारी।1। रहाउ।

अहं = अहंकार। मत = मस्ताए हुए। अन = अन्य, और और (रस)। रत = रति हुए, रंगे हुए। कुमित = खोटे मित्र। हित = प्यार। पेखत = देखते। भ्रमत = भटकते। गरी = गली। लाख गरीआ = (कामादिक विकारों की) लाखों गलियां।1।

अनित बिउहार = ना नित्य रहने वाले पदार्थों का कार्य व्यवहार। अचार = आचरण। बिधि हीनत = मर्यादा से वंचित। मम = ममता। मद = नशा। मात = मस्त हुए। कोप = क्रोध। जरीआ = जलते। करुण = (करुणा = तरस) हे तरस रूप! क्रिपाल = हे दया के घर! गुोपालु = हे गुपाल! (अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोपाल', यहां 'गुपाल' पढ़ना है)। दीन बंधु = गरीबों का हितैषी। उधरु = (विकारों से) बचाए रख।2।

सरलार्थ: हे भाई! (जिन मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन का) नाश करने वाले खोट भड़के रहते हैं, (जिनके अंदर कामादिक) दुष्ट गरजते रहते हैं, (उनको) मौत अनेकों बार मारती रहती है।1। रहाउ।

हे भाई! (ऐसे मनुष्य) अहंकार में मस्त हुए (प्रभू को भुला के) अन्य (रसों) में रति (रंगे) रहते हैं, (ऐसे मनुष्य) खोटे मित्रों से प्यार डालते हैं, खोटों को अपना मित्र बनाते हैं, (ऐसे मनुष्य कामादिक विकारों की) लाखों गलियों को झाकते भटकते फिरते हैं।1।

हे भाई! (ऐसे मनुष्य) नाशवंत पदार्थों के कार्य-व्यवहार में ही व्यस्त रहते हैं, उनका आचरण अच्छी मर्यादा से वंचित रहता है, वे (माया की) ममता के नशे में मस्त रहते हैं, और क्रोध की आग में जलते रहते हैं।

हे नानक! (कह-) हे तरस-रूप प्रभू! हे दया के घर प्रभू! हे सृष्टि के मालिक! तू गरीबों का प्यारा है, (मैं तेरी) श्रण आ पड़ा हूँ, (मुझे इन कामादिक दुष्टों से) बचाए रख।2।11।30।

कानड़ा महला ५ ॥ जीअ प्रान मान दाता ॥ हरि बिसरते ही हानि ॥१॥ रहाउ ॥ गोबिंद तिआगि आन लागहि अम्रितो डारि भूमि पागहि ॥ बिखै रस सिउ आसकत मूड़े काहे सुख मानि ॥१॥ कामि क्रोधि लोभि बिआपिओ जनम ही की खानि ॥ पतित पावन सरनि आइओ उधरु नानक जानि ॥२॥१२॥३१॥ {पन्ना 1303-1304}

शब्दार्थ: जीअ दाता = जिंद देने वाला। प्रान दाता = प्राण देने वाला। मान दाता = इज्जत देने वाला। बिसरते = भूलते हुए। हानि = हानि, घाटा, आत्मिक घाटा।1। रहाउ।

तिआगि = त्याग के, भुला के। आन = अन्य, और और (पदार्थों में)। लागहि = तू लग रहा है। अंम्रितो = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। डारि = डोल के, उड़ेल के, गिरा के। भूमि पागहि = धरती पर फेंक रहा है। बिखै रस सिउ = विषौ विकारों के स्वादों से। आसकत = लंपट, चिपका हुआ। मूढ़े = हे मूर्ख! काहे = कैसे? मानि = मान कर सकता है।1।

कामि = काम (-वासना) में। बिआपिओ = फसा हुआ। खानि = खान में, श्रोत। जनम ही की खानि = जन्मों के ही चक्करों का श्रोत। पतित = विकारों में गिरे हुए। पतित पावन = हे विकारियों को पवित्र करने वाले! उधरु = बचा ले। जानि = (अपने) जान के।2।

सरलार्थ: हे भाई! परमात्मा (तुझे) जिंद देने वाला है, प्राण देने वाला है, इज्जत देने वाला है। (ऐसे) परमात्मा को विसारते ही (आत्मिक जीवन) में घाटा ही घाटा पड़ता है।1। रहाउ।

हे मूर्ख! परमात्मा (की याद) छोड़ के तू और-और (पदार्थों) में लगा रहता है, तू आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल उड़ेल के धरती पर फेंक रहा है, विषौ-विकारों के स्वाद से चिपका हुआ तू कैसे सुख हासिल कर सकता है?।1।

हे मूर्ख! तू (सदा) काम में, क्रोध में, लोभ में फंसा रहता है। (ये काम, क्रोध, लोभ आदि तो) जन्मों के चक्करों का ही वसीला हैं।2।

हे नानक! (कह-) हे विकारियों को पवित्र करने वाले प्रभू! (मैं तेरी) शरण आया हूँ, (मुझे अपने दर पर गिरा) समझ के (इन विकारें से बचाए रख)।2।12।31।

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धन्यवाद!