श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1285 सलोक मः ३ ॥ बाबीहा अम्रित वेलै बोलिआ तां दरि सुणी पुकार ॥ मेघै नो फुरमानु होआ वरसहु किरपा धारि ॥ हउ तिन कै बलिहारणै जिनी सचु रखिआ उरि धारि ॥ नानक नामे सभ हरीआवली गुर कै सबदि वीचारि ॥१॥ {पन्ना 1285} शब्दार्थ: दरि = (प्रभू के) दर पर। मेघै = (गुरू) बादल को। उरि = हृदय में। (नोट: 'भूतकाल क्रिया' का अर्थ 'वर्तमान' काल में करना है) सरलार्थ: (जब जीव-) पपीहा अमृत बेला में अरजोई करता है तो उसकी अरदास प्रभू के दर पर सुनी जाती है (प्रभू की ओर से गुरू-) बादलों को हुकम देता है कि (इस आरजू करने वाले पर) मेहर करके ('नाम' की) बरखा करो। जिन मनुष्यों ने सदा कायम रहने वाले प्रभू को अपने दिल में बसाया है, मैं उनसे सदके जाता हूँ। हे नानक! सतिगुरू के शबद द्वारा ('नाम' की) विचार करने से (भाव, नाम सिमरने से) 'नाम' की बरकति से सारी सृष्टि हरी-भरी हो जाती है।1। मः ३ ॥ बाबीहा इव तेरी तिखा न उतरै जे सउ करहि पुकार ॥ नदरी सतिगुरु पाईऐ नदरी उपजै पिआरु ॥ नानक साहिबु मनि वसै विचहु जाहि विकार ॥२॥ {पन्ना 1285} शब्दार्थ: इव = इस तरह। तिखा = माया की तृष्णा। सउ = सौ बार। करहि पुकार = तू तरले करे। नदरी = परमात्मा की मेहर की नजर से। पाईअै = मिलता है। उपजै = पैदा होता है। मनि = मन में। जाहि = दूर हो जाते हैं। सरलार्थ: हे (जीव-) पपीहे! अगर तू सौ बार तरले ले तो भी इस तरह तेरी (माया की) तृष्णा मिट नहीं सकती, (केवल) प्रभू की मेहर की नजर से ही गुरू मिलता है, और मेहर से ही हृदय में प्यार पैदा होता है। हे नानक! (जब अपनी मेहर से) मालिक प्रभू (जीव के) मन में आ बसता है तो (उसके अंदर से) सारे विकार नाश हो जाते हैं।2। पउड़ी ॥ इकि जैनी उझड़ पाइ धुरहु खुआइआ ॥ तिन मुखि नाही नामु न तीरथि न्हाइआ ॥ हथी सिर खोहाइ न भदु कराइआ ॥ कुचिल रहहि दिन राति सबदु न भाइआ ॥ तिन जाति न पति न करमु जनमु गवाइआ ॥ मनि जूठै वेजाति जूठा खाइआ ॥ बिनु सबदै आचारु न किन ही पाइआ ॥ गुरमुखि ओअंकारि सचि समाइआ ॥१६॥ {पन्ना 1285} शब्दार्थ: धुरहु = धुर से ही। भदु = सिर मुनवाना। वेजाति = कुजाति मनुष्य। आचारु = अच्छी रहणी। ओअंकारि = अकाल-पुरख में। तीरथि = प्रभू तीर्थ पर (देखें पउड़ी 18, लाइन 4)। उझड़ = उजाड़ वाले रास्ते पर, गलत जीवन राह पर। खुआइआ = सही रास्ते से टूटे हुए हैं। मुखि = मुँह में। हथी = हाथों से ही। कुचिल = गंदे। भाइआ = अच्छा लगा। पति = इज्जत। मनि जूठै = झूठे मन के कारण, 'नाम' के बग़ैर के कारण। किन ही = किनि ही, किसी ने ही ('किनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। सरलार्थ: कई लोग (जो) जैनी (कलहवाते हैं) प्रभू ने उजाड़ की ओर डाल के शुरू से ही गलत राह पर डाल दिए हैं; उनके मुँह पर कभी प्रभू का नाम नहीं आता, ना ही वह (प्रभू) तीर्थ पर स्नान करते हैं; वे सिर नहीं मुँडवाते, हाथों से सिर (के बाल) उखाड़ लेते हैं, दिन-रात गंदे रहते हैं; उन्हें गुरू-शबद अच्छा नहीं लगता। यह लोग जनम (व्यर्थ ही) गवाते हैं, कोई काम ऐसा नहीं करते जिससे अच्छी जाति समझे जा सकें अथवा इज्जत पा सकें; ये कुजाति लोग मन से भी झूठे हैं और झूठा भोजन ही खाते हैं। (हे भाई!) गुरू के शबद के बिना किसी ने भी अच्छी रहणी नहीं पाई। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख है वह सदा-स्थिर रहने वाले अकाल पुरख में टिका रहता है।6। सलोक मः ३ ॥ सावणि सरसी कामणी गुर सबदी वीचारि ॥ नानक सदा सुहागणी गुर कै हेति अपारि ॥१॥ {पन्ना 1285} शब्दार्थ: सरसी = स+रसी, रस वाली। सावणि = सावन (के महीने) में। कामणी = स्त्री, जीव स्त्री। सबदी = शबद से। वीचारि = विचार करके। हेति अपारि = अपार हित के कारण। सरलार्थ: (जैसे) सावन के महीने में (वर्षा से सारे पौधे हरे हो जाते हैं; वैसे ही) जीव-स्त्री सतिगुरू के शबद से 'नाम' की विचार कर के ('नाम' की बरसात से) रस वाली (रसिए जीवन वाली) हो जाती है। हे नानक! सतिगुरू के साथ अपार प्यार करने से जीव-स्त्री सदा सोहागवती रहती है।1। मः ३ ॥ सावणि दझै गुण बाहरी जिसु दूजै भाइ पिआरु ॥ नानक पिर की सार न जाणई सभु सीगारु खुआरु ॥२॥ {पन्ना 1285} शब्दार्थ: दझै = जलती है। गुण बाहरी = गुणों से वंचित। दूजै भाइ = दूसरी तरफ, माया की ओर। सार = कद्र। जाणई = जानती, जाने। सरलार्थ: (जैसे) सावन के महीने में (वर्षा होने पर अन्य सभी वण-तृण हरे हो जाते हैं, पर अॅक और जिवाह झुलस जाते हैं, वैसे ही नाम-अमृत की बरसात होने पर) गुण-विहीन जीव-स्त्री (बल्कि) जलती है क्योंकि उसका प्यार दूसरी तरफ है। हे नानक! स्त्री को पति की कद्र नहीं पड़ी, उसका (अन्य) सारा श्रृंगार (उसको) दुखी करने वाला ही है।2। पउड़ी ॥ सचा अलख अभेउ हठि न पतीजई ॥ इकि गावहि राग परीआ रागि न भीजई ॥ इकि नचि नचि पूरहि ताल भगति न कीजई ॥ इकि अंनु न खाहि मूरख तिना किआ कीजई ॥ त्रिसना होई बहुतु किवै न धीजई ॥ करम वधहि कै लोअ खपि मरीजई ॥ लाहा नामु संसारि अम्रितु पीजई ॥ हरि भगती असनेहि गुरमुखि घीजई ॥१७॥ {पन्ना 1285} शब्दार्थ: अभेउ = जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। पतीजई = पतीजै, पतीजता, खुश होता। इकि = कई (शब्द 'इक' का बहुवचन)। गावहि = गाते हैं। नचि = नाच के। पूरहि ताल = ताल देते हैं, जोड़ी के ताल से अपने पैरों का ताल मिलाते हैं। किवै = किसी तरह भी। संसारि = संसार में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। परीआ = रागनियां। धीजई = धीरज आती। कै लोअ = कई लोक (धरतियों) के। घीजई = भीगता है। वधहि = बढ़ते हैं (शब्द 'वधहि' का 'बंधे हैं' करना गलत है। 'वधहि' वर्तमान काल, अॅन पुरख, बहुवचन है; जैसे इसी पउड़ी का शब्द 'गावहि', 'पूरहि', 'खाहि' हैं)। असनेहि = स्नेह से, प्यार से (शब्द 'असनेहि' का अर्थ 'प्यार' गलत है; इसी ही पउड़ी में देखो 'हठि' हठ से; 'रागि' = राग से)। सरलार्थ: (जीवों के) हठ से (भाव, किसी हठ-करम से) वह सच्चा प्रभू राजी नहीं होता जो अदृश्य है और जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। कई लोग राग-रागनियां गाते हैं, पर प्रभू राग से भी नहीं प्रसन्न होता; कई लोग नाच-नाच के ताल पूरते हैं, पर (इस तरह भी) भगती नहीं की जा सकती; कई मूर्ख लोग अन्न नहीं खाते, पर (बताओ) इनका क्या किया जाए? (इनको कैसे समझाएं कि इस तरह प्रभू खुश नहीं किया जा सकता)। (जीव की) बढ़ी हुई तृष्णा (इन हठ-कर्मों से) किसी भी तरह से शांत नहीं की जा सकती; चाहे कई और धरतियों (के बँदों के) कर्म-काण्ड (यहाँ) बढ़ जाएं (तब भी) खप के ही मरते हैं। जगत में प्रभू का 'नाम' ही कमाई है, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल ही पीना चाहिए। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभू की बँदगी से तथा प्रभू के प्यार से भीगता है।17। सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि मलार रागु जो करहि तिन मनु तनु सीतलु होइ ॥ गुर सबदी एकु पछाणिआ एको सचा सोइ ॥ मनु तनु सचा सचु मनि सचे सची सोइ ॥ अंदरि सची भगति है सहजे ही पति होइ ॥ कलिजुग महि घोर अंधारु है मनमुख राहु न कोइ ॥ से वडभागी नानका जिन गुरमुखि परगटु होइ ॥१॥ {पन्ना 1285} शब्दार्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। सोइ = शोभा। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। सरलार्थ: (आम प्रचलित ख्याल यह है कि जब कोई मनुष्य 'मलार' राग गाता है तो घटा छा जाती है और बरसात होने लगती है, पर) जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के मलार राग गाते हैं (नाम-जल की वर्षा के साथ) उनका मन और शरीर ठंडे हो जाते हैं (भाव, उनके मन में और इन्द्रियों में शांति आ जाती है) क्योंकि सतिगुरू के शबद से वे उस एक प्रभू को पहचानते हैं (प्रभू के साथ गहरी सांझ डालते हैं) जो सदा कायम रहने वाला है। उनका मन और तन सच्चे का रूप हो जाता है (भाव, मन और शरीर सच्चे के प्रेम में रंगे जाते हैं), सच्चा प्रभू उनके मन में बस जाता है और सच्चे का रूप हो जाने के कारण उनकी शोभा सदा-स्थिर हो जाती है। उनके अंदर सदा-स्थिर भगती पैदा होती है, सदा आत्मिक अडोलता में टिके रहने के कारण उनको इज्जत मिलती है। कलियुग में (भाव, इस विषौ-विकारों से भरे जगत में विकारों का) घोर अंधकार है, (अपने) मन के पीछे चलने वाले लोगों को (इस अंधकार में से निकलने के लिए) रास्ता नहीं मिलता। हे नानक! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जिनके अंदर परमात्मा गुरू के माध्यम से प्रकट होता है।1। मः ३ ॥ इंदु वरसै करि दइआ लोकां मनि उपजै चाउ ॥ जिस कै हुकमि इंदु वरसदा तिस कै सद बलिहारै जांउ ॥ गुरमुखि सबदु सम्हालीऐ सचे के गुण गाउ ॥ नानक नामि रते जन निरमले सहजे सचि समाउ ॥२॥ {पन्ना 1285-1286} शब्दार्थ: इंदु = राजा इन्द्र, (भाव) बादल। करि = कर के। मनि = मन में। कै हुकमि = के हुकम अनुसार। सद = सदा। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। समालीअै = हृदय में संभाला जा सकता है। नामि = नाम में। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में टिक के। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। समाउ = लीनता। जिस कै: संबंधक 'कै' के कारण शब्द 'जिसु' की 'ु' मात्रा उड़ गई है। सरलार्थ: जब मेहर करके इन्द्र बरखा करता है, लोगों के मन में खुशी पैदा होती है, पर मैं उस प्रभू से सदके जाता हूँ जिसके हुकम से इन्द्र बरखा करता है। गुरू के सन्मुख होने से ही (प्रभू के सिफत-सालाह का) शबद (हृदय में) संभाला जा सकता है और सदा-स्थिर हरी के गुण गाए जा सकते हैं। हे नानक! वे मनुष्य पवित्र हैं जो प्रभू के नाम में रंगे हुए हैं, वे आत्मिक अडोलता के द्वारा सदा-स्थिर प्रभू में जुड़े रहते हैं।2। |
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