श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला ५ ॥ मनु घनै भ्रमै बनै ॥ उमकि तरसि चालै ॥ प्रभ मिलबे की चाह ॥१॥ रहाउ ॥ त्रै गुन माई मोहि आई कहंउ बेदन काहि ॥१॥ आन उपाव सगर कीए नहि दूख साकहि लाहि ॥ भजु सरनि साधू नानका मिलु गुन गोबिंदहि गाहि ॥२॥२॥२४॥ {पन्ना 1272}

शब्दार्थ: घनै बनै = संघने जंगल में। भ्रमै = भटकता रहता है। उमकित = उमाह में आ के। रसि = आनंद से। मिलबे की = मिलने की। चाह = तमन्ना।1। रहाउ।

त्रै गुण माई = तीन गुणों वाली माया। मोहि = मुझे। मोहि आई = मेरे पर वार करती है। कहंउ = मैं बताऊँ। बेदन = दुख। काहि = किस को?।1।

आन उपाव = और उपाय। आन = अन्य। उपाव = ('उपाउ' का बहुवचन)। सगर = सगले, सारे। साकहि लाहि = उतार सकते। साधू = गुरू। मिलु = मिला रह। गाहि = गाह के, चुभी लगा के।2।

सरलार्थ: हे भाई! (मनुष्य का) मन (संसार-रूपी) सघन जंगल में भटकता रहता है। (पर, जब इसके अंदर) परमात्मा के मिलने की तमन्ना (पैदा होती है तब यह) उमाह में आ के (आत्मिक) आनंद से (जीवन-चाल) चलता है।1। रहाउ।

हे भाई! तीन गुणों वाली माया मेरे ऊपर (भी) हमला करती है। (गुरू के बिना) मैं (और) किसको यह तकलीफ़ बताऊँ?।1।

हे नानक! (कह- हे भाई! गुरू की शरण आए बिना) और सारे प्रयत्न किए, पर वे उपाय (माया के हाथों मिल रहे) दुखों को दूर नहीं कर सकते। हे भाई! गुरू की शरण पड़ा रह, और गोबिंद के गुणों में चॅुभी लगा के (गोबिंद में) मिला रह।2।2।24।

मलार महला ५ ॥ प्रिअ की सोभ सुहावनी नीकी ॥ हाहा हूहू गंध्रब अपसरा अनंद मंगल रस गावनी नीकी ॥१॥ रहाउ ॥ धुनित ललित गुनग्य अनिक भांति बहु बिधि रूप दिखावनी नीकी ॥१॥ गिरि तर थल जल भवन भरपुरि घटि घटि लालन छावनी नीकी ॥ साधसंगि रामईआ रसु पाइओ नानक जा कै भावनी नीकी ॥२॥३॥२५॥ {पन्ना 1272}

शब्दार्थ: सोभ = शोभा, सिफतसालाह। सुहावनी = सुहावी, सुख देने वाली। नीकी = अच्छी। हाहा हूहू = दूवताओं के रागियों के नाम है। गंध्रब = देवताओं के रागी। अपसरा = स्वर्ग की अपसराएं। मंगल = खुशी के गीत। गावनी नीकी = मीठा गायन।1। रहाउ।

धुनित = धुनियां, सुरें। ललित = सुंदर। गुनग्ह = (गुनज्ञ) गुणी, गुणों को जानने वाले, गुणों में प्रवीण।1।

गिरि = पहाड़। तर = तरु, वृक्ष। थल = धरती। भरपुरि = भरपूर। घटि घटि = हरेक शरीर में। लालन छावनी = सोहणे लाल की छावनी, सोहणे लाल का डेरा। साध संगि = साध-संगति में। रामईआ रस = सोहणे राम (के मिलाप) का आनंद। जा कै = जिस (मनुष्य) के अंदर। भावनी = श्रद्धा।2।

सरलार्थ: हे भाई! प्यारे प्रभू की सिफत-सालाह (हृदय को) अच्छी लगती है, सुखदाई लगती है। (मानो) हाहा हूहू गंधर्व और स्वर्ग की अप्सराएं (मिल के) आनंद देने वाले, खुशी पैदा करने वाले, रस-भरे मन-मोहक गीत गा रहे हैं।1। रहाउ।

हे भाई! (प्यारे प्रभू की सिफतसालाह हृदय को) अच्छी लगती है, (मानो, संगीत के) गुणी-ज्ञानी अनेकों तरह से मीठी-सुरें (गा रहे हैं, और) कई किस्मों के सुंदर (नाटकीय) रूप दिखा रहे हैं।1।

हे भाई! (वह प्यारा प्रभू) पहाड़, वृक्ष, धरती, पानी, चौदह भवन (सबमें) लबा-लब मौजूद है। हरेक शरीर में उस सोहणे लाल का सोहणा डेरा बसा हुआ है। पर, हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में अच्छी श्रद्धा उपजती है, वह साध-संगति में (टिक के) सोहणे राम (के मिलाप) का आनंद प्राप्त करता है।2।3।25।

मलार महला ५ ॥ गुर प्रीति पिआरे चरन कमल रिद अंतरि धारे ॥१॥ रहाउ ॥ दरसु सफलिओ दरसु पेखिओ गए किलबिख गए ॥ मन निरमल उजीआरे ॥१॥ बिसम बिसमै बिसम भई ॥ अघ कोटि हरते नाम लई ॥ गुर चरन मसतकु डारि पही ॥ प्रभ एक तूंही एक तुही ॥ भगत टेक तुहारे ॥ जन नानक सरनि दुआरे ॥२॥४॥२६॥ {पन्ना 1272}

शब्दार्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर हरी चरण। रिद अंतरि = हृदय के अंदर। धारे = (मैंने) टिका लिए हैं।1। रहाउ।

सफलिओ = फल दे गया है। पेखिओ = देख लिया है। किलबिख = (सारे) पाप। उजीआरे = रौशन, आत्मिक जीवन की सूझ वाला।1।

बिसम = आश्चर्य, हैरान। भई = हो गई। अघ = पाप। कोटि = करोड़ों। हरते = दूर हो जाते हैं। लई = लेने से, सिमरने से। गुर चरन = गुरू के चरणों पर। मसतकु = माथा। डारि = रख के। पही = पड़ते हैं। प्रभ = हे प्रभू! टेक = आसरा।2।

सरलार्थ: हे भाई! प्यारे सतिगुरू की बरकति से मैंने सुंदर चरण अपने हृदय में बसा लिए हैं।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू का दर्शन (सदा) फलदायक होता है। (जो मनुष्य गुरू के दर्शन करता है, वह परमात्मा के भी) दर्शन कर लेता है, (उसके) सारे पाप नाश हो जाते हैं। (दर्शन करने वाले मनुष्यों के) मन पवित्र हो जाते हैं, आत्मिक जीवन की सूझ वाले बन जाते हैं।1।

हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरने से करोड़ों पाप दूर हो जाते हैं, आश्चर्य आश्चर्य आश्चर्यजनक आत्मिक अवस्था बन जाती है।

(जो मनुष्य) गुरू के चरणों पर माथा रख के गिर जाते हैं, उनके लिए, हे प्रभू! सिर्फ तू ही सिर्फ तू ही सहारा होता है। हे नानक! (कह- हे प्रभू! तेरे) भगतों को तेरी ही टेक है, तेरे दास तेरी शरण पड़े रहते हैं।2।4।26।

मलार महला ५ ॥ बरसु सरसु आगिआ ॥ होहि आनंद सगल भाग ॥१॥ रहाउ ॥ संत संगे मनु परफड़ै मिलि मेघ धर सुहाग ॥१॥ घनघोर प्रीति मोर ॥ चितु चात्रिक बूंद ओर ॥ ऐसो हरि संगे मन मोह ॥ तिआगि माइआ धोह ॥ मिलि संत नानक जागिआ ॥२॥५॥२७॥ {पन्ना 1272}

शब्दार्थ: बरसु = बरखा कर। सरसु = रस सहित, आनंद से। आगिआ = (परमात्मा के) हुकम में। होहि = हो जाएं। सगल भाग = सारे भाग्य (जाग उठें)।1। रहाउ।

संत संगे = गुरू की संगति में। परफड़ै = प्रफुल्लित होता है। मिलि मेघ = बादलों को मिल के। धर = धरती।1।

घनघोर = बादलों की गरज। चात्रिक = पपीहा। ओर = तरफ। अैसो = इस तरह। मन मोह = मन का मोह, मन का प्यार। तिआगि = त्याग के। धोह = ठॅगी। मिलि = मिल के। संत = गुरू।2।

सरलार्थ: (हे नाम-जल से भरपूर गुरू! परमात्मा की) रज़ा में आनंद से (नाम-जल की) बरखा कर। (जिन पर ये वर्षा होती है, उनके अंदर) आत्मिक आनंद बन जाते हैं, उनके सारे भाग्य (जाग उठते हैं)।1।

हे भाई! जैसे बादलों की बरखा से मिल के धरती के भाग्य जाग उठते हें, वैसे ही गुरू की संगति में (मनुष्य का) मन टहक उठता है।1।

हे भाई! (जैसे) मोर की प्रीति बादलों की गरज के साथ है, (जैसे) पपीहे का चिक्त (वर्षा की) बूँद की ओर (बना रहता है), वैसे ही (तू भी) परमात्मा के साथ (अपने) मन की प्रीति जोड़। हे नानक! गुरू को मिल के माया की ठॅगी दूर कर के (मनुष्य का) मन (माया के मोह की नींद में से) जाग जाता है।2।5।27।

मलार महला ५ ॥ गुन गुोपाल गाउ नीत ॥ राम नाम धारि चीत ॥१॥ रहाउ ॥ छोडि मानु तजि गुमानु मिलि साधूआ कै संगि ॥ हरि सिमरि एक रंगि मिटि जांहि दोख मीत ॥१॥ पारब्रहम भए दइआल ॥ बिनसि गए बिखै जंजाल ॥ साध जनां कै चरन लागि ॥ नानक गावै गोबिंद नीत ॥२॥६॥२८॥ {पन्ना 1272}

शब्दार्थ: गुोपाल = सृष्टि को पालने वाला (अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोपाल', यहां 'गुपाल' पढ़ना है)। गाउ = गाया कर। नीत = सदा। चीति = चिक्त में। धारि = टिकाए रख।1। रहाउ।

तजि = त्याग के। मिलि = मिल के। साधूआ कै संग = संत जनों की संगति में। ऐक रंगी = एक के प्रेम रंग में। मीत = हे मित्र! ।1।

बिखै जंजाल = विषौ विकारों के फंदे। कै चरन लागि = के चरणों में टिक के। गावै = गाता है, सिफत सालाह करता है। नीत = सदा।2।

सरलार्थ: हे भाई! सृष्टि के पालनहार प्रभू के गुण सदा गाया कर। परमात्मा का नाम अपने चिक्त में टिकाए रख।1। रहाउ।

हे मित्र! संत-जनों की संगति में मिल के गुमान छोड़ अहंकार त्याग। एक प्रभू के प्रेम-रंग में (रंगीज के) परमात्मा का नाम सिमरा कर। तेरे सारे एैब दूर हो जाएंगे।1।

हे नानक! संत जनों के चरणों से जुड़ के (जो मनुष्य) सदा गोबिंद के गुण गाता रहता है, (उसके अंदर से) विषौ-विकारों के फंदे कट जाते हैं, प्रभू जी उस पर दयावान हो जाते हैं।2।6।28।

मलार महला ५ ॥ घनु गरजत गोबिंद रूप ॥ गुन गावत सुख चैन ॥१॥ रहाउ ॥ हरि चरन सरन तरन सागर धुनि अनहता रस बैन ॥१॥ पथिक पिआस चित सरोवर आतम जलु लैन ॥ हरि दरस प्रेम जन नानक करि किरपा प्रभ दैन ॥२॥७॥२९॥ {पन्ना 1272}

शब्दार्थ: घनु = बादल, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से भरपूर गुरू। गरजत = गरजता है, बरखा करता है। गावत = गाते हुए। चैन = शांति, ठंड।1। रहाउ।

हरि चरन सरन = प्रभू के चरणों की शरण (में रहना)। तरन सागर = (संसार-) समुंद्र (से पार लंघाने के लिए) जहाज। अनहता = एक रस, लगातार। बैन = बयन, बचन, सिफतसालाह की बाणी।1।

पथिक = राही, मुसाफिर। लैन = हासिल करने के लिए। दैन = देता है। करि = कर के।2।

सरलार्थ: हे भाई! (जब) परमात्मा का रूप गुरू, आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से भरपूर गुरू (नाम-जल की) बरखा करता है, तब प्रभू के गुण गाते हुए सुख मिलता है शांति प्राप्त होती है (जैसे 'मोर बबीहे बोलदे, वेखि बॅदल काले')।1। रहाउ।

हे भाई! (गुरू की कृपा से) परमात्मा के चरणों की शरण (प्राप्त होती है, जो संसार-) समुंद्र (से पार लंघाने के लिए) जहाज़ है। (गुरू की कृपा से आत्मिक पथ के) पथिक (जीव) को तमन्ना पैदा होती है, उसका चिक्त (नाम-जल के) सरोवर (गुरू) की ओर (पलटता है)। हे नानक! (जब नाम-जल से भरपूर गुरू नाम की बरखा करता है, तब) सेवकों के अंदर परमात्मा के दर्शनों की चाहत पैदा होती है, प्रभू मेहर कर के (उनको यह दाति) देता है।2।7।29।

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