श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1262 मलार महला ३ ॥ जीवत मुकत गुरमती लागे ॥ हरि की भगति अनदिनु सद जागे ॥ सतिगुरु सेवहि आपु गवाइ ॥ हउ तिन जन के सद लागउ पाइ ॥१॥ हउ जीवां सदा हरि के गुण गाई ॥ गुर का सबदु महा रसु मीठा हरि कै नामि मुकति गति पाई ॥१॥ रहाउ ॥ माइआ मोहु अगिआनु गुबारु ॥ मनमुख मोहे मुगध गवार ॥ अनदिनु धंधा करत विहाइ ॥ मरि मरि जमहि मिलै सजाइ ॥२॥ गुरमुखि राम नामि लिव लाई ॥ कूड़ै लालचि ना लपटाई ॥ जो किछु होवै सहजि सुभाइ ॥ हरि रसु पीवै रसन रसाइ ॥३॥ कोटि मधे किसहि बुझाई ॥ आपे बखसे दे वडिआई ॥ जो धुरि मिलिआ सु विछुड़ि न जाई ॥ नानक हरि हरि नामि समाई ॥४॥३॥१२॥ {पन्ना 1262} शब्दार्थ: मुकत = विकारों से बचे हुए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सद = सदा। जागे = माया के हमलों से सचेत रहते हैं। सेवहि = सेवा करते हैं (बहुवचन)। आपु = स्वै भाव। गवाइ = गवा के। हउ = मैं। लागउ = मैं लगता हूँ। पाइ = पाय, पैरों पर।1। जीवां = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। गाई = मैं गाता हूँ। कै नामि = के नाम से। मुकति = विकारों से मुक्ति। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पाई = मैं प्राप्त करता हूँ।1। रहाउ। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। गुबारु = अंधेरा। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मुगध = मूर्ख। करत = करते हुए। विहाइ = (उम्र) बीतती है। मरि = मर के।2। नामि = नाम में। लालचि = लालच में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। पीवै = पीता है (एक वचन)। रसन = जीभ। रसाइ = रसा के, स्वाद ले के।3। कोटि = करोड़ों। मधे = बीच। किसहि = ('किसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) किसी विरले को। आपे = आप ही। दे = देता है। धुरि = धुर दरगाह से। सु = वह मनुष्य। समाई = लीन रहता है।4। सरलार्थ: हे भाई! मैं सदा परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ और आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहता हूँ। गुरू का शबद बहुत स्वादिष्ट है मीठा है (इस शबद की बरकति से) मैं परमात्मा के नाम में जुड़ के विकारों से मुक्ति हासिल करता हूँ, उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त करता हूँ।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की मति अनुसार चलते हैं, वे दुनिया की किरत-कार करते हुए ही विकारों से बचे रहते हैं। वे हर वक्त परमात्मा की भक्ति करके माया के हमलों से सदा सचेत रहते हैं। हे भाई! जो मनुष्य स्वै-भाव दूर करके गुरू की शरण पड़ते हैं, मैं उन मनुष्यों के सदा पैर पड़ता हूँ।1। हे भाई! माया का मोह (जीवन-यात्रा में) आत्मिक-जीवन की तरफ से बेसमझी है, घोर अंधेरा है। अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य इस मोह में फसे रहते हैं। हर वक्त दुनियावी धंधे करते हुए ही उनकी उम्र गुजरती है, वे जनम-मरन के चक्करों में पड़े रहते हैं- ये सजा उनको मिलती है।2। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के नाम में सुरति जोड़े रखता है, वह नाशवंत माया की लालच में नहीं फसता। (रज़ा के अनुसार) जो कुछ घटित होता है उसको आत्मिक अडोलता से (सहज भाव से) प्यार में (बने रह के सहता है)। वह मनुष्य परमात्मा का नाम-रस जीभ से स्वाद ले-ले के पीता रहता है।3। पर, हे भाई! करोड़ों में से विरले मनुष्य को (परमात्मा) यह सूझ बख्शता है, उसको प्रभू स्वयं ही (यह दाति) देता है और आदर-सम्मान देता है। हे नानक! जो मनुष्य धुर दरगाह से (प्रभू के चरणों में) जुड़ा हुआ है, वह उससे कभी विछुड़ता नहीं। वह सदा ही परमात्मा के नाम में लीन रहता है।4।3।12। मलार महला ३ ॥ रसना नामु सभु कोई कहै ॥ सतिगुरु सेवे ता नामु लहै ॥ बंधन तोड़े मुकति घरि रहै ॥ गुर सबदी असथिरु घरि बहै ॥१॥ मेरे मन काहे रोसु करीजै ॥ लाहा कलजुगि राम नामु है गुरमति अनदिनु हिरदै रवीजै ॥१॥ रहाउ ॥ बाबीहा खिनु खिनु बिललाइ ॥ बिनु पिर देखे नींद न पाइ ॥ इहु वेछोड़ा सहिआ न जाइ ॥ सतिगुरु मिलै तां मिलै सुभाइ ॥२॥ नामहीणु बिनसै दुखु पाइ ॥ त्रिसना जलिआ भूख न जाइ ॥ विणु भागा नामु न पाइआ जाइ ॥ बहु बिधि थाका करम कमाइ ॥३॥ त्रै गुण बाणी बेद बीचारु ॥ बिखिआ मैलु बिखिआ वापारु ॥ मरि जनमहि फिरि होहि खुआरु ॥ गुरमुखि तुरीआ गुणु उरि धारु ॥४॥ गुरु मानै मानै सभु कोइ ॥ गुर बचनी मनु सीतलु होइ ॥ चहु जुगि सोभा निरमल जनु सोइ ॥ नानक गुरमुखि विरला कोइ ॥५॥४॥१३॥९॥१३॥२२॥ {पन्ना 1262} शब्दार्थ: रसना = जीभ (से)। सभु कोई = हरेक प्राणी। कहै = कहता है (एकवचन)। सेवे = सेवा करे, शरण पड़े। लहै = प्राप्त कर लेता है। मुकति घरि = मुक्ति के घर में, उस घर में जहाँ विकारों से बचा रहा जा सकता है। सबदी = शबद से। असथिरु = अडोल चिक्त (हो के)। घरि = हृदय घर में।1। मन = हे मन! कलजुगि = कलयुग में, विकारों भरे जगत में। लाहा = लाभ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रवीजै = सिमरना चाहिए।1। रहाउ। बाबीहा = पपीहा। बिललाइ = बिलकता है, तरले लेता है। पिर = प्रभू पति। नीद = आत्मिक शांति। सुभाइ = प्रेम से।2। बिनसै = नाश होता है, आत्मिक तौर पर तबाह हो जाता है। करम = (मिथे हुए, धर्म के नाम पर किए जाने वाले) कर्म।3। बाणी बेद बीचारु = वेदों की बाणी की विचार। बिखिआ = माया। वापारु = वणज, कार्य व्यवहार। मरि = मर के। जनमहि = जन्मते हैं (बहुवचन)। होहि = होते हैं (बहुवचन)। तुरीआ गुणु = वे गुण जो माया के तीनों से परे हैं। उरि = हृदय में।4। मानै = आदर सत्कार करता है। सभु कोई = हरेक प्राणी। गुर बचनी = गुरू के वचनों पर चल के। चहु जुगि सोभा = चारों युगों में कायम रहने वाली शोभा। सोभा निरमल = निर्मल शोभा पवित्र शोभा, बेदाग़ शोभा। जनु = (असल) सेवक। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला।5। सरलार्थ: हे मेरे मन! (परमात्मा के नाम से) रूठना नहीं चाहिए। जगत में परमात्मा का नाम (ही असल) कमाई है। हे भाई! गुरू की मति ले के हर वकत हृदय में हरी-नाम सिमरना चाहिए।1। रहाउ। हे भाई! (वैसे तो) हर कोई जीभ से हरी-नाम उचारता है, पर मनुष्य तब ही हरी-नाम (-धन) प्राप्त करता है जब गुरू की शरण पड़ता है। (गुरू की शरण पड़ कर मनुष्य माया के मोह के) बँधन तोड़ता है और उस अवस्था में टिकता है जहाँ विकारों से खलासी हुई रहती है। गुरू के शबद द्वारा मनुष्य अडोल-चिक्त हो के हृदय-घर में टिका रहता है।1। हे भाई! (जैसे वर्षा की बूँद के लिए) पपीहा हर पल तरले लेता है (बिलखता है), (वैसे ही जीव-स्त्री) प्रभू-पति के दर्शन किए बिना आत्मिक शांति हासिल नहीं कर सकती। (उस तरफ से) यह विछोड़ा (यह विरह) सहा नहीं जा सकता। जब कोई जीव गुरू को मिल जाता है तब वह प्रभू-प्रेम में (लीन हो के) प्रभू को मिल लेता हे।2। हे भाई! नाम से वंचित हुआ मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेता है दुख सहता रहता है, (माया की) तृष्णा-अग्नि में जलता है, उसकी (माया की यह) भूख दूर नहीं होती। हे भाई! ऊँची किस्मत के बिना परमात्मा का नाम मिलता भी नहीं। (तीर्थ-यात्रा आदि मिथे हुए धार्मिक) कर्म कई तरीकों से कर-कर के थक जाते हैं।3। हे भाई! (जो पंडित आदि लोग माया के) तीन गुणों में रखने वाली ही वेद-आदि धर्म-पुस्तकों पर विचार करते रहते हैं (उनके मन को) माया (के मोह) की मैल (सदा चिपकी रहती है)। (उन्होंने इस विचार को) माया कमाने काही व्यापार बनाया हुआ होता है। (ऐसे मनुष्य) जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं, और दुखी होते रहते हैं। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के हृदय में हरी-नाम का सहारा होता है, वह उस गुण उस अवस्था को हासिल कर लेता है जो माया के तीन गुणों से ऊपर है।4। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू इज्जत बख्शता है उसका आदर हर कोई करता है। गुरू के वचनों की बरकति से उसका मन शांत रहता है, उसको चारों युगों में टिकी रहने वाली बेदाग़ शोभा प्राप्त होती है, वही है असल भगत। पर, हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाला ऐसा कोई विरला (ही) मनुष्य होता है।5।4।13।9।22। शबदों का वेरवा: रागु मलार महला ४ घरु १ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अनदिनु हरि हरि धिआइओ हिरदै मति गुरमति दूख विसारी ॥ सभ आसा मनसा बंधन तूटे हरि हरि प्रभि किरपा धारी ॥१॥ नैनी हरि हरि लागी तारी ॥ सतिगुरु देखि मेरा मनु बिगसिओ जनु हरि भेटिओ बनवारी ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि ऐसा नामु विसारिआ मेरा हरि हरि तिस कै कुलि लागी गारी ॥ हरि तिस कै कुलि परसूति न करीअहु तिसु बिधवा करि महतारी ॥२॥ हरि हरि आनि मिलावहु गुरु साधू जिसु अहिनिसि हरि उरि धारी ॥ गुरि डीठै गुर का सिखु बिगसै जिउ बारिकु देखि महतारी ॥३॥ धन पिर का इक ही संगि वासा विचि हउमै भीति करारी ॥ गुरि पूरै हउमै भीति तोरी जन नानक मिले बनवारी ॥४॥१॥ {पन्ना 1262-1263} शब्दार्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। हिरदै = हृदय में। मनसा = (मनीषा) मन के फुरने। प्रभि = प्रभू ने।1। नैनी = आँखों में। तारी = ताड़ी, बिरती, एकाग्रता। देखि = देख के। बिगसिओ = खिल उठा है। जनु = सेवक। भेटिओ = मिला। बनवारी = परमात्मा।1। रहाउ। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कै कुलि = की कुल में। गारी = गाली। हरि = हे हरी! परसूति = प्रसूति, जनम। महतारी = माँ।2। तिस कै: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'कै' के कारण हटा दी गई है। आनि = ला के। हरि = हे हरी! अहि = दिन। निजि = रात। उरि = हृदय में। गुरि डीठै = गुरू को देखने से, अगर गुरू दिखाई दे जाए। बिगसै = खिल उठता है। बारिकु = बालक, बच्चा। देखि महतारी = माँ को देख के।3। धन = स्त्री, जीव स्त्री। पिर = प्रभू पति। संगि = साथ। इक ही संगि = एक ही जगह में। भीति = दीवार। करारी = करड़ी, सख़्त। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। तोरी = तोड़ दी। बनवारी = परमात्मा।4। सरलार्थ: हे भाई! मेरी आँखों की तार प्रभू-चरणों में लगी रहती है। हे भाई! गुरू को देख के मेरा मन खिल उठा है, दास (नानक गुरू की कृपा से ही) बनवारी-प्रभू को मिला है।1। रहाउ। हे भाई! जो गुरू की मति अनुसार (अपनी) मति को बना के हर वक्त परमात्मा का नाम अपने हृदय में सिमरता है, वह अपने सारे दुख दूर कर लेता है। हे भाई! जिस मनुष्य पर हरी-प्रभू ने मेहर की, उसकी सारी आशाओं और मन के फुरनों के बँधन टूट गए।1। हे भाई! जिस मनुष्य ने ऐसा हरी-नाम बिसार दिया, जिस ने हरी-प्रभू की याद भुला दी, उसकी (सारी) कुल में ही गाली लगती है (उसकी सारी कुल ही कलंकित हो जाती है)। हे हरी! उस (नाम-हीन व्यक्ति) की कुल में (किसी को) जनम ही ना देना, (उस नाम-हीन मनुष्य) की माँ को ही विधवा कर देना (तो बेहतर है ता कि नाम-हीन घर में किसी का जनम ही ना हो)।2। हे हरी! (मेहर कर, मुझे वह) साधू गुरू ला के मिला दे, जिसके हृदय में, हे हरी! दिन-रात तेरा नाम बसा रहता है। हे भाई! अगर गुरू के दर्शन हो जाएं, तो गुरू का सिख यूँ खुश होता है जैसे बच्चा (अपनी) माँ को देख के।3। हे भाई! जिस जीव-स्त्री और प्रभू-पति का एक ही (हृदय-) जगह में बसेरा है, पर (दोनों के) दरमियान (जीव-स्त्री की) अहंकार की दीवार (बनी हुई) है। हे नानक! पूरे गुरू ने जिन सेवकों (के अंदर से यह) अहंकार की दीवार को तोड़ दिया, वे परमात्मा को मिल गए।4।1। |
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