श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 728 ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु रागु सूही महला १ चउपदे घरु १ भांडा धोइ बैसि धूपु देवहु तउ दूधै कउ जावहु ॥ दूधु करम फुनि सुरति समाइणु होइ निरास जमावहु ॥१॥ जपहु त एको नामा ॥ अवरि निराफल कामा ॥१॥ रहाउ ॥ इहु मनु ईटी हाथि करहु फुनि नेत्रउ नीद न आवै ॥ रसना नामु जपहु तब मथीऐ इन बिधि अम्रितु पावहु ॥२॥ मनु स्मपटु जितु सत सरि नावणु भावन पाती त्रिपति करे ॥ पूजा प्राण सेवकु जे सेवे इन्ह बिधि साहिबु रवतु रहै ॥३॥ कहदे कहहि कहे कहि जावहि तुम सरि अवरु न कोई ॥ भगति हीणु नानकु जनु ज्मपै हउ सालाही सचा सोई ॥४॥१॥ {पन्ना 728} नोट: चउपदे–चार पदों वाले, चार बंदों वाले शबद। नोट: इस शबद में दो अलंकार दिए हुए हैं–दूध मथने का और मूर्ति को पूजने का। बर्तन धो के माँज के उसमें दूध डालते हैं और जाग लगाई जाती है। नेत्रे की ईटियाँ (मथानी की डोर के सिरे को) हाथ में पकड़ के दूध बर्तन में मथते हैं और मक्खन निकाला जाता है। ठाकुरों की मूर्ति (देवताओं की मूर्ति) को डब्बे में डाल के रखा जाता है, स्नान कराया जाता है, फूल–पत्ते आदि भेट करके पूजा की जाती है। शब्दार्थ: धोइ = धोय, धो के। बैसि = बैठ के, टिक के। तउ = तब। दूधै कउ = दूध लेने के लिए। करम = रोजाना किरत कार। समाइणु = जाग। निरास = दुनिया की आशाओं से निर्लिप हो के।1। ऐको नामा = सिर्फ प्रभू का नाम ही। अवरि = और उद्यम। निराफल = व्यर्थ।1। रहाउ। हाथि = हाथ में। नेत्रउ = नेत्रा, मथानी पर लपेटी वह रस्सी जिसकी मदद से मथानी को घुमा के चाटी का दूध मथा जाता है। मथीअै = मथना। इन बिधि = इन तरीकों से।2। संपटु = वह डिब्बा जिसमें ठाकुर-मूर्ति को रखा जाता है। जितु = जिस (नाम) से। सत सरि = सत सरोवर में, साध-संगति में। भवन = सरधा। पाती = पत्तियों से। त्रिपति करे = प्रसन्न करे। पूजा प्राण = प्राणों प्रयन्त पूजा करे, स्वै वार दे, अपनत्व त्याग दे। रवतु रहै = मिला रहता है।3। कहदे = कहने वाले (सिमरन के बिना प्रभू को प्रसन्न करने के और और उद्यम) बताने वाले। कहे कहि = बता बता के। जावहि = चले जाते हैं, व्यर्थ में समय गवा जाते हैं। तुम सरि = तेरे बराबर, तेरे सिमरन के साथ का। अवरु = और उद्यम। जंपै = विनती करता है। हउ = मैं। सालाही = सिफत सालाह करूँ।4। सरलार्थ: (हे भाई! अगर प्रभू को प्रसन्न करना है) तो सिर्फ प्रभू का नाम ही जपो (सिमरन छोड़ के प्रभू को प्रसन्न करने के) और सारे उद्यम व्यर्थ हैं।1। रहाउ। (मक्खन हासिल करने के लिए हे भाई!) तुम (पहले) बर्तन धो के बैठ के (उस बर्तन को) धूप में धो के तब दूध लेने जाते हो (फिर जाग लगा के उसको जमाते हो। इसी तरह यदि हरी-नाम प्राप्त करना है, तो) हृदय को पवित्र करके मन को रोको - ये इस हृदय-बर्तन को धूप दो। तब दूध लेने जाओ। रोजाना की किरत-कार दूध है, प्रभू-चरनों में (हर वक्त) सुरति जोड़े रखनी (रोजाना के किरत-कार में) जाग लगाना है, (जुड़ी सुरति की बरकति से) दुनिया की आशाओं से ऊपर उठो, इस तरह ये दूध जमाओ (भाव, जुड़ी हुई सुरति की सहायता से रोजाना काम-काज करते हुए भी माया की ओर से उपरामता ही रहेगी)।1। (दूध मथने के वक्त तुम नेत्रे की गिटियाँ हाथ में पकड़ते हो) अपने इस मन को वश में करो (आत्मिक जीवन के लिए इस तरह ये मन-रूप) गीटियाँ हाथ में पकड़ो। माया के मोह की नींद (मन पर) प्रभाव ना डाल सके- ये है नेत्रा। जीभ से परमात्मा का नाम जपो (ज्यों-ज्यों नाम जपोगे) त्यों-त्यों (ये रोजाना काम-काज रूपी दूध) मथता रहेगा, इन तरीकों से (रोजाना काम-काज करते हुए ही) नाम-अमृत प्राप्त कर लोगे।2। (पुजारी मूर्ति को डिब्बे में डालता है, अगर जीव) अपने मन को डब्बा बनाए (उसमें परमात्मा का नाम टिका के रखे) उस नाम के द्वारा साध-संगति सरोवर में स्नान करे, (मन में टिके हुए प्रभू ठाकुर को) श्रद्धा के पत्रों से प्रसन्न करे, अगर जीव सेवक बन के स्वै भाव छोड़ के (अंदर बसते ठाकुर-प्रभू की) सेवा (सिमरन) करे, तो इन तरीकों से वह जीव मालिक प्रभू को सदा मिला रहता है।3। (सिमरन के बिना प्रभू को प्रसन्न करने के अन्य उद्यम) बताने वाले लोग जो अन्य उद्यम बताते हैं, वे बता-बता के जीवन समय व्यर्थ गवा लेते हैं (क्योंकि) हे प्रभू! तेरे सिमरन जैसा और कोई उद्यम नहीं है। (चाहे) नानक (तेरा) दास भक्ति से वंचित (ही है फिर भी ये यही) विनती करता है कि मैं सदा कायम रहने वाले प्रभू की सदा सिफत-सालाह करता रहूँ।4।1। सूही महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अंतरि वसै न बाहरि जाइ ॥ अम्रितु छोडि काहे बिखु खाइ ॥१॥ ऐसा गिआनु जपहु मन मेरे ॥ होवहु चाकर साचे केरे ॥१॥ रहाउ ॥ गिआनु धिआनु सभु कोई रवै ॥ बांधनि बांधिआ सभु जगु भवै ॥२॥ सेवा करे सु चाकरु होइ ॥ जलि थलि महीअलि रवि रहिआ सोइ ॥३॥ हम नही चंगे बुरा नही कोइ ॥ प्रणवति नानकु तारे सोइ ॥४॥१॥२॥ {पन्ना 728} शब्दार्थ: अंतरि = अंतर आत्मे। वसै = टिका रहता है। बाहरि = दुनिया के रस पदार्थों की ओर। छोडि = छोड़ के। चाहे = क्यों? बिखु = जहर, चस्का रूपी जहर।1। गिआनु = गहरी सांझ, सूझ। जपहु = बार बार याद रखो। होवहु = हो सको, बन सको। केरे = के।1। रहाउ। गिआनु = आत्मिक विद्या की सूझ। धिआनु = सुरति जोड़नी, मन एकाग्र करना। रवै = जबानी जबानी कहते है। बांधनि = बँधन में। सभु जगु = सारा संसार। भवै = भटकता है।2। सु = वह मनुष्य। थलि = धरती के अंदर। महीअलि = महीतलि, धरती के तल पर, धरती के ऊपर अंतरिक्ष में। सोइ = वही प्रभू।3। प्रणवति = विनती करता है। सोइ = वह परमात्मा।4। सरलार्थ: हे मन! परमात्मा के साथ ऐसी गहरी सांझ पक्की कर, (जिसकी बरकति से) तू उस सदा कायम रहने वाले प्रभू का (सच्चा) सेवक बन सके।1। रहाउ। (सेवक वह है जिसका मन) दुनिया के रस पदार्थों की तरफ नहीं दौड़ता, और अपने अंतरात्मे ही (प्रभू चरणों में) टिका रहता है; परमात्मा का नाम-अमृत छोड़ के वह विषियों का जहर नहीं खाता।1। ज़्बानी-ज़बानी तो हर कोई कहता है कि मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है, मेरी सुरति जुड़ी हुई है, पर (देखने में ये आता है कि) सारा जगत माया के मोह के बँधनों में बँधा हुआ भटक रहा है (सिर्फ ज़ुबान से कहने भर से कोई प्रभू का सेवक नहीं बन सकता)।2। जो मनुष्य (मन को बाहर भटकने से हटा के प्रभू का) सिमरन करता है वही (प्रभू का) सेवक बनता है, उस सेवक को प्रभू जल में, धरती के अंदर, आकाश में हर जगह व्याप्त दिखता है।3। नानक विनती करता है– जो मनुष्य (अहंकार का त्याग करता है और) समझता है कि मैं औरों से बढ़िया नहीं, ऐसे सेवक को परमात्मा (संसार-समुंद्र की विकार-लहरों से) पार लंघा लेता है।4।1।2। नोट: आखिरी अंकों में से अंक 1 बताता है कि ‘घर2’ का ये पहला शबद है। |
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धन्यवाद! |