श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 440 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ३ छंत घरु ३ ॥ साजन मेरे प्रीतमहु तुम सह की भगति करेहो ॥ गुरु सेवहु सदा आपणा नामु पदारथु लेहो ॥ भगति करहु तुम सहै केरी जो सह पिआरे भावए ॥ आपणा भाणा तुम करहु ता फिरि सह खुसी न आवए ॥ भगति भाव इहु मारगु बिखड़ा गुर दुआरै को पावए ॥ कहै नानकु जिसु करे किरपा सो हरि भगती चितु लावए ॥१॥ {पन्ना 440} शब्दार्थ: साजन मेरे = हे मेरे सज्जनो! प्रीतमहु = हे मेरे प्यारो! सह की = पति प्रभू की। करेहो = करते रहो। लेहो = प्राप्त करो। सहै केरी = पति प्रभू की। सह भावऐ = सह भावे, पति प्रभू को पसंद आती है। जो = वह भक्ति। भाणा = मर्जी। सह खुसी = प्रभू पति की प्रसन्नता। न आवऐ = ना आए, नहीं आती, नहीं मिलती। भाव मारगु = प्यार का रास्ता। बिखड़ा = कठिन, मुश्किलों भरा। दुआरै = दर पे। को = कोई (विरला)। लावऐ = लगाता है।1। सरलार्थ: हे मेरे (सत्संगी) सज्जनो प्यारो! तुम प्रभू पति की भक्ति सदा करते रहा करो, सदा अपने गुरू की शरण पड़े रहो (और गुरू से) सबसे कीमती चीज हरि नाम हासिल करो। (हे सज्जनो!) तुम प्रभू-पति की ही भगती करते रहो, ये भगती प्यारे प्रभू-पति को पसंद आती है। अगर (इस जीवन सफर में) तुम अपनी ही मर्जी करते रहोगे तो प्रभू-पति की प्रसन्नता तुम्हें नहीं मिलेगी। (पर, हे प्यारो!) भक्ति का और प्रेम का ये रास्ता बहुत मुश्किलों भरा है, कोई विरला मनुष्य ही ये रास्ता ढूँढता है जो गुरू के दर पर आ गिरता है। नानक कहता है–जिस मनुष्य पर प्रभू (खुद) कृपा करता है वह मनुष्य अपना मन प्रभू की भक्ति में जोड़ता है।1। मेरे मन बैरागीआ तूं बैरागु करि किसु दिखावहि ॥ हरि सोहिला तिन्ह सद सदा जो हरि गुण गावहि ॥ करि बैरागु तूं छोडि पाखंडु सो सहु सभु किछु जाणए ॥ जलि थलि महीअलि एको सोई गुरमुखि हुकमु पछाणए ॥ जिनि हुकमु पछाता हरी केरा सोई सरब सुख पावए ॥ इव कहै नानकु सो बैरागी अनदिनु हरि लिव लावए ॥२॥ {पन्ना 440} शब्दार्थ: बैरागीआ = वैराग में आया हुआ। करि = कर के। किसु = किसे? सोहिला = खुशी के गीत। सद = सदा। जो = जो मनुष्य। छोडि = छोड़ कै। जाणऐ = जानता है। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। सोई = वह ही। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य। पछाणऐ = पहचाने, पहचानता है। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। केरा = का। पावऐ = पाता है। इव = इस तरह। अनदिनु = हर रोज।2। सरलार्थ: हे वैराग में आए हुए मेरे मन! तू वैराग करके किसे दिखाता है? (इस ऊपर-ऊपर से दिखाए वैराग से तेरे अंदर आत्मिक आनंद नहीं बन सकेगा)। हे मन! जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनके अंदर सदा ही उमंग व चाव बना रहता है। हे मेरे मन! (बाहरी दिखावे वाले वैराग का) पाखण्ड छोड़ के (और, अपने अंदर) मिलने की चाहत पैदा कर (क्योंकि) वह पति प्रभू (अंदर की) हरेक बात जानता है, वह प्रभू खुद ही जल में धरती में आकाश में (हर जगह समाया हुआ है) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह उस प्रभू की रजा को समझता है। हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने परमात्मा की रजा समझ ली वही सारे आनंद प्राप्त करता है, नानक (तुझे) ऐसे बताता है कि इस तरह के मिलाप की चाहत रखने वाला मनुष्य हर समय प्रभू-चरणों में सुरति जोड़े रखता है।2। जह जह मन तूं धावदा तह तह हरि तेरै नाले ॥ मन सिआणप छोडीऐ गुर का सबदु समाले ॥ साथि तेरै सो सहु सदा है इकु खिनु हरि नामु समालहे ॥ जनम जनम के तेरे पाप कटे अंति परम पदु पावहे ॥ साचे नालि तेरा गंढु लागै गुरमुखि सदा समाले ॥ इउ कहै नानकु जह मन तूं धावदा तह हरि तेरै सदा नाले ॥३॥ {पन्ना 440} शब्दार्थ: जह = जहाँ। मन = हे मन! धावदा = दौड़ता। तह = वहाँ। नाले = साथ ही। सिआणप = चतुराई। समाले = अपने अंदर संभाल के रख। समालहे = समालहि, अगर तू याद करे। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पावहे = तू प्राप्त कर ले। गंढु = जोड़, पक्का संबंध। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। समाले = समालि।3। सरलार्थ: हे मेरे मन! जहाँ-जहाँ तू दौड़ता-फिरता है वहाँ-वहाँ ही परमात्मा तेरे साथ ही रहता है (अगर तू उसे अपने साथ बसा हुआ देखना चाहता है तो) हे मन! अपनी चतुराई (का आसरा) छोड़ देना चाहिए। हे मन! गुरू का शबद अपने अंदर संभाल के रख (फिर तुझे दिख जाएगा कि) वह पति-प्रभू सदा तेरे साथ रहता है। (हे मन!) अगर तू एक छिन के वास्ते भी परमात्मा का नाम अपने अंदर बसाए, तो तेरे अनेकों जन्मों के पाप काटे जाएं, और अंत में तू सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर ले। (हे मन!) गुरू की शरण पड़ के तू सदा परमात्मा को अपने अंदर बसाए रख, (इस तरह उस) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ तेरा पक्का प्यार बन जाएगा। नानक तुझे ये बताता है कि हे मन! जहाँ-जहाँ तू भटकता फिरता है वहाँ-वहाँ परमात्मा सदा तेरे साथ ही रहता है।3। |
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धन्यवाद! |