श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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छछै छाइआ वरती सभ अंतरि तेरा कीआ भरमु होआ ॥ भरमु उपाइ भुलाईअनु आपे तेरा करमु होआ तिन्ह गुरू मिलिआ ॥१०॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: छाइआ = छाया, अविद्या। अंतरि = में। भरमु = भुलेखा, भटकना। भुलाइअनु = उसने भुलाई है, उसने गलत रास्ते पर डाली है। करमु = बख्शिश।

सरलार्थ: (हे प्रभू! जीव भी क्या करे? तेरी ही पैदा की हुई) अविद्या सब जीवों के अंदर प्रबल हो रही है, (जीवों के मन की) भटकना तेरी ही बनाई हुई है।

(हे मन!) प्रभू ने खुद ही भटकना पैदा करके सृष्टि को गलत राह पर डाला हुआ है (अगर तूने बचना है तो अपनी विद्या का अहंकार त्याग के कह–) हे प्रभू! जिन पर तेरी बख्शिश होती है उन्हें गुरू मिल जाता है (मेरे पर भी मेहर करके गुरू मिला)।10।

जजै जानु मंगत जनु जाचै लख चउरासीह भीख भविआ ॥ एको लेवै एको देवै अवरु न दूजा मै सुणिआ ॥११॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: जानु = पहचान, सांझ डाल। मंगत जनु = मंगता (बन के)। जाचै = याचना करता है, मांगता है। भीख = भिक्षा, ख़ैर, दान।

सरलार्थ: (हे मन! अपने पण्डित होने का मान त्याग के) उस प्रभू के साथ सांझ डाल (जिसके दर से) हरेक जीव मंगता बन के दान मांगता है। वह प्रभू चौरासी लाख जूनियों में खुद ही मौजूद है, (सब जीवों में व्यापक हो के) वह खुद ही भिक्षा लेने वाला है, और वह खुद ही देता है।11।

झझै झूरि मरहु किआ प्राणी जो किछु देणा सु दे रहिआ ॥ दे दे वेखै हुकमु चलाए जिउ जीआ का रिजकु पइआ ॥१२॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: प्राणी = हे जीव! झूरि = झुर झुर के, चिंता कर-कर के। मरहु = आत्मिक मौत सहेड़ते हो। वेखै = संभाल करता है। पइआ = मुकरर है।

सरलार्थ: हे प्राणी! (रोटी की खातिर) चिंता कर-करके क्यूँ आत्मिक मौत सहेड़ता है? जो कुछ प्रभू ने तुझे देने का फैसला किया हुआ है, वह (तेरी चिंता-फिक्र के बिना भी) स्वयं ही दे रहा है। जैसे-जैसे जीवों का रिजक मुकरर (निहित) है, वह सब को दे रहा है, संभाल भी कर रहा है, और (रिजक बाँटने वाला अपना) हुकम चला रहा है (हे मन! तेरा पण्डित होने के क्या अर्थ, अगर तुझे इतनी भी समझ नहीं?)।12।

ञंञै नदरि करे जा देखा दूजा कोई नाही ॥ एको रवि रहिआ सभ थाई एकु वसिआ मन माही ॥१३॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: नदरि करे = नजर करके, ध्यान से, नदरि करि। जा = जब। देखा = मैं देखता हूँ। रवि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है।

सरलार्थ: (हे मन! चिंता-फिक्र छोड़, क्योंकि) मैं जब भी ध्यान से देखता हूँ, मुझे प्रभू के बिना कोई और (कहीं भी) नहीं दिखता। प्रभू स्वयं ही हर जगह मौजूद है, हरेक के मन में प्रभू खुद ही बस रहा है।13।

टटै टंचु करहु किआ प्राणी घड़ी कि मुहति कि उठि चलणा ॥ जूऐ जनमु न हारहु अपणा भाजि पड़हु तुम हरि सरणा ॥१४॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: टंचु = टंटा, व्यर्थ का धंधा। किआ = किस लिए? मुहति = महूरत में, थोड़े ही समय में। उठि = उठ के। जूअै = जूए की बाजी में। भाजि = दौड़ के, जल्दी।

सरलार्थ: (प्रभू की याद भुला के सिर्फ दुनियावी काम ही करने व्यर्थ के धंधे है, क्योंकि मौत आने से इनसे साथ समाप्त हो जाएगा) हे प्राणी! व्यर्थ के धंधे करने का कोई लाभ नहीं है, (क्योंकि इस जगत से) थोड़े ही समय में उठ के चले जाना है। हे प्राणी! (प्रभू की याद भुला के) अपना मानस जनम जूए में क्यूँ हारते हो? हे भाई! तू जल्दी ही परमात्मा की शरण पड़ जा।14।

नोट: जुआरी जूआ खेलता है और हार जाता है तो जूए–खाने में से बिल्कुल ख़ाली हाथ निकलता है। जो मनुष्य सिर्फ जगत के धंधों में ही व्यस्त रहता है, मौत आने पर धंधें यहीं पर ही रह जाते हैं, और मनुष्य यहां से जुआरिए की तरह बिल्कुल ख़ाली हाथ चल पड़ता है।

ठठै ठाढि वरती तिन अंतरि हरि चरणी जिन्ह का चितु लागा ॥ चितु लागा सेई जन निसतरे तउ परसादी सुखु पाइआ ॥१५॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: ठाढि = ठंड, शांति। सेई = वही। निसतरे = अच्छी तरह पार हो जाते हैं। तउ परसादी = तेरी कृपा से।

सरलार्थ: जिन मनुष्यों का मन परमात्मा के चरणों में टिका रहता है, उनके मन में ठंढ शांति बनी रहती है। हे प्रभू! दुनियां के टंटों में शांत-चिक्त रहके वहीपार गुजरते हैं जिनका मन (तेरे चरणों में) जुड़ा रहता है। तेरी मेहर से उनको आत्मिक सुख प्राप्त हुआ रहता है।15।

डडै ड्मफु करहु किआ प्राणी जो किछु होआ सु सभु चलणा ॥ तिसै सरेवहु ता सुखु पावहु सरब निरंतरि रवि रहिआ ॥१६॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: डंफु = दंभ, दिखावा। निरंतरि = निर+अंतर, बिना दूरी के। अंतरु = दूरी। सरेवहु = सिमरो।

सरलार्थ: हे जीव! जगत में जो कुछ पैदा हुआ है सब यहाँ से चले जाने वाला है (नाशवंत है)। किसी तरह का कोई दिखावा करने का कोई लाभ नहीं होगा (आत्मिक सुख विद्या आदि के दिखावे में नहीं है)। आत्मिक आनंद तभी मिलेगा अगर उस परमात्मा का सिमरन करोगे जो सब जीवों के अंदर एक-रस व्यापक है।16।

ढढै ढाहि उसारै आपे जिउ तिसु भावै तिवै करे ॥ करि करि वेखै हुकमु चलाए तिसु निसतारे जा कउ नदरि करे ॥१७॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: ढाहि = ढाह के, नाश करके। उसारै = उसारता है, बनाता है, पैदा करता है। तिवै = उसी तरह। वेखै = संभाल करता है। जा कउ = जिस जीव पर।

सरलार्थ: परमात्मा स्वयं ही जगत रचना को नाश करता है, स्वयं ही बनाता है, जैसे उसे अच्छा लगता है वैसे करता है। प्रभू जीव पैदा करके (सबकी) संभाल करता है, (हर जगह) अपना हुकम चला रहा है। (जीव सृजनहार को भुला के नाशवंत संसार में मगन रहता है, पर) जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर की नजर करता है, उसे (नाशवंत संसार के मोह में से) पार लंघा लेता है।17।

णाणै रवतु रहै घट अंतरि हरि गुण गावै सोई ॥ आपे आपि मिलाए करता पुनरपि जनमु न होई ॥१८॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: रवतु रहे = रमा रहे, साक्षात हो जाए, प्रगट हो जाए, अपना अस्तित्व प्रगट कर दे। सेई = वही मनुष्य। पुनरपि = (पुनः+ अपि) फिर भी, दुबारा कभी। पुनह = पुनः, दुबारा। अप = भी।

सरलार्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा अपना आप प्रगट कर दे, वह मनुष्य उसकी सिफत सालाह करने लग पड़ता है। (उसकी प्रीति पे रीझ के) ईश्वर स्वयं ही उसे अपने साथ मिला लेता है (उसकी सुरति अपनी याद में जोड़े रखता है) उस मनुष्य को बार-बार जनम नहीं मिलता (वह दुबारा जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता। पर हे मन! सिर्फ पढ़ लेने से, पण्डित बन जाने से ये दाति नसीब नहीं होती)।18।

ततै तारू भवजलु होआ ता का अंतु न पाइआ ॥ ना तर ना तुलहा हम बूडसि तारि लेहि तारण राइआ ॥१९॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: तारू = जिस में से तैर के ही पार हुआ जा सके, गहरा। भवजलु = संसार समुंद्र। अंत = दूसरा छोर। तरि = बेड़ी। तुलहा = काही पिलछी आदि व लकड़ी के डंडों से बंधा हुआ आसरा सा, जिस पे चढ़ के दरिया आदि से पार लांघ सकते हैं। बूडसि = डूब जाएंगे। तारण राइआ = हे तैराने के समर्थ!

सरलार्थ: ये संसार समुंद्र (जिसमें विकारों की बाढ़ जोर पकड़ती जा रही है) बहुत ही गहरा है, इसका दूसरा छोर नहीं मिलता। (इस में से पार लांघने के लिए) हमारे पास ना कोई बेड़ी है ना ही कोई तुलहा। बेड़ी तुलहे के बिना हम डूब जाएंगे। हे तैराने के समर्थ प्रभू! हमें पार लंघा ले।19।

थथै थानि थानंतरि सोई जा का कीआ सभु होआ ॥ किआ भरमु किआ माइआ कहीऐ जो तिसु भावै सोई भला ॥२०॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: थानि थनंतरि = थान थान अंतरि, जगह जगह में, हरेक जगह। भरमु = भटकना।

सरलार्थ: जिस परमात्मा का बनाया हुआ ये सारा जगत है, वही (इस जगत के) हरेक जगह में मौजूद है। (जीवों को मोहने वाली ये) माया और (माया का बिखरा हुआ) मोह भी सर्व-व्यापक प्रभू से अलग नहीं है। जो उस प्रभू को अच्छा लगता है वही (जगत में हो रहा है, और जीवों के वास्ते) ठीक हो रहा है (सो, हे मन! विद्या का मान करने की जगह उसकी रजा को समझ)।20।

ददै दोसु न देऊ किसै दोसु करमा आपणिआ ॥ जो मै कीआ सो मै पाइआ दोसु न दीजै अवर जना ॥२१॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: देऊ = मैं दूँ। करंमा = किये कामों। अवर जना = और लोगों को। कीआ = किया, करता हूँ। पाइआ = पाया, पा लिया, पाता हूँ।

सरलार्थ: (हे मन! अगर तू पढ़ के सच-मुच पण्डित हो गया है, तो ये याद रख कि) जैसे काम मैं करता हूँ, वैसा ही फल मैं पा लेता हूँ। (अपने किये कर्मों के अनुसार अपने ऊपर आए दुख-कलेशों के बारे में) और लोगों को दोष नहीं देना चाहिए। बुराई अपने कर्मों में ही होती है; (इस वास्ते हे मन! ये याद रख कि) मैं किसी और के माथे दोष मढ़ूँ (अपनी विद्या के बल के आसरे किसी और को दोषी ठहराने की जगह, हे मन! अपनी ही करनी को सुधारने की जरूरत है)।21।

धधै धारि कला जिनि छोडी हरि चीजी जिनि रंग कीआ ॥ तिस दा दीआ सभनी लीआ करमी करमी हुकमु पइआ ॥२२॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: जिनि हरि = जिस हरी ने। कला = सक्ता, ताकत। धारि छोडी = धार छोड़ी है, टिका रखी है। चीजी = करिश्में करने वाला। रंग = कई रंग तमाशे। करमी करमी = हरेक के अपने किए कर्मों के अनुसार। हुकमु पइआ = परमात्मा का हुकम चल रहा है।

सरलार्थ: जिस हरी ने (सारी सृष्टि में) अपनी सक्ता टिका रखी है। जिस चमत्कारी प्रभू ने इस रंगा-रंग की रचना की हुई है, सारे जीव उसी की बख्शिशों की दातें बरत रहे हैं, पर (इन दातों के बख्शने में) हरेक जीव के अपने-अपने किए कर्मों के अनुसार ही प्रभू का हुकम बरत रहा है (इस वास्ते हे मन! सिर्फ विद्या वाली चोंच-ज्ञान चर्चा कुछ नहीं सँवारती, अपनी करणी ठीक करने की जरूरत है)।22।

नंनै नाह भोग नित भोगै ना डीठा ना सम्हलिआ ॥ गली हउ सोहागणि भैणे कंतु न कबहूं मै मिलिआ ॥२३॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: नाह भोग = पति के (दिए) पदार्थ। भोगै = (हरेक जीव) बरतता है। न डीठा = मैंने उसे नहीं देखा है। हउ = मैं। सोहागणि = जीवित पति वाली, सौभाग्यशाली। भैणै = हे बहिन! हे सत्संगी सहेली! मैं = मुझे। गली = सिर्फ बातों से।

सरलार्थ: हे सत्संगी सहेलीए! (देख! सिर्फ विद्या को ही असल मनुष्यता समझ रखने का नतीजा!) जिस परमात्मा के दिए हुए पदार्थ हरेक जीव बरत रहा है, उसके अभी तक मैंने कभी दर्शन नहीं किए, उसे कभी हृदय में नहीं टिकाया। (विद्या के आसरे) मैं सिर्फ बातों से ही अपने आपको सोहागनि कहती रही, पर कंत प्रभू मुझे अभी तक कहीं नहीं मिला।23।

पपै पातिसाहु परमेसरु वेखण कउ परपंचु कीआ ॥ देखै बूझै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥२४॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: परपंच = संसार। वेखण कउ = ता कि जीव इस परपंच में परमेश्वर को देखे। देखै = संभाल करता है। बूझै = हरेक जीव की जरूरत को समझता है। रवि रहिआ = व्यापक है।

सरलार्थ: परमेश्वर (इस बारे में संसार का) बादशाह है, उसने खुद यह संसार रचा है, कि जीव इसमें उसका दीदार करें। रचनहार प्रभू हरेक जीव की संभाल करता है, हरेक दिल की समझता जानता है, वह सारे संसार में हर जगह व्यापक है। (पर हे मन! तू उस प्रभू के दर्शन करने की जगह अपनी विद्या में ही अहंकारी हुआ बैठा है।)।24।

फफै फाही सभु जगु फासा जम कै संगलि बंधि लइआ ॥ गुर परसादी से नर उबरे जि हरि सरणागति भजि पइआ ॥२५॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: जमकै संगलि = यम की जंजीरों ने। बंधि लइआ = बाँध रखा है। से नर = वह लोग। उबरे = बच गए हैं। जि = जो। भजि = दौड़ के।

सरलार्थ: (हे मन!) सारा संसार (माया की किसी ना किसी) बंधन में बँधा हुआ है, जम के रस्से ने बाँध रखा है (भाव, माया के प्रभाव में आ के संसार ऐसे कर्म करता जा रहा है कि जम के काबू में आता जाता है)। (हे मन! पण्डित होने का गुमान करके तू भी उसी जंजीर में बँधा हुआ है)। इस रस्से से गुरू की कृपा से सिर्फ वही लोग बचे हैं, जो दौड़ के परमात्मा की शरण जा पड़े हैं।25।

बबै बाजी खेलण लागा चउपड़ि कीते चारि जुगा ॥ जीअ जंत सभ सारी कीते पासा ढालणि आपि लगा ॥२६॥ {पन्ना 433}

शब्दार्थ: चउपड़ि = (चउ = चार। पड़ि = पल्ले वाला) चार पल्लों वाला कपड़ा। सारी = नर्दें, गोटें, (जो चौपड़ की खेल खेलने के समय उस कपड़े में बने हुए खानों में रखी जाती हैं)। पासा = चार या छे पासों वाला हाथी दाँत का टुकड़ा जो चौड़ाई में छोटा सा होता है और उँगली के करीब लंबा होता है। इसके चारों तरफ बिंदियों के निशान होते हैं। ऐसे चार या छे पासे मिला के फेंके जाते हैं, और सामने आई बिंदियों की गिनती के अनुसार नर्दें चौपड़ के खानों में डाली जाती हैं।

सरलार्थ: हे मन! (अगर तू पढ़ा-लिखा पंडित है तो संसार को चौपड़ की खेल समझ, विद्या पर गुमान करने की जगह एक सुचॅजी नर्द बन के प्रभू की रजा-रूपी हाथों में चल, ता कि पुग जाए सफल हो जाए, देख!) परमात्मा स्वयं (चौपड़ की) खेल खेल रहा है, चार युगों को उसने (चौपड़ के) चार पल्ले बनाया है, सारे जीव-जंतु नर्दें बनीं हुई हैं, प्रभू खुद पासे फेंकता है (कई नरदें पुगती जाती हैं, कई उन चारों खानों के चक्कर में ही पड़ी रहती हैं।)।26।

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