श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 415 आसा महला १ ॥ मनु मैगलु साकतु देवाना ॥ बन खंडि माइआ मोहि हैराना ॥ इत उत जाहि काल के चापे ॥ गुरमुखि खोजि लहै घरु आपे ॥१॥ बिनु गुर सबदै मनु नही ठउरा ॥ सिमरहु राम नामु अति निरमलु अवर तिआगहु हउमै कउरा ॥१॥ रहाउ ॥ इहु मनु मुगधु कहहु किउ रहसी ॥ बिनु समझे जम का दुखु सहसी ॥ आपे बखसे सतिगुरु मेलै ॥ कालु कंटकु मारे सचु पेलै ॥२॥ इहु मनु करमा इहु मनु धरमा ॥ इहु मनु पंच ततु ते जनमा ॥ साकतु लोभी इहु मनु मूड़ा ॥ गुरमुखि नामु जपै मनु रूड़ा ॥३॥ गुरमुखि मनु असथाने सोई ॥ गुरमुखि त्रिभवणि सोझी होई ॥ इहु मनु जोगी भोगी तपु तापै ॥ गुरमुखि चीन्है हरि प्रभु आपै ॥४॥ मनु बैरागी हउमै तिआगी ॥ घटि घटि मनसा दुबिधा लागी ॥ राम रसाइणु गुरमुखि चाखै ॥ दरि घरि महली हरि पति राखै ॥५॥ इहु मनु राजा सूर संग्रामि ॥ इहु मनु निरभउ गुरमुखि नामि ॥ मारे पंच अपुनै वसि कीए ॥ हउमै ग्रासि इकतु थाइ कीए ॥६॥ गुरमुखि राग सुआद अन तिआगे ॥ गुरमुखि इहु मनु भगती जागे ॥ अनहद सुणि मानिआ सबदु वीचारी ॥ आतमु चीन्हि भए निरंकारी ॥७॥ इहु मनु निरमलु दरि घरि सोई ॥ गुरमुखि भगति भाउ धुनि होई ॥ अहिनिसि हरि जसु गुर परसादि ॥ घटि घटि सो प्रभु आदि जुगादि ॥८॥ राम रसाइणि इहु मनु माता ॥ सरब रसाइणु गुरमुखि जाता ॥ भगति हेतु गुर चरण निवासा ॥ नानक हरि जन के दासनि दासा ॥९॥८॥ {पन्ना 415} शब्दार्थ: मैगलु = हाथी। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ, माया ग्रसित। देवाना = पागल। बन खंड = जंगल के एक खण्ड में, संसार जंगल में। मोहि = मोह के कारण। हैराना = घबराया हुआ। इत उत = इधर उधर, हर तरफ। जाहि = जाते हैं, भटकते हैं। काल = मौत का डर, आत्मिक मौत। चापे = दबाए हुए। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरू के सन्मुख है। लहै = पा लेता है। आपे = अपने अंदर ही।1। ठउरा = एक जगह (टिकने वाला)। अवर = और रस। कउरा = कड़वा।1। रहाउ। मुगधु = मूर्ख। कहहु = बताओ। रहसी = (अडोल) रहेगा। जम का दुख = आत्मिक मौत का दुख। कुंटकु = काँटा, काँटे की तरह चुभने वाला, दुखदाई। कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। पेलै = प्रेरता है, धकेलता है।2। करमा धरमा = धार्मिक रस्में। पंच ततु ते जनमा = पाँचों तत्वों से जन्मा हुआ, जनम मरण में ले जाने वाला। मूढ़ा = मूर्ख। रूढ़ा = सुंदर।3। असथाने = टिकाता है, जगह देता है। सोई = उस प्रभू को। त्रिभवण = त्रिभवणी प्रभू की, उस प्रभू की जो तीनों भवनों में व्यापक है। चीनै = खोजता है, तलाशता है। आपै = अपने अंदर।4। घटि घटि = हरेक घट में। मनसा = मायावी फुरना। दुबिधा = दुचित्तापन, भटकना। रसाइणु = रसों का घर। दरि = दर पे। घरि = घर में। महली = महल का मालिक प्रभू।5। सूर = सूरमा। संग्रामि = रण भूमि में। नामि = नाम में। अपुनै वसि = अपने वश में। ग्रासि = ग्रस के, खा के। इकतु थाइ = एक ही जगह में।6। अन = अन्य। जागे = जाग पड़ता है, सचेत हो जाता है। अनहद = एक रस। सुणि = सुन के। मानिआ = मान गया, गिझ गया। विचारी = विचार के। चीनि् = खोज के।7। दरि घर = अंदर बाहर (हर जगह)। सोई = उसी प्रभू को। धुनि = लगन। भाउ = प्रेम। अहि = दिन। निसि = रात। परसादि = किरपा से। आदि = सारी सृष्टि का आरम्भ। जुगादि = जुगों के आदि से।8। रसाइणि = रसायन में, रसों के घर में। हेतु = प्रेम।9। सरलार्थ: गुरू के शबद (में जुड़े) बिना मन एक जगह टिका नहीं रह सकता। (हे भाई! इसे टिकाने के वास्ते गुरू-शबद के द्वारा) परमात्मा का नाम सिमरो जो बहुत ही पवित्र है, और अन्य रसों को छोड़ दो, जो कड़वे भी हैं और अहंकार को बढ़ाते हैं।1। रहाउ। (गुरू-शबद से टूट के) माया-ग्रसित मन पागल हाथी (की तरह) है, माया के मोह के कारण (संसार-) जंगल में भटकता फिरता है। (माया के मोह के कारण) जिन्हें आत्मिक मौत दबा लेती है वे इधर-उधर भटकते फिरते हैं। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है वह ढूँढ के अपने अंदर परमात्मा का ठिकाना पा लेता है (और भटकनों में नहीं पड़ता)।1। (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन अपनी सूझ गवा लेता है, फिर बताएं, ये भटकने से कैसे बच सकता है? अपने असल की समझ के बिना ये मन आत्मिक मौत का दुख सहेगा ही। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं बख्शिश करता है, उसे गुरू मिल जाता है, वह दुखदाई आत्मिक मौत रूपी काँटे काल-कंटक को मार के निडर हो जाता है, सदा स्थिर प्रभू (उसे आत्मिक जीवन की ओर) प्रेरित करता है।2। (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन और ही धार्मिक रस्में करता फिरता है, और जनम-मरण के चक्कर मेंलिए फिरता है। माया-ग्रसित ये मन लालची बन जाता है, मूर्ख हो जाता है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के प्रभू का नाम जपता है उसका मन सुंदर (संरचना वाला बन जाता) है।3। गुरू के सन्मुख हुए मनुष्य का मन परमात्मा को (अपने अंदर) जगह देता है, उसे उस प्रभू की सूझ हो जाती है जो तीनों भवनों में व्यापक है। (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन कभी योग-साधना करता है कभी माया के भोग भोगता है कभी तपों से शरीर को कष्ट देता है (पर आत्मिक आनंद उसको कभी नहीं मिलता)। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है वह हरी परमात्मा को अपने अंदर खोज लेता है।4। (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन कभी (अपनी ओर से) अहंकार को त्याग के (दुनिया त्याग के) वैरागवान बन जाता है, कभी हरेक शारीर में (माया-ग्रसित मन को) मायावी फुरने व दुबिधा भरे विचार आ चिपकते हैं। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ के रसों का घर नाम-रस चखता है, उसे अंदर-बाहर महल का मालिक प्रभू (दिखता है) जो (माया के मोह से बचा के) उसकी इज्जत रखता है।5। (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन कभी रणभूमि में राजा और शूरवीर बना हुआ है। पर जब ये मन गुरू की शरण पड़ के प्रभू नाम में जुड़ता है तो (माया के हमलों से) निडर हो जाता है, कामादिक पाँचों (वैरियों) को मार देता है, अपने बस में कर लेता है, अहंकार को खत्म कर के इन सभी को एक ही जगह पर (काबू) कर लेता है।6। गुरू के सन्मुख हुआ ये मन राग (द्वैष) व अन्य स्वाद त्याग देता है, गुरू की शरण पड़ के ये मन परमात्मा की भक्ति में जुड़ के (माया के हमलों की ओर से) सुचेत हो जाता है। जो मनुष्य गुरू के शबद को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है, वह (अंदरूनी आत्मिक खेड़े के) एक रस (हो रहे गीत) को सुन-सुन के (उस में) समा जाता है, अपने आपे को खोज के परमात्मा का रूप हो जाता है।7। (जब) ये मन (गुरू के सन्मुख होता है तब) पवित्र हो जाता है, उसको अंदर-बाहर वह परमात्मा ही दिखता है। गुरू के सन्मुख हो के (इस मन के अंदर) भक्ति की लगन लग पड़ती है, (इसके अंदर प्रभू का) प्यार (जाग पड़ता है) गुरू की कृपा से ये मन दिन-रात परमात्मा की सिफत सालाह करता है। जो परमात्मा सारी सृष्टि का आदि है जो परमात्मा जुगों के आरम्भ से मौजूद है वह इस मन को हरेक शरीर में बसता दिखाई दे जाता है।8। गुरू के सन्मुख हो के ये मन रसों के घर नाम-रस में मस्त हो जाता है, गुरू के सन्मुख होने से ये मन सब रसों के श्रोत प्रभू को पहचान लेता है। जब गुरू के चरणों में (इस मन का) निवास होता है तो (इसके अंदर परमात्मा की) भक्ति का प्रेम (जाग पड़ता है)। हे नानक! तब ये मन गुरमुखों के दासों का दास बन जाता है।9।8। |
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धन्यवाद! |