श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 410 आसावरी महला ५ ॥ एका ओट गहु हां ॥ गुर का सबदु कहु हां ॥ आगिआ सति सहु हां ॥ मनहि निधानु लहु हां ॥ सुखहि समाईऐ मेरे मना ॥१॥ रहाउ ॥ जीवत जो मरै हां ॥ दुतरु सो तरै हां ॥ सभ की रेनु होइ हां ॥ निरभउ कहउ सोइ हां ॥ मिटे अंदेसिआ हां ॥ संत उपदेसिआ मेरे मना ॥१॥ जिसु जन नाम सुखु हां ॥ तिसु निकटि न कदे दुखु हां ॥ जो हरि हरि जसु सुने हां ॥ सभु को तिसु मंने हां ॥ सफलु सु आइआ हां ॥ नानक प्रभ भाइआ मेरे मना ॥२॥४॥१६०॥ {पन्ना 410} शब्दार्थ: ऐका ओट = एक परमात्मा का आसरा। गहु = पकड़। कहु = उचार। आगिआ = रजा, हुकम। सहु = सह, मान। सति = ठीक, सच्ची (जान के)। मनहि = मन में। निधानु = (सारे पदार्थों का) खजाना। लहु = ले। सुखहि = आत्मिक आनंद में।1। रहाउ। जो = जो। मरै = (माया के मोह से) अछोह हो जाता है। दुतरु = (दुष्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल हो। रैनु = चरण धूड़। होइ = हो जाता है। कहउ = मैं कहता हूँ। सोइ = उस परमात्मा को ही।1। जिसु जन = जिस मनुष्य को। तिसु निकटि = उसके नजदीक। सभु को = हरेक जीव। मंने = आदर देता है। सु = वह मनुष्य। सफल = कामयाब। प्रभू भाइआ = प्रभू को प्यारा लगा।2। सरलार्थ: हे मेरे मन! एक परमात्मा का ही पल्ला पकड़, सदा गुरू की बाणी उचारता रह। हे मेरे मन! परमात्मा की रजा को मीठी करके मान। (हे भाई!) अपने मन में बसते सारे गुणों के खजाने प्रभू को पा ले। हे मेरे मन! (इस तरह सदा) आत्मिक आनंद में लीन रहना है।1। रहाउ। हे मेरे मन! जो मनुष्य काम-काज करता हुआ माया के मोह से अछोह रहता है, वह मनुष्य इस संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है। जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है, वह मनुष्य सभी के चरणों की धूल हुआ रहता है। (हे मेरे मन! अगर गुरू की कृपा हो तो) मैं भी उस निरभय परमात्मा की सिफत सालाह करता रहूँ। हे मेरे मन! जिस मनुष्य को सतिगुरू की शिक्षा प्राप्त हो जाती है उसके सारे चिंता-फिक्र मिट जाते हैं।1। हे मेरे मन! जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का अनंद प्राप्त हो जाता है, कभी कोई दुख उसके नजदीक नहीं फटकता। हे मेरे मन! जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह सदा सुनता रहता है (दुनिया में) हरेक मनुष्य उसका आदर-सत्कार करता है। हे नानक! (कह–) हे मेरे मन! जगत में पैदा हुआ वही मनुष्य कामयाब जीवन वाला है जो परमात्मा को प्यारा लग गया है।2।4।160। आसावरी महला ५ ॥ मिलि हरि जसु गाईऐ हां ॥ परम पदु पाईऐ हां ॥ उआ रस जो बिधे हां ॥ ता कउ सगल सिधे हां ॥ अनदिनु जागिआ हां ॥ नानक बडभागिआ मेरे मना ॥१॥ रहाउ ॥ संत पग धोईऐ हां ॥ दुरमति खोईऐ हां ॥ दासह रेनु होइ हां ॥ बिआपै दुखु न कोइ हां ॥ भगतां सरनि परु हां ॥ जनमि न कदे मरु हां ॥ असथिरु से भए हां ॥ हरि हरि जिन्ह जपि लए मेरे मना ॥१॥ साजनु मीतु तूं हां ॥ नामु द्रिड़ाइ मूं हां ॥ तिसु बिनु नाहि कोइ हां ॥ मनहि अराधि सोइ हां ॥ निमख न वीसरै हां ॥ तिसु बिनु किउ सरै हां ॥ गुर कउ कुरबानु जाउ हां ॥ नानकु जपे नाउ मेरे मना ॥२॥५॥१६१॥ {पन्ना 410} शब्दार्थ: मिलि = मिल के। जसु = सिफत सालाह के गीत। गाईअै = गाना चाहिए। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाईअै = हासिल हो जाता है। उआ रस = उस स्वाद में। बिधे = समा गया। ता कउ = उस (मनुष्य) को। सिधे = सिद्धियां। अनदिनु = हर रोज। जागिआ = (माया के हमलों से) सुचेत रहता है। बड भागिआ = बड़े भाग्यों वाला।1। रहाउ। पग = पैर, चरण। धोईअै = आओ धोएं। दुरमति = खोटी मति। खोईअै = दूर कर लेते हैं। दासह रेनु = (प्रभू के) दासों की चरण धूड़। बिआपै न = जोर नहीं डाल सकता। परु = पड़। सरनि परु = आसरा ले। जनमि = जनम ले के। न मरु = नहीं मरेगा। से = वह बंदे। असथिरु = अडोल आत्मिक अवस्था वाले।1। साजनु = सज्जन। मूं = मुझे। द्रिढ़ाइ = पक्का कर दे। मनहि = मन में। सोइ = उस (परमात्मा) को। अराधि = याद किया कर। निमख = आँख झपकने जितना समय। किउ सरै = अच्छा नहीं लग सकता। कउ = को, से। जाउ = मैं जाता हूँ, जाऊँ। नानक जपे = नानक जपता है।2। सरलार्थ: हे भाई! (साध-संगति में) मिल के परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाने चाहिए, (इस तरह) आत्मिक जीवन का सबसे ऊँचा दर्जा हासिल हो जाता है। जो मनुष्य (सिफत सालाह के) उस स्वाद में रम जाता है, उसे (मानो) सारी ही सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। हे नानक! (कह) हे मेरे मन! (जो मनुष्य प्रभू की सिफत सालाह करता है, वह मनुष्य) बहुत बड़ा भाग्यशाली हो जाता है, वह हर समय (विकारों के हमलों से) सुचेत रहता है।1। रहाउ। हे भाई! संत जनों के चरण धोने चाहिए (स्वैभाव त्याग के संतों के चरण पड़ना चाहिए, इस तरह मन की) खोटी मति दूर हो जाती है। हे भाई! प्रभू के सेवकों की चरण धूड़ बना रह (इस तरह) कोई दुख अपना जोर नहीं डाल सकता। हे भाई! संत जनों की शरण पड़ा रह, जनम-मरण का चक्कर नहीं रहेगा। हे मेरे मन! जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम जपते हैं, वे अडोल आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं।1। (हे मेरे प्रभू!) तू ही (मेरा) सज्जन है, तू ही (मेरा) मित्र है, मुझे (मेरे दिल में अपना) नाम पक्का करके टिका दे। (हे भाई!) उस परमात्मा के बिना और कोई (असल सज्जन-मित्र) नहीं है, सदा उस (प्रभू) को ही सिमरता रह। (वह परमात्मा) आँख झपकने जितने समय के लिए भी भूलना नहीं चाहिए (क्योंकि) उस (की याद) के बिना जीवन सुखी नहीं गुजरता। हे मेरे मन! मैं (नानक) गुरू से सदके जाता हूँ (क्योंकि गुरू की कृपा से ही) नानक (परमात्मा का) नाम जपता है।2।5।161। आसावरी महला ५ ॥ कारन करन तूं हां ॥ अवरु ना सुझै मूं हां ॥ करहि सु होईऐ हां ॥ सहजि सुखि सोईऐ हां ॥ धीरज मनि भए हां ॥ प्रभ कै दरि पए मेरे मना ॥१॥ रहाउ ॥ साधू संगमे हां ॥ पूरन संजमे हां ॥ जब ते छुटे आप हां ॥ तब ते मिटे ताप हां ॥ किरपा धारीआ हां ॥ पति रखु बनवारीआ मेरे मना ॥१॥ इहु सुखु जानीऐ हां ॥ हरि करे सु मानीऐ हां ॥ मंदा नाहि कोइ हां ॥ संत की रेन होइ हां ॥ आपे जिसु रखै हां ॥ हरि अम्रितु सो चखै मेरे मना ॥२॥ जिस का नाहि कोइ हां ॥ तिस का प्रभू सोइ हां ॥ अंतरगति बुझै हां ॥ सभु किछु तिसु सुझै हां ॥ पतित उधारि लेहु हां ॥ नानक अरदासि एहु मेरे मना ॥३॥६॥१६२॥ {पन्ना 410} शब्दार्थ: कारन = वसीला, बनाने वाला। करन = जगत। मूं = मुझे। करहि = (जो कुछ) तू करता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुखि = आनंद में। सोईअै = लीन रहें। मनि = मन में। दरि = दर पे।1। रहाउ। संगमे = मेल में, संगति में। साधू = गुरू। संजमे = संजम में। आपा = स्वै भाव। ताप = दुख कलेश। पति = इज्जत। नवारीआ = हे जगत के मालिक प्रभू! धारीआ = धार के।1। मानीअै = परवान करें। रेन = चरण धूड़। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल।2। अंतरगति = अंदर की छुपी बात, दिल की बात। पतित = विकारों में गिरे हुए। उधारि लेहु = बचा ले।3। सरलार्थ: हे मेरे मन! (प्रभू दर पर ऐसे अरदास कर- हे प्रभू!) तू सारे जगत का रचनहार है (तेरे बिना) मुझे कोई और नहीं सूझता (जो ये ताकत रखता हो)। हे प्रभू! जो कुछ तू करता है वही (जगत में) वरतता है। हे मेरे मन! (अगर अपनी चतुराईआं छोड़ के) परमात्मा के दर पर गिर पड़ें तो मन में हौसला बंध जाता है, आत्मिक अडोलता में, आनंद में लीन रह सकते हैं।1। हे मेरे मन! गुरू की संगति में रहने से वह जुगति पूरी तरह से आ जाती है जिससे ज्ञानेन्द्रियां वश में आ जाती हैं। हे मन! जिस वक्त (मनुष्य के अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है (और गुरू की ओट ठीक लगने लगती है) उस वक्त से (मन के) सारे दुख कलेश दूर हो जाते हैं। सो हे मेरे मन! (गुरू की संगति में रहके प्रभू-दर पर अरदास कर, कह–) हे जगत के मालिक प्रभू! मेरे पर मेहर कर, मेरी (शरण पड़े की) इज्जत रख।1। हे मेरे मन! जो कुछ परमात्मा करता है उसे (मीठा करके) मानना चाहिए, इसे ही सुख (का मूल) समझना चाहिए। हे मन! जो मनुष्य संत जनों की चरण-धूड़ बनता है उसको (जगत में) कोई बुरा नहीं दिखता। हे मेरे मन! परमात्मा स्वयं ही जिस मनुष्य को (विकारों से) बचाता है वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल पीता है।2। हे मेरे मन! जिस मनुष्य का कोई भी सहाई नहीं बनता (अगर वह प्रभू की शरण में आ पड़े तो) वह प्रभू उसका रखवाला बन जाता है। वह परमात्मा हरेक के दिल की बात जान लेता है, उसको हरेक जीव की हरेक मनोकामना की समझ आ जाती है। (इस वास्ते) हे मेरे मन! परमात्मा के दर पर यूँ अरजोई कर- हे प्रभू! (हमें विकारों में) गिरे हुए जीवों को (विकारों से) बचा ले, (तेरे दर पर, मेरी) नानक की यही अरदास है।3।6।162। |
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धन्यवाद! |