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महर्षि मेँहीँ-जन्मशती अभिनन्दन-ग्रंथ

मंगलमय संस्मरण 

श्रीगुरुदेव के पावन संस्मरण (बाबा श्री श्रीधर दास जी महाराज)
 हमलोग सन् 1933 ई0 में मुरादाबाद गये थे। वहाँ धर्म-सम्मेलन था। सभी धर्मों के लोगों को अपने-अपने धर्म की खूबी कहने के लिये कहा गया था। वहाँ आर्य-समाजी और देव-सामाजी में बड़ा विरोध था। आर्य-समाज के प्रवक्ता देव-समाजी की बात नहीं सुनना चाहते थे और देवसमाजी आर्य-समाजी की बात सुनना नहीं चाहते थे। आर्य-समाजी कहते थे कि ‘ईश्वर नहीं है’-यह बात हम कान से नहीं सुनना चाहते हैं। देव-समाजी कहते थे कि-‘ईश्वर है’, यह बात हम कान से सुनना नहीं चाहते हैं। इस सम्मेलन के सभापति थे-पूज्य नन्दन बाबा। उन्होंने अपने गुरु-भाई पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज से प्रवचन देने के लिये निवेदन किया। उस सम्मेलन में परमाराध्यदेव गुरुदेव का गम्भीर, ज्ञान-मण्डित भाषण निम्नलिखित हुआ- “जो कोई ऐसा कहते हैं कि ईश्वर है, तो कोई ईश्वर को प्रत्यक्ष दिखा नहीं सकता। जो कहते हैं कि ईश्वर नहीं है, तो उनके ऐसा कहने से ईश्वर भाग नहीं जायगा। ईश्वर है और नहीं है, इन दोनों बातों को तबतक के लिए अलग रखें। और आप विचारें कि आप क्या चाहते हैं-सुख या दुःख? दुःख कोई स्वीकार नहीं करेंगे। सभी सुख ही चाहेंगे; लेकिन हम तो महादुःख में पड़े हुए हैं। बार-बार जन्म लेना, मरना, यह आवागमन का चक्र लगा ही रहता है। इससे छुटकारा का कोई उपाय, युक्ति चाहिये। दूसरी बात हम कौन हैं? इसपर भी विचार करें। क्या हम शरीर हैं? हम कहते हैं कि हमारा हाथ है, हमारी आँखें हैं, हमारी नाक है, हमारा कान है आदि, तो ये सब हमारी इन्द्रियाँ हैं। हम इनसे कोई भिन्न तत्त्व हैं। अपने को जानना ही सबसे बड़ा ज्ञान है। सबसे बड़ी बात है कि हम सुख या शान्ति चाहते हैं। यह सुख या शान्ति कहीं बाहर नहीं, अपने अन्दर है और उसे पाने के लिए सद्युक्ति है।” इस प्रकार श्रीसद्गुरु महाराज जी के घंटों व्याख्यान हुए, जिसे सुन कर सभी बड़े प्रभावित हुए। उस धर्म-सम्मेलन में एक अंग्रेज भी आये थे। उनकी बुद्धि बड़ी ही तीक्ष्ण थी। कहा जाता था कि सात आदमी अलग-अलग व्याख्यान देते थे, और वे एक किताब लेकर पढ़ते थे। बाद में वे सातों आदमी का जो व्याख्यान होता था, उसे वे कह देते थे। उनका मस्तिष्क उस समय एक लाख रुपये में बिक चुका था। ब्रिटेन की सरकार ने खरीद लिया। जब वे मरने लगेंगे, तो उनके मस्तिष्क को चीरा जायेगा और देखा जायगा कि उनके मस्तिष्क में क्या विशेषता है। वे श्री श्रीसद्गुरु महाराज के प्रवचन से खुश हुए। उनको श्रीसद्गुरु महाराज का दिया गया प्रवचन अंग्रेजी में समझाया गया। वहीं एक आर्य-समाजी से श्रीसद्गुरु महाराज की वार्त्ता हुई। श्रीसद्गुरु महाराज ने पूछा- “महाराज! शब्द-साधना के बारे में आपका क्या मत है? उन्होंने कहा- “कान बन्द करने से तो रग-रेशों की आवाजें होती हैं। इन आवाजों को सुनने से क्या लाभ?” श्रीसद्गुरु महाराज ने कहा- “इस तरह शब्द-साधन नहीं किया जाता है।” उन्होंने कहा- “तब कैसे सुना जाता है जी?” श्रीसद्गुरु महाराज ने कहा कि एकविन्दुता पर शब्द सुना जाता है। एकविन्दुता पर सूक्ष्म नादों को ग्रहण किया जाता है। वहाँ रग-रेशों की आवाजें नहीं होती हैं। वे कुछ देर चुप रहने के बाद बोले कि हो सकता है। वहाँ से श्रीसद्गुरु महाराज रायबरेली चले गये।
‘गुर पूरे की बेअन्त बड़ाई’
 गुरु नानक देवजी महाराज फरमाते हैं- “पूरे गुरु की महिमा-बड़ाई का अन्त नहीं है।” जिज्ञासा होती है-पूरे गुरु कौन? उत्तर में निवेदन है-
  “जीवनकाल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत पद में समाधि-समय लीन होती है और पिण्ड में बरतने के समय उन्मनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवन्मुक्त परम सन्त पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं। पूरे और सच्चे सद्गुरु का मिलना परम प्रभु सर्वेश्वर के मिलने के तुल्य ही है।” (सत्संग-योग, भाग-4) अनन्त-स्वरूपी सर्वेश्वर को प्राप्त किये सन्त सद्गुरु की शक्ति अपरिमित होती है। उनकी कितनी भी स्तुति क्यों न की जाय, परिमित ही रहेगी। इसी दृष्टि को अपनाये रहकर हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित श्रीसद्गुरु महाराजजी के ये प्रीति-वाक्य हैं-
 “गुरु गुण अमित अमित को जाना। संक्षेपहिँ सब करत बखाना।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
 सन्त कबीर गुरु-गुण गाते अघाते नहीं। वे कहते हैं- “समस्त पृथ्वी को कागज बनाया जाय, सभी वृक्षों की लेखनी बनायी जायँ और सप्तसिन्धु के सलिल की स्याही बनाकर गुरु-गुण लिखा जाय, तब भी पूरा नहीं पड़ता।”
 सद्ग्रन्थों की सूक्ति है- “भले ही सभी समुद्रों की थाह ले ली जाय, उसके पानी का वजन कर लिया जाय, गंगातटवर्त्ती रेणुओं की गणना कर संख्या में बाँध ली जाय और गगन के ग्रह-नक्षत्रें को एक साथ साधकर हाथ में कर लिया जाय; किन्तु सन्त-सद्गुरु के गुण-पुंज का वर्णन कर कोई इतिश्री नहीं कर सकता।”
 विवेक कहता है- “विद्या-वरदा वीणा-पाणि-जैसे वक्ता और गणपति-जैसे लेखन-कर्त्ता से भी गुरु की सम्पूर्ण महिमा-विभूति कही वा लिखी नहीं जा सकती। और तो और चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षण्मुख कार्त्तिकेय और सहस्त्रमुख शेष भी जिनकी कीर्त्ति गाकर निःशेष नहीं कर सकते, वहाँ मुझ-जैसा गोबर-गणेश कहाँ तक कुछ विशेष कह सकता है?”
 वास्तविक बात यह है- “जो सन्त-सद्गुरु अनन्त नेत्र का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात्कार करानेवाले हैं, उन अनन्त महिमाधारी और अनन्त उपकारी गुरु का यशगान कर आक्सान कौन कर सकता है?” फिर भी, जैसे दिनकर-भक्त दिवाकर को दीप दिखाकर तुष्ट होते हैं अथवा जिस तरह तीव्रगामी गरुड़ को गगन में गमन करते देख मकान के अन्दर मच्छड़ भी अपना पर फैलाकर कुछ गुनगुनाता है, उसी तरह यह अकिंचन भी गुरुदेव का कुछ गुण-गुंजन कर मन को संतुष्ट करना चाहता है।
 प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित श्रीसद्गुरु महाराज जी नरतन-धारण करने के कारण नरलीला-हेतु शरीर से कुछ दिनों के लिये अस्वस्थ हो गये थे। पटना के ख्यातिप्राप्त डाक्टरोंऽ ने श्रद्धा-संयुक्त हो आपकी सफल चिकित्सा एवं सेवा की। खासकर डा0 नन्दलाल मोदी साहब एवं उनकी धर्मपत्नी धर्मशीला स्व0 सूरज मोदी ने गुरुदेव की सेवा के लिये अपने घर के द्वार ही नहीं, हृदय के द्वार भी खोल दिये थे। परम पूज्य गुरुदेव के सहित उनके सभी सेवकों को उन्होंने अपने भवन में कई महीने तक ठहराया और तन, मन, धन से सभी प्रकार की सेवाएँ कीं। चिकित्सा पूरी हो जाने के पश्चात् आपका शरीर रोग-मुक्त हो चुका था; किन्तु दुर्बलता-युक्त था। आप पटना से अपने आश्रम कुप्पाघाट-भागलपुर पधारे। यहाँ के स्व0 डॉ0 रामवदन सिंह जी प्रत्येक महीने की सतरह तारीख को एक इंजेक्शन देते थे, दुर्बलता दूर करने के लिये। सन् 1973 ईस्वी की चार फरवरी का प्रसंग है। करुणा-वरुणालय गुरुदेव ने मुझसे कहने की कृपा की- “आगामी 17 फरवरी को डाक्टर रामवदन बाबू इंजेक्शन दे सकेंगे? नहीं दे सकेंगे।” मैंने निवेदन किया- “गुरुदेव! वे तो वचन के बड़े पक्के हैं। निश्चित तिथि में उपस्थित होकर इंजेक्शन दे जाते हैं। इस बार वे क्यों नहीं इंजेक्शन दे सकेंगे?” गुरुदेव मुस्कुराते हुए बोले- “समय आने दीजिये, देखियेगा।” पुनः बोले- “ईश्वर की लीला देखिये। उनके नहीं आने का कारण मैं जानता हूँ और आप नहीं।”
 मैंने हाथ जोड़कर कहा- “हुजूर ने कितनी बड़ी तपस्या की है। योग-साधना की है। ईश्वर-भजन कर ईश्वर-स्वरूप हो गये हैं। हुजूर नहीं जानेंगे, तो कौन जानेगा? मैंने क्या किया है? कुछ भी नहीं।” मेरे निश्छल और विनय-भरे वचन सुनकर गुरुदेव का कमलमुख खिल उठा। उन्होंने करुणा की दृष्टि से मेरी ओर अवलोकन करते हुए बड़े ही प्रसन्न मन से कहा- “आपकी तपस्या मेरी सेवा है। आपने मेरी बड़ी सेवा की है। मेरे बिना आप नहीं रह सकते और आपके बिना मुझको नहीं बनेगा। मैं वरदान देता हूँ कि जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ आप रहेंगे।”
 मैंने पुनः करबद्ध प्रार्थना कर निवेदन किया- “अभी जबतक गुरुदेव के स्थूल शरीर की सेवा करने का सौभाग्य दास को प्राप्त है, तबतक तो हुजूर जहाँ रहेंगे, वहाँ इस अधम को रखेंगे; यह तो ठीक है। लेकिन कभी-न-कभी तो शरीर का वियोग होगा। उस समय हुजूर तो ईश्वर में मिलकर एक हो जायेंगे, इस असार संसार में नहीं आयेंगे और मैं तो इस संसार में-आवागमन के चक्र में घूमता रहूँगा। तब हम दोनों एक साथ कैसे रह सकेंगे?” मेरी बात श्रवण कर गुरुदेव ने हँसते हुए उत्तर देने की कृपा की- “आप संसार में आयेंगे, मैं भी संसार में आऊँगा।” मैंने पाणिबद्ध हो जिज्ञासा की- “गुरुदेव! जो कोई साधना कर मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार में पुनः आते नहीं। हुजूर कैसे आयेंगे?” गुरुदेव गम्भीर स्वर में बोले-लोगों का कल्याण करने के लिये आऊँगा। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध एक जन्म का नहीं, कई जन्मों का होता है। मेरा और आपका सम्बन्ध ‘Q’ और ‘U’ का है। उपर्युक्त बातें तो हमारे परमाराध्यदेव जी ने एकान्त में व्यक्तिगत रूप से मुझसे कहने की अनुकम्पा की थी; किन्तु दि0 27 दिसम्बर 1981 ई0 को सामूहिक सत्संग के अवसर पर उन्होंने सबके समक्ष स्पष्ट घोषणा की- “मोक्ष तक जाना, एक ही जन्म की बात नहीं है। इसके लिये बहुत जन्मों तक साधन करना होगा। इसीलिये-
 “कहै कबीर सुनो धर्म आगरा । अमित हंस लै पार उतर भव सागरा।।”
 इसी तरह मैं भी एकदम मोक्ष नहीं चाहता हूँ। बारम्बार आऊँगा और जाऊँगा, तो बहुतों को संग लिये जाऊँगा। जैसे समुद्र में पुल बाँधा जाय, तो चींटी उसपर चढ़कर इस पार से उस पार हो जाय। इसी तरह जो सन्त सद्गुरु बारम्बार आयेंगे, तो बहुत-से लोगों को ले जाते रहेंगे और बहुतों का संस्कार बन जायगा।” (‘शान्ति-सन्देश’, जनवरी 1982)
 परम पूज्य गुरुदेव का अमोघ आशिष पाकर मैंने अपने को कृत-कृत्य समझा। फिर तो भगवान् बुद्ध के वचन, माँ शारदा देवी के कथन एवं महावतार बाबाजी और योगी श्यामाचरण लाहिड़ी जी के परस्पर मिलन-बिछुड़न एवं गुरु के द्वारा शिष्य के दो जन्मों तक के रक्षण-शिक्षण प्रभृति जीवनवृत्त चल-चित्र की भाँति मेरे सामने आने लगे।
 दि0 18 फरवरी को डॉक्टर रामबदन बाबू आये। पारस्परिक लोकाचार के पश्चात् उनसे हँसते हुए मैंने पूछा- “आप तो वचन के बड़े पक्के थे, इस बार कच्चे कैसे पड़ गये?” उन्होंने दुःख प्रकट करते हुए कहा- “क्या बताऊँ, प्रत्येक सोलह तारीख की सन्ध्या को इंजेक्शन की औषधि मँगाकर अपने पास मैं रख लेता और दि0 17 को श्री महाराज जी को इंजेक्शन देता। इस बार दिनांक 16 फरवरी को भागलपुर में वह दवाई मिली नहीं। गत कल दिनांक 17 को पटना आदमी भेजकर वहाँ से मैंने औषधि मँगायी, तो आज इंजेक्शन देने आया हूँ। गत कल्ह नहीं आ सकने के कारण मैं स्वयं दुःखित तथा लज्जित हूँ। एक तो श्री महाराज जी के स्वास्थ्य का प्रश्न, दूसरे वे मन में क्या कहेंगे, कितना झूठा डॉक्टर है और तीसरे आपका उपालम्भ मिलेगा, इन सब बातों को सोचकर मैं स्वयं चिन्तित था; किन्तु क्या करता, लाचारी थी। फिर भी, मन में यह विश्वास था कि श्री महाराज जी अन्तर्यामी हैं। वे मेरी असमर्थता को जानकर मुझे अवश्य क्षमा करेंगे।”
 मैंने कहा- “डॉक्टर साहब! चिन्ता की कोई बात नहीं। सुनिये, एक बात बताऊँ? गत दि0 4 फरवरी को ही परमाराध्यदेव मुझसे कह चुके थे कि इस बार दि0 17 फरवरी को डॉ0 रामवदन बाबू इंजेक्शन नहीं दे सकेंगे। मैंने जब कारण पूछा तो उस दिन उन्होंने कुछ बताने की कृपा नहीं की। वह कारण आज स्पष्ट हो गया।” मेरे इस कथन से उनके मन में सत्साहस का संचार हुआ और क्षमा-याचना करते हुए उन्होंने गुरुदेव से इंजेक्शन लेने की प्रार्थना की। गुरुदेव बोले- “बहुत इंजेक्शन ले चुका। अब इसकी आवश्यकता नहीं है। छोड़ दीजिये।” संयोगवश डॉ0 एन0 एल0 मोदी, पटना से गुरुदेव के दर्शनार्थ आये हुए थे। उनके विशेषाग्रह पर गुरुदेव ने स्वीकृति दी। उस दिन के बाद से आपने इंजेक्शन लेना बन्द कर दिया और अपनी मौज में आकर पूर्ण स्वस्थ हो गये।ऽ धन्य हैं हमारे गुरुदेव! आपकी अनन्त महिमा का अंत कौन पा सकता है!


‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ [श्री शाही स्वामीजी महाराज]
 करते तो सब सद्गुरु ही हैं, पर किसी-न-किसी को निमित्त बनाकर। आज से तीन-चार वर्ष पहले की बात है। परमाराध्य गुरुदेव मनिहारी से वापस आ रहे थे। उस समय श्री संतसेवी जी महाराज सिरदर्द से इतने बेचैन थे कि कार में बैठ नहीं सकते थे। परमाराध्य गुरुदेव स्वयं अगली सीट पर बैठे और उनको पीछे की सीट पर सुलाकर कुप्पाघाट आश्रम आये। आश्रम पहुँचने पर किसी प्रकार कार से उतारकर उन्हें उनके निवास के कमरे तक पहुँचाया गया। पूज्य गुरुदेव निवास-गृह के बरामदे पर बैठे। मैं भी उनके चरणों में प्रणाम कर निकट ही बैठ गया। मेरी ओर देखकर गुरुदेव ने पूछा- “संतसेवी जी को आपने देखा?” मैंने कहा- “जी हाँ, उनको बहुत कष्ट है।” यह सुनते ही गुरुदेव ने कहा- “आप जाइए, संतसेवीजी का माथा पोंछ दीजिएगा।” मैंने कहा- “हुजूर, मेरे माथा पोंछने से क्या होगा?” थोड़ी देर चुप होकर पुनः मुझसे गुरुदेव ने कहने की कृपा की- “आप जाइए और उनका माथा पोंछ दीजिए।” गुरुदेव की आज्ञा पाकर मैं श्री संतसेवीजी महाराज के पास गया और उनके सिर को हल्के हाथों से दाबने लगा। थोड़ी ही देर बाद वे अपने बिछावन पर उठकर बैठ गए और बोले कि अब दर्द कुछ कम हो गया है और मन भी हल्का लगने लगा है। अब मैं दँतवन से मुँह धोऊँगा। दँतवन लेकर मुँह धोने के बाद उन्होंने कहा कि कुछ खाने की भी इच्छा हो रही है। मैंने तुरत बेदाना मँगवाया और उसके दाने निकलवा कर उन्हें खाने के लिए दिया। उसके बाद मैं गुरुदेव के पास आया। गुरुदेव ने मुझसे पूछने की कृपा की- “क्या हाल है?” मैंने विनीत भाव से उत्तर दिया- “हुजूर की कृपा से उनकी तबीयत बहुत अच्छी हो गई है। कुछ बेदाना भी खाये हैं।” यह सुनते ही गुरुदेव ने मुझसे कहा- “आप जाइए।” गुरुदेव ने शब्दशः तो नहीं कहा, पर भाव ऐसा था गोया कह रहे हों- “यह बोलने की जरूरत नहीं है। गुरुदेव की कृपा अमोघ है पर है, वह अदृश्य और दूसरे के माध्यम से आनेवाली।”
 एक दूसरी घटना उस समय की है जब मैं सकरोहर ग्राम में रहता था। उस गाँव का नाई गणेश ठाकुर बात रोग से ग्रस्त था। उसकी पीड़ा असह्य थी। ठीक से चलना-फिरना भी उसके लिए संभव नहीं था। मैंने एक दिन दिवास्वप्न में देखा कि परम पूज्य गुरुदेव मुझे आज्ञा दे रहे हैं कि आप गणेश को कुछ दवा बतला दीजिए। मैंने कहा- “हुजूर! मैं तो कुछ जानता नहीं, क्या बताऊँगा।” गुरुदेव ने कहा- “कुछ भी बतला दीजिएगा।” उसी दिन सायंकाल गणेश ठाकुर मेरे पास आया। उसे देखकर मुझे स्वप्न की बात याद आ गई। गणेश ठाकुर ने कहा कि मैंने स्वप्न देखा है कि गुरुदेव मुझे आज्ञा दे रहे हैं कि तुम शाही स्वामी के पास जाओ, वे तुम्हें दवा बता देंगे। उसने मुझसे दवा बताने का आग्रह किया। मैं बड़े असमंजस में पड़ गया। ठाकुर पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा- “आप मुझे कुछ भी दवा बता दीजिए।” मैंने उससे कहा- “भाई जाओ, गंगाजी की मिट्टी लगाओ।” वह घर चला गया। उसने गंगाजी की मिट्टी का प्रयोग किया और चंगा भी हो गया। मैं उसी दिन बाहर चला गया था। जब कुछ दिनों के बाद सकरोहर लौट रहा था, तो देखा कि रास्ते में लोग बड़े गौर से मेरी ओर देख रहे हैं और कुछ इंगित भी कर रहे हैं। गाँव के निकट आ जाने पर मैंने लोगों से पूछा- “क्या बात है कि आपलोग मेरी ओर इस प्रकार देख रहे हैं?” उनलोगों ने बड़े उत्साह से कहा कि “आपने गणेश ठाकुर को जो मिट्टी का प्रयोग बताया था, उससे वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया।” मैं गुरु-चरणों में नतमस्तक हो गया। उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता। कृपा करें गुरुदेव और यश का भागी बने शिष्य? ऐसी है उनकी भक्तवत्सलता!
                     
श्रीसद्गुरु-लीलामृत [श्री लच्छन दास जी, सत्संग आश्रम, सैदाबाद (पुरैनियाँ)]
 पूज्य गुरुदेव की मनिहारी में 1949 ई0 को आज्ञा हुई कि “तुम सैदाबाद में खेती करो।” मैं उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए उसी समय से बराबर हर साल खेती का कार्य करता आ रहा हूँ और उसकी फसल पूज्य गुरुदेव के चौके में भेज दिया करता हूँ। 1942 ई0 में सैदाबाद में यह जमीन खरीदी गयी थी। पूज्य गुरुदेव महाराज हर साल धान काटने के समय दिसम्बर माह में आया करते थे। असह्य कठिन ठंढ को सहन करते हुए, हिमालय की बर्फीली हवाओं का झकोरा खाते हुए, खेती का काम देखना और फिर मोरंग में सत्संग करना, प्रवचन करना और लोगों को चेताना पूज्य गुरुदेव की महान् कृपा थी। देश एवं मोरंग के अनेको सत्संगी गुरु महाराज के दर्शनाभिलाषी बनकर आते थे और इनकी अमृतमयी वाणी एवं प्रवचनों से लाभान्वित होते थे।
 पूज्य गुरुदेव महाराज का चमत्कार-रंगेली बाजार के निकट ग्राम टकुआ के निवासी रेशम लाल दासजी एक गणमान्य एवं धनी व्यक्ति थे, उसने अपने घर के निकट एक विष्णु-मंदिर का निर्माण किया और मुझे एक रात उसमें ठहराया। मंदिर में सत्संग हुआ और सत्संग में उपदेशपूर्ण प्रवचन से प्रभावित होकर उन्होंने मुझसे भजन-भेद लिया।
 भजन-भेद लेने के कई वर्षों के पश्चात् वह अचानक रोगग्रस्त हो गये। बीमारी काफी बढ़ गयी और वे मर गये। परिवार के सभी लोग तथा अन्य सम्बन्धित व्यक्ति रोने-पीटने लगे। कई घंटों के बाद वे जीवित हो गये और कहने लगे कि मुझे लेने यमदूत आये थे, उसी समय पूज्य गुरु महाराजजी आ गये और यमदूत से कहने लगे कि “अभी यह नहीं जायगा; क्योंकि इसके द्वारा सत्संग का कार्य कराना अभी बाकी है।” यह सुनते ही यमदूत ने उन्हें छोड़ दिया। वे कहने लगे कि धन्य! गुरु महाराज ने मुझे बचा लिया।
 इसके बाद उन्होंने आस-पास के सभी सत्संगियों को बुलवाया और सारी बातें कह सुनायी और विराट नगर (नेपाल) से रजिस्ट्रार को बुलाकर सत्संग के नाम से जमीन एवं एक खपड़ा मकान, जो उस जमीन पर अवस्थित था, निबंधित (रजिस्ट्री) कर दिया। साथ ही ईट मँगवाकर मुझे बुलाया और उस जगह पर सत्संग-भवन की नींव डलवायी-जिसकी दीवार बनकर पूरी हो चुकी है।


मेरे गुरुदेव [स्वामी अभेदानन्द जी]
 एक बार मनिहारी में मैं गुरु महाराज के निकट बैठा हुआ था। फगुआ का समय था। एक पड़ोसिन ने गुरु महाराज से निवेदन किया- “स्वामी जी! मुझे एक ही लड़का है। मैं विधवा हूँ। मेरा लड़का भागलपुर कॉलेज में पढ़ रहा है। रात ही में तो वह भागलपुर से घर आया है और पेट के दर्द से व्याकुल है। कृपा करके आशीर्वाद दीजिये, जिससे उसका दर्द छूट जाय। गुरु महाराज ने कहा- “संतसेवी जी से दो बोतल ले लो। एक टुकड़ा कम्बल का भी ले लो। दोनों बोतलों में गर्म पानी भर कर पेट पर कम्बल का टुकड़ा रखकर बारी-बारी से गर्म पानी का बोतल पेट पर चलाना, बोतल का पानी ठंढा नहीं होने पावे। संतसेवी जी से एक डॉक्टर के नाम से एक पत्र भी ले लो। अस्पताल से दवाई लाकर लड़के को दे दो।” बुढ़िया बोतल और चिट्ठी लेकर चली गयी। कोई नहीं था, गुरु महाराज के निकट अकेला मैं ही था। मैंने गुरु महाराज से कहा- “सरकार! आपने भी हद कर दिया। बेचारी आपसे आशीर्वाद लेने आयी थी और आपने नुस्खा बतला दिया। इतनी पूँजी रखकर क्या कीजियेगा। सरकार! कुछ-कुछ खर्च भी करते जाइये। आप में तो ऐसा योगबल है कि मुर्दे को भी जिला सकते हैं। तब एक मामूली पेट का दर्द छुड़ाना, आपके लिये कौन बड़ी बात है?” गुरु महाराज ने कहा- “हाँ, आपका कहना ठीक है। मुझ में इतना योगबल है कि मुर्दे को भी जिला सकता हूँ; परन्तु इसका परिणाम क्या होगा? किसी का कोई बेटा मर जायगा! वह मुर्दे को लेकर मेरे पास आवेगा। मैं उसको योगबल से जिला दूँगा। लोगों में यह समाचार फैल जायगा कि महर्षि जी मुर्दे को जिला देते हैं। परिणाम यह होगा कि सब अपने-अपने मुर्दे को लेकर मेरे पास जिलाने के लिये पहुँच जायेंगे। मेरे सत्संग-मंदिर का आँगन मुर्दों से भर जायगा। कितने को जिलाऊँगा? आप तो पढ़े-लिखे हैं, इसको विचारिये-गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
 “ऋद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावइ आई ।।
  होइ बुद्धि जो परम सयानी। तिन्ह तन चितब न अनहित जानी ।।”
 कबीर साहब ने भी कहा है-
 “गंग जमुन बिच रेतवा, माली बाग लगाया हो ।
  कच्ची कली इक तोड़िके, मलिया पछताया हो ।।”
 अन्त में गुरु महाराज ने मुझसे कहा- “आपने तो मेरा जीवन-चरित्र लिखा ही है। इस चीज को हासिल करने में मुझे कितना कष्ट उठाना पड़ा है। बीमारी के इलाज के लिये डॉक्टर है, अस्पताल है। उनके लिये इस अमूल्य निधि को क्यों खर्च किया जाय?”
श्रीसद्गुरुदेव शिष्यों की रक्षा प्रकट-अप्रकट रूप में करते हैं [श्री दलबहादुर दास, श्री संतमत-सत्संग-मंदिर, मनिहारी]
 सम्वत् 2007 साल में नेपाल मोरंग जिलान्तर्गत सिकटी चौकी में पुलिस-सेवा में मैं नियुक्त हुआ। उसी समय से पूर्णियाँ जिलान्तर्गत सैदाबाद के श्रीसंतमत-सत्संग-मंदिर में पूज्यपाद गुरुदेव जी से दीक्षा लेकर उनकी शिक्षा के अनुकूल अपने केन्द्र में जाकर अपने बनाये हुए फूस के घर की एक कोठरी में निष्ठापूर्वक मैं सन्ध्योपासना, स्तुति-प्रार्थना एवं सत्संग करता था। किसी कार्यवश एक महीने के लिए मुझे अन्यत्र जाना पड़ा। इसी बीच में निज थाना के इन्सपेक्टर साहब कुछ कर्मचारियों के साथ गश्त करते हुए सिकटी चौकी पहुँचे-रात में उन्हें वहीं ठहरना पड़ा। जिस घर में मैं रहता था, उसी घर की दूसरी कोठरी में अपने कुछ कर्मचारियों के साथ उन्होंने निवास किया। उसमें जगह के कुछ अभाव से एक कर्मचारी जिस कोठरी में मैं रहता था, उसी कोठरी में जाकर सो गया। उसने नींद में स्वप्न देखा- “एक महात्मा (पूज्य गुरुदेव की आकृति का) आते हैं और उनको उठाते हैं और कहते हैं- “वह जिस तरह से निष्ठा-पूर्वक रहते हैं, उस तरह से तुम रह नहीं सकोगे, इसीलिये तुम यहाँ से चले जाओ।” उनकी नींद टूट जाती है और जगकर बहुत आश्चर्य मानकर दूसरी जगह जाकर सो जाते हैं। सबेरा होने पर उन्होंने आपस में भी इसकी चर्चा की। एक महीने के बाद मैं लौटकर आया। संयोगवश उस कर्मचारी से मेरी भेंट हो गयी। वह कहने लगे कि इस तरह के कार्य से मैं आपकी चौकी में पहुँचा था। जगह के अभाव में मैं आपकी कोठरी में जाकर सो गया। स्वप्न में इस तरह की आकृति के एक महात्मा ने आकर मुझे जगा दिया और वहाँ से हट जाने के लिए कहा। मैं वहाँ से हटकर दूसरी जगह जाकर सो गया। उनके मुख से इस तरह की बात सुनकर मेरे मुख से यह उद्गार व्यक्त हुआ कि आप धन्य हैं सद्गुरुदेव! प्रकट रूप से तो आप शिष्यों की रक्षा करते ही हैं; परन्तु गुप्त रूप से भी आप उनकी रक्षा करते हैं।
 भजन-भेद लेने के बाद पूज्य गुरुदेव जी से अपनी शरण में लेने के लिए मैंने प्रार्थना की। पूज्य गुरुदेवजी ने कहा था कि या तो माता-पिता के जीवन के उपरान्त आओ या माता-पिता से आज्ञा लेकर आओ। मैंने सोचा-माता-पिता का जीवन-यापन करवा के तो कब आ सकेंगे या नहीं भी आ सकेंगे, यह तो अनिश्चित बात हुई। इसलिये एक डेढ़ साल के बाद पिताजी आते हैं-उसी समय जो कमाया है, वह पिताजी को सौंपकर उनसे आज्ञा लूँगा। मैं यह सोच ही रहा था कि एक डेढ़ साल के पहले ही सावन महीने में पिताजी का स्वर्ग-वास हो गया। किसी कारणवश विलम्ब से अगहन महीने में पिताजी के देहान्त की चिट्ठी मिली। मैंने सोचा-यह भी गुरुदेव की कृपा है; क्योंकि यदि तत्काल चिट्ठी मिल जाती तो मैं घर चला जाता-घर जाने पर अविवाहित जीवन बिताते हुए गुरुदेव की शरण में रहना असम्भव था। पिताजी के देहान्त का पत्र मिलने पर वेदविधि से मैंने अपने को परिशुद्ध किया-इसके अनन्तर अपने बासे पर मैं रात में सोया था। स्वप्न देखा-पूज्य गुरुदेव ने आकर मुझे जगाया और कहने की कृपा की-उठो, चलो, इतना विलम्ब क्यों करते हो। मेरी नींद टूट गयी। जगने पर बहुत आश्चर्य हुआ। यह हुई मेरे जीवन की उन्नति के लिये गुरुदेव की कृपा। इस बीच में सैदाबाद सत्संग-मंदिर में पूज्य गुरुदेव के पधारने पर गुरुदेवजी से शरण में लेने के लिये मैंने प्रार्थना की। गुरुदेव ने स्वीकार किया, तब से उनकी छत्र-छाया में आनन्दपूर्वक जीवन बिता रहा हूँ।
   
श्री सद्गुरुदेव की प्रच्छन्न कृपा का जीवंत स्वरूप [गुरुसेवी भगीरथ दास]
 इस बात को प्रायः सभी कोई जानते ही हैं कि शिष्य, गुरु की खोज किया ही करते हैं; लेकिन कभी-कभी करुणा-सागर गुरु ही दया कर शिष्य की खोज कर लिया करते हैं। सन् 1962 ई0 के दिसम्बर माह की घटना है। हम दो साथी परस्पर विविध प्रकार के वार्त्तालाप करते हुए धीरे-धीरे ढोलबज्जा मिड्ल स्कूल से अपनी जन्मभूमि लालगंज की ओर चले आ रहे थे। संध्या का समय हो जाने के कारण सूर्य भगवान् अपनी किरणों को समेट कर अब पश्चिम दिशा में डूबना ही चाहते हैं; उसी वक्त हम दोनों रास्ते के बालूका-मैदान में पहुँच गये। और मेरे मुँह से अकस्मात् यह आवाज निकल आयी कि अच्छा, प्रकाश! यह तो बताओ कि जब हमलोग मिड्ल पास करेंगे, तो तुम क्या पढ़ोगे-कला या विज्ञान? मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए उसने कहा- “भाई! मैं तो डॉक्टरी पढ़न्न्ँगा।” मैंने उसकी बातों का समर्थन करते हुए कहा- “हाँ, तुम पढ़ सकते हो; क्योंकि तुम्हारे पिताजी अमीर हैं, वे तुम्हें डॉक्टरी पढ़ा सकते हैं; लेकिन मेरे पिताजी तो गरीब हैं, वे मुझे अधिक खर्च देकर पढ़ा सकें, सम्भव नहीं है। पर मेरे मन में है कि यदि आगे नहीं पढ़ सका, तो घर से भागकर किन्हीं महात्माजी के पास चला जाऊँगा और उन्हीं की सेवा तथा वे जो क्रिया करने बतावेंगे, वही करने लग जाऊँगा।” इतनी वाणी मेरे मुँह से निकल कर समाप्त हुई ही थी कि देखता क्या हूँ कि सामने एक वयोवृद्ध महात्मा गेरुआ वस्त्र पहने बैठे हुए हैं। उनका भव्य भाल चौड़ा है तथा भाल के बायें भाग में एक टेटना (मांस-पिण्ड) है। सिर में सफेद परन्तु लम्बे-लम्बे बाल, लम्बी दाढ़ी एवं मूँछें हैं। वे सुदीप्त चेहरे तथा चमकीली आँखों से मुझे अपलक देख रहे हैं। गोया वे कह रहे हैं कि मुझे खूब पहचान लो, मेरी ही सेवा में तुझे रहना पड़ेगा। मैंने महात्माजी को सामने उपस्थित पाकर अपने सिर को कुछ झुका एवं आँखों को बन्द कर प्रणाम किया। प्रणाम करने के पश्चात् जब आँखें खोलता हूँ, तो देखता हूँ- “महात्माजी गायब हैं।” इस दृश्य को मात्र मैंने ही देखा, मेरे साथी ने नहीं। उसी दिन से मेरे दिल में भगवद्भक्ति में और प्रगाढ़ प्रेम एवं पढ़ने-लिखने के प्रति अरुचि पैदा हो गयी। इसी तरह जीवन के और कई वर्ष बीत गये; लेकिन वह दृश्य मन के सामने आता रहता कि “मैंने एक वृद्ध महात्माजी को देखा है।” सत्संग में मेरी अधिक रुचि देखकर एक पुराने सत्संगी स्वर्गीय हनुमान दासजी ने मुझे प्रेरणा देते हुए कहा कि मेरे गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज टीकापट्टी गाँव आनेवाले हैं, अतः आप उनके दर्शन के लिये चलें। गाँव के अन्य सत्संग-प्रेमियों ने भी मुझे प्रोत्साहन दिया कि आप सत्संग में अवश्य चलें। मैं उनलोगों के कहने के मुताबिक उनलोगों के ही साथ परमपूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के पावन दर्शन की लालसा मन में लिये हुए चल पड़ा।
 वहाँ जाकर देखता हूँ, वही महात्माजी मंच पर विराजमान हैं, जिन्होंने मुझे बालुका-मैदान में दर्शन देने की विशेष कृपा दरसायी थी। मैंने दूर ही से उन्हें प्रणाम किया और मन में सोचने लगा कि अब मुझे कहीं अन्य जगह भटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी; क्योंकि ये दर्शन देनेवाले महात्माजी अवश्य ही मेरे कर्णधार बनेंगे और एक दिन इन्हीं की सेवा में मुझे रहना पड़ेगा। उनके दूसरे दिन ही रात्रि 9 बजे, दया कर उन्होंने भजन-भेद भी बतला दिया। भजन-भेद लेने के उपरान्त जब मैं प्रातःकाल उनके निवास-स्थान पर प्रणाम करने गया, तो गुरुदेव मुझे एकटक देखने लग गये; मानो कोई पूर्व परिचित व्यक्ति हों। उनके देखने मात्र से मेरे शरीर के रोंगटे खड़े हो गये। उस समय भी मेरे मन में ऐसा भान हुआ कि ये अवश्य मुझे अपनी सेवा में रखने की कृपा प्रदान करेंगे। मैंने उस समय उनके श्री चरणों में पाँच आने पैसे रखते हुए प्रणाम किया और वहाँ से चल दिया तथा घर पहुँच कर यथाशक्ति साधन भी करने लग गया।
 एक दिन की बात है कि अपने दक्षिणाभिमुख बंगले में सोया हुआ था। चाँदनी रात थी। रात के करीब ढाई-तीन बजे के वक्त, उसी पुण्य-अमृत वेला में लाठी का अगला सिरा पेट पर जोरों से दबाते हुए तथा जोरों से कसकर डाँटते हुए-से कहते हैं- “अरे! अभी ध्यान करने का समय है और तुम सोये हुए हो, उठो!” डाँट सुनते ही मेरी नींद टूट गयी और मैं उठ बैठा। देखता हूँ कि सामने गुरुदेव मुझे जगाकर और मुझे देखते हुए धीरे-धीरे पीछे हट रहे हैं। गुरुदेव को देखकर मैं अवाक् हो गया। इतनी रात्रि में गुरुदेव यहाँ कैसे! चाँदनी रात के प्रकाश-पुंज में मैं गुरुदेव को साफ-साफ देख रहा था और वे मेरे देखते-ही-देखते अदृश्य हो गये।
 ऐसा क्यों न हो, महान् सन्त-महापुरुष अपने गिरे हुए भक्तों को चेताने के लिये दर्शन दिया ही करते हैं। दर्शनोपरान्त मेरे अन्तर में इनकी हर प्रकार की सेवा करने की तीव्र वेदना होने लगी। प्रभु अपने भक्तों की वेदना-युक्त प्रार्थना को तुरंत सुनते हैं। अस्तु, सन्त सद्गुरुदेव महाराज ने मुझ दीन-हीन, बुद्धि-हीन, अबोध की सच्ची प्रार्थना स्वीकार की और पूज्य श्री सन्तसेवी जी महाराज एवं पूज्य श्री रामलगन बाबा के माध्यम से अपनी गायों की सेवा-हेतु और बाद में कुछ कालोपरान्त अपनी सेवा-हेतु मुझे नियुक्त कर लिया गया।

पुण्य संस्मरण [बालयोगी लालजी भैया, श्यामा-सदन-कुटीर, रामघाट, अयोध्या (फैजाबाद)]
 पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के पावन पदारविन्दों में भाव-पुष्प समर्पित करने का गौरव मुझे मिला।
 10 वर्षों से इस युग-पुरुष के चरणों में स्थान मिला है। अनेक स्थानों में भ्रमण किया, अनेक मनीषियों की पावन वाणी सुनी; परंतु मेरे तमसाच्छादित अंतःपटल पर ज्योति स्फुटित नहीं हुई। ज्ञान-योग की पिपासा लेकर कुप्पाघाट-स्थित आश्रम में मैंने ज्यों ही प्रवेश किया, एक अज्ञात शक्ति के दर्शन हुए। अंतःकरण चतुष्टय उन्मादी हो गया। समस्त कर्म-बन्धनों से मुक्ति मिल गयी। कुल मालिक की दिव्य वाणी सुनाई दी और मैं चरणों से लिपट ही गया। आह्लादपूर्ण जीवन के साक्षात्कार हुए। कई दिनों तक दृष्टि-साधन में विभोर रहा। आश्रमस्थ गुफा में दिन-दिन भर बैठा रहता और शून्य देश की सैर करता। मैं बाल्यावस्था से सगुण उपासना करता आया हूँ। महामहिम महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के चरणों में सन्दर्भ-सहित निवेदन किया। आज भी मुझे वह ओजस्विनी वाणी याद है, प्रभु गद्गद होकर बोले- “मेरा मन कहता है कि तुम्हें गोद में उठा लूँ”-बस क्या था! आँखों से अश्रु वर्षा होने लगी और समस्त कल्मष बह गये।
 महाराज श्री के निर्देशानुसार मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और नादानुसन्धान करने लगा। मैं कृत-कृत्य हो गया। अपने घर का सही मार्ग मिल गया। “जिसे पाने के बाद अब कुछ भी पाने की अभिलाषा नहीं है।”
 पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज मेरे सौभाग्य-भूषण बन गये। हे नाथ! मैं कृत-कृत्य हूँ। श्री सद्गुरुदेव! तुम्हारी सदा ही जय जयकार!

मैं तो तुम्हें मन-ही-मन खोज रहा था [श्री गंगाराम ठाकुर, करमाटाँड़ (सं0 प्र0)]
 सन् 1929 का जुलाई माह। बरहरवा ई0 टी0 ट्रेनिंग स्कूल का मैं गुरु छात्र था। प्र0 अ0 पं0 सूर्यनारायण मिश्र जी के यहाँ अनन्त श्री विभूषित सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज पधारनेवाले थे। संयोग कहिये, गुरुदेव के आने के दिन प्र0 अ0 महोदय को विशेष कार्यवश घर जाना पड़ा। और हम कई साथियों को प्र0 अ0 महोदय ने उन अजनबी अतिथि के स्वागत-सत्कार का भार सौंपा। पूज्य गुरुदेव अपनी अमर कृति “रामचरितमानस-सार सटीक” की भाषा-सम्बन्धी त्रुटियों के संशोधन कर रहे थे। हमें भी कौतूहल-मिश्रित जिज्ञासा थी कि आखिर प्र0 अ0 महोदय के कैसे अतिथि आनेवाले हैं, जिनकी सेवा में जरा भी त्रुटि एवं प्रमाद नहीं करने का निर्देश था। आखिर वह दिन आ ही पहुँचा। गेरुए वस्त्र में एक कृशकाय दिव्य पुरुष का शुभागमन हुआ हमारे ट्रेनिंग स्कूल में। लम्बे बाल और लम्बी दाढ़ी उस गौरांग कलेवर में अपूर्व आकर्षण की सृष्टि कर रहे थे। मैं जैसे निहाल हो गया। माया-वेष्टित मेरी बुद्धि उन्हें पहचान नहीं पायी, पर आत्मा ने परम आह्लादित हो उन्हें पहचान लिया और आँखों की राह उनका रूप-रसपान करने लगा। मैं सेवा में तत्पर था, दौड़-दौड़कर उनकी सेवा योग्य कामों को करता जाता, पर आँखें तो उनके श्रीमुख की ओर तृषित चातक की तरह टकटकी लगाये ही रहती -------------।
 जिस दृष्टि से ठाकुर रामकृष्ण ने देखा था-नरेन्द्र दत्त को, जिस दृष्टि से देखा था-स्वामी विराजनन्द ने बालक दयानन्द को --------ठीक वही करुणा वात्सल्यमयी पावन दृष्टि मुझ पर पड़ी। दृष्टि के पड़ते ही मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। आनन्दातिरेक में वाणी अवरुद्ध हो गयी। मात्र मूक दर्शक बना रहा और प्रवचन सुनता रहा। सत्संग के अवसर पर उन्होंने मेरा परिचय पूछा-मैंने अपना संक्षिप्त परिचय दिया। घर पर कौन-कौन हैं? प्रश्न पर मैंने निवेदन किया-वृद्धा माँ, पत्नी और बहन मात्र हैं परिवार में। गुजर-बसर कैसे होता है? तो मैंने कहा-मुझे आठ रुपये प्रतिमाह मिलते हैं। जिसमें आधा घर देता हूँ और आधे में मैं कुछ ट्यूशन आदि करके गुजर कर लेता हूँ। उन्होंने मेरी चिर तृषित आत्मा को आश्वासन दिया और कहा- “कुशापुर आओ, मैं तुम्हें भजन-भेद बता दूँगा।” और गुरुदेव चले गये। चले क्या गये, मेरे प्राण आलोड़ित कर गये। न मुझे नींद आती, न भूख लगती; दिन-रात वही दिव्य मूर्ति आँखों के समक्ष रहती। मेरी अवस्था अर्द्ध विक्षिप्त-सी हो गयी। मैं कमीज-धोती साथी को देकर ट्रेन में बैठकर नलहट्टी (बंगाल) जं0 पर उतरा। एक मन्दिर में रात्रि व्यतीत कर स्टेशन आया-जर्जरित काया लेकर कम्पित गात एक वृद्धा को भिक्षाटन करते देख अपनी माँ की स्मृति हो आयी और मैं कई दिनों के बाद ट्रेनिंग स्कूल वापस आ गया।
 1932 में पूज्यपाद गुरुदेव कुर्मीचक पधारे। मैं भी पहुँचा। सत्संग के बाहर उन्होंने मुझसे पूछा- “आपको कहीं देखा है?” --------------
 मैंने सजल नेत्रें से जवाब दिया- “बरहरवा में।” मेरे मुँह से बरहरवा शब्द निकलते ही बाबा ने विह्वल होकर पूछा कि “तुम वही गंगा हो? अरे मैं तो तुम्हें मन-ही-मन खोज रहा था।”
 कल सुबह स्नान कर आओ, भजन-भेद बता दूँगा। और फिर अगली सुबह जीवन की तमिस्त्रीच्छन्न कुहेलिका को दूर करने की मशाल मेरे हाथ लगनेवाली थी, मेरा पुनर्जन्म होने वाला था। अगले दिन मेरा उद्धार करने के लिए गुरुदेव ने भजन-भेद बता दिया और संतमत का द्वार मेरे लिये खुल गया।
 पूज्यपाद गुरुदेव की अहैतुकी कृपा-दृष्टि मुझ पर अनायास पड़ती रही-दर्जनों बार मेरे गाँव-घर तक पधारने की अनुकम्पा की। मैं सपरिवार निहाल हो गया। तब से अब तक संतमत के प्रचार-प्रसार में मैं बिहार, बंगाल एवं आसाम आदि राज्यों के कतिपय जिलों में जाता रहा हूँ। मैंने सदैव उनकी करुणा का वरदहस्त अपने ऊपर पाया। उनकी ही कृपा का फल है कि मेरा इहलोक-परलोक का मार्ग प्रशस्त हुआ। उनकी कृपा का फल आजीवन मिलता रहे; यही एकान्त कामना है, आकांक्षा है। जय गुरुदेव!

गुरुदेव की असीम दया [श्री रामलगन दास जी]
 पूज्य चाचाजी की प्रेरणा पाकर मैंने 23 फरवरी 1946 ई0 को परबत्ती (भागलपुर) के सत्संग-मन्दिर में पूज्यपाद गुरुदेव से मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टियोग की दीक्षा ली। मेरे साथ ही श्री अवध किशोर शाही (श्री शाही स्वामी जी) भी दीक्षित हुए थे। मैंने गुरु-युक्ति के अनुसार कठिन साधना की। फलस्वरूप मुझे गुरु की दया से अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त हो गयीं। उसी समय गुरुदेव की प्रेरणा हुई कि तुम ज्ञान का प्रचार करो। उन्होंने कई बार ऐसी प्रेरणा दी। लेकिन मैं तैयार नहीं हुआ। मुझे कुछ दिनों के बाद अहंकार हो गया कि अब तो ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त हो गयी है। ऐसा अहंकार आते ही मैं गम्भीर रूप से बीमार पड़ गया। शारीरिक शक्ति क्षीण हो गयी, उठना-बैठना, चलना-फिरना मेरे लिये असम्भव हो गया।
 कुछ ही दिनों के बाद सुना कि निकट ही बेलदौर में गुरुदेव पधारे हैं। चाचा के आदेश से येन-केन-प्रकारेण उनके दर्शन के लिए बेलदौर आया। उनके सेवक मुझे उनसे मिलने नहीं देते थे; क्योंकि मैं कृशकाय, मैला-कुचैला और विक्षिप्त-सा था। एक दिन मौका पाकर गुरुदेव के पास गया और उनके चरणों के पास नीचे बैठ गया। उन्होंने मुझे बड़े गौर से देर तक निहारा और अपने रसोईदार श्री भूपलाल दास जी से कहा कि इनको खाने-पीने के लिये क्यों नहीं पूछते हो? उनके ऐसा कहने पर श्री भूपलाल दास जी ने मुझे खिलाया-पिलाया। उसी दिन मैंने गुरुदेव से पूछा कि “हुजूर, मुझे रोग बड़ा तंग कर रहा है।” उन्होंने कहा कि “जबतक भोग है, तबतक तंग करेगा।” इतना सुनते ही मैं लगभग स्वस्थ-सा हो गया।
 मैं घर लौट आया। सोचने लगा कि अब इस शरीर को गुरु-सेवा में ही लगाना चाहिये। मैं हिलावै (संताल परगना) में गुरुदेव से मिला। मन-ही-मन मैंने प्रार्थना की कि अब मुझे अपनी शरण में ले लें। सबेरे गुरुदेव ने अपने रसोईदार से कहा कि इसे खिलाया-पिलाया करो। मैं गुरुदेव की सेवा करने लगा। कई स्थानों में उनके साथ घूमा। सिकलीगढ़ धरहरा में उन्होंने घर जाने का आदेश दिया। घर चला आया। कुछ वर्ष घर पर रहा, पर मन नहीं लगा, गुरु-संग प्राप्त करने की इच्छा पुनः प्रबलतम हो गयी। फिर गुरुदेव के पास आया और साथ रख लेने की प्रार्थना की। उन्होंने अब मुझे रख लिया। अब तक उनकी कृपा से उनकी सेवा करने का अवसर प्राप्त है। यह आराध्यदेव की असीम दया है। उनकी ही दया से मैं श्री चरणों की सेवा में सन् 1958 से संलग्न हूँ। यह जीवन उनका ही है और उनकी सेवा में लग जाय, तो मेरा अहोभाग्य है।


सर्वज्ञता की अनोखी अनुभूति [डॉ0 महेश्वर प्र0 सिंह , एम0 ए0, पी0-एच0 डी0]
 बात् सन् 1973 ई0 की है। भागलपुर में मैं ‘सन्त कवि मेँहीँ: व्यक्तित्व और कृतित्व नाम शोध-प्रबन्ध लिख रहा था। मेरे शोध के निर्देशक डॉ0 रामेश्वर प्र0 सिंह, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, भागलपुर विश्वविद्यालय थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि मैं आपको नादानुसंधान पर एक प्रश्न बताऊँगा और आप वह प्रश्न महर्षि जी से पूछें। प्रश्न पूछते समय मैं आपके साथ रहूँगा। मैं महर्षि जी द्वारा दिया गया केवल उत्तर सुनूँगा। मैं उन्हें महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट ले गया। मैंने उन्हें महर्षि जी के पास पहुँचाया। उन्होंने महर्षि जी को प्रणाम किया। “सबहिं मान प्रद आप अमानी” की उक्ति को सार्थक करते हुए महर्षि जी ने उनको सम्मान दिया। वे महर्षि जी के पास बैठे और मैं भी बैठा। रास्ते में ही उन्होंने मुझे नादानुसंधान से संबंधित अपना प्रश्न बता दिया था। मैं वह प्रश्न महर्षि जी से पूछना ही चाहता था कि इसी बीच महर्षि जी ने डॉक्टर साहब को सम्बोधित करने की कृपा की- “निर्देशक महोदय! आपने स्वामी दयानन्द सरस्वती रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नाम की पुस्तक पढ़ी है? उसमें नादानुसंधान पर उन्होंने लिखा है, पर खूब खुलासा नहीं है। फिर भी आप पहले उसे एक बार पढ़ लें और तब देखा जायगा।” डॉ0 साहब महर्षिजी की सर्वज्ञता पर विस्मित हो उठे और कहा कि महर्षि जी निश्चय ही एक पहुँचे हुए सन्त हैं।
मैं भी लगवार नहीं लेने दूँगा [डॉ0 सत्यदेव साह, श्रीसंतमत-सत्संग मंदिर बेलाबदन, पिपरा (पूर्णियाँ)]
 यह घटना गोपनीय, हृदय-द्रावक, अत्यन्त विलक्षण और भक्तवत्सल सद्गुरुदेव की कृपा महिमा का सजीव और ज्वलन्त उदाहरण है कुछ विशेष कारणवश यह स्पष्टतः व्यक्त करने का नहीं है, अतः इसे संक्षेप में प्रच्छन्न रूप में ही व्यक्त किया जा रहा है।
 सम्भवतः 1975 ई0 की बात है। परमाराध्य श्री सद्गुरु महाराज का पदार्पण धरहरा आश्रम में हुआ था। मैं सद्गुरुदेव के दर्शनार्थ आश्रम पहुँचा। उनके चरण-कमलों में माथा टेक कर और चरण-रज नेत्रें में लगाकर खड़ा हो गया। एक सज्जन का नाम लेकर वे कहने लगे- “सत्यदेव!” मैं- “जी, हाँ।” गुरुदेव- “अमुक व्यक्ति आज बड़े भले आदमी की तरह बात कर रहे थे।” पुनः कुछ क्षण रुककर इसी बात को दुहराया। फिर कुछ देर चुप रहकर बोल उठे- “अच्छा, मैं भी लगवार नहीं लेने दूँगा।” यह जैसे ही गुरुदेव के मुखारविन्द से निकला-मेरी आँखों से अश्रुधारा बह निकली और रुँधे हुए कण्ठ से मैंने “मंगल मूरति सत्गुरु मिलवैं सर्वाधार ------------ “ स्तुति कही। कुछ ही मिनटों बाद वे बाहर हुए और टहलाने के लिए उन्हें ह्वीलचेयर पर बिठाया गया। बैठने के पूर्व खड़े-खड़े गंभीर स्वर में वे बोले- “मैं अंधकार में दौड़ सकता हूँ।” मैं- “हुजूर, क्या नहीं कर सकते हैं?”
 उसके कुछ ही महीने बाद मेरा जीवन जिन परिस्थितियों, विघ्नों एवं आपदाओं से घिर गया, त्रसद तत्त्वों के कुटिल तांडव ने जो भीषण झंझावात का सृजन किया और जिस प्रकार भक्तवत्सल सर्व-समर्थ सद्गुरु के अतुल सामर्थ्य ने मुझे उस विषम-चक्रव्यूह से सकुशल बाहर निकाल लिया और अभी भी सकुशल उबारते जा रहे हैं-उससे प्रत्यक्षतः अनुभव हुआ और दुढ़ विश्वास हो गया कि प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण-रूपा शक्तियों की दौड़ को सर्वाधार सद्गुरुदेव ने ठीक ही लगवार नहीं लेने दिया और न लेने देंगे। मुझे ऐसा अनुभव होता है कि परमाराध्य सद्गुरुदेव सर्वज्ञ हैं और सदैव मेरी रक्षा करते रहते हैं। गुरु धन्य हैं! जय गुरु महाराज!


श्री सद्गुरुदेव जी की प्रत्यक्ष कृपा से काल टल गया [श्री नरसिंह दास रुँगटा, जलालगढ़]
 मैं नरसिंह दास रुँगटा ग्राम जलालगढ़, श्री सद्गुरु महाराज की आज्ञा और आशीर्वाद पाकर अपनी आँख के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन कराने मार्च 1975 में वाराणसी गया। वह ऑपरेशन पूर्णरूपेण सफल हुआ। लौटने के समय मेरी पुत्री “उर्मिला”, जो वहीं रहती है, ने किसी ज्योतिषी से मेरी जन्मपत्री दिखलाई। ज्योतिषी ने मेरी आयु को उसी वर्ष तक ही सीमित बताया। कुछ दिन बाद श्री सद्गुरु महाराज सत्संग करने के प्रसंग में जलालगढ़ पधारे। मैं उनको आग्रह और निवेदन करके अपने घर पर ले आया। मेरे मिल की गद्दी पर बैठे हुए थे। मैंने उनको सहृदय सादर नमन किया। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। उसी समय मेरे परिवार-वालों को और मुझे भी दृढ़ विश्वास हो गया कि ज्योतिषी की बात अब सच्ची नहीं होगी; क्योंकि श्री सद्गुरु महाराज ने स्वयं अपना हाथ मेरे सिर पर रखकर आशीर्वाद दिया है। मैं उनके आशीर्वाद से अब तक जीवित हूँ और स्वस्थ हूँ।
 मेरे पुत्र ललित मोहन रुँगटा की प्रथम पत्नी का देहान्त विवाह के चार वर्ष बाद ही हो गया। तत्पश्चात् मैंने उसकी दूसरी शादी करवाने का विचार किया। बारसोई में कटिहार जिला सम्मेलन हो रहा था, वहाँ मैं भी गया था तथा श्री सद्गुरु महाराज के पुराने शिष्य श्री गिरधारी लालजी (लाभानिवासी) भी आये हुए थे। उन्होंने पूज्य श्री संतसेवी बाबा से अपनी पुत्री के विवाह के लिये बात चलायी। पूज्य श्री संतसेवी बाबा ने उनको मेरे पुत्र ललित मोहन का नाम बता दिया और मुझसे भी गिरधारी लाल की चर्चा की। मैंने सहर्ष उनकी बात मान ली। उसके बाद सरकार कटिहार आये हुए थे। मैंने उनसे प्रार्थना की कि हमारी प्रथम पुत्रवधू तो मेरे घर का कोई सुख देखे बिना ही अल्प समय में चल बसी, अब मैं पुनः अपने पुत्र की शादी लाभा में कर रहा हूँ। उसके लिये मैं सरकार की तरफ से कुछ आशीर्वाद की कामना करता हूँ।
 सरकार ने प्रसन्न चित्त से कृपा-पूर्वक निम्नांकित आशीर्वाद अपने श्रीमुख से प्रदान किया- “मैं आशीर्वाद देता हूँ कि ईश्वर ऐसी कृपा करें कि दम्पति का जीवन पूर्णावस्था तक सुखमय हो, उनकी सन्तान भी दीर्घजीवी हो, विद्वान्, धनवान, शीलवान और यशस्वी हो।”
 दिनांक 17-02-1979 को विवाह का दिन निश्चित हुआ। उस दिन मेरी प्रार्थना पर श्री दल बहादुर जी को उपर्युक्त आशीर्वाद पत्र-रूप में लिख कर लाभा भेजा गया और वहाँ फेरा के बाद सरकार का आशीर्वाद पढ़कर सुना दिया गया और स्वयं श्री दलबहादुर जी ने सरकार की ओर से वर-वधू को आशीर्वाद भी दे दिया।
 समय पाकर मेरी यह पुत्रवधू गर्भवती हुई-सप्तम मास में ही बच्चे का उदर में घूम-फिर करना बन्द हो गया, हमलोग उसे पूर्णियाँ लेडी डॉक्टर के पास ले गये। उसने दो दिनों तक बहुत दवाइयाँ दीं और उपचार किया; किन्तु बच्चा ज्यों-का-त्यों अचल और अटल रहा। लेडी डॉक्टर ने कहा कि बच्चा ऑपरेशन के द्वारा निकलवा दें, नहीं तो दोनों मर जायेंगे। मेरी पत्नी विद्या देवी ने लेडी डॉक्टर से जोर देकर कहा- “यह बच्चा श्री सद्गुरु महाराज का आशीर्वाद प्राप्त कर चुका है। मैं इसे ऑपरेशन करके नहीं निकालने दूँगी।”
 अन्त में हमलोगों ने आर्त्त होकर श्री सद्गुरु महाराज से प्रार्थना की। कुछ क्षण बाद ही गुरु महाराज की ऐसी कृपा हुई कि बच्चा पुनः घूमने-फिरने लगा।
 प्रसव का समय पूरा होने पर बच्चे को पुनः पूर्णियाँ लाया गया। लेडी डॉक्टर ने 10-12 घंटे तक अथक प्ररिश्रम किया और तब बच्चे का जन्म हुआ। बालक मृत ही पैदा हुआ। जिंदा करने की प्रक्रिया अपनायी गयी; किन्तु सभी परिश्रम बेकार हुआ।
 अन्ततः डॉक्टर ने हमलोगों को मृतक शिशु अन्तिम संस्कार के लिये दे दिया। उसी समय मैं और मेरी पत्नी ने बहुत प्रार्थना की कि सरकार! स्वयं अपने श्रीमुख से आशीर्वाद देकर यह क्या कर रहे हैं? कुछ समय बाद बच्चा अचानक रो पड़ा और जीवित हो गया। हमलोग सहर्ष सकुशल पर लौट आये।


सद्गुरु की दयालुता [महेशानन्द पोद्दारः रीसर्च इन्जीनियर, टिस्को, जमशेदपुर]
 सन् 1977 ई0 की बात है। संतमत के प्रचारार्थ यहाँ के सत्संगियों की राय से, मैंने श्री लिखा। पत्रेत्तर आया कि मैं स्वयं कुप्पाघाट आकर बात करूँ। इसी बीच मुझे शैक्षणिक कार्यों से बम्बई जाना पड़ा। बम्बई से लौटने के पश्चात् मैं भागलपुर गया और श्री शाही स्वामी जी से उपयुक्त सम्बन्ध में बातें कीं। आज्ञा हुई कि सद्गुरु महाराज के श्रीचरणों में प्रार्थना रखी जाय। मैंने वैसा ही किया।
 सद्गुरु महाराज के दर्शनार्थ मैंने ज्यों ही कमरे में प्रवेश किया कि सद्गुरु महाराज ने मुझे फटकारा। उस समय में यह न समझ पाया कि सद्गुरु महाराज ने मेरे सर पर मँडरानेवाले काल को फटकारा है। फिर भी मैंने श्रीचरणों में प्रार्थना रख ही दी। सद्गुरु महाराज ने “पत्र लिखते रहने” की आज्ञा दी। जमशेदपुर आकर मैंने श्रीचरणों में एक प्रार्थना पत्र प्रेषित किया।
 पहली सितम्बर 1979 ई0 को मैं रात्रि के करीब दस ड्यूटी से वारीडीह स्थित अपने क्वार्टर को आ रहा था। घनी अन्धेरी रात। वर्षा हो रही थी। मैं बरसाती और हेमलेट पहने हुए था। ज्यों ही वारीडीह में बस से उतरा कि कुछ गुण्डों ने मेरे ऊपर आक्रमण कर दिया। खून से लथपथ किसी तरह क्वार्टर पहुँच गया। रात्रि को मैं यहाँ के मशहूर टाटा मेन हास्पिटल में भर्ती हो गया। हेमलेट देखने से पता चला कि सिर पर काफी प्रहार किया गया था। दाहिने हाथ में काफी चोट आयी थी। टाटा मेन हास्पिटल में इलाज कराने के बाद मैं पटना अस्थि विशेषज्ञ से जाँच कराने चला गया। जाँच के बाद विशेषज्ञ महाशय ने कहा-आप बहुत भाग्यशाली हैं; क्योंकि अगर चोट और थोड़ी गहरी होती, तो हाथ बिल्कुल नाकाम हो जाता। तभी मुझे सद्गुरु महाराज के आशीर्वचनों की याद आयी। आज मेरा दाहिना हाथ पूर्णरूपेण स्वस्थ है। मैं दाहिने हाथ से अभी पूर्ववत् ही लिख सकता हूँ।
 “अब सद्गुरु सद्गुरु सद्गुरु नित-नित गाऊँ ।
  प्रभु रीझि देहु निज चरण शरण में ठाऊँ ।।”
जय जय संसृति रोग-सोग को वैद्य श्रेष्ठतर [श्री जगदीश प्र0 झुनझुनवाला, दुमका, मारवाड़ी चौक (सं0प्र0)]
 सन्त सद्गुरु का अवतार मानव के पाप-संताप के निवारण तथा अविचल शान्ति प्रदान ही उनकी व्यथा का निवारण दीनदयालु, भक्तवत्सल, करुणानिधान करते हैं।
 मैं जिह्वा के दर्द से बेचैन था। उसकी चिकित्सा कराने के लिये कलकत्ता गया। वहाँ के चिकित्सकों ने जाँचकर यह घोषणा कर दी कि आपको कैन्सर का प्राणघातक रोग हो गया है। डॉक्टर के मु ँह से कैन्सर का नाम सुनते ही मेरी तथा मेरे परिवार वालों की क्या दशा हुई होगी, पाठक स्वयं समझ सकते हैं।
 मैंने आर्त्तनाद से परमाराध्य अनन्त श्री-विभूषित सद्गुरु भगवान् का स्मरण किया। हे प्रभो! आप आशरण-शरण, भक्त-वत्सल, दीन-दयालु, संकट-टारन हैं। इस संसार में आपके सिवा मेरी ही धर्मपत्नी ने एक पत्र पूज्यपाद श्री सन्तसेवीजी महाराज की सेवा में प्रेषित किया, जिसमें आराध्यदेव से आशीर्वाद की याचना की थी। दीन की पुकार को श्रद्धेय श्री सन्तसेवीजी महाराज ने परम प्रभु के पास पहुँचाया। हृदय की वेदना को सुनकर आश्रम से एक पत्र आशीर्वाद-स्वरूप भेजने की कृपा की।
 कलकत्ता के महान् चिकित्सक डॉ0 श्री ओमियो कुमार सेन के द्वारा ऑपरेशन किया गया। ऑपरेशन थियेटर में ले जाने के समय डॉक्टर साहब ने कहा था- “हो सकता है, मरीज की बोली नहीं निकलें।” मेरी आँखों के सामने परमाराध्य श्री सद्गुरु महाराज की प्रार्थना कर उन्हें अहर्निश अपनी व्यथा को सुना रहे थे। मेरा ऑपरेशन हुआ। दीनानाथ, शरणशोकहारी की कृपा से ऑपरेशन बिल्कुल सफल रहा। तीसरे दिन ही मेरी बोली खुली। चिकित्सक श्री ओमियो बाबू ने आश्चर्य-भरी-मुद्रा में कहा कि- “आमाके आश्चर्य लागछे जे एतो असाध्य रोग केमन करे ताड़ा-ताड़ी भालो हछे। आपनार ऊपरे कोन दैविक शक्ति आछे?” मैंने इशारे से आराध्यदेव के चित्र की तरफ इंगित किया, उस समय मुझे ऐसा लग रहा था कि योगिराज का परम तेज मेरे ऊपर आभा-रूप में आ रहा है। मैं उससे आलोकित हो रहा हूँ। पुनः डॉक्टर साहब बोले-इनी खूब महापुरुष! इनार आपनार ऊपरे खूब कृपा आछे। से जोन्ये आपनी ताड़-ताड़ी भालो हछेन।”
 मैं बीस दिनों में बिल्कुल चंगा होकर घर आ गया। श्रीसद्गुरु भगवान् ने कहा कि “जो तुलसी की पत्तियों का रोज सेवन करते हैं, उन्हें कैन्सर की बीमारी नहीं होती है।” उन्हीं का दिया प्रसाद स्वल्प तुलसी-पत्र मैं नित्य सेवन करता हूँ तथा डनहीं की कृपा का फल है कि आजतक स्वस्थ रहकर जीवित हूँ। आज मुझे परमाराध्यदेव की वह पीयूष-वाणी याद आ रही है-
 “जय जय संसृति रोग सोग को वेद्य श्रेष्ठतर ।”


पुराना मकान [श्रीलक्ष्मीनारायण साह, भागलपुर]
 सन् 1959 ई0 की बात है। एक दिन मैं अपने मकान मोहद्दी नगर में मकान के बाहर खड़ा अपनी लड़की का विवाह जो पन्द्रह दिन बाद होना निश्चित हो चुका था, लग्नादि भी हो चुका था। मैं शादी और मकान की चिंता से परेशान था। मनिहारी से उसी समय श्री आनन्द जी हमारे पास आये और कहने लगे कि आप चिंतित हैं-सुनिये, गुरु महाराज ने मुझको आपके पास भेजा है, उन्होंने कहने की कृपा की है कि “हम जिन शब्दों में कहते हैं, उन्हीं शब्दों में आप जाकर लक्ष्मी जी से कहिये।” वह मंगलमय शब्द यह है- “पुराना मकान गिरता है उठने के लिये, और शादी-विवाह होता ही है; परन्तु आप सत्संग-मंदिर परबत्ती के कार्यों में क्यों ढील हो गये हैं?” इस मंगलमय आशिष की शुभ प्रेरणा पाकर मैं सत्संग के कामों में और मकान, शादी के कामों में प्रवृत्त हो गया। हमारा सब काम निश्चित समय पर श्री सद्गुरु महाराजकी अहैतुकी कृपा से पूर्ण हो गया। जब कुछ कहना ही चाहा था कि उन्होंने कहने की कृपा की- “आपका सब काम ठीक से हो गया? समाचार ठीक है न?” मैंने कहा- “सरकार की दया से सब ठिकाने से हो गया।”


ऋषि-वाणी का प्रच्छन्न फल [श्री चमकलाल मंडल, एम0 ए0, बी0 एल0]
 1976 की बात है। पूज्या माताजी के स्वर्गारोहण करने के उपरान्त मन में इच्छा हुई कि श्राद्धोपलक्ष्य पर श्री सद्गुरु महाराज के श्रीचरण किसी तरह अपने घर पर पहुँच जाते, तो मैं अपना अहोभाग्य समझता; लेकिन निवेदन किया जाय तो कैसे? कारण कि कहलगाँव से तीन मील कच्ची सड़क थी, गुरु महाराज की गाड़ी के जाने का कोई उपाय नहीं सूझता था; फिर भी साहस श्री सद्गुरु महाराज से निवेदन किया। वे सहर्ष जाने के लिए तैयार हो गये। स्वीकृति मिलनी थी कि मन में आनन्दातिरेक की लहर दौड़ गयी। समय निर्धारित हुआ। सद्गुरु महाराज के शुभागमन की तैयारी शुरू हो गयी। ग्रामीण लोगों में विचित्र उत्साह देखा गया। तीन मील कच्ची सड़क को समतल किया। ज्यों-ज्यों समय निकट आता गया, त्यों-त्यों उत्साह की बाढ़ आती गयी। एक दिन वह शुभ घड़ी भी आ गयी। गुरु महाराज को लाने के लिए श्री हरि मंडल जी को कुप्पाघाट आश्रम भेजा गया। उन्होंने गुरु महाराज की गाड़ी के अलावा एक और गाड़ी का इन्तजाम किया। तारीख 25-11-1979 को प्रातः 6 बजे गुरु महाराज ने आश्रम से अपने सेवकों के साथ प्रस्थान किया। सेवकों में श्री भगीरथ दास जी, श्री हरिनन्दन दास जी, श्री रामलगन दास जी, श्री गुरु प्रसाद जी एवं पूज्य श्री संतसेवी बाबा वगैरह सब थे। गाँव के बाहर ग्रामीण लोग बैण्ड-पार्टी के साथ श्री सद्गुरु महाराज की आगवानी में खड़े थे। लगभग 8 बजे गुरु महाराज की गाड़ी आयी। अगवानी में आयी हुई बैण्ड-पार्टी के लोगों ने बाजे की ध्वनि के साथ गुरु महाराज का भव्य स्वागत किया एवं वे वहाँ से वासे पर लाये गये, जहाँ पर पुष्पमाला के साथ गाँव के प्रमुख सत्संगियों ने उनका अभिनन्दन किया, जिसमें सर्व श्री लक्ष्मण प्र0 मंडल, श्री चौधरी प्र0 मंडल, श्री नन्दकिशोर मंडल, श्री हरि मंडल, श्री गंगाधर मंडल एवं श्री रामपूजन मंडल वगैरह थे।
 श्री सद्गुरु महाराज को स्नान कराया गया। भोजनोपरान्त विश्राम किया। करीब 4 बजे सत्संग का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। पूज्य श्री संतसेवी बाबा ने धर्म-ग्रन्थ का पाठ किया एवं गुरु महाराज की आज्ञा से प्रवचन किया, फिर मुझे कुछ कहने के लिए कहा गया। तत्पश्चात् श्री सद्गुरु महाराज ने कहने की कृपा की, फिर आरती के साथ उस दिन का कार्यक्रम समाप्त किया गया।
 सत्संग के अवसर पर भोज का भी आयोजन किया गया था। लगभग 2500 व्यक्तियों के लिए खाद्य सामग्री तैयार की गयी थी। भोजन का समय हो चुका था। श्री सद्गुरु महाराज का भोजन हो चुका था। मैंने अपने बड़े भाई साहब श्री चौधरी प्र0 मंडल से कहा कि भोज प्रारम्भ करने के पूर्व भोज्य पदार्थों को एक परात में सजाकर श्री सद्गुरु महाराज के पास ले जायँ एवं भोज प्रारंभ करने के लिए उनसे अनुमति ले लें। मेरे कथनानुसार भाई साहब सभी सामग्रियों को एक परात में सजा कर गुरु महाराज के समीप ले गये और उनसे भोज प्रारम्भ करने की अनुमति माँगी। जैसे ही अनुमति माँगी, वैसे ही गुरु महाराज ने पूछने की कृपा की कि क्या-क्या चीज बनायी है। भाई साहब ने एक-एक कर बताना शुरू किया। इसी बीच श्री सद्गुरुदेव ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि “जाओ, भंडार में वृद्धि होगी”। इतना कहना ही था कि मेरा मन आनन्द से झूठ उठा। मैंने भाई साहब से कहा कि अब चिन्ता न करें, जितने लोग खाने के लिए बैठें, सबों को खिलाते जायँ; क्योंकि श्री सद्गुरु महाराज के प्रति मेरी अटूट श्रद्धा एवं विश्वास है, उनका दिया हुआ आशीर्वाद खाली नहीं जा सकता। “बृथा न होइ देव ऋषि वाणी।”
 देखा भी गया वही। लोग खाते गये और जाते गये; लगभग 12 बजे तक ताँता लगा रहा। 2500 के बदले में लगभग 5000 लोग खा चुके थे; लेकिन भंडार में किसी प्रकार की कमी नहीं हुई। यहाँ तक कि शेष सामग्री 2-3 दिनों तक चलती रही। धन्य हैं गुरुदेव!


गुरु दीन दयाला नजर निहाला [श्री अधिक लाल दास]
 परमाराध्य गुरुदेव कुप्पाघाट आश्रम में ही विराजमान थे। रात्रिकालीन सत्संग समाप्त हो चुका था। अचानक मौज में आकर गुरुदेव ने मुझसे पूछने की कृपा की- “आपको अपने रहने के लिए कितने घर हैं?” मैंने उत्तर में निवेदन के रूप में कहा- “हुजूर! मुझे दो घर हैं। एक तो गाय के रहने के लिये और दूसरा अपने लिये।” पुनः गुरुदेव ने प्रश्न के रूप में पूछने की कृपा की- “रहने का घर कितने हाथ का है?” मैंने निवेदन के रूप में पुनः उत्तर दिया- “हुजूर! वह घर नौ हाथ का है।” यह सुनते ही गुरुदेव हँसते हुए बोल उठे- “ओह! संतमत के सम्पादक और नौ हाथ का घर?” फिर बोले- “अच्छा बहुत है। संत कबीर साहब ने तो कहा है-
 “घर तो साढ़े तीन हत्थ, घना तो पौने चार ।”
 जहाँ कबीर साहब साढ़े तीन हाथ का घर बतलाते हैं, वहाँ आपका घर नौ हाथ का है।” 1966 ई0 का प्रसंग है। बिहार राज्य के पुरैनियाँ मण्डलान्तर्गत भवानीपुर राजधाम में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का वार्षिक महाधिवेशन होनेवाला था। उसमें भाग लेने के लिये परमाराध्य गुरुदेव का कार्यक्रम बन रहा था। मेरे मन में बहुत दिनों से अभिलाषा बनी हुई थी कि गुरुदेव का पदार्पण मेरे घर पर कई बार हुए; परन्तु मैं तो कभी गुरुदेव को न तो भोजन करवा सका और न सत्संग ही। इस विचार से प्रेरित होकर मैंने श्री भगीरथ दास जी के माध्यम से गुरुदेव की सेवा में अपनी प्रार्थना प्रस्तुत की- “मेरे घर पर भी गुरुदेव का पदार्पण हो।” मेरी प्रार्थना सुनते ही गुरुदेव ने स्वीकृति देते हुए कहने की कृपा की- “भवानीपुर वार्षिक सत्संग के बाद आपके घर पर भी हम जायेंगे।” जब महाधिवेशन का कार्यक्रम समाप्त हो गया, तो गुरुदेव ने मुझे बुलाकर कहा- “आप और रामावतार जी (महाधिवेशन के स्वागतमंत्री) दोनों विचार करके बताइये कि आपके घर पर मुझे कब जाना है?” मैंने तुरंत रामावतारजी को बुलाया और परमाराध्य के सम्मुख ही निर्णय किया कि “परसों मेरे घर पर गुरुदेव का शुभागमन हो।” तीसरे दिन निश्चित समय पर गुरुदेव का पदार्पण मेरे यहाँ हुआ। प्रातःकालीन स्तुति-प्रार्थना भी हुई। तदुपरान्त स्नान-भोजन तथा विश्राम भी मेरे घर पर ही किये। अपराह्ण-कालीन सत्संग करके पुनः भवानीपुर के लिये वापस हुए।
 मैं अपनी अकिंचनता के कारण कोई समुचित प्रबन्ध नहीं कर सका। मेरे यहाँ गुरुदेव को ठहरने में कितना कष्ट हुआ होगा, कहा नहीं जा सकता। फिर भी गुरुदेव ने दया-भाव में आकर मेरे जैसे अकिंचन के भी घर पर पधार कर भोजन, विश्राम और सत्संग करने की कृपा की। यह है “गुरु दीन दयाला नजर निहाला” की महान् दयालुता।


संत का कारुण्य-चमत्कार [श्री जे0एन0खन्ना, स्वर्गाश्रम, ऋषिकेश]
 परमाराध्य श्री सद्गुरु महाराजजी का प्रयाग में पदार्पण बृहस्पतिवार ता0 12 मार्च, 1970 ई0 को सायंकाल ट्रेन न0 4 ए0फ0 द्वारा हुआ और उनके द्वारा होनेवाले सत्संग का आयोजन 13 व 14 मार्च को श्री पुरुषोत्तम मन्दिर (चाह चन्द, जीरो रोड) के सत्संग भवन में किया गया। उन्होंने तथा उनके साथ आनेवाले सब व्यक्तियों ने मुझ दास के ही निवास-स्थान पर ठहरने की कृपा की थी।
 13 तारीख को प्रातःकालीन सत्संग के उपरांत जब परम पूज्य गुरुदेव हमारे निवास-स्थान पर आ गये थे, उस समय एक स्थानीय व्यक्ति आया और उसने उनसे मिलने की प्रार्थना की। मैंने कहा कि गुरु महाराज से मिलने वह दोपहर के बाद आ जावे; परन्तु वह बहुत व्यथित था और उसी समय मिलने के हेतु व्यग्र था। निदान मैंने गुरुदेव से अनुमति लेकर उसे मिलने भेज दिया। श्री गुरुदेव के समक्ष पहुँचने पर वह सजल नेत्रें से कहने लगा कि उसके पुत्र की एक आँख में बहुत कष्ट है और डॉक्टरों ने ऑपरेशन की सलाह देते हुए बताया है कि ऑपरेशन के उपरांत नेत्र-ज्योति रहने की सम्भावना बहुत कम है। श्रीगुरुदेव ने कहा- “मैं इस विषय में क्या कर सकता हूँ? जैसा डॉक्टर कहें, वैसा कीजिये।” परन्तु वह व्यक्ति उनके पाद-पद्मों में गिर गया और किसी प्रकार से भी हमलोगों के हटाने से नहीं हटा, तो परमपूज्य गुरुदेव ने परम पूज्य संतसेवी बाबा से एक छोटी शीशी में अपने प्रयोग करने वाले गाय के घृत में से कुछ उस व्यक्ति को देने का आदेश दे दिया और उस व्यक्ति को कहा कि वह अपने पुत्र की आँख में लगाये। वह व्यक्ति बहुत आशान्वित होकर चला गया।
 अगले दिन सायंकाल वह व्यक्ति हमारे निवास-स्थान पर दही का एक बड़ा कूँडा लेकर आया और हमें देने लगा; परन्तु हमने स्वीकार नहीं किया, तो वह कहने लगा कि “यह तो मैं अपनी कृतज्ञता-ज्ञापन के हेतु लाया हूँ। मेरे पुत्र की आँख तो बिल्कुल ठीक हो गयी है, जिसको देखकर डॉक्टर भी चकित हैं। मुझे हलवाई की छोटी-सी दूकान है। मैं श्री सद्गुरुदेव का बहुत ऋणी हूँ। उसने बहुत आग्रह किया कि दही को प्रसाद-हेतु स्वीकार कर लें। उसके अतिशय आग्रह करने पर हमें वह लेना पड़ा और उसका प्रयोग अगले दिन भोजनोपरांत सबमें वितरण किया।
 इस चमत्कृत करनेवाली घटना से हम सभी आश्चर्य में पड़ गये थे; परन्तु फिर यही विचार किया कि संतों का हृदय बड़ा दयालु होता है और वे “संत भगवन्त अन्तर नहीं किमपि” के अनुसार सर्वसमर्थ होते हैं।


गुरु-कृपा [रामव्रत प्रसाद]
 दस-पन्द्रह साल पहले की बात है। सायंकाल परमाराध्य श्री सद्गुरुदेव (कुप्पाघाट) आश्रम में टहल रहे थे। मैंने नजदीक जाकर चरण-स्पर्श किया। वे खड़े हो गये। हाथ जोड़कर मैंने निवेदन किया- “सरकार! सुना है कि बिना गुरु की कृपा के विषयों का त्याग दुर्लभ है। वह कैसी गुरु की कृपा होती है?” वे थोड़ी देर चुप रहे और शांत-सरल वाणी में उन्होंने पहले उपनिषद् के इस श्लोक को दुहराया-
दुर्लभो विषय त्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् ।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ।।
 फिर उन्होंने कहने की कृपा की- “रामव्रत बाबू! गुरु की कृपा कब नहीं रहती है?” बस! उनका इतना कहना था और मेरे स्मृति-पटल पर उनकी की हुई कृपा का एक क्रम चल-चित्र की तरह उभड़कर चित्रित हो उठा। संत-सद्गुरु की कृपा का यह एक अनोखा उदाहरण है।


आप इतने दुःखी क्यों हैं? [श्री रामचन्द्र प्र0 ‘अरुण’, मानसी (खगड़िया)]
 घटना 1978 ई0 की है। मेरा पुत्र दीपक कुमार लगभग पाँच सौ रुपये चुराकर एक मुसलमान लड़के के साथ घर से भाग गया। दो-चार दिनों के बाद हमलोग उसके भागने पर बहुत चिन्तित हो गए; किन्तु मेरे मन में पूज्यपाद सद्गुरुदेव के प्रति पूर्ण विश्वास था कि वे हर अनिष्ट से हर क्षण रक्षा करते हैं। भगवान् ने कहा है कि भक्तों का “योगक्षेमं वहाम्यहम्य्। घर के लोग तथा हमारे मित्रगण तरह-तरह की सलाह देने लगे कि समाचार अखबार में छपवाओ, रेडियो से प्रसारित करवाओ। एक मित्र ने कहा कि थाने में उस मुसलमान युवक के विरुद्ध एफ0 आई0 आर0 दर्ज करवाओ।
 मैं सीधे श्रीचरणों में पहुँचा तथा सारी बातें बतायीं। उन्होंने मुखारविन्द से उत्तर में कहा कि “रुपया उसका खत्म होगा, चला आवेगा।” साथ ही उन्होंने यह भी कहने की कृपा की- “जबतक जिसकी आयु रहती है, वह मरता नहीं है।” मुझे दिल में उनकी वाणी पर अटूट विश्वास था, तिलमात्र भी अविश्वास की जगह नहीं थी। मैंने श्रीचरणों में मस्तक टेक कर आशीर्वाद प्राप्त किया और घर चला आया। लगभग 15 दिनों के बाद सम्पादक श्रीअधिकलाल जी का पोस्टकार्ड मिला। उसमें लिखा था कि श्री सद्गुरुदेव आपके लड़के के लिए बराबर चर्चा किया करते हैं। अतः आप लड़के की खोज करें। पत्र पढ़कर मुझे चिन्ता इसलिए हुई कि श्री सद्गुरुदेव जब बराबर चर्चा कर रहे हैं, तो हो सकता है कि किसी ने उसकी हत्या कर दी हो? फिर भी मुझे सद्गुरुदेव पर इतनी श्रद्धा और अटूट विश्वास था कि यदि किसी ने उसकी हत्या भी कर दी होगी, तो मैं उनसे निवेदन करके उसको पुनः जीवित करवा लूँगा।
 मैं और मेरी पत्नी पत्र पाने के बाद सद्गुरुदेव के दरबार में व्यथित होकर पहुँचे। गुरु- पूर्णिमा का अवसर था। आश्रम पर अच्छी भीड़ थी। मैं ज्योंही श्री सद्गुरु के निवास के गेट पर पहुँचा कि श्री संतसेवी जी महाराज ने मुझे प्रसन्न चित्त होकर अन्दर बुलाया और सान्त्वना देते हुए कहने लगे- “आप अपने पुत्र की खोज करवा रहे हैं या नहीं?” श्री सद्गुरुदेव बहुत चर्चा कर रहे हैं।” मैंने जवाब दिया कि मैं तो इनके दरबार में दरखास्त कर ही चुका हूँ, अन्यत्र इतने बड़े संसार में कहाँ खोजूँ?
 फिर मैं और मेरी पत्नी ने “नर रूप हरि” के श्रीचरणों में मस्तक टेककर प्रणाम किया और हमलोगों ने उनको दुःखड़ा सुनाया। गुरुदेव ने अमृतमय वचन में कहने की कृपा की कि “आप इतने दुःखी क्यों हैं?” मैंने जवाब दिया कि इस मन को आप पर न्योछावर कर चुका हूँ, इसके मालिक आप हैं, आप जैसे उसको रखें। फिर उन्होंने कहा, “जब तक रुपया रहेगा, तब तक घूमता रहेगा; साथ ही जबतक आयु रहती है, तबतक कोई नहीं मरता।” दूसरे दिन हमलोग जब प्रणिपात करके घर चलने लगे, उन्होंने बड़ी प्रसन्न मुद्रा में कहा- “खुश रहो।” हमलोग चल पड़े। हमें अपना घर (मानसी) महादेवपुर घाट होकर आना था; किन्तु किसी कारणवश जहाज बन्द था। हमलोग भागलपुर स्टेशन पर चढ़कर जमालपुर आये। रास्ते में मेरे मन में पुत्र की खोज की लहर जगी थी और विश्वास हो रहा था कि रास्ते में मेरा पुत्र अवश्य मिलेगा। हम जमालपुर से मुंगेर घाट आये और जहाज की छत पर चढ़ गये। ज्योंही चढ़कर हमलोग आपस में बातचीत करने लगे कि इतने में मेरे प्रिय चाचा जी श्री रामजी साह जो जहाज की सीढ़ी के नजदीक खड़े थे, खोये हुए पुत्र दीपक को सीढ़ी पर चढ़कर आते देखकर चिल्ला उठे- “रामचन्द्र देखो, दीपक आ गया।” हमलोग भी उधर दौड़े। उसको देखकर आँखों से खुशी के आँसू टपक पड़े। हमलोग मन-ही-मन परमाराध्य श्री सद्गुरुदेव के प्रति आभार प्रकट करने लगे कि धन्य हैं वे महान् सत्ताधारी सद्गुरु, जो भक्तों के दुःख मिटाने के लिए खुद व्यथित हो जाते हैं और भक्त को हर तरह से सुखी करने के लिए खुद कष्ट उठाते हैं। जय गुरुदेव!


सूक्ष्म दृष्टि और पवित्रता की मूर्त्ति महर्षि मेँहीँ परमहंस [श्री रामावतार झुनझुनवाला, भागलपुर]
 महर्षि मेँहीँ जी के दर्शन और सत्संग का शुभ अवसर मुझे अनेक बार लगा है। उनकी सूक्ष्म दृष्टि और पवित्र विचारों का मैं हमेशा कायल हूँ और इनके कारण उनके सामने मैं हमेशा नतमस्तक रहा हूँ।
 उनके जीवन की अद्भुत सादगी, व्यवहार में उनकी अद्भुत कुशलता, उनकी सूक्ष्म दृष्टि, उनका व्यवस्थित जीवन, ये सब आदर्श रहे हैं। बड़े-से-बड़ा प्रलोभन भी उन्हें अपने आदर्शों और विचारों से डिगाने में असमर्थ रहा है।
 भागलपुर में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग सम्मेलन के शुभ अवसर पर महर्षि महेश योगी अपने निजी विशेष वायुयान से अपने शिष्यों-सहित भागलपुर पधारे थे। विदा लेते समय दोनों संतों के मिलन और वार्त्तालाप के शुभ अवसर पर पूज्य महर्षि मेँहीँ के कमरे में उपस्थित रहने का शुभ अवसर मुझे भी प्राप्त हुआ था। वह विदाई का अवसर अद्भुत था। दोनों की वार्त्ता अद्भुत थी। बहुत आग्रह करने पर भी महर्षि महेश योगी महर्षि जी के चरणों के पास ही बैठे रहे, बराबर के आसन पर नहीं बैठे । महर्षि महेश जी गुरु महाराज से एक बार विदेश-यात्रा करने का बहुत आग्रह करते रहे। उन्होंने यह भी निवेदन किया कि मैं अपना निजी विशेष विमान आपकी सेवा में भेज दूँगा। उसमें आपको कोई कष्ट नहीं होगा। वह वायुयान यहाँ स्विटजरलैण्ड से आयेगा और आपको सारे यूरोप, अमेरिका आदि देशों की यात्रा कराकर फिर भागलपुर वापस रख जायगा। सारी यात्रा में आपको कोई कष्ट नहीं होगा; किन्तु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज अपनी भारतीय संस्कृति के विचारों और आदर्शों के कारण उसे अस्वीकार करते रहे।
 उनके द्वारा महर्षि महेश योगी की प्रेमपूर्ण विदाई भी अद्भुत थी। महर्षि मेँहीँ अपने व्यवस्थित जीवन और अपने उच्च आदर्शों के कारण ही आज शतायु होकर सबों के बीच प्रेम की अजस्त्र धारा बहा रहे हैं और लाखों श्रद्धालु भक्त उनके इस पवित्र जीवन से प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं। उनका संदेश अद्भुत है, सरल है, सब जनों के लिए बोधगम्य है और प्रेरणादायक है। ऐसे सन्त को हमारा शत-शत प्रणाम है!
 “गुरु हरि चरण में प्रीति हो युग काल क्या करे” [श्री केदार नाथ पोद्दार, पुस्तक बिक्रेता , महर्षि मेँहीँ साहित्यागार, कुप्पाघाट]
 सन् 1973 ई0 । मार्च का महीना । मैं अपने ग्राम टीकापट्टी में कपड़े की दुकान पर था। एकाएक मेरे मन में यह विचार उठा कि श्री सद्गुरुदेव का दर्शन करने चलूँ। यह विचार दृढ़ हो गया और मैं दुकान बन्द कर चल पड़ा। उस समय परमाराध्यदेव का पावन चरण झालीघाट के 65वें महाधिवेशन में पहुँच गया था। मैं श्रीचरणों का आश्रय प्राप्त करने के विचार से जा रहा था। मैं यह सोच रहा था कि अब वापस घर नहीं आऊँगा। उनके श्रीचरणों की सेवा करूँगा। अगर मेरे ऐसे पापात्मा को उन्होंने शरण में नहीं लिया, तो स्थिति कठिन हो जायगी। विविध विचारों की तरंगों में बहता हुआ मैंने महाप्रभु के दर्शन किये। दीनानाथ ने दीन को देख स्नेह-भाव से शरण में ले लिया और मैं उनकी सेवा में बड़ी प्रसन्नता से रहने लगा। परमपिता की असीम कृपा से 6 महीने पार हो गये। एक रोज मुझे पुकारते हुए उन्होंने कहा- “देखो जी, अब तुम घर चले जाओ।” मैं उस रोज घर नहीं गया। प्रातः मुझे देखते ही गुरुदेव बोले- “आज तुम चले जाओ।” मैं चिंता-सागर में डूब रहा था और भीतर-भीतर रो रहा था। कब का पाप उदय हुआ कि पावन चरण-कमल से बिछोह की नौबत आयी। मैंने श्री रामलगन बाबा एवं श्री भगीरथ बाबा से प्रार्थना की। बाबा लोगों ने आराध्यदेव को तेल-मालिश करते समय मेरी ओर से निवेदन किया कि- “हुजूर! यह बहुत सरल और सीधा लड़का है। इसे रहने दिया जाय।” बहुत प्रार्थना सुनकर गुरुदेव करुण-स्वर में बोले- “मेरे रहते ही तुम मर जाओ, यह कैसा होगा?” यह सुन कर दोनों बाबा चुप हो गये। यह जाहिर हो गया कि अब केदार की आयु नहीं है। तेल-मालिश के उपरान्त गुरुदेव ने कहा- “जब तक तुम नहीं जाओगे, मैं भोजन नहीं करूँगा।” मैंने श्रीचरणों में अपने सिर को लगाते हुए सोचा- “अब हम नहीं बचेंगे। यह मेरा अंतिम प्रणाम है।” प्रभो! दया करना, कहते हुए यह शरीर निष्प्राण-सा चल पड़ा। उस समय मेरे मुँह से निकल रहा था- “पुण्य क्षीण जब होय, स्वर्ग से नरक में आवे।” जब तक पुण्य था, परमाराध्य के चरणों में रहा। अब नरक की ओर चला। नैनों के कगार से जलधारा बह रही थी। मैं घर पहुँचा। परिवार के लोगों में प्रसन्नता झलक रही थी, पर मैं तो अल्प जीवन पर रो रहा था। आराध्यदेव का बिछोह एवं अल्प जीवन की चिंता से हृदय विदीर्ण हो रहा था। सदा चिंता-सागर में डूबा हुआ कपड़े की दुकान पर रहता था, बहुत कम दिन बीते होंगे कि बीमार पड़ गया। जब अधिक तकलीफ बढ़ गयी, तो मैंने सोचा कि यह मेरा अंतिम समय है। हे प्रभो! मैं तुम्हारे चरण-कमलों से बहुत दूर हूँ। क्या अब दर्शन फिर दोगे? ऐसा सोच ही रहा था कि मालूम पड़ा सिर फट जायगा। मैं बहुत बेचैन हो गया। घबड़ाहट से मन-प्राण व्याकुल हो उठे। फिर भी मैंने गुरु-कृपा पर अपने को सँभाला और गुरुदेव से विनय के स्वर में कहा- “प्रभो! अब मैं चला। फिर तुम अगले जन्म में दर्शन अवश्य देना।” यह कह रहा था, आँखें बन्द थीं; तभी गुरुदेव के दर्शन हुए और ऐसा लगा कि मैं चला जा रहा हूँ। बस, कहाँ चला गया, कोई पता नहीं। बेहोशी और ज्ञानहीनता की उस दशा में कितने समय तक मैं रहा, इसका मुझे पता नहीं, हाँ, जब पुनः चेतना लौटी, मैंने करवट ली, तो मेरे चचेरे भाई शम्भु ने पूछा- “भैया! सिर की तकलीफ कैसी है?” मैंने उत्तर दिया- “अब ठीक है।”
 प्रातः मेरा अनुज विश्वम्भर आया, मेरी उस दशा को देख उपचार कराया। मैं धीरे-धीरे गुरु-कृपा से ठीक हो गया। एक दिन मेरा साथी जय प्रकाश, सूरदास आया। दोनों निकट सट कर बैठे थे। उन्होंने मेरी हथेली की ऊँगलियों को टोहा और चौंक उठे। उन्हें रुलाई आ गयी। मेरे बहुत आग्रह पर विवश हो, उन्होंने कहा- “अरे भाई, तुम तो समाप्त हो चुके थे; परन्तु कोई बड़ी शक्ति ने तुम्हें बचा लिया। यह तुम्हारी हस्तरेखा बता रही है। इतना सुनते ही मैं रो पड़ा। मैंने कहा- “मुझे गुरुदेव ने मरने से बचाया है।” मैंने सोचा- “संत कबीर ने मुर्दे को जिन्दा कर कमाल नाम रखा था। उन्होंने जीवन भर गुरु-सेवा की। अवश्य ही यह शरीर मिट्टी में मिलने योग्य हो गया था। जिन्होंने इस शरीर को बचा लिया, उनकी जीवन-भर सेवा करूँगा, तो अपने को भाग्यवान समझूँगा। गुरुदेव अपने दयादान से इस नर-कंकाल को बचा धरा-धाम पर चला रहे हैं।” जय गुरुदेव! जय गुरुदेव!! धन्य गुरुदेव!!!


गुरुदेव गुप्त पर श्री सद्गुरुदेव की कृपा [श्री गुरुदेव गुप्त]
 मुहल्ला व पोस्ट ऑफिस करिहो, थाना सुपौल, जिला सहरसा के निवासी श्री गुप्तेश्वर गुप्त के सुपुत्र गुरुदेव गुप्त पर 3 जून 1974 ई0 की रात्रि में श्रीसद्गुरुदेव जी की असीम कृपा हुई। संतों ने सुन्दर ढंग से कहा है, “जाको राखै साईयाँ, मार सकै नहिं कोय। बाल न बाँका करि सके, जो जग बैरी होय।” बालक गुरुदेव गुप्त की आयु का बारहवाँ वर्ष बराबर बीमारी वाला चल रहा था। मैं (गुप्तेश्वर गुप्त) सुबह ट्रेन से सहरसा में राज्य खादी-उद्योग भवन में अपनी ड्यूटी पर पहुँच गया। उस 3 जून की रात के लगभग 12-30 बजे बालक का तापक्रम 106 डिग्री हो गया। हमारी पत्नी बालक को बेसुधावस्था में देखकर श्री सद्गुरु महाराज को याद करती हुई, आर्त्त-पुकार करने लगी। उस रोज मेरे बूढ़े मामा रामानन्द महात्मा जी भी घर आये हुए थे। वे भी बालक की दुर्दशा देखकर बरामदे में अत्यन्त चिन्तित हो रहे थे। कई समीपी मित्र आये, पर डॉक्टर के पास बालक को ले जाने में असमर्थ रहे। चारों ओर घर में निराशा एवं कातरता फैल गयी। ऐसे संकट के समय में एक युवक परसाही-परसाही वाली रट लगाते हुए आये और कहने लगे कि गुप्तेश्वर गुप्त जी ने मुझे दो रुपये देकर बालक के लिए गोलियाँ (दवाई) भेजने को कहा है, सो आप ये गोलियाँ बालक को खिलाइये। इतना कहकर वे वापस द्वार की ओर जाने लगे, तो श्रीमती जी ने निवेदन किया कि “आप कौन हैं? कहाँ से पधारे हैं?” उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया और गायब हो गये।
 मेरे दरवाजे पर सत्संग-भवन है। वहाँ साप्ताहिक सत्संग प्रति सप्ताह नियमित रूप से होता है। जब मैं वापस आया, तो बालक की माँ ने कहा कि आपने दवा किससे भिजवायी थी? उस दवा को खाते ही आपका पुत्र रोग-मुक्त हो गया। सिर्फ दो रुपये की दवा। मैंने सोचा-आह! मैं कितना पापात्मा हूँ। मेरे कारण श्रीसद्गुरु भगवान् को कष्ट करना पड़ा और वेश बदल कर उन्होंने मेरे पुत्र की रक्षा की। धन्य हैं गुरुदेव!


“संत रूप अवतार, आप हरि धरिकै आवें ।” [श्री शीतल प्रसाद सर्राफ, जी0टी0रोड, डेहरी-ऑन-सोन, रोहतास]
तुम्हारी करुण कृपा की कोर
सुहानी उतनी कि जितनी
धुली धरती, खुले नभ की शारदीया भोर
तुम्हारी करुणा
कि दिन यदि आँख मूँद
ले तुम्हारे रूप की झाँकी विभासित
विलसती है प्राण की अन्तः सलिल धारा,
अब मुझे क्या भय
कि अन्तः सलिल में मेरी तरी
हे सदय
पायेगी किसी दिन तो तुम्हारा छोर
 कवि ठीक कहता है। एक बार छोड़ दी नाव उसके सागर में-गुरु के भरोसे, माँझी है वह-एक बार छोड़ दी उसकी मर्जी पर नाव तूफानों में, फिर कोई चिंता नहीं है। “होनी होय सो होय”।
 आज भगवान् श्रीकृष्ण होते तो निश्चय ही अर्जुन को कहते कि हे अर्जुन! ज्ञानियों में परम ज्ञानी महर्षि मेँहीँ मैं ही हूँ। भक्तों में परम भक्त महर्षि मेँहीँ मैं ही हूँ। ध्यान एवं प्रार्थना, योग एवं भक्ति, ज्ञान एवं प्रेम का अद्भुत संगम प्रत्यक्षतः प्रातःस्मरणीय गुरु महाराज में दर्शनीय है।
 आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व इसी धरती पर हजारों-हजार संन्यासी भगवान् बुद्ध के साथ ध्यान करते थे। भगवान् बुद्ध के बाद पृथ्वी पर पहली बार हजारों-हजार की संख्या में एक साथ ध्यान करते परम पूज्य गुरु महाराज के अनुयायियों के दर्शन करने का सौभाग्य भागलपुर में दो वर्ष पूर्व मुझे गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर हुआ। ध्यान की इस गंगा में स्नान करने का जो अवसर मुझे प्राप्त हुआ, उसके शांति, आनन्द और अहोभाग्य का वर्णन असंभव है।
 पूर्णिमोत्सव के बाद मैं भागलपुर से डेहरी लौटने के लिए हावड़ा-गया पैसिंजर पर सवार हुआ। ट्रेन जब शेखपुरा में रुकी, तो मैं पानी के लिए स्टेशन पर उतरा। पानी पी कर ज्योंही मैं ट्रेन की ओर बढ़ा कि ट्रेन छूट गयी। गाड़ी में जबर्दस्त भीड़ थी। मैंने लपक कर ट्रेन के दरवाजे का हैण्डल पकड़ा जो झटके के कारण छूट गया; किंतु सौभाग्यवश एक बूढ़े सज्जन ने मेरा हाथ थाम लिया और खींचकर गाड़ी के अन्दर ले लिया। मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गयी। मैं गाड़ी के नीचे आते-आते बचा था। पन्द्रह-बीस मिनट तक तो मैं बदहवासी में रहा। कुछ संयत हुआ, तो आस-पास के सभी यात्रियों से पूछना शुरू किया कि किस महानुभाव ने मेरा हाथ पकड़कर ट्रेन के अन्दर किया, ताकि मैं अपने जीवनदाता के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर सकूँ। किन्तु आश्चर्य! उस पूरे डब्बे में मेरे हाथ को पकड़कर अन्दर करनेवाले बूढ़े सज्जन की कोई जानकारी नहीं मिल सकी। अभी ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी भी नहीं और मेरे प्राणदाता बूढ़े सज्जन का कोई पता नहीं। गुरु कितने कृपालु हैं! “गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काको लागूँ पाँव?” निस्संदेह “हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठै नहिं ठौर।”
     “सतगुरु नाम ठिकाना है।”


पहले दुःख बाद में सुख [विजय कुमार साह, मनियारपुर (भागलपुर)]
 मैं स्वावलम्बी होने के विषय में श्री सद्गुरु महाराज से पूछने के लिये मनियारपुर से तीन बार कुप्पाघाट आया; लेकिन एक बार भी न पूछ सका। जब-जब गुरु महाराज के निकट आता, तो पूछना भूल जाता था। घर जाने पर या रास्ते में ही याद आता कि मैं भूल गया। चौथी बार जब मैं श्रीसद्गुरु महाराज को प्रणाम कर पैर दबाने लगा, तब कुछ देर के बाद श्रीसद्गुरु महाराज टाटा के विषय में चर्चा करने लग गये। बस झट ही उनके आगे आकर कहने लग गया कि “हुजूर! मैं अभीतक स्वावलम्बी बनने के लिए कोई फैसला नहीं कर सका हूँ, क्या करूँ टाटा में भी मैं कुछ दिन रहा हूँ।
 श्री गुरुमहाराज बोले कि “खेती करो या नौकरी करो।” मैंने कहा कि हुजूर खेती तो मेरे पिता की है। उन्होंने कहा कि नौकरी करो। मैंने कहा कि हुजूर! टाटा में मैं कुछ दिन रहा हूँ और नौकरी की तालाश में हूँ; लेकिन नहीं मिली।
 हुजूर के मुखारविन्द से यह निकल पड़ा कि “जाओ खोजो, नौकरी मिलेगी। लेकिन देखो बेटा! जिस विभाग में काम करोगे, ईमानदारी से रहना।”
 ईमानदारी से रहोगे, तो पहले दुःख होगा, बाद में सुख और बेईमानी से रहोगे, तो पहले सुख होगा, बाद में दुःख और एक बात है कि नम्र बनकर रहना।
 मैं प्रणाम कर उनके बासे से बाहर आ गया। मुझे विश्वास हो गया कि अब नौकरी मिलेगी ही। 23 सितम्बर 1976 को मुझे एक अच्छी नौकरी अनायास ही मिल गयी।
 इस तरह अब मैं श्रीसद्गुरुदेव के आशीर्वाद से स्वावलम्बी हूँ।


हमारे गुरु पूरण दातार [श्री लक्ष्मी निवास रूँगटा, जलालगढ़]
 1981 की बात है, मैं अगस्त महीने में जॉन्डिस से पीड़ित हो गया। ऐलोपैथिक दवा ली, घरेलू, उपचार किया, झाड़-फूँक करवायी; परन्तु कुछ भी आराम नहीं हुआ, मर्ज बढ़ता ही गया। यहाँ तक कि मैं पानी भी ग्रहण करता, तो वह भी नहीं पचता, उल्टी हो जाती। एक सज्जन ने एक फूल सूँघने को दिया और कहा-इसको सूँघने से नाक से पीला पानी गिरेगा और आप ठीक हो जायेंगे। मैंने वह फूल सूँघा, पीला पानी नाक से बहने लगा, दिन-रात बहता रहा, मैं ठीक तो क्या होऊँगा, दूसरे दिन मैं बेहोश की तरह पड़ा रहा। मुझे इतना भी होश नहीं था कि मैं शौच क्रियादि भी करूँ। मेरी यह हालत देखकर मेरी पत्नी एकदम घबड़ा गयी और उसने एक पत्र श्रीसंतसेवीजी महाराज को न जाने क्या-क्या लिखकर डाल दिया और उनसे मेरे प्राणों की भीख माँगी। उस पत्र को प्रातःस्मरणीय श्रीसद्गुरु महाराज को सुनाया गया और उनके आदेशानुसार मुझे कुप्पाघाट आश्रम बुलाया गया। मैं गिरते-पड़ते कुप्पाघाट आश्रम पहुँचा। सामने ही श्री संतसेवी जी महाराज खड़े थे, जैसे मेरी प्रतीक्षा ही कर रहे हों। मैं उनको देखते ही उनके श्रीचरणों में गिर पड़ा और फूट-फूटकर रोने लगा। उनकी आँखों से भी अश्रु बहने लगे, उस पर भी उन्होंने अपने कर-कमलों से उठाकर अपने हृदय से लगा लिया और कहने लगे,- “अब आप गुरुदेव की शरण में आ गये हैं। अब आपको क्या भय है?” उनके श्रीमुख से इतना सुन मुझे बड़ी शान्ति मिली। फिर मैंने गुरु महाराज को प्रणाम किया। उन्होंने कुछ न कहा। अपने पैसे से मेरा इलाज कराने लगे। मेरे मन में भय हो गया कि गुरु महाराज तो कुछ भी नहीं बोले। अब मेरी जीवन-लीला समाप्त है। हाँ, इतना ही मन में संतों ष था-मैं गुरुदेव के समीप हूँ। मेरे मन की हलचल उन अन्तर्यामी से कहाँ छिपी थी? मुझे कुप्पाघाट आये चार दिन हो गये थे। पाँचवें दिन कृपानिधान प्रातःकाल भ्रमण के लिये जा रहे थे। मैंने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने भगीरथ बाबा से पूछने की कृपा की- “कौन है?” भगीरथ बाबा ने कहा-जलालगढ़ निवासी लक्ष्मी बाबू प्रणाम कर रहे हैं।” इतना सुनते ही प्रभु मुझसे बोले- “आपको पीलिया हो गया था, अब आप कैसे हैं?” मैंने हाथ जोड़कर निवेदन किया- “हुजूर! अभी आराम नहीं है।” तब उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा- “आप चिन्ता क्यों कर रहे हैं? आप ठीक होकर जाइयेगा।” यह सुनते ही मैं हर्ष-विभोर हो गया। आँखों से पानी बहने लगा। उस दिन के बाद से मैं स्वस्थ होने लगा तथा बीस दिन बाद स्वस्थ होकर अपने घर वापस आ गया। ऐसे महापुरुष के विषय में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाना है। फिर भी हृदय के ये उद्गार हैं-
जाको राखे साइयाँ, मार सके ना कोय ।
बाल न बाँका करि सके, जो जग बैरी होय ।।


परमाराध्य का पुण्यश्लोक [श्री उपेन्द्र जायसवाल, ढोलबज्जा]
 मैं 1965 ई0 में अररिया में अस्वस्थ था और मरणासन्न स्थिति का अनुभव कर रहा था। मुझे ऐसा भान हो रहा था कि किसी भी क्षण मेरी मृत्यु हो सकती है। मैं परमाराध्य श्रीसद्गुरु महाराज को याद कर रहा था। मानस जप, मानस ध्यान तो चल ही रहा था। उसी क्षण मेरे एक प्रिय पात्र शिक्षक श्री मंडल जी मेरे समक्ष उपस्थित हुए। उन्होंने मुझे धैर्य और हिम्मत देते हुए कहा कि आपके गुरुदेव तो अंतर्यामी, सर्वशक्तिमान एवं सर्वसमर्थ हैं, अपनी अस्वस्थता के विषय में उनसे कहकर क्यों नहीं कष्ट से मुक्त होते हैं? कहने को तो मैंने कह दिया कि वे वास्तव में अन्तर्यामी और अपने भक्तों का कष्ट निवारण करनेवाले हैं, उन्हीं की कृपा से मैं जी रहा हूँ। उनसे उनके पास जाकर कहना नहीं पड़ेगा। लेकिन कुछ घबड़ाहट और अधीरता के कारण मैंने एक पोस्टकार्ड लिखकर परमाराध्य श्रीसद्गुरु महाराज के नाम से कुप्पाघाट आश्रम भेज दिया। एक सप्ताह के अन्दर ही पूज्य श्री संतसेवीजी-लिखित एवं परमाराध्य श्रीसद्गुरु महाराज का नीचे में ‘मेँहीँ’ अंकित पत्र प्राप्त हो गया। उसी दिन से मेरी अस्वस्थता न जाने कहाँ चली गयी? मैंने उक्त पत्र को अपने बिस्तर के पास बहुत दिनों तक रखा था। मेरी आँखों से प्रेम के आँसू कई बार टपक पड़े थे। आह! मैंने अपनी शारीरिक बीमारी-हेतु परमाराध्य श्रीसद्गुरु महाराज को कष्ट क्यों दिया?
 इसके बाद कई बार उन्होंने बीमारी में मेरी अधीरता एवं घबड़ा जाने की चर्चा की थी। उस समय मैं उनकी कृपा का प्रत्यक्ष अनुभव करता था।


श्री आराध्यदेव की लीला [श्री प्रमोद दास, म0 मेँहीँ आ0 कुप्पाघाट]
 आज से 3 वर्ष पहले की बात है। मैं सद्गुरुदेव की गाय की देख-रेख करता था। एक दिन शाम को मैं श्रीचरणों की सेवा में रत था। सोचता था, सरकार मुझे भी अपनी शरण में जगह देते, तो मेरा अहोभाग्य होता! उनके पाद्-पद्मों को दबाते समय मेरे मन में अचानक भाव आया कि चौंका में जाकर भोजन कर लेता, तो ठीक होता; क्योंकि पीछे भोजन घट जायगा। यह भाव खत्म भी नहीं हो पाया था कि अन्तर्यामी प्रभु ने तुरंत मुझे आदेश दिया- “जाओ, तुम भोजन कर लो।” मैं तो पानी-पानी हो गया। अपनी हीन भावना पर बड़ी लज्जा हुई । मैं सरकार के आदेश को मानकर भोजन करने चला गया।


गुरु महाराज का सान्निध्य [श्रीमेवालाल शास्त्री, पटना]
 आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व मुझे गुरु महाराज का सान्निध्य प्राप्त हुआ था! इसका श्रेय मैं श्री सच्चिदानन्द आर्य तथा गुरु भाइयों को देता हूँ, जो घोरघट में संगठित रूप से सत्संग करते थे और एक मन्दिर की स्थापना भी की थी। वहीं मुंगेर जिले का वार्षिक सत्संग-अधिवेशन हुआ था और मुझे स्वागताध्यक्ष बनाया गया था, उसे मैं गुरु महाराज की अन्तर्वाहिनी कृपाधारा का फल मानता हूँ, जिसके कारण मैं दो वर्षों तक नियमित सत्संग कर सत्संगी बना और संतमत-सत्संग के आश्रम में आ गया।
 इस सत्संग-अधिवेशन में आये हजारों विशिष्ट अतिथियों, सत्संगियों तथा साधुओं के आतिथ्य का गुरुतर भार स्वागत-समिति उठाने में असमर्थ हो गयी। हमलोग समस्या लेकर गुरु महाराज के पास गये। एक ने निवेदन किया कि भण्डारे में, अनिमंत्रित साधु-फकीरों को शामिल न किया जाय, तो किसी प्रकार भोज्य सामग्री से काम चल सकता है। गुरु महाराज के शब्द निकले- “तब तो हमारी जाति वालों को ही भोजन नहीं देना चाहते हो।” हमलोगों को काठमार गया। पुनः आदेश हुआ- “जाओ, सब पूरा हो जायगा।”
 भण्डारे में आमंत्रित-अनामंत्रित एक हजार से अधिक शामिल हुए और कुछ भी कम नहीं हुआ। यह आश्चर्यजनक था कि थोड़ी-सी सामग्री में हजारों अतिथियों का सत्कार हो सका।


सन्त-सद्गुरु सबसे बड़े हैं [श्री भगवान दास श्रीसंतमत-सत्संग मंदिर, घोरघट (मुंगेर)]
 दिनांक 19-8-1959 ई0 के रविवार की शाम को श्रीसत्संग-मंदिर पाटम में श्रीसद्गुरु जी महाराज मंच पर विराजमान थे। आकाश मेघाच्छन्न था। सत्संग-पंडाल में कुछ बूँदों के गिरने से भगदड़ मच गयी। यह देखकर आपने आकाश की ओर अपनी दृष्टि उठायी। केवल 7, 8 मिनटों में आकाश स्वच्छ हो गया। फिर हमलोगों ने आपकी अमरवाणी शान्ति-पूर्वक सुनी।


सन्त सहहिं दुख परहित लागी [श्रीकृष्ण बिहारी लाल, बी0ए0, साहित्यमार्त्तंड, जमशेदपुर]
 मैुंझे बसन्त-पंचमी 1971 के दिन गुरु महाराज पूज्यपाद अनन्त श्री-विभूषित महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने भजन-भेद देने की कृपा की थी। उस वक्त मैं भागलपुर में ही सहायक अधीक्षक, वाणिज्य-कर के पद पर पदस्थापित था। मैं 17-2-1971 को बिहार शरीफ चला आया और 9-7-1975 को सिंहभूम अंचल जमशेदपुर में कार्यभार ग्रहण किया। भागलपुर रहते समय मैं गुरु महाराज के दर्शन महीने में चार बार कर पाता था, पर बिहार शरीफ आ जाने पर भी वर्ष में चार-पाँच बार गुरु-दर्शन का अवसर निकल आता था। यह मेरे कठिन जीवन का संबल था।
 जमशेदपुर की दूरी भागलपुर से बहुत है। रास्ता भी टेढ़ा-मेढ़ा। यात्रा में न केवल समय लगता है, शारीरिक कष्ट भी अधिक होता है। जमशेदपुर जब मैं आया, तो सन्धि-वात से अत्यन्त पीड़ित था। अब गुरु-दर्शन दूर की वस्तु बन गया। मैं आकुल-व्याकुल हो उठा। गुरु महाराज को एक पत्र लिखकर अपने मन की व्यथा मैंने उन तक पहुँचवायी। उनका कोई पत्र तो नहीं आया; किन्तु अन्य माध्यम से पता चला कि 26-11-1975 से बराकर (पं0 बंगाल) में उस वर्ष का विशेषाधिवेशन होने जा रहा है। मुझे लगा यह अव्यक्त गुरु-कृपा का व्यक्त संकेत है। मैं उतनी दूर नहीं जा सकता था, गुरु महाराज स्वयं समीप चले आये।
 मेरा स्वास्थ्य फिर भी ऐसा नहीं था कि मैं अकेले रेल या मोटर बस से यात्रा कर वहाँ तक जा सकता। मैंने अपने सहायक (लिपिक) से अपने साथ चलने को कहा। वे तत्क्षण तैयार हो गये। एक मोटरगाड़ी से हम यात्रा कर 26-11-1975 की रात्रि में बराकर पहुँचे। सद्गुरु-निवास को पूछते-पूछते लगभग आठ बजे रात हमलोग वहाँ पहुँचे।
 सद्गुरु-निवास किन्हीं सज्जन के नवनिर्मित धर्मशाला में था। ऊपरी तल्ले की एक कोठरी में गुरु महाराज का निवास था। मैं अपने सहयोगी के साथ उस कमरे में दाखिल हुआ। प्रवेश द्वारा की दाहिनी दिशा में गुरु महाराज का बिछावन लगा था। परमाराध्य दोनों पैरों को नीचे लटकाये बिस्तरे पर विराजमान थे। उस समय श्रीरामशरण रामुका (सुलतानगंज, भागलपुर वाले) एवं श्री बाबा रामलगन दासजी उनकी सेवा में थे।
 मैं कमरे में प्रवेश कर सद्गुरु दयाल के समक्ष खड़ा था। घुट्ठी और दोनों घुटनों में सूजन, तनाव एवं दर्द के कारण सीधे बैठकर, गुरु-चरण का स्पर्श करना मेरे लिये असम्भव था। मैंने श्रीरामुका जी को संकेत किया। उन्होंने अपनी दोनों बाहें मेरी काँखों में लगा दीं। मैं उन पर अवलम्ब देकर पैरों को सीधे आगे फैलाते हुए धरती पर पहले अपने धड़ को उतारकर बैठ गया। फिर धड़ को झुकाकर, हाथों को फैलाया और गुरु महाराज के चरण-कमलों का मैंने स्पर्श किया। गुरु महाराज मेरी दशा को अपलक नेत्रें से निहार रहे थे। उन आँखों से करुणा की वर्षा हो रही थी। मेरे अंग-अंग उस करुणा की ऊष्मा से सतेज हो रहे थे।
 मैं थोड़ी देर बैठा रहा। मेरे सहायक श्री बृज किशोर सिंह भी गुरु महाराज के दर्शन कर वहीं बैठे थे। हमें आदेश हुआ- “अच्छा, अब आपलोग जाइये। आराम कीजिये।” हमने विदा ली। रात का भोजन कर प्रार्थना करके हमलोग सो गये।
 रात बीती। गुरु-दर्शनवाला सबेरा हुआ। हम नित्य-कर्म से जल्दी-जल्दी निबट कर सद्गुरु-निवास के बाहर पहुँचे। दर्शनार्थियों की भीड़ लगी थी। सद्गुरु-निवासवाला कमरा बन्द था। सब लोग बाहर ही प्रतीक्षा-रत थे। उनमें एक था-पासी। नंग-धड़ंग, काला-बदन, चौड़ी छाती, नाटा कद। केवल कमर में लँगोट बाँधे, उसमें ताड़ काटनेवाली हँसिया खोसे हुए। मुख दरवाजे की ओर। दोनों हाथ जुड़े हुए। वह श्रद्धा की मूर्ति-सी आँखें बन्द कर खड़ा था। अन्य प्रतीक्षारत लोग आपस में बातें कर रहे थे। इसी बीच पूज्यपाद श्री बाबा सन्तसेवी जी महाराज वहाँ आये। वे मुस्कुराते हुए बोले- “लाल साहब, भक्त भगवान् को भजते हैं, पर जब भगवान् ही भक्त को भज रहे हों, तब भला उसे किस बात की चिंता? रात आपकी दशा देखकर गुरु महाराज इतने द्रवित हुए कि उनकी ही तबीयत खराब हो गयी।”
 मैं दर्शन कर वापस लौटा। तब से ही मेरा स्वास्थ्य धीरे-धीरे सुधरने लगा। अब मैं स्वतन्त्र रूप से चलने में ही नहीं, दौड़ लगाने में भी समर्थ हूँ। पूज्य सन्तसेवी जी की ऊपर लिखित बातें याद कर मेरा मन कह उठता है-
 “सन्त सहहि दुख पर हित लागी ।”
और
यदि गुरु किरपा तनिहुँ विचारै, मिटै कल्पना सोग हे ।
गुरु सम दाता साहब नाहीं, गुरु गुरु कहिये लोग हे ।।
अब राखो राखनहार दूजा कोई नहीं
श्री दरवेश पंडित, गोपालगंज
 सन्त दरिया साहब के शब्दों में-
 “डूबत रहा भवसिन्धु में, लोभ मोह की धार।
  दरिया सतगुरु तैरू मिला, कर दिया पैले पार।।”
 प्रातःस्मरणीय अनन्त श्री-विभूषित श्रीसद्गुरु जी की महती कृपा से मैं अजेय नदी में डूबने से बच गया। यह मुझपर गुरुदेव की अहैतुकी कृपा का ही फल है। गुरु धन्य हैं, गुरु धन्य हैं!
 घटना इस प्रकार है। दिनांक 22-9-1976 को अवर प्रमण्डल पदाधिकारी निरीक्षण-हेतु स्थल पर आनेवाले थे। पदाधिकारी महोदय के आने की सूचना पाकर मैं नदी के उस पार जाने का निश्चय कर रजिस्ट्रार को साथ लेकर चल पड़ा। दिनांक 18-9-1976 को नदी में बहुत भारी बाढ़ आयी हुई थी। जलराशि किस स्थान पर कितनी है, पता नहीं चलता था। नदी के घाट से कुछ दूर अलग होकर हमलोग पार हो गये। इसी बीच में और लोग पार होने के लिये आये, जिसमें एक वृद्ध व्यक्ति भी थे। उनके कंधे पर साइकिल थी। वे साहस बटोर कर पार होने लगे। नदी के दूसरे किनारे तक पहुँचे भी नहीं थे, तब तक नदी की तीक्ष्ण धारा में डूबने लगे। साइकिल छोड़कर वे किसी प्रकार नदी पार आ गये। इस घटना को देखकर मुझसे नहीं रहा गया। मैं नदी में पुनः प्रवेश कर गया। मैं तैरना भी नहीं जानता था। जो तैरना जानते थे, उनलोगों से विनम्रतापूर्वक कहा कि आपलोग कृपया इस बुजुर्ग आदमी की साइकिल निकाल दें; परन्तु उस समय कोई सज्जन मेरी बात को सुनने के लिये तैयार नहीं हुए।
 मैं साहस करके नदी में बढ़ने लगा। मुश्किल से पाँच मीटर भी बढ़ नहीं पाया, तबतक छाती भर पानी हो गया। मैं निकलना चाहा; परन्तु नदी की प्रचण्ड धारा से निकलना सम्भव नहीं था, स्वयं अपने को सँभाल नहीं सका। मेरे पैर थिर नहीं हो रहे थे। अब मैं गर्दन भर पानी में हो गया। इस स्थिति में कुछ समय रह नहीं पाया, तबतक मैं नदी में डूब गया-यह कहते कि बचाओ-बचाओ; परन्तु नदी के दोनों किनारे पर खड़े व्यक्तियों में से किसी को साहस नहीं हुआ कि अथाह जल-राशि में प्रवेश करे।
 डूबते-डूबते करीब 15 मीटर मैं उस ओर गया। जिधर भँवर उठ रहा था और सरिता अपनी वेगवती धारा से प्रवाहित हो रही थी। एक बार ऊपर आया और ‘बचाओ-बचाओ’ का शब्द किया और पुनः नदी में डूब गया। इस परिस्थिति में मुझे सबका भरोसा छूट गया।
 प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद श्रीसद्गुरु महाराज जी (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) का मानस ध्यान मन-ही-मन करने लगा। परमाराध्य सद्गुरु महाराज जी से यही कहा- “सकल भूले एके रहे गुरु तुम पद स्नेहू ।।”
  “अब राखो राखनहार दूजा कोई नहीं।” सन्त जगजीवन साहब जी के शब्दों में- “गाढ़ परै तो लेहि उबारि।” स्मरण करने लगा और गुरुदेव का ध्यान अनवरत रूप से करता रहा। मुझे ऐसे लगा कि साक्षात् गुरुदेव ने अपने कोमल हाथों पर मेरे शरीर को रखकर सरिता की अथाह जल-राशि से निकालकर मुझे थाह में कर दिया। अब मैंने अपने को सूखे में पाया। मेरे रोम-रोम से धन्य गुरु, धन्य गुरु, जय गुरु, जय गुरु की ध्वनि हो रही थी। “लागी दया कोमल चित्त सन्ता।” सन्त पलटू साहब ने ठीक ही कहा है- “पल भर परै न भोर लेत हैं खबर हमारि।”


मेरे सद्गुरुदेव [श्री विजयशंकर पाण्डेय, बी0 फार्म, औषधि-निरीक्षक (बिहार)]
 सन् 1966-67 की बात है। मैं अपने निलम्बन के सम्बन्ध में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री दरोगा प्रसाद राय से मिलने पटना उनके आवास पर गया हुआ था। मैंने देखा कि बैठक में एक महात्मा का चित्र टँगा हुआ है, जो हाथ में छड़ी लिये खड़े हैं। स्वभावतः मैंने पूछा कि यह चित्र किनका है? लोगों ने बतलाया कि यह चित्र मन्त्री जी के गुरु महाराज का है। मन में एक गुप्त अभिलाषा हुई कि मुझे भी कोई इस प्रकार के गुरु मिलते, तो कितना अच्छा होता! उसके बाद सरकारी आदेशानुसार मेरा मुख्यालय भागलपुर कर दिया गया।
 पता लगाते हुए कि भागलपुर के आस-पास कोई सन्त-महात्मा रहते हैं या नहीं, मेरा कुप्पाघाट आश्रम में आना-जाना शुरू हो गया। पहले ही दिन जब मैं आश्रम पहुँचा, तो मुझे गुरु महाराज के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जाड़े का दिन था तथा गुरु महाराज बाहर ही धूप में कुर्सी पर विराजमान थे।
 अभिवादन कर मैं वहीं जमीन पर गुरु महाराज के बिल्कुल निकट बैठ गया। गुरु महाराज ने पूछने की कृपा की कि सन्त किसे कहते हैं? समुचित उत्तर नहीं सूझ पाने के कारण मैं कुछ बता नहीं पाया। तब गुरु महाराज ने इसका उत्तर पूर्ण आत्मीयता के साथ बतलाया। गुरु महाराज की आकृति मेरे पितामह से इतनी अधिक मिलती है कि बाद में जब मैं गुरु महाराज का चित्र मढ़ाकर घर ले गया, तो पुरोहित इत्यादि सभी ने यही कहा कि यह चित्र बाबा (पितामह) का है न?
 अब अध्ययन की रुचि जागी तथा मैं सत्संग सुनने लगा पूरी तन्मयता से सभी साहित्य पढ़ने लगा। बहुत संतों ष हुआ तथा दिनांक 8 फरवरी, 1968 को गुरु महाराज ने मुझे तथा श्री अर्जुन पाण्डेय (विद्यार्थी) को साथ-साथ भजन-भेद दिया। गुरु महाराज की हर बात में इतनी आत्मीयता थी कि लगता था कि पता नहीं कब के अपने अत्यन्त आत्मीय हैं।
 एक बार श्री अर्जुन पाण्डेय ने अपने रहनेवाले एक कमरे में ही सत्संग का आयोजन किया था। यह बात बहुत आनंदकारी हुई कि इस छोटे सत्संग में भी गुरु महाराज स्वयं नियत समय पर पधार गये थे।
 एक बार मैं मुन्दीचक से खंजरपुर होते हुए पैदल ही आश्रम जा रहा था। मैदान में एक पेड़ के पास मेरे मन में विचार आया कि यदि गुरु महाराज ने किसी प्रसंग में किसी प्रकार बेर का नाम ले लिया, तो मैं समझ जाऊँगा कि गुरु महाराज ने मेरी सभी त्रुटियों को जानते हुए भी स्वीकार किया है। मन में शबरी के बेर वाली बात थी।
 वहाँ पहुँचा तो चर्चा चल रही थी कि फलाँ जगह जेल के अन्दर बहुत सारे बेल के पेड़ थे। उसके बाद गुरु महाराज ने कहा कि बेल हर हालत में फायदा ही करता है। परन्तु बेर, कैसे भी खाया जाय, नुकसान करता है।
 इसके साथ ही गुरु महाराज ने रहस्यमयी दृष्टि से मेरी ओर देखा तथा दूसरी तरफ मुँह घुमा लिया।
 रास्ते में सोची हुई बात मैं वहाँ के वातावरण में बिल्कुल भूल गया था। मन में हुआ कि गुरु महाराज ने मुझे ऐसे क्यों देखा है?
 लौटते समय जब मैं उसी पेड़ के पास से जाने लगा, तो मुझे वह बात अचानक याद आ गयी और मुझे लाज के मारे काठ मार गया कि अरे बाप रे! यह क्या हो गया! मुझे अपनी ही बात याद नहीं रही और गुरु महाराज ने वह कर दिया।
 यह तो सर्वव्यापक और अन्तर्यामी होने से भी आगे वाली बात हो गयी।


गुरु की कृपा-दृष्टि [श्री रामावतार अग्रवाल, अकबरपुर (फैजाबाद)]
 सन् 1963 में कनखुदिया में हुए अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के वार्षिक अधिवेशन की बात है। तीन दिवसीय सत्संग-समाप्ति के बाद प्रातःस्मरणीय श्री सद्गुरुदेव जी महाराज बैलगाड़ी-द्वारा अररिया के वास्ते यात्रा कर रहे थे। उस यात्रा में मुझे भी साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ समय के लिये मैं बैलगाड़ी से उतरकर पैदल ही गाड़ी के पीछे-पीछे चलने लगा था। आगे हिस्से में पूज्य श्री गुरुदेवजी महाराज बैठे हुए थे और पीछे के हिस्से में बाबा श्री संतसेवीजी महाराज-इस तरह चलते-चलते थोड़ा समय व्यतीत हुआ था कि पूज्य आराध्यदेवजी महाराज ने पूछने की कृपा की- “कुछ भजन भी होता है क्या?” मैंने निवेदन किया- “चाहता तो हूँ; किन्तु भोर में भजन की वेला में जिनके यहाँ कार्य करता हूँ, वे सेठ साहब बुला लेते हैं और कार्य करने लग जाता हूँ।” फिर पूछने की कृपा की- “क्या उम्र है उनकी।” मैंने निवेदन किया- “करीब 30-35 वर्ष।” तब आपने आदेश दिया- “इस बार जब बुलावें तो कह देना, “यह समय भजन करने का है। अच्छा हो, आप भी भजन किया करें।” बाद में चाकुलिया वापस पहुँचने के पहले पूज्य चाचाजी (श्री गंगाधरजी शर्मा, डेहरी ऑन सोन) से मैंने उक्त बात की चर्चा की, तो उन्होंने बताया कि तुम्हें कहने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
 गुरु महाराज जी की ऐसी महान् दया हुई कि जब मैं अपने कार्य पर चाकुलिया पहुँचा तो उस दिन से लेकर जबतक मैं वहाँ रहा, कभी भी मुझे भोर में भजन की वेला में सेठ साहब ने नहीं बुलाया और न कभी भजन के समय में किसी प्रकार की बाधा ही दी।
 बलिहारी है गुरु महाराज आपकी, जो मेरे जैसे अधम का भी ख्याल रखते हैं।


सद्गुरु महाराज की दिव्य शक्तियाँ [श्री कुलदीप साह, नारायणपुर, भागलपुर]
 भागलपुर जिला संतमत-सत्संग का 22वाँ वार्षिक अधिवेशन नारायणपुर में होना निश्चित हुआ। वर्ष 1970 ई0 का था। पूज्य गुरुदेव की कृपा से 8 और 9 फरवरी को सत्संग की तिथि तय हुई। पंडाल का स्थान नारायणपुर महाविद्यालय चुना गया था।
 गंगा नदी के कटाव से सभी ग्रामीणों के घर कट जाने के कारण सबों की आर्थिक स्थिति दयनीय थी। अधिवेशन का समय करीब था, पर व्यवस्था उसके अनुरूप कुछ भी नहीं हो पायी थी। पंडाल का कार्य तक भी पूर्ण नहीं हो पाया था। दिनांक 7 फरवरी 1970 से ही लोगों की भीड़ उमड़ने लगी। मैं काफी घबड़ा गया। जब गुरुदेव का पदार्पण हुआ, तो सारी व्यवस्था समुचित ढंग से पूर्ण होने लगा। दोनों दिन के सत्संग में हजारों की भीड़ रहती थी। सत्संग का सारा कार्यक्रम विधिवत् पूर्ण हुआ। यही गुरुदेव की दिव्य शक्ति है।


परमाराध्य श्री गुरुदेव की अन्तर्यामिता एवं अहैतुकी कृपा [श्री रमण भाई पटेल]
 मैंने आवास के लिये भागलपुर में कुछ जमीन खरीदी थी। मन में इच्छा जाग्रत हुई कि मकान का शिलान्यास यदि परमाराध्य श्री गुरुदेव (पूज्यपाद अनन्त श्री-विभूषित प्रातः स्मरणीय महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज) के पावन करकमलों द्वारा हो, तो हमारा अहोभाग्य हो जाय।
 घर पहुँचने पर यह बात मैंने अपनी पत्नी के सामने रखी। वह मेरी अनुपस्थिति में ही एक पण्डितजी से शिलान्यास के लिये शुभ मुहूर्त्त निकलवा चुकी थी। पण्डित जी ने 2 फरवरी 1979 ई0 के 6-30 बजे सायंकाल को शुभ मुहूर्त्त बनाया था। मैंने अपनी पत्नी से कहा-पूज्यपाद गुरुदेव निवेदन करने पर जिस दिन, जिस समय स्वेच्छा से हमारी जमीन पर अपने त्रयलोक पावन चरण-कमल रखेंगे, वही दिन, वही समय शुभमुहूर्त्त हो जायगा।” मेरी बात से मेरी पत्नी सहर्ष सहमत हो गयी।
 जाड़े का मौसम था। मैं कुप्पाघाट, आश्रम (भागलपुर) पहुँचा। उस दिन पहली फरवरी थी। पूज्य बाबा श्री सन्तसेवी जी महाराज के द्वारा अपने मन की साध गुरुदेव के चरणों में निवेदित करायी। गुरुदेव तो अन्तर्यामी हैं, उनसे क्या छिपा रह सकता है? वे तो भक्तों के मन की रखते ही हैं। उन्होंने अगले दिन 2 फरवरी को ही प्रसन्नतापूर्वक जाने का वचन दे दिया। मेरे आनन्द की सीमा न रही। समय के बारे में पूछने पर गुरुदेव ने कहा- “कल 4-30 बजे अपराह्णकाल आ जाइये। अपनी मोटर कार लेते आइयेगा। ग्रन्थ-पाठ समाप्त होने पर चल दूँगा।”
 दूसरे दिन नींव के लिये सारी तैयारी घर पर करवाकर मैं अपनी गाड़ी लेकर ठीक 4-30 बजे आश्रम पहुँचा। ग्रन्थ-पाठ चालू था। जब मैंने गुरुदेव के चरणों में माथा टेका, तो उन्होंने पाठ-श्रवण के लिये बैठने का संकेत किया। मैं एक तरफ बैठकर पाठ सुनने लगा।
 कुछ देर होने पर पूज्य श्री सन्तसेवी बाबा ने याद कराया कि हुजूर! पटेल साहब के यहाँ आज चलना है न? गुरुदेव ने यह सुनकर भी पाठ का क्रम चालू रखाया। प्रतिदिन 5-30 बजे पाठ समाप्त कराया जाता था, आज पौने छः बजे समाप्त कराया गया। इसके बाद गुरुदेव बोले- “अब मैं आपके यहाँ चलने के लिये तैयार हो लेता हूँ।”
 गुरुदेव तैयार होकर छः बजे गाड़ी में बैठे और सवा छः बजे आवास की जमीन पर पहुँचे। वहाँ पहले से ही बहुत-से लोग दर्शनार्थ उपस्थित थे। उन सबने गुरुदेव का स्वागत किया। आसन ग्रहण करने के बाद गुरुदेव ने कहा- “अब चलिये, नींव डाली जाय।” जमीन के उत्तर-पूरब की ओर कोने में पंडित जी पहले से उपस्थित थे। ह्वीलचेयर में बैठे हुए गुरुदेव उक्त स्थान पर पहुँचे। नींव डालने के निमित्त पण्डित जी के शास्त्रीय ढंग से अनुष्ठान करने पर गुरुदेव के कर-कमलों द्वारा नींव ईंट डाली गयी। उस समय ठीक 6-30 ही बज रहे थे, यही समय तो पंडित जी ने भी शुभ बताया था। हमलोग हर्षोल्लास से भर गये और गुरुदेव के इस कार्य के लिये अपने को चिर-ऋणी जाना। गुरुदेव के आदेशानुसार उन्हें उसी संध्या में प्रेमभक्तिपूर्वक आश्रम पहुँचा कर लौट आये।
 कुछ दिनों के बाद जब मकान पूरी तरह बनकर तैयार हो गया, तो विनय किये जाने पर गृह-प्रवेश उत्सव के अवसर पर हमारे यहाँ पदार्पण करके हमपर बड़ा अनुग्रह दिखाया। सत्संग और मकान का उद्घाटन करने के बाद उन्होंने भोजन और विश्राम भी करने की कृपा की। तत्पश्चात् आश्रम लौट आये।
 अपने शुभ पदार्पण से पूज्यतम गुरुदेव भगवान् ने हमारी आवास-भूमि के कण-कण में अपनी आध्यात्मिक पावनता भर दी है, जो हमें आत्मोत्थान की सतत प्रेरणा देती रहेगी-ऐसा मेरा विश्वास है। प्रत्यक्ष परमात्म-स्वरूप गुरुदेव की अहैतुकी कृपा का संस्मरण करके हम कृतज्ञता, प्रेम और भक्ति के भावों में डूब जाया करते हैं।


श्री सद्गुरुदेव की भविष्य-वाणी [श्री नित्यानन्द दास]
 सन् 1982 ई0 के 28 मार्च, रविवार की बात है। कुप्पाघाट आश्रम-वासी हम चार गुरु-भाइयों के मन में एकाएक यहाँ से भागने की इच्छा हुई। प्रत्येक रविवार को परमपूज्य परमाराध्य श्री सद्गुरुदेव महाराज सत्संग-हॉल में सत्संग करने अपनी गाड़ी से जाया करते थे। पूज्य श्री भगीरथ बाबा ने गाड़ी से परमाराध्य को गोद में लेकर सत्संग-हॉल में स्थित उनके सिंहासन पर जैसे ही बैठाया, वैसे ही गुरुदेव बोले- “जिसको भागना है, भागो, पर भागने पर लाभ नहीं होगा।” हजारों सत्संगीगण के बीच में श्री मुखारविन्द से जो यह वाणी निःसृत हुई, सुनकर लोग आश्चर्य-चकित हो गये। तब पूज्य श्री भगीरथ बाबा ने पूछा- “हुजूर! किनको कह रहे हैं।” किन्तु पुनः सद्गुरुदेव ने उक्त वचन ही दुहराया। हम चारो भी सत्संग में ही बैठे हुए थे। अतएव हमलोगों के मन में यह बात बैठ गयी कि अन्तर्यामी नर-रूप-हरि हमलोगों को ही कह रहे हैं; क्योंकि हमलोग ही भागने वाले हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने अपने रामचरितमानस के बालकाण्ड में ठीक ही कहा है-
 “तुलसी जैसी भवितव्यता, तैसी मिलइ सहाइ ।
  आपुन आवइ ताहिं पहि, ताहि तहाँ ले जाइ ।।”
 अस्तु! यद्यपि सद्गुरुदेव हमलोगों को संकेत रूप में मना कर रहे थे, फिर भी हमलोग अपनी भवितव्यतावश आश्रम से भागकर हरिद्वार चले गये। किन्तु वहाँ मन नहीं लगने के कारण पश्चात्ताप करने लगे। और कुछ ही दिनों के बाद हम चारो गुरुभाई आश्रम आकर अपनी गलती स्वीकार कर आश्रम में रहने के लिये आश्रम के व्यवस्थापक पूज्य श्री शाही स्वामी जी महाराज से निवेदन किया। उन्होंने हमलोगों को पुनः अपने-अपने कामों पर नियुक्त कर लिया।


कल्पवृक्ष गुरुदेव मनोरथ सब सरैं [श्रीमती शिवकुमारी देवी]
 लगभग दस वर्ष पूर्व की बात है। हमारे परिवार के ऊपर एकाएक एक घोर संकट आ गया। (उसका स्पष्टीकरण करना उचित नहीं होगा) मेरे पतिदेव बहुत चिन्तित और दुःखी हो उठे। जब मुझे मालूम हुआ, तो उनकी ही तरह मेरी भी हालत हो गयी। मैं मन-ही-मन गुरुदेव को पुकारती थी- “गुरुदेव! इस दुःख-सागर से हमलोगों का उद्धार कीजिये।” प्रार्थना करने पर थोड़ी देर के लिये मन हल्का हो जाता था। फिर जब-तब वह विपत्ति का पहाड़ सामने दीखता, तो मन विचलित हो उठता। इस प्रकार कई दिन व्यतीत हो गये। एक दिन मेरे मन में विचार आया कि जिनका थोड़ी देर स्मरण करने से मन में कुछ चैन-सा मालूम पड़ता है, शान्ति-सी मिलने लग जाती है-दुःख भुला-सा जाता है; क्यों नहीं, उनके पास जाकर साक्षात् दर्शन कर दुःख दूर करने के लिये प्रार्थना की जाय। गुरु-भक्तिन सहजोबाई ने लिखा है-
 “गुरु से कछु न दुराइये, गुरु से झूठ न बोल ।
  भली-बुरी खोटी-खरी, गुरु आगे सब खोल ।।”
 यही सोचकर अपने पूज्य पतिदेव से मैंने कहा- “हमलोगों के ऊपर जो विपत्ति आयी है, इसको परम पूज्य श्री सद्गुरु महाराजजी को छोड़कर और कोई नहीं टाल सकता, अतएव उनकी ही शरण में हमलोगों को जाना चाहिये और प्रार्थना करनी चाहिये।
 उस समय यद्यपि हमारे पूज्य पतिदेव संतमत में दीक्षित नहीं थे, फिर भी परम पूज्य श्रीसद्गुरु महाराज में उनकी श्रद्धा अवश्य थी। मेरे विशेष आग्रह पर उन्होंने चलना स्वीकार कर लिया।
 उन दिनों प्रातः स्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित श्रीसद्गुरु महाराजजी मेरे पीहर-पुरैनियाँ जिलान्तर्गत भवानीपुर राजधाम सत्संग-मंदिर में विराज रहे थे। वहाँ नियमित रूप से सत्संग का कार्य चलता था। हजारों-हजार लोग उनके दर्शन करने और प्रवचन सुनने के लिये आते और अपने मानव-जीवन को सफल बनाते। हम दोनों (पति-पत्नी) भी वहाँ पहुँचे और दर्शन और प्रणाम कर लिये; लेकिन वहाँ पहुँच कर भी हमलोगों की यह हिम्मत नहीं हो रही थी कि उनके पाद-पद्मों में अपनी व्यथा रख सकें। फिर कुछ सोच-समझ कर हम दोनों पूज्य बाबा श्रीसंतसेवीजी महाराज के पास गये और प्रणाम कर अपनी सारी कहानी सुना दी। हमलोगों को दुःखी देखकर उनका कोमल हृदय पिघल गया और वे ढाढ़स बँधाते हुए बोले- “इसमें अधीर और दुःखी होने तथा घबड़ाने की क्या बात है? आप लोगों ने ‘महर्षि मेँहीँ पदावली’ में गुरु-वाणी नहीं पढ़ी है?
‘भजु मन सतगुरु दयाल, काटैं जमजाला ।”
 अरे! जो गुरु यम-जाल को काट सकने में समर्थ हैं, वे क्या जग-जाल नहीं काट सकते? जाइये, उनके श्री चरणों में प्रार्थना कीजिये।”
 उनकी इस प्रेरक वाणी से हमलोगों को बहुत बड़ा बल मिला। हमलोग साहस बटोर कर परम पूज्य श्री सद्गुरु महाराज जी के चरणकमलों में उपस्थित हो प्रणाम कर एक ओर खड़े हो गये। हमलोगों को देखकर उन्होंने मधुर स्वर में पूछने की कृपा की। सब कुछ सुनकर प्रसन्न मन से उन्होंने हमलोगों को आशीर्वाद दिया। उनकी कृपा से तबसे अबतक हमलोग सुख की साँस ले रहे हैं। हमें विश्वास है कि भविष्य में भी ऐसी कृपा बनी रहेगी।
 गुरुदेव का प्रत्यक्ष चमत्कार देखा है। अधिक क्या कहा जाय, मेरे विचार में तो वे कल्प-वृक्ष हैं। जो कोई जिस कामना को लेकर शुद्ध हृदय से उनकी शरण में जाते हैं, वह अवश्य पूरी होती है।
 सन्त चरणदासजी महाराज ने ठीक ही कहा है। उनकी यह वाणी बिल्कुल सत्य है-
 “कल्पवृक्ष गुरुदेव मनोरथ सब सरै ।”


गुरु-प्रसाद की महिमा [श्रीमती मोहिनी देवी रुँगटा]
 1977 ई0 की बात है। मैं जून महीने में बीमार पड़ी। दो ढाई महीने हो गये, मैं अस्वस्थ ही रही, बुखार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। मेरे परिवारवाले भी हताश हो गये। अनेक प्रकार की चिकित्सा की, मेरे मन में भी घबड़ाहट होने लगी और मैं सोचने लगी, अब तू कुछ ही दिनों की मेहमान है। इसका कारण यह था कि मेरे पति के बड़े भाई की शादी निश्चित हो गई और उसी बीच इनकी माँ मर गयी, फिर इनके भाई के लड़के की शादी हुई और इनकी भाभी का भी स्वर्गवास हो गया। मेरे लड़के की शादी भी फरवरी में हुई और मैं भी जून में बीमार पड़ गयी। यहाँ एक बात बता देना चाहती हूँ कि इनकी भाभी तथा माँ भी शादी के कुछ दिनों बाद ही जून में मर गयी थीं। इसलिये सभी को यह विश्वास हो गया कि मैं भी नहीं बचूँगी। जब इन्सान सब तरफ से निराश हो जाता है, तब वह भगवान् को पुकारता है, वही हाल मेरा और मेरे पति का हुआ। हमलोगों ने भी प्रातःस्मरणीय परम पूज्य श्री सद्गुरु महाराज जी की शरण ली और कातर होकर उनको पुकारा। उन्होंने हमारी करुण पुकार सुनी और कुप्पाघाट-आश्रम आने को लिखा। मैं पत्र के साथ वहाँ पहुँची। सायंकाल गुरु महाराज ने संपादक जी को भेजकर भागलपुर निवासी स्वर्गीय वैद्यराज श्री नारायण जी शर्मा को बुलाया तथा मुझे दिखाया। उन्होंने मुझे दवा दी। ब्लड, यूरीन वगैरह की जाँच करायी। ब्लड, यूरीन की रिपोर्ट नहीं आयी थी। दूसरे दिन रविवार था। मैं सत्संग में चली गई। मेरा जी घबड़ाने लगा; फिर भी मैं बैठी रही, वहाँ से जब मैं वापस आयी, तो मेरा शरीर इतना अस्वस्थ हो गया कि मैं बैठने में भी असमर्थ हो गयी। मैं मन में सोचने लगी, अब क्या होगा! तू यहाँ क्यों चली आयी! इसी चिन्ता में बिस्तर पर लेट गयी। लेटते ही मुझे चक्कर आने लगा। जी मिचलाने लगा, उल्टी होने लगी तथा अपनी अन्तिम लीला समझ में रोने लगी। मेरे पति आये, समझाने लगे। मैंने कहा- “मैं यहाँ से सुबह ही चली जाऊँगी, तब उन्होंने सान्त्वना दी और चले गये। मेरा रोम-रोम प्रभु को पुकार रहा था। करुणा-निधान ने मेरी प्रार्थना सुनी और कमरे के दरवाजे पर खटखट की आवाज हुई। मैं उठी और दरवाजा खोला। देखती क्या हूँ कि श्री हरिनन्दन बाबा हाथ में सेव लेकर खड़े हैं। मैंने पूछा- “कहिये क्या बात है?” उन्होंने कहा कि गुरु महाराज ने सेव देकर कहा है- “उनको दे आइये, मेरे लिये रस निकाल देगी।” मैंने काँपते हाथों से सेव लिया और अपनी सारी बीमारी भूलकर रस निकाला तथा अपने पति के हाथों से गुरु महाराज के पास भेजा। उस समय रात्रि के सवा सात बजे थे। उन्होंने एक घूँट पी लिया और कहा- “अपनी धर्म-पत्नी को पिला दीजिये।” मैं रस पीकर सो गयी। प्रातःकाल जब उठी, तो नया जीवन मिला। शरीर में स्फूर्ति आ गयी और मुझे ऐसा लगा, जैसे मैं बीमार पड़ी ही नहीं। धन्य है गुरु-महिमा!


जीवन-दान [श्री मनोहर चौधरी, भागलपुर]
 यह घटना 1980 की है। मेरी पुत्री आशा देवी चौधरी को लड़का होनेवाला था। उस समय आशा का ब्लड-प्रेशर 150/160 हो गया था। उम्र करीब 20 वर्ष की थी। डॉक्टरों ने कहा- “बिना ऑपरेशन के नहीं होगा। काफी कमजोर है। बचने की उम्मीद बहुत कम है। साँस लेने में भी कठिनाई है।” रात में 10 बजे के करीब-करीब यह बात तय हो गयी कि उसका ऑपरेशन सुबह होगा। खून का प्रबन्ध करके रखा गया।
 मैं बहुत घबड़ा गया। घर के सभी लोग इन्तजाम करने में लग गये। ऑपरेशन होना करीब एक घंटा बचा था। मैं रिक्शा करके आश्रम आया। गुरु महाराज गाड़ी में घूम रहे थे। श्री रामलगन बाबा गाड़ी चला रहे थे। मुझसे कुछ बोला नहीं जाता था। मुझे रोना-ही-रोना आता था। किसी प्रकार सभी बातें श्री रामलगन बाबा से कहीं और उन्होंने हमारी प्रार्थना सरकार से कह सुनाई। उन्होंने कहा- “मनोहर बाबू रोय रहल छै, उनको पुत्री के ऑपरेशन अभी होतै डॉक्टर लोग कहय छै, खतरा है।” सरकार ने सभी बातें सुनकर कहा- “डॉक्टर लोग ऐसे कहय छै, ठीक होय जैतेय।” आशा को ऑपरेशन-घर में ले गये। ऑपरेशन से लड़का हुआ; लेकिन आशा की हालत अत्यन्त चिन्ता-जनक देखकर सभी डॉ0 भगवान् से प्रार्थना करने लगे; लेकिन मैं तो सरकार से आशीर्वाद मिलने के कारण चिन्तामुक्त हो गया था। मुझे गुरु महाराज पर एकमात्र भरोसा था। गुरुदेव ने मेरी आशा को बचा कर, मेरी आशा पूरी की। आशा को जीवन-दान दिया।
 लड़का तो पहले हो गया; लेकिन होने के बहुत देर बाद तक नहीं रोया और आँख भी नहीं खोली। मैंने अस्पताल से ही गुरु महाराज को फोन किया। फोन पर श्री हरिनन्दन बाबा थे। मैंने उनसे भी हाल कहा। उन्होंने गुरु महाराज से प्रार्थना की। सभी बातें बतायीं। गुरु महाराज की कृपा हो गयी। उन्होंने कहा- “मैं भगवान् से प्रार्थना करता हूँ कि बच्चे को प्राण आ जाय।” यह खुश-खबरी हरिनन्दन बाबा ने फोन से सुना दी। मैं फोन करने नीचे आया था। रोगी का कमरा तीन तल्ले पर था। फोन करके ऊपर आते ही मालूम हुआ कि बच्चे ने आँखें भी खोल दीं और रोया भी है। हमारा मन बार-बार गुरु महाराज की जय-जयकार करने लगा। गुरु-कृपा को बार-बार अनुभव करते मन फूला नहीं समाता था। सोचता था कि हमारा कोई कर्म अच्छा था, जो ऐसे महान् परमात्म-स्वरूप गुरु मिले। ऐसे महान् गुरु मिलने से मैं अपने-आपको महान् भाग्यशाली समझता हूँ। ऑपरेशन के बाद भी आशा की हालत चिन्ताजनक थी। डॉक्टरों ने कहा- “रात बीत जाना कठिन है।” शनिवार का दिन था। अमा की रात थी। पूज्यपाद श्री सद्गुरु महाराज को भी सबों ने चिंतित पाया। पूज्य शाही बाबा के सेवक गोपाल बाबा को गुरु महाराज ने हाल-चाल पूछने अस्पताल भेजा। वे खोजते-खोजते परेशान-से हो गये। उन्होंने मुझसे कहा- “गुरु महाराज ने भेजा है। आशा और बच्चे का क्या हाल है? जिस रात में आशा को विशेष खतरा था, उस रात में गुरु महाराज बहुत बेचैन थे। रात में सो भी नहीं पाये।”
 आज एकमात्र श्री सद्गुरु महाराज की कृपा से ही आशा और मुन्ना सकुशल है। धन्य है, गुरु महाराज की महिमा! उन्होंने कष्ट सहकर भक्तों को जीवन-दान दिया।
जय गुरुदेव! जय गुरुदेव!! जय गुरुदेव!!!


गुरु-कृपा [मनोहर कुमार, बैगना (पूर्णियाँ)]
 मैं अपने जीवन-काल में बीती हुई एक आश्चर्य-चकित कर देनेवाली घटना के बारे में लिख रहा हूँ, जो अक्षरशः सत्य है। आपलोग इस दुर्घटना के बारे में सुने भी होंगे। यह विश्व की रेल-दुर्घटनाओं में सबसे बड़ी रेल-दुर्घटना है। यह बात छः जून 1981 ई0 की है। मैं पटना से मुरलीगंज जा रहा था। मानसी में मैं ट्रेन पर लगभग संध्या साढ़े चार बजे किसी तरह चढ़ पाया; क्योंकि ट्रेन में काफी भीड़ थी। उस ट्रेन में करीब छः सात बारात पार्टी भी थी। ट्रेन में खड़ा होने के लिए भी जगह नहीं थी। ऊपर-नीचे आदमी भरे हुए थे। मेरे साथ भी करीब बारह आदमी थे, जो मेरे निकटतम सगे-संबंधी थे।
 ट्रेन मानसी से जैसे ही खुली कि वर्षा धीरे-धीरे प्रारम्भ हो गयी। मानसी के बाद ट्रेन बदला स्टेशन पर आकर रुकी और वहाँ से खुलने के बाद वर्षा जोरों से होने लगी, साथ-साथ आँधी भी आ गयी। सभी लोग खिड़की, किवाड़ बन्द कर लिये। ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही थी। बदला स्टेशन से एक किलोमीटर की दूरी पर बदला घाट है। वहाँ एक लम्बा-सा पुल भी है। आँधी और तेज होती जा रही थी। जैसे ही ट्रेन पुल पर आयी कि हमारे एक संबंधी ने कहा कि ऐसे में तो ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त भी हो सकती है। उन्होंने खिड़की उठाकर जैसे ही बाहर झाँका, तो चिल्ला उठे कि ट्रेन के डिब्बे नदी में गिर रहे हैं। उसी वक्त मैं परमाराध्य श्री सद्गुरु महाराज जी का स्मरण करने लगा। थोड़े ही समय में मैं देखता क्या हूँ कि मेरे डब्बे के पीछे वाले सभी सात डब्बे नदी में डूब चुके हैं और मेरा वाला डिब्बा पुल से पाँच फीट की दूरी पर आकर रूका हुआ है। ट्रेन में कुल 9 डब्बे थे। मैंने मन-ही-मन परमाराध्य श्री सद्गुरु महाराज जी को प्रणाम किया।
 आँधी जोरों की चल रही थी; किन्तु भय के कारण हमलोग ट्रेन से नीचे उतर गये। आँधी और वर्षा के कारण लोग ठंढक से काँप रहे थे। ऐसा लगता था कि यदि और दस मिनट तक यह हालत रही, तो बचे हुए लोग भी स्वर्गवासी हो जायेंगे। मैंने मन-ही-मन परमाराध्य से पुनः प्रार्थना की कि “हे प्रभु! हम सबों की रक्षा करो, वरना हम सभी यहीं मारे जायेंगे। कुछ क्षण के बाद ही आँधी और वर्षा न जाने कहाँ चली गयी। मैंने मन-ही-मन परमाराध्य को प्रणाम किया।
 संध्या हो चुकी थी। आस-पास के लोग आये हुए थे। उनमें से कुछ तो दुर्घटनाग्रस्त लोगों को बचा रहे थे और कुछ उन्हें लूटने का प्रयास कर रहे थे। कुछ डाकू लोग हम सबों के पीछे भी पड़ गये। वे तीन-चार बार मेरे पास आये; किन्तु परमाराध्य की कृपा से डाकू भी हमारा बाल बाँका नहीं कर सके। गुरु की कृपा के कारण ही मेरा पुनर्जन्म हुआ। बिल्कुल सच है गुरुदेव सर्वत्र हैं और मन-ही-मन यह पंक्ति याद आ गयी-
 “जाको राखे साईयाँ, मार सके न कोय ।
  बाल न बाँका करि सके, जो जग बैरी होय ।।”


गुरु-दर्शन की प्रबल इच्छा और सद्गुरु की कृपा [श्रीमती सुशीला भटनागर, अलीगढ़]
 यह उस समय की बात है, जब राजगीर में अधिवेशन हुआ था। मेरे पति ओऽम् प्रकाश जी भटनागर की तीव्र इच्छा थी कि राजगीर अवश्य जाऊँ। 25 दिन पहले रेल का आरक्षण करा लिया था, परन्तु आरक्षण कराने के बाद से ही उन्हें बुखार आने लगा। बुखार किसी समय नहीं उतरता था। डॉक्टर ने टाइफाइड बताया। भटनागर साहब को यह धुन थी कि किसी तरह भी हो, मैं राजगृह जाऊँगा और गुरुदेव के दर्शन करूँगा। बहुत समझाया, पर वे किसी तरह नहीं मानते थे, अंत में मैंने परमाराध्य सद्गुरु महाराज को उनका सब हाल पत्र द्वारा लिखकर भेजा और श्रीचरणों में प्रार्थना की कि भटनागर साहब का बुखार शीघ्र उतरे। जैसे ही मैंने उनको पत्र प्रेषित किया, उसके 2 दिन बाद से बुखार उतरना आरम्भ हो गया, उनको पथ्य दिया जाने लगा। जाने के समय केवल कमजोरी बाकी थी, बड़े ही प्रसन्न मन से राजगीर के लिये हम सबों ने प्रस्थान किया।
 राजगीर पहुँचकर हम सब ने सद्गुरु महाराज के दर्शन किये और मन में बहुत प्रसन्न हुए। रात्रि को भोजन करने के उपरान्त भटनागर साहब और मैं थोड़ा घूमने निकले, तो एक सज्जन हमें मिले (नाम हमें याद नहीं) उन्होंने हमसे पूछा कि आप किस स्थान से आये हैं? हमने कहा कि अलीगढ़ से आये हैं, तब उन्होंने कहा कि मैं जानना चाहता हूँ कि एक बहन का पत्र गुरु महाराज की सेवा में अलीगढ़ से ही आया था, उस बहन के पति बीमार थे, वह कैसे हैं और क्या वह आये हैं? जिस समय वह पत्र आया था, मैं गुरुदेव के समीप ही बैठा हुआ था। मैंने कहा कि मेरा ही वह पत्र था और यह मेरे पतिदेव हैं, जो बीमार थे और पूज्य गुरुदेव की ही कृपा से स्वस्थ होकर यहाँ आकर गुरुदेव के दर्शन किये हैं। और इस प्रकार गुरुदेव के दर्शनों की इनकी प्रबल इच्छा पूरी हुई है। राजगीर का अधिवेशन और सद्गुरु के दर्शन भटनागर साहब के लिये अन्तिम थे!


श्री सद्गुरु महाराज की कृपा से जान बच गयी [श्रीमती गोमती देवी, दिल्ली]
 एकबार सन् 1951 में श्री सद्गुरु महाराज मुरादाबाद पधारे थे। दिल्ली से श्री ज्ञान-स्वरूप जी भटनागर गुरु महाराज के दर्शन करने के लिए मुरादाबाद आये थे। 22 जनवरी को श्री ज्ञान-स्वरूप जी सत्संग-आश्रम से दिल्ली जाने के लिए वापस लौट रहे थे। चलते समय गुरु महाराज से जाने के लिए आज्ञा माँगी और उन्हें माला पहनायी। गुरु महाराज ने कहा कि “क्या आज ही जाना है?” उन्होंने कहा- “जी हाँ, जरूरी काम से जाना है।”
 ज्ञान-स्वरूप जी जब स्टेशन पहुँचे, गाड़ी चलने को तैयार ही नहीं थी, बल्कि धीरे- धीरे सरकने भी लगी थी। वह घबड़ाकर दौड़े और गाड़ी का पाँवदान पकड़ा, घबड़ाहट में पावदान हाथ से छूट गया और वह गाड़ी से नीचे गिर पड़े और सीधे लाईन के बीच में जा पड़े। गिरते समय गुरु महाराज का ध्यान किया, गाड़ी ऊपर से जा रही थी, उन्हें गुरु महाराज की आवाज सुनाई दी- “जैसे पड़े हो, वैसे ही पड़े रहो, हिलना नहीं।”
 जब गाड़ी चली गयी, तो उन्हें कुछ होश आया। वहाँ भीड़ इकट्ठी हो गयी थी, उनसे धीरे-धीरे कहा- “मुझे अस्पताल ले चलो” और फिर बेहोश हो गये। लाईन पर हाथ आने से थोड़ा-सा हाथ ही कट कर रह गया; परन्तु जान बच गयी, गुरु महाराज की कृपा से ही जान बच गयी।


जाको राखे सद्गुरु [डॉ0 ‘नागेश’, पुनपुन]
 अभिनन्दन-ग्रंथ के सम्पादक मंडल की एक बैठक दि0 5-2-1983 को। मैं ‘आश्रम’ की ओर चला। बम्बई जनता एक्सप्रेस ट्रेन। साथ में अपनी थीसिस (महर्षि मेँहीँ) की 75 प्रतियाँ। रेल की गति से अधिक तेज मन की गति। मन श्रीचरणों की ओर भागा जा रहा था। मैं कितना जल्द पहुँच जाऊँ, यही शुभाकांक्षा थी। जमालपुर जंक्शन से गाड़ी खुली और पहाड़ से आगे बढ़ी तो शोर-गुल हुआ- “मारो, निकालो ------------- !” मैं आसन्न संकट को समझ गया और संकटटारन सद्गुरु भगवान् का स्मरण-ध्यान करने लगा। मेरे डब्बे के एक-एक मुसाफिर का बक्सादि ले लिया-मेरे आगे वाले के दो हजार रुपये, शाल ले लिया। मेरी सीट के पास के एक गरीब का 15 रुपये ले लिये। वह (डाकू) मेरी ओर देख भर लेता था और चल देता था। मेरे कोट में एक सौ रुपये का एक नोट था। बगल में शाल, ऊपर सीट पर ब्रिफकेश, पुस्तक का बण्डल सब रखे थे। गोया, सद्गुरु-कृपा से वह अन्धा बन गया था, सरकार का सामान समझ कर छुआ नहीं। मैं मन-ही-मन सद्गुरुदेव की जय मनाता था। मैं उनकी अपार कृपा से बाल-बाल बच गया। “डाकुओं के हाथों में रिवाल्वर थे। रतनपुर गुमटी के पास हौस पाइप काट कर वे बदमाश उतरकर भागे। यात्रियों ने हल्ला किया-डकैत, डकैत --------- । गाँव वालों ने पीछा किया और दो डकैत पकड़े गये। उन्हें मारते-मारते मार ही डाला लोगों ने। भक्तों की रक्षा की और दुष्टों को तुरंत दंड भगवान् ने दिया। इसीलिए मैं कहता हूँ-
 “जाको राखे सद्गुरु, मारि सके न कोय ।
  बाल न बाँका करि सके, जो जग बैरी होय ।।”
 जब मैं 5 बजे आश्रम पहुँचा, तो सबसे पहले डॉ0 रामजी बाबू से भेंट हुई। उनसे जब इस घटना के बारे में कहा, तो वह अवाक् रह गये। मैं हाथ-मुँह, पैर धो कर परमाराध्यदेव के दर्शन करने गया, उस समय वे अपने बरामदे पर जाड़े की धूप में अन्तर्मुख थे। मानों, लेटे-लेटे सबकी खबर ले रहे हैं। मैं श्रीचरणों में सिर रख कर अनंत-अनंत प्रणाम कर कृत-कृत्य हुआ। तत्पश्चात् मैं बैठक में हाजिर हुआ।


श्री सद्गुरु ने डूबने से बचाया [श्री भिखारी प्र0 मिस्त्री, रामपुर परिहट, पूर्णियाँ]
 प्रातः स्मरणीय परमपूज्य श्री महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के शुभागमन का प्रोग्राम लेने के लिये मैं अपने बुजुर्ग श्री चुल्हाई दास जी को साथ लेकर कुप्पाघाट जा रहा था। रास्ते में कोशी नदी का तुर्की नामक घाट पार करना था। नदी के उस पार में नाव थी। श्री चुल्हाई दास जी कोशी नदी तैरकर पार करने लग गये। कुछ दूर जाने के बाद वह डूबने लगे। मैं तैरना नहीं जानता हूँ। वे निराश होकर बोले-मैं डूब रहा हूँ। किनारे पर कोई नहीं था। अन्त में मैं गुरु महाराज का ध्यान करने लगा और मन में कहा- “गुरुदेव! अब आप ही बचा सकते हैं। आपके शुभागमन के प्रोग्राम के लिये दोनों जा रहे हैं।” साथ ही अपने बुजुर्ग से गरजकर कहा- “आप एकमात्र गुरु महाराज का नाम लीजिये।” गुरु महाराज की असीम अनुकम्पा से वे बाल-बाल बच गये, क्योंकि कुछ ही दूर जाने पर थोड़ा पानी वाला किनारा मिल गया।


भक्त का प्रण न टला [श्री रघुनन्दन सिंह, महद्दीपुर (खगड़िया)]
 मुंगेर संतमत-सत्संग के 15वें वार्षिक अधिवेशन का समय 15, 16 मई 1979 के लिये निश्चित हुआ। अन्तर्यामी श्री सद्गुरुदेव ने पधारने का निश्चय बदल दिया। मैं हतप्रभ हो गया और दुःखी होकर पूज्य शाही स्वामी जी से मिला। उन्होंने धैर्य दिया और कहा- “क्यों रोते हो, गुरुदेव तुम्हारे यहाँ जायेंगे।” राँची विशेषाधिवेशन में जाने की बात तय हो गयी। सत्संगियों के वचनों ने मेरे हृदय को दुःखित किया। घर पर ही रात-दिन गुरुदेव से प्रार्थना करता रहता और संत दादू दयाल का पद गाता-
 “मेरे तुम्हीं राखनहार दूजा कोई नहीं।”
 मैं विरह से बेचैन रहता। एक दिन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा के अध्यक्ष श्री हुलासचन्द्र रूँगटा का बन्द पत्र मिला, पढ़कर मेरा मन-मयूर नाच उठा। मैंने तुरंत श्री रामानन्द बाबू को आराध्यदेव को सादर लाने पटना भेज दिया। इस अधिवेशन में श्री सद्गुरुदेव महद्दीपुर पहुँचे और दो दिनों तक सत्संग खूब ठाट से हुआ। उनकी कृपा से किसी चीज की कमी नहीं रही।


सद्गुरु-कृपा [डॉ0 विद्यानन्द ब्रह्मचारी (राँची)]
 सन्त-साहित्य में तीन प्रकार की कृपा मानी गयी है-(1) ईश्वर-कृपा, (2) गुरु-कृपा, (3) आत्म-कृपा। जिसपर गुरुदेव की कृपा होती है, उसी पर भगवत्कृपा की वर्षा होती है और जिसपर आत्म-कृपा होती है, वही गुरु-कृपा का लाभ उठा सकता है। इसलिये कहा गया है- “इश्वरो गुरुरात्मेति” तत्त्व से ईश्वर और गुरु में कोई भेद नहीं। ईश्वर की भाँति गुरु भी अन्तर्यामी हैं।
 गुरु-कृपा श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा तथा समर्पण की वृत्ति से प्राप्त होती है। गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की अहैतुकी कृपा का अनुभव मुझे 1994 ई0 में हुआ, जब मैं प्रवेशिका परीक्षा-हेतु फार्म भर चुका था। परीक्षा की तैयारी धीमी गति से चल रही थी; लेकिन मेरा अधिकांश समय श्री संतमत-सत्संग आश्रम, राँकोडीह (खगड़िया) में रहकर प्रार्थना, सत्संग, ध्यान और आध्यात्मिक पत्रिका ‘शान्ति-सन्देश’ के अध्ययन में व्यतीत होता था।
 परीक्षा के एक मास पूर्व ‘ब्राह्मी वेला’ में पूज्यपाद गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का स्वप्न में साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ। महाराज श्री ने अपने श्रीमुख से आशीर्वाद प्रदान किया- “तुम तो उत्तीर्ण हो चुके हो, केवल मेरा ध्यान और प्रार्थना करो।” नींद खुल गयी। मन में विचारों का तरंग उद्वेलित होने लगा। मन में संदेह लगा रहता था कि मैं उत्तीर्ण नहीं हो सकूँगा।
 3 फरवरी, 1964 को परीक्षा आरम्भ हुई। मेरे तीन पत्र खराब हो गये। मुझे परीक्षा-भवन में ही पूर्ण विश्वास हो गया कि अब मैं उत्तीर्ण नहीं होऊँगा; लेकिन हमारे धर्मग्रंथ में लिखा है- “वृथा न होइ देव ऋषि वाणी।”
 29 जून, 1994 को पटना से प्रकाशित दैनिक हिन्दी पत्र ‘आर्यावर्त’ में तृतीय श्रेणी में अपना क्रमांक देखकर आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। मैंने उनके दिव्य चरण-कमलों में मन ही मन नतमस्तक होकर कहा- “आप धन्य हैं।” तभी से उनके प्रति मेरी आन्तरिक श्रद्धा, विश्वास और प्रेम की त्रिधारा बहने लगी। परिणाम यह हुआ कि दिनांक 21-4-64 ई0 मंगलवार के 10 बजे दिन में परमपूज्य सद्गुरुदेव महाराज से हवेली खड़गपुर में जिला-सत्संग-सम्मेलन के पावन अवसर पर दीक्षा ली।
 दूसरी घटना 1974 ई0 की है। जब मैं राँची से उनका पवित्र दिव्य-दर्शन हेतु कुप्पाघाट आश्रम गया था। शान्ति-सन्देश के सम्पादक श्रीमान् अधिकलाल दास के समक्ष सुबह में गुरुदेव से भेंट हुई। मैंने अपना परिचय दिया। तब श्री स्वामी जी बोले- “कहाँ तक पढ़लो।” मैंने उत्तर दिया- “गुरुदेव! आपकी कृपा से बी0ए0 (हिन्दी ऑनर्स) की परीक्षा पास की है। तपाक् से पूछ बैठे- “बहुत पढ़ लिया।” मैंने कहा- “सरकार! कुछ नै पढ़लिइयै।” गुरुदेव के साथ इतना वार्त्तालाप होने के बाद मैंने उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर वहाँ से प्रस्थान किया।
 पुनः श्री स्वामी जी से मेरा दर्शन-लाभ दिनांक 29-4-79 ई0 को राँची टैगोर हिल के समीप हुआ और मैंने उनके पवित्र चरण-कमलों में अपना पी-एच0डी0 का शोध-प्रबन्ध- “हिन्दी संत-साहित्य के विकास में स्वामी रामतीर्थ का योगदान” नामक अप्रकाशित ग्रंथ समर्पित किया और उनसे आशीर्वाद-स्वरूप अमूल्य विचार के लिये निवेदन किया। श्री स्वामी जी बोले- “कुप्पाघाट आइय्यहौ।”
 मैंने उनके आशीर्वाद से अभिभूत होकर बी0ए0 (आनर्स), एम0ए0 (द्वय), बी0एड्0, पी-एच0डी0, विद्यावाचस्पति की उपाधि प्राप्त की है। सम्प्रति डी0लिट्0 उपाधि हेतु- “भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मध्यवर्ती काल में भारत के प्रमुख संतों की भूमिका” विषय पर शोधरत हूँ तथा अनुग्रह नारायण विद्यापीठ, सिंहभूम में हिन्दी-अध्यापक हूँ।
 गुरु-कृपा के इस प्रत्यक्ष उदाहरण को मैं परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की जन्म-शताब्दी के पावन अवसर पर पुष्पांजलि, श्रद्धांजलि एवं भावांजलि के रूप में गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर रहा हूँ।


रोग सोग को वैद्य श्रेष्ठतर श्रीसद्गुरु जी [जयप्रकाश चौधरी, मीठापुर पटना]
 गत वर्ष से ही मैं हृदय-रोग से पीड़ित था। कभी-कभी अचानक धड़कन तेज हो जाती और छाती में दर्द बढ़ जाता। धीरे-धीरे मानसिक दशा भी मेरी खराब हो गयी। सिर में चक्कर आने लगा और दिमाग शून्य-सा लगने लगा। मेरे पिताजी ने पटना के सबसे बड़े डॉक्टर स्वामीनन्दन से दिखाया। डॉक्टर ने कोई रोग नहीं बताया; परन्तु मैं मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार ही रहता। कमजोरी दूर करने के लिये दो-तीन माह तक उनकी दवा चलती रही, लेकिन कोई खास लाभ नहीं हुआ। अन्त में, मैं अपने पिताजी के साथ पटना के मेंटल डॉक्टर एस0एन0 सिंह के यहाँ गया। उन्होंने भी देखने के बाद कोई रोग नहीं बताया। केवल कसरत पर जोर दिया। एक माह तक इनकी दवा चली। मुझे कुछ फायदा नहीं हुआ। तब मैंने पिताजी से कहा कि मेरी बीमारी नहीं छूटेगी। यह मेरे कुकर्मों का फल है। परमाराध्यदेव श्रीसद्गुरु जी का मुझे आशीर्वाद मिल जाता, तब सब रोग दूर हो जाता। मैं उनके साथ कुप्पाघाट गया। पिताजी ने परमपूज्य श्री भगीरथ बाबा से आशीर्वाद के लिए प्रार्थना की, उन्होंने समय नियत किया। श्रीसद्गुरु भगवान् दिन का भोजन करके बैठे, पुनः लेट गये। मैं श्रीचरणों में प्रणाम करके वहीं खड़ा रहा। पूज्य भगीरथ बाबा ने कहा- “हुजूर! यह पुनपुन कॉलेज के प्रोफेसर डॉक्टर “नागेश” जी का पुत्र है। बहुत दिनों से बीमार है। बहुत इलाज कराया गया, कोई लाभ नहीं हुआ। इसका दिमाग कुछ गड़बड़ है। प्रभु! आशीर्वाद दे देने की कृपा करें।”
 “भाग जाने कहिये, नहीं तो मारेंगे भी!”
 यह श्री सद्गुरुदेव ने कहा और सभी भक्त हँसने लगे। पुनः पूज्य बाबा ने विनती की- “हुजूर! यह आई0 ए0 की परीक्षा भी देगा। आशीर्वाद दे दें।”
 परमाराध्यदेव ने सेवक के दुःख को दूर भगाने के लिए कहा- “मैं आशीर्वाद देता हूँ।”
 पटना के बड़े-बड़े डॉक्टरों से मैं निराश हो गया था। उसी दिन मैंने दवा फेंक दी। मेरा रोग तत्क्षण दूर हो गया। अब मैं पूर्णरूपेण नीरोग हो गया। यह पूज्यपाद गुरुदेव की कृपा का सुफल है।
                           जय गुरु महाराज!


पूत-कपूत पिता को प्यारा [श्री रामनन्दन प्रसाद वर्मा]
 लक्ष्मीपुर (सहरसा) अधिवेशन की स्वीकृति श्री सद्गुरु महाराज से प्राप्त हो चुकी थी। झालीघाट अखिल भारतीय महाधिवेशन की समाप्ति के बाद ही वहाँ जाना था। श्रीसद्गुरु महाराज मुझसे बहुत रंज थे। मेरा नाम लेने पर वे चौंकते थे। मुझे देखना नहीं चाहते थे। मैं एक-एक कर श्री श्रीधर बाबा, श्री संतसेवी बाबा, श्री रामलगन बाबा, श्री हरिनन्दन बाबा, श्री विष्णुकान्त बाबा, श्री शाही बाबा और श्री अभेदानन्द बाबा से निवेदन कर चुका था; परन्तु कोई सरकार के समक्ष निवेदन करने की हिम्मत नहीं करते थे और न कोई जिलाधिवेशन में जाना चाहते थे। मैंने सबसे कहा कि प्रचार हो चुका है, अब आपलोग नहीं जायेंगे, तो जिलाधिवेशन कैसे होगा? श्रीसद्गुरुदेव का तथा उनके सेवकों का प्रथम श्रेणी का टिकट कुप्पाघाट का कट चुका था। प्रातः वापस होने की बात थी। रात्रि में मैंने श्री विष्णुकान्त बाबा एवं श्री शाही बाबा से पुनः निवेदन किया कि सब बाबा मिलकर प्रातः ब्रह्ममुहूर्त्त में ही सरकार से सामूहिक प्रार्थना करें। इतना निवेदन कर मैं झालीघाट से सहरसा वापस आ गया। श्री विष्णुकान्तजी एवं अन्य सभी बाबा श्रीपरमाराध्यदेव के पलंग को घेरकर बैठ गये और चरण दबाने लगे। श्री विष्णुकान्त बाबा से सरकार ने पूछने की कृपा की- “के छियैक?” बाबा ने कहा- “मैं विष्णुकान्त।” उन्होंने सरकार से लक्ष्मीपुर चलने के लिए निवेदन किया। सरकार से श्री शाही बाबा, श्री अभेदानन्द बाबा आदि ने एक स्वर में चलने के लिए निवेदन किया। परमाराध्यदेव ने श्री विष्णुकान्त बाबा से कहा- “आप भी जायेंगे?” उन्होंने कहा- “आपके बिना हुजूर मैं जाकर क्या करूँगा?” तदुपरान्त सरकार ने प्रसन्न मुद्रा में कहा- “जब सबका विचार है, तो चलिए।” भागलपुर के लिए खरीदे गये टिकटों को वापस किया गया और साधु-मंडली लक्ष्मीपुर की ओर चली।
 लक्ष्मीपुर जिलाधिवेशन में मैं डरते-डरते अभिनन्दन-पत्र पढ़ रहा था। श्री शाही स्वामी जी महाराज मुझे एकटक देखते थे। मैं उनसे आँख छिपाकर पढ़ रहा था। सत्संग-समाप्ति के पश्चात् जब श्री सद्गुरुदेव अपनी कुटी के पास ह्वीलचेयर पर टहल रहे थे, तो मैं डर से अन्य सत्संगियों के साथ-साथ पीछे-पीछे जा रहा था। श्री सद्गुरु महाराज ने इशारे से मुझे बुलाया। मैं उनके समक्ष गया। उन्होंने कहा- “पूत कपूत पिता को प्यारा।” मैं फूट-फूट कर रोने लगा।


मंगलमय संस्मरण [श्री डोमन मोदी, ग्राम-रंगरा]
 हमारे आराध्यदेव प्रातःस्मरणीय श्री सद्गुरु महाराज महर्षि मेँहीँ परमहंस जी की बड़ी बलिहारी है।
 भागलपुर जिलान्तर्गत प्रखण्ड गोपालपुर, ग्राम रंगरा में गंगा-कोशी नदी के पानी को रोकने के लिये सरकारी बाँध है। सन् 1980 ई0 में भादो महीने की भयंकर बाढ़ थी। अमावस्या की अँधेरी रात में घनघोर वर्षा हुई। बाँध फट गया। सरकारी कर्मचारी एवं इलाके की जनता उस भय से भयभीत हो गयी। इस बाँध से 25 ग्रामों के जीव-जन्तुओं की भलाई थी। ऐसे वक्त में मैंने भी सद्गुरु महाराज जी का स्मरण कर हाथ में भोंपू-माइक उठाया। हमारे भयंकर सिंहनाद को सुनकर इलाके की जनता डाली-कुदाली, बाँस, लकड़ी, रस्सा; जिनको जो मिला, लेकर दौड़ पड़ी। मैं जब ऊँची आवाज में हल्ला करता था, उस समय हमारी धर्म-पत्नी जानकी देवी आक के पत्ते से मेरे सीने में सेंक लगाती थी। होश में आते ही पुनः गुरु स्मरण कर पूर्ववत् कार्यरत रहता था। बाँध की हालत देखकर मैं बेचैनी से गुरु महाराज के ध्यान में मग्न हो गया। हमारे हृदय में अजगैबी आवाज हुई- “घबड़ाओ नहीं। धैर्य से काम लो। बाँध बचेगा।” आँख खोलने पर मैंने देखा कि फटा हुआ बाँध एक हो गया है। वर्षा, आँधी और बाढ़ भी रुक गयी है। बाँध भी बच गया। मानव जो त्रण पाने के लिये भाग रहे थे, उनके भाग्य ने पलटा खाया। सभी श्री सद्गुरु महाराज की जय-जयकार करने लगे। इलाके में इसका बहुत बड़ा प्रभाव हुआ।
जय गुरुदेव!


सद्गुरु-लीलामृत [श्रीगोविन्द दास, कुशहा लालम]
 तिथि और महीना तो याद नहीं। लगभग 1954-55 ई0 की बात है। मैं सिकलीगढ़ धरहरा में था। गुरु महाराज बहुत बीमार थे। मैंने चार बजे भोर में लोटा मलकर और पानी से भरकर उनकी चौकी के नीचे बगल में रखा। लोटा रखने में कुछ शब्द हुआ। गुरु महाराज बहुत कमजोर थे। वे धीरे से बोले- “के छेका!” मैंने कहा- “हुजूर हम गोविन्द छेकियै।” गुरु महाराज पुनः बोले- “बेटा! आबे हम नै रहब, पुरानी चीज, पुराना कपड़ा, पुराना वस्त्र, पुराना शरीर रखला से बड़ा कष्ट होय छै, चले जाना ठीक छै।” यह बात मैंने सभी के सामने कही। इस बात पर सब ओर ही हाहाकार मच गया। किसी के यहाँ पर खुशहाली नहीं रही। पुनः दूसरे दिन उसी तरह से लोटा रखने गया, तो गुरु महाराज ने कहने की कृपा की कि बेटा! अभी चल्लो गेला से काम सब अधूरा ही रही जैते। यही वास्ते रहना जरूरी छै।” फिर बोले- “बेटा! बड़ी भूख लगल छै, एकटा समतोला दे नुनु।” मैंने भूपलाल बाबा को ध्यान पर से उठाया। उन्होंने गुरु महाराज को मुँह धुलाकर समतोला (सन्तरा) खिलाया।


अनुपम कृपा की झाँकी [श्री सत्यनारायण साह; सिरसी (पूर्णियाँ)]
 यह घटना मेरे साथ सन् 1980 ई0 के सितम्बर माह में घटी। मैं शाम को टहलने के लिये घर के पश्चिम वाली छोटी नहर पर गया। टहल कर लौटते वक्त नहर के पुल पर खड़ा हो गया। वहाँ नहर के पानी में बहते हुए एक सर्प को इधर-उधर बहाने में लोग आनन्द ले रहे थे। मैं भी झुककर देखने लगा। मुझे मालूम नहीं कि किसकी ठेस से मैं गिरकर पानी के बहाव में पुल के नीचे आ गया। जब पुल के नीचे मेरी अन्तरात्मा पानी में डूबने के भय से व्याकुल हो उठी, तो श्रीसद्गुरु महाराज की अनुपम कृपा का स्मरण हो आया। मैं मन-ही-मन गुरु नाम का जप करते प्रार्थना करने लगा- “हे सद्गुरु महाराज! मेरी इस तरह की मौत न होने देने के लिये कृपा कीजिये, कारण लोग हँसेंगे कि सत्संगी होकर भी इनकी ऐसी मौत हुई।” इतना सोचना था कि पानी में एक झोंका आया और मैंने पुल के बाहर थाह पानी में अपने को पाया। पुल पर खड़े लोग इस घटना से दंग रह गये। मैं पूर्ण भींगा, एकदम डरा एवं मौत के मुँह से छुटकारा पाया हुआ श्रीसद्गुरु महाराज की अहैतुकी कृपा-करुणा का आश्चर्यचकित हो स्मरण करता घर आया। घर के सभी लोग श्री सद्गुरु महाराज की करुणा का स्मरण करते मेरी सेवा-शुश्रूषा में लग गये। मैं एक-दो दिन बाद स्वस्थ हो गया।
 मेरा तो पूर्ण विश्वास है कि ऐसी कृपा कोई सन्त-योगी सद्गुरु ही करते हैं, जिस श्री गुण से श्री सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज भी विभूषित हैं।


बिस्तर टाट, मृत्तिका पात्र [श्री राजेन्द्र रामदास (विश्वनाथ कुटी)]
 शुभ मिति 12-2-1967 दिवस रविवार। परमाराध्य गुरुदेव आज कोरका पधारे हुए हैं। स्थानीय कोरका सत्संग-भवन में उनका डेरा है। आप मुझसे कहने की कृपा करते हैं- “राजेन्द्र! यह शरीर अब बूढ़ा हो गया है-घूम-फिर सकने की इच्छा नहीं होती है, कोरका का यह आना अब अन्तिम ही समझो। ऐसी वार्त्ता श्रीमुख से सुनकर मेरा हृदय प्रकम्पित हो उठा। कुछ क्षण के लिये मैं मौन-स्तब्ध पड़ा रहा। पुनः उनसे निवेदन किया- “सरकार! आप कहते हैं कि कोरका अब शायद ही आना होगा-तो आप मुझे आशीर्वाद देते जाइये।” सरकार उस समय मेरी बात सुनकर मौन धारण किये रह गये।
 स्थानीय सत्संग-भवन श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ है। आज परम श्रद्धेय गुरु महाराज का प्रवचन सुनने के लिये आस-पास की जनता उमड़ पड़ी है। गुरु महाराज प्रवचन के लिये मंच पर पधारते हैं, श्रोताओं को संबोधित कर कहने की कृपा करते हैं- “राजेन्द्र मुझसे आशीर्वादी चाहता है, सुनिये-
 यह संसार अनित्य है। यहाँ के सभी पदार्थ नाशवान हैं। यहाँ पर एक से एक बढ़कर अमीर, गरीब, राजे, महाराजे हो गये हैं; पर आज किसी का ठिकाना नहीं। अतः इस अनित्यता का ख्याल रखते हुए, साधन में खूब मन लगाना चाहिए। जहाँ तक देश और काल है, वहाँ तक माया का राज्य है, माया यानी भ्रम। परिवर्तनशील यानी एकरस में नहीं रहनेवाला। पैदा होना, फिर बढ़ना, फूलना-फलना और अन्त में विनाश होना-यही माया है। बच्चा पैदा होता है, उस समय उसकी हालत, रंग-रूप कैसा रहता है, फिर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, उसमें रूपान्तर होता जाता है। जवानी आती है, फिर बुढ़ापा आ घेरता है; अन्त में जीव मृत्यु-मुख में चला जाता है। ये भ्रम हैं। देश और काल से परे भी लोक है। हालाँकि यह लोक नहीं है-किंतु मानवी भाषा-सीमा से वह परे है। अतः उसकी संज्ञा ‘लोक’ बोलकर दी जाती है। कबीर साहब का भजन- “कहौं उस देश की बतियाँ, जहाँ नहीं होत दिन रतियाँ” आदि। जहाँ न दिन है और न रात। दिन-रात वहीं हो सकते हैं, जहाँ देश एवं काल है। बिना देश-काल के होना असम्भव है। कबीर साहब के ऐसे पद्य का आशय भगवान् बुद्ध ने व्यक्त किया है। अतः हम जबतक साधना-द्वारा उस लोक को पहुँच नहीं जाते हैं, तबतक अखण्ड शान्ति दुर्लभ है। अतः साधन करें और वहाँ पहुँचने का प्रयास करें। मैं आशीर्वाद देता हूँ कि आपका साधन-बल बढ़े-साधन में मन लगे।”
 दूसरी बात-स्वार्थी बनें-परम स्वार्थी बनें। अपने लिये तथा अपने परिवार के लिये स्वार्थ करना-यह संकीर्ण स्वार्थ है। यह नरक की ओर ले जाता है; परन्तु “बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय” लोक-कल्याण के लिये स्वार्थी बनना बहुत उचित है। सत्संग अपने लिए करें और औरों के लिए भी। सन्तमत का प्रचार करें।
 अमीरी और गरीबी; स्वतः आती-जाती है। यह प्रारब्ध की बात है। मेरा ही उदाहरण लीजिये- “मुझे जल पीने के लिए लोटा और बिछावन के लिये एक कम्बल तक भी नहीं था-मिट्टी के बर्त्तन से जल पीता था और बोरा-चट्टी पर विश्राम करता था। पर आज की हालत क्या देखते हो! अतः इसकी परवाह नहीं कर, साधन में मन लगाना चाहिए।”
 मन हमेशा भागता रहता है। ध्यान के समय यह और भी चंचल हो जाता है। धड़ और गर्दन को सीध में रखकर निशाना ठीक रखें। एकविन्दुता प्राप्त करें। इससे भजन में बल मिलेगा। खूब मुस्तैदी के साथ ध्यान करें और एकविन्दुता प्राप्त करें। बिना एकविन्दुता प्राप्त किये, शब्द के पकड़ने का ख्याल रखना मानों- “भूमि पड़ा चह छुअन अकाशा” वाली बात है, अतः मुस्तैदी से अभ्यास करें। अतः यही आशीर्वाद देता हूँ कि साधन में खूब मन लगे। ---------------- ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः!”


आत्मतत्त्व और सद्गुरु की कृपा [श्री सीताराम मंडल, बैसा, खगड़िया]
 सम्भवतः सन् 1965 ई0 में श्री बाबू दुर्गा दास तुलसी (जमालपुर, मुंगेर) के निवास-स्थान पर कई दिनों से सत्संग हो रहा था। एक दिन सुबह के सत्संग के बाद परम पूज्य बाबा जब भोजन करके विश्राम कर रहे थे, कुछ व्यक्ति उनके दर्शनार्थ वहाँ गये। बाबा को प्रणाम कर, बाबा का आदेश पाकर बैठ गये। उनमें यांत्रिकी विद्यालय के एक विज्ञान-शिक्षक थे। उनका नाम ताम्बे बाबू था। उन्होंने बाबा से प्रश्न किया- “मैं विज्ञान शिक्षक हूँ, मुझे मालूम है कि रेडियो में बिना तार के खबर आकाश के माध्यम से सब जगह जाती है; किन्तु यह पता नहीं चलता कि श्री गुरु महाराज जी कहीं हैं और शिष्य कहीं, हजारों मील की दूरी पर हैं, फिर जब शिष्यों की पुकार होती है, तो गुरु महाराज जी को किस माध्यम से मालूम होता है?” यह सुनकर परम पूज्य बाबा मुस्कुरा दिये और कहने की कृपा की- “श्री ताम्बे जी! आपने कठिन तथा गहरा प्रश्न किया है। ताम्बेजी! आप विज्ञान जानते हैं, पढ़े होंगे कि पाँच तत्त्व होते हैं, मिट्टी, पानी, अग्नि, हवा और आकाश। इनमें सबसे सूक्ष्म आकाश है और आकाश से भी अति सूक्ष्म आत्म-तत्त्व है। जब शिष्यों की पुकार होती है, तो गुरु को इसी आत्म-तत्त्व के द्वारा मालूम हो जाता है और वे इसी आत्म-तत्त्व के माध्यम से अपनी अहैतुकी कृपा का संदेश शिष्यों तक भेज देते हैं।
 मैं परम पूज्य बाबा से इस अमृत-वाणी को सुनकर गद्गद हो गया और गुरु महाराज के नाम का स्मरण करने लगा।


JAY GURU [Yukiko Fujita]
Respected Brother,
 I appreciated your letter of September 22nd. The time limit of reminiscence you required me is too early and due to my physical condition and to some other reasons, it is not possible for me to write it. I should be very happy if you could accept this letter instead of it in which my memory is briefly described.
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 In 1968 being granted approval of Guru Maharaj, I entered the gate of Ashram in Kuppaghat and joined sitting at the morning Satsang. At the opportunity, after finishing a lecture Guru Maharaj Ji finding that I was at the far end of people and listening to Guru Maharaj Ji, Said to one of his closest associate, "Translate my lecture into English for the new Comer." The lecture was as follows :-
 ............ Once upon a time, there lived a master employing a servant. The servant was very quick witted, could do everything, and worked very hard not killing any time. He was working always and if there is anything to do he instantly started and returned quickly after he fulfilled his task. So the master liked him very much. While the time being, however, he become such excessive that he pressed his master saying, "What is my next talk? What is my job to do?" and the master entirely worn out. He finally made up an intrique that he encted a thick and tall pole out door and he tied the servant on its root. The servant who can not stay an instance without moving climbed up and down the pole that he repeated. On account of it, the master could feel released.
 At that time, Guru Maharaj Ji was strolling alone in Ashram with his long stick. Owing to Guru Maharaj's grace as well as to Kindness of Ashrameetes, I could stay in Ashram and devote myself into the practice. Also I was granted opportunities to take part in three different Conferences.
 The precious blessings of Guru Maharaj ji made me possible to hear many kinds of NADA, and in the Himalayan mountains, I heard many beautiful Nada inside myself while walking as pilgrimage.
 Once I was in meditation at a place I heard a wonderful NADA and I remained in splendent enchantment for many hours. Since I had got myself out of enchantment, any music existing in the outer world could not inpress my heat.
 I complaining that the wonderful experience never come back again to me, Guru Maharaj ji remonstrated me saying, "Don't be so covetous. If such an experience is granted to a person even once in a Career, it means that the soul has got a big progress. But such an experience should not be disclosed to a third person.
 When I met Guru Maharaj ji for the first time and expressed my greetings, Guru Maharaj ji said to me smiling, "What a heavy load you are carrying on your back; you don't know what you are pursuing exists within yourself and travelled a long distance from a very far country for such a pursuance." When I get apart of Guru Maharaj ji, I was so sorry that my were full of much tear. Guru Maharaj ji consoled me saying, "Whatever you want to meet me, I will instantly appear beside you however far you would be."
 On a occassion when I said, "On getting back to JAPAN I hope to build a small Ashram", Guru Maharaj faced to an ashrameete who was interpreting me and said with smile, "It is wonderful, when she built an Ashram, let us visit there on the earliest convenience."
 Now, I am always recognizing that Guru Maharaj ji haunting at my Ashram. How gracefull it is!
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 Concerning to the photographs which you required, enclosed herewith, please find some old photos and use whichever you like. Looking forward to edition a wonderful book.
  Please extend my best regards to all of ashrameetes.
Sincerely yours, Jay Guru
Sd. Yoga Inaitri
Yukiko Fujita
I wrote this letter for Mrs. Fujita.
Sd. M. Ikeuchi


महर्षि मेँहीँ और उनका आश्रम [डॉ नित्यानन्द शर्मा]
 हमारी भारतभूमि को ही यह सौभाग्य प्राप्त है कि यहाँ समय-समय पर, अनेक साधु-संत, तपस्वी, ऋषि-महर्षि, दार्शनिक और वैज्ञानिक महापुरुष अवतरित होते आए हैं। यहाँ तक कि राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर जैसे अवतारों की यह जन्मभूमि और लीला-भूमि रही है। इस पूण्यभूमि में जन्म लेने की कामना देवता तक करते हैं तथा वे इस भारतभूमि की प्रशंसा में कहते हैं कि यह भारतभूमि धन्य है। “गायन्ति देवा किल गीतिकानि, धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे”। पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ ऐसे ही उच्च कोटि के महात्मा और संत हैं, जो अपनी महती धर्म-साधना से अर्जित ज्ञानालोक को जनता-जनार्दन के कल्याणार्थ विकीर्ण कर रहे हैं।
 उनके द्वारा प्रवर्तित संतमत-सत्संग आज अत्यधिक लोकप्रिय है। इसमें भाग लेने के लिए देश-विदेश से अनेक जिज्ञासु और भक्त आते रहते हैं। इनके वार्षिक सम्मेलनों में, देश के दूर-दूर कोनों से, अपनी ज्ञान-क्षुधा को तृप्त करने एवं महर्षि मेँहीँ के पुण्य दर्शन-लाभ से सात्त्विक आनन्द प्राप्त करने, उनके शिष्य और प्रशिष्य आते रहते हैं। भागलपुर जनपद के कुप्पाघाट में अवस्थित उनके पावन आश्रम में दर्शनार्थियों का ताँता-सा लगा रहता है।
 महर्षि मेँहीँ का उक्त आश्रम ऐसा पावन एवं मनोरम स्थल है जहाँ प्रवेश करते ही, दर्शनार्थी को एक अपूर्व आनन्द, आह्लाद और शान्ति की अनुभूति होती है। इस गौरवशाली पवित्र आश्रम और उसमें विराजमान महर्षि जी के दर्शन करके, ‘कामायनी’ महाकाव्य के आनन्द सर्ग के उस स्थल की ओर हमारा ध्यान बरबस आकृष्ट हो जाता है, जहाँ सारस्वत प्रदेश के निवासी, अपनी रानी इड़ा के नेतृत्व में महात्मा मनु के साधना-प्रदेश की ओर चले जा रहे हैं। श्रद्धा-पुत्र मानव की जिज्ञासा पर इड़ा उस साधना-भूमि का उल्लेख इन शब्दों में करती है कि हमलोग जगती के पावन साधना प्रदेश की ओर जा रहे हैं, जो किसी (महात्मा) का शान्त और शीतल तपोवन हैः-
 “बोली,
हम जहाँ चले हैं, वह है जगती का पावन ;
साधना-प्रदेश किसी का शीतल अति शान्त तपोवन ।”
 कुप्पाघाट में अवस्थित उक्त आश्रम भी वस्तुतः ऐसा ही पावन प्रदेश है, जहाँ शीतलता और शान्ति का अखण्ड साम्राज्य है। इस आश्रम में विराजमान महर्षि मेँहीँ मानों मनु के रूप से ही, अपने शिष्यों, भक्तों और जिज्ञासुओं को अपनी अमृतमयी वाणी से अभेद-दर्शन का यह उपदेश दे रहे हैं-
 “मनु ने कुछ मुसक्या कर कैलास ओर दिखलाया ;
  बोले देखो कि यहाँ पर कोई भी नहीं पराया ।।”
 वास्तव में, यह अपना-पराया का भेद ही घोर अनर्थों और दुःखों का मूल है। परन्तु महात्माओं के आश्रमों में पहुँचकर यह अपना-पराया का भेद मिट जाता है, इस विराट् सृष्टि और सृष्टिकर्त्ता के साथ तादात्म्य हो जाता है। मनु के शब्दों में:-
 “हम अन्न न और कुटुम्बी हम केवल एक हमी हैं
  तुम सब मेरे अवयव हो जिसमें कुछ नहीं कमी है ।”
 ऋषि-मुनियों के ऐसे पावन आश्रम में पहुँचकर, सभी अपूर्व शान्ति और समरसता का अनुभव करते हैं। ऐसे आश्रमों में कोई भी शापित और तापित नहीं रहता। वहाँ सर्वत्र समरसता का साम्राज्य विद्यमान रहता है-
 “शापित न यहाँ है कोई तापित पापी न यहाँ है
  जीवन वसुधा समतल है समरस है जो कि जहाँ है ।”
 ऐसे आश्रमों में, महात्माओं के दिव्य जीवन और पूत आचरण का बड़ा प्रभाव पड़ता है। प्रकृति के साम्राज्य में वहाँ ‘विकार’ लेशमात्र भी नहीं रहता, “प्रकृति अधिष्ठात्री है उसकी, कहीं विकृति का नाम नहीं।” महात्माओं के ऐसे आश्रमों में, प्रवेश-मात्र से ही संसारी व्यक्ति के दुःख-द्वन्द्व, कुण्ठा-निराशा, ईर्ष्या-द्वेष, प्रपंच-पाखण्ड आदि दुष्प्रवृत्तियाँ समूल नष्ट हो जाती हैं। मनु के समान ही, महर्षि मेँहीँ का यह उद्घोष है:-
 “सबकी सेवा न पराई वह अपनी सुख-संसृति है
  अपना ही अणु-अणु कण-कण द्वयता ही तो विस्मृति है ।”
 वास्तव में द्वयता का नाश और विस्मरण ही मानव-जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए। यह द्वैतभाव ही सारे अनर्थों, क्लेशों और कलह की जड़ है। इसका नाश करने पर अखण्ड आनन्द और अपूर्व शान्ति की अनुभूति होती है। इस विशाल ब्रह्माण्ड के अणु-अणु और कण-कण से तादात्म्य में ही आनन्द है। यदि सारे विश्व के मानव इस द्वैत भाव को दूर भगा दें, तो सम्पूर्ण सृष्टि में शान्ति और आनन्द स्थापित हो सकता है। भेद-बुद्धि ही मानव से जघन्य अपराध और क्रूर कुकृत्य कराती है। इस भेद-बुद्धि का नाश होने पर यह विश्व एक ‘नीड़’ के रूप में परिवर्तित हो सकता है:-
 “सब भेद भाव भुलवा कर दुःख सुख को दृश्य बनाता
  मानव कह रे यह मैं हूँ यह विश्व नीड़ बन जाता ।”
 उक्त आश्रम में, महर्षि मेँहीँ द्वारा यही दिव्य संदेश और पावन उपदेश दिया जाता है कि व्यक्ति को भेद-भाव छोड़कर समस्त सृष्टि के साथ ऐक्य भाव स्थापित करना चाहिए। अहं का इदं में पर्यवसान ही सच्ची साधना है। भूमा में ही सुख है; अल्प में नहीं। स्वार्थपरायण व्यक्ति सदैव दुःखी और अशान्त रहता है, इसलिए मनुष्य को अपने व्यक्तित्व का विस्तार और विकास करना चाहिए। दूसरे के सुख में सुख का अनुभव करना ही मानव-जीवन की सार्थकता है:-
 श्रद्धा के शब्दों में:-
 “सब कुछ अपने में भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा ?
यह एकान्त स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा ।
औरों को हँसते देखो मनु हँसो और सुख पाओ
अपने सुख को विस्तृत कर लो सबको सुखी बनाओ ।।”
 महर्षि मेँहीँ के संतमत-सत्संग का भी यही सार है। यही उनका दिव्य संदेश है। भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र भी यही है।
 “सर्वेऽपि सुखिनः संतु ------------ ।”
 अतः ऐसे तपोनिष्ठ पूज्य महर्षि मेँहीँ जी के चरणों में मेरा शत-शत प्रणाम!


गुरुदेव की महान् कृपा [श्री धीरो दास, महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-3]
 मैं महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में सत्संग में की जानेवाली स्तुति, प्रार्थना, ग्रन्थपाठ और प्रवचन के समय ध्वनिवर्द्धक यन्त्र लगाया करता हूँ। अधिक उम्र हो जाने के कारण कभी-कभी शरीर रोग-ग्रस्त हो जाया करता है। एक दिन मेरी तबीयत खराब हो गयी। उस रात भोजन न करना ही मैंने स्वास्थ्य के लिये हितकर समझा। 3 बजे ब्रह्मवेला में मुझे सामूहिक जागरण-ध्यानाभ्यास के लिये घण्टी बजानी पड़ती है। बिस्तर से उठने की हिम्मत नहीं हो रही थी। गुरु महाराज का नाम लेकर किसी तरह उठकर घण्टी बजा दी और पुनः बिस्तर पर जा पड़ गया। प्रातःकालीन सत्संग में सत्संग-मन्दिर से गुरु महाराज के आवास पर ध्वनिवर्द्धक यन्त्र लगाने के लिये जाना कठिन प्रतीत हो रहा था। प्रभु गुरुदेव तो अन्तर्यामी हैं और दूरद्रष्टा हैं, उनसे कोई बात कैसे छिपी रह सकती है? उन्होंने श्री भगीरथ बाबा को मेरे पास भेजा। भगीरथ बाबा ने आकर मुझे उठाया और कहा, “गुरु महाराज आपको बुला रहे हैं, चलिये।” यह सुनकर मैं खुशी से भर गया कि गुरु महाराज मुझको याद कर रहे हैं। मेरी तबीयत उसी समय पूर्ण स्वस्थ-सा हो गया। मैं आीा दित होकर उनके पास गया और ध्वनिवर्द्धक यन्त्र लगाया। मुझ दीन-हीन पर उनकी यह महान् कृपा थी। गुरु महाराज धन्य हैं, भक्तों की सदा देख-रेख करते हैं।
महर्षि जी के योगबल [डॉ0 विनोदानन्द साह ‘मुकुल’, एम0बी0बी0एस0,डी0सी0पी0, डी0टी0डी0, एम0डी0 (पटना),सह प्राध्यापक, भागलपुर चिकित्सा महाविद्यालय]
 1971 ई0 की बात है, जब महर्षि जी अस्वस्थ होकर डॉ0 एन0 एल0 मोदी (पटना) के निवास-स्थान पर ठहरे थे। पुरःस्थ-ग्रन्थि के कष्ट से वे पीड़ित थे। स्थानीय डॉक्टरों के विचार में ऑपरेशन के सिवा दूसरा चारा नहीं था; लेकिन उनकी शारीरिक अवस्था ऑपरेशन के योग्य नहीं थी। डॉ0 यू0 पी0 सिन्हा ने विचार दिया कि साधु-सन्तों की अपनी अलग ही दुनिया होती है। हमलोगों की विद्या द्वारा आँकने से बाहर है। महर्षि जी की इच्छा जानकर तय हुआ कि ऑपरेशन कर देना चाहिये। ऑपरेशन-काल में उनकी शारीरिक स्थिति अजब तरह की देखी गयी। जब ऑपरेशन प्रारम्भ हुआ तो शरीर निष्प्राण-सा हो गया। उस वक्त ऐसा महसूस होता था कि स्थूल शरीर को महर्षि जी दुरुस्त करने के लिये डॉक्टरों के हाथ में छोड़कर अपने प्राण को कहीं दूसरी जगह कर लिये हों। डॉक्टरी ख्याल से हृदय की गति और साँस का संचालन बन्द हो गये। यहाँ तक की डॉक्टर लोग घबड़ा गये, ऑपरेशन करना बन्द कर दिया। ऐसा लगा कि डॉक्टरों की घबड़ाहट देखकर महर्षि जी ने अपने प्राण को पुनः लौटा लाये हों। शरीर के हर अंग में पुनः गति आ गयी। फिर ऑपरेशन ऐसा हुआ कि जैसे किसी स्वस्थ व्यक्ति का हो रहा हो।
 महर्षि जी की ऐसी और भी कई घटनाएँ मेरी आँखों के सामने आती रहीं। दो-तीन बार छोटे-छोटे ऑपरेशन और हुए, जिसमें क्षणिक बेहोशी (शॉर्ट एक्टिंग एनेशथिसिया) की दवा देनी आवश्यक होती है; परन्तु इनकी इच्छा के अनुसार ऐसी दवा दिये बिना ही ऑपरेशन हुआ। इस समय शारीरिक स्थिति ऐसी पायी गयी, जैसी बेहोशी की दवा देने पर होती है! कई बार मुझे सूई देने और रक्त निकालने का भी अवसर मिला। इच्छा व्यक्त कर देने पर सूई चुभाते समय ऐसा महसूस होता था, जैसे दर्द ढोनेवाला स्नायु निष्क्रिय हो गया हो। इन सारी घटनाओं को देखकर यह सहज ही महसूस होता है कि महर्षि जी वास्तव में एक योगी महापुरुष हैं, जिनके यौगिक चमत्कार का आदर्श हमलोगों को प्रत्यक्ष देखने का अवसर मिला।


भक्त की पुकार [श्री सिपाहीदास जी]
 सन् 1966 ई0 में आश्रम, कुप्पाघाट में वार्षिक महाधिवेशन होनेवाला था। गुरुदेव ने मुझे अधिवेशन में खर्च होने योग्य जलावन की व्यवस्था करने का भार दिया था। मैं अठगामा में पीपल का गाछ कटवा रहा था। गाछ का फेंटा 18 हाथ था। 16 मजदूर काट रहे थे, जो सब मुसलमान थे। वृक्ष के कटकर गिरने पर गाछ पर के कुछ बगुले गिर पड़े। मजदूरों ने अपनी-अपनी झोली में अनेक बगुले पकड़ लिये। यह देखकर मैंने मन में प्रार्थना की- “हे गुरुमहाराज! इन मुसलमान मजदूरों द्वारा इतने बगुलों की हत्या की जायगी, इसका सारा पाप मुझे लग जायगा।” यह विचारते ही गाछ के मधुछत्ते की मधुमक्खियाँ उड़-उड़कर उन सभी मजदूरों को काटने लगीं। वे सभी मजदूर झोलियाँ छोड़कर भागने लगे। इस प्रकार मौका पाकर बगुले सब उड़ गये। उनकी जान बच गयी। यह है गुरु महाराज का स्मरण करने का प्रतिफल।


गुरु-दल श्री छोटेलाल दास]
 परमाराध्यदेव शरत्कालीन धूप में अपनी शय्या पर विराजमान थे, उसी समय मैं अपराह्णकालीन सत्संग करके नित्य की भाँति उन्हें प्रणाम करने के लिये पहुँचा। बरामदे की देहरी पर सिर टेककर प्रणाम करते ही मैंने सुना- “कौन?” मैंने निवेदन किया- “हुजूर, मैं छोटेलाल हूँ।” आराध्यदेव ने पुनः कहने की कृपा की- “अच्छा, यह तो बताओ, तुम किस दल में रहोगे? गुरु-दल, राम-दल या रावण-दल में?” मैंने सादर अर्ज किया- “हुजूर, मैं तो गुरु-दल में ही रहूँगा।” गुरुदेव ने कहा- “अच्छा, तुम बच गये।” ऐसी वाणी परमाराध्यदेव की मौज से निःसृत हुई। उस समय मैं गुरु-वाणी का गूढ़, रहस्यपूर्ण अर्थ नहीं समझ सका था कि मुझ अबोध को सतोगुणी वृत्ति में बरतने का वे आदेश प्रदान करते हैं या सद्गुरु, ईश्वर और दुष्ट-इन तीनों में सर्वप्रथम, सर्वसमर्थ, करुणावतार कृपासिन्धु, नर-रूप-हरि गुरुदेव को अपनाये रहो-की आज्ञा देते हैं? क्योंकि सन्त कबीर की वाणी है- “हरि रूठे गुरु ठौर हैं, गुरु रूठे नहि ठौर।”


आनन्दमय अनुभव [डॉ0 महेश नारायण, मधुबनी (पूर्णियाँ)]
 निश्चित तिथि 11 अक्टूबर, 1976 को महर्षि जी पूर्णियाँ के सत्संग-भवन में पधारे। दोपहर को इसकी जानकारी मिलने पर रात के सत्संग में मैं उपस्थित हुआ। आश्रम श्रद्धालु भक्तों से भरा था। ऊँचे मंच पर बैठे महर्षि जी का प्रवचन चल रहा था। काषाय वस्त्र, क्षीण काया, गौरवर्ण, दिव्य मूर्त्ति। केश, दाढ़ी-मूँछ सब सफेद। क्षीण होते हुए भी सक्रिय, सजग, स्पष्ट वाणी। मेरे मन की एक बहुत बड़ी अभिलाषा पूर्ण हुई। घर लौटा।
 पर मन किसी का कभी सन्तुष्ट हुआ है जो मेरा होता। रात भर यह भाव मन में उठता रहा, महर्षि जी को निकट से देखता, बातें करता, चरण छूकर आशीर्वाद लेता। पर यह संभव नहीं था। आश्रम के लोगों से मेरी साधारण-सी जान-पहचान थी। महर्षि जी के पास हर समय भेंट करनेवालों, दीक्षा लेनेवालों की भीड़-सी लगी रहती थी। मैं ठहरा डॉक्टर। लोग इज्जत से घर ले जाते हैं। आश्रम में जाऊँ, किसी ने ध्यान नहीं दिया, वापस निराश लौटना पड़ा, तो बड़ी बेइज्जती लगेगी। पर फिर न जाने कब यह अवसर आये, न आये। यह द्वन्द्व मन में चलता रहा। मन में यह चिन्ता लिये सबेरे पाँच सवा पाँच बजे नियमानुसार दाढ़ी बनाने बैठा। सामने देखा, गेरुआ वस्त्र पहने कुछ लोगों की भीड़ इस ओर बढ़ती चली आ रही है। कौन हो सकते हैं ये लोग? भीड़ और निकट आयी। अरे! ये तो वे ही महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज हैं, साइकिल गाड़ी पर सबेरे टहलने निकले हैं। उन्हीं के चारों ओर यह मण्डली जुटी है। दौड़कर आगे गया। उनकी गाड़ी मेरे गेट पर रुकी। चरण छूआ, प्रणाम किया। लोगों ने मेरा परिचय बताया। कुछ वे बोले, पर आनन्दातिरेक की अवस्था में मैं वह सुन नहीं पाया। महर्षि जी के आँखों पर धूप का हरा चश्मा, गेरुआ वस्त्र, गोरा शरीर, श्वेत केश-राशि। ऐसा लगा मानों इस भूतल पर कोई देवता उतरा हो। प्राचीन समय के ऋषि-मुनि भी तो ऐसे ही होते होंगे। गाड़ी आगे बढ़ी। मेरे नयन तबतक उन्हें देखते रहे जबतक वे आँखों से ओझल नहीं हो गये। पर यह कैसे संभव हो पाया। मेरे मन के उमड़ते भाव उनके पास कैसे पहुँचे। कैसे उन्होंने मेरी हार्दिक उत्कंठा जान ली। मैं निकट से दर्शन करना चाहता था और मुझे कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। भगवान् भी तो सबके भाव को स्वतः जानते ही हैं; लेकिन मैं न उनका शिष्य, न पहले से कोई परिचय ही रहा।
 अगणित लोग ऐसे होंगे, जिनकी दृढ़ इच्छा को महर्षि जी अपने अन्तःचक्षु-दिव्य ज्ञान से देख लेते हैं, तभी न मेरे लिये यह असंभव संभव हुआ। क्या कारण है, प्रान्त और प्रान्त के बाहर के लोगों को इनके दर्शन की अभिलाषा जगी रहती है। लोग दूर-दूर से इनके चरणों में आ उपस्थित होते हैं। भारत के पहुँचे हुए महात्माओं में आपकी गिनती है। पंडित परशुराम चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘उत्तरी भारत की सन्त-परम्परा’ में आपका बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। आज आपने मुझे अपने दर्शनों से तृप्त किया।
 मैं अपने मन को क्या समझाऊँ! वह आज भी सन्तुष्ट नहीं हुआ। इतनी जल्दी में महर्षि जी आये कि न ठीक से कपड़ा पहन सका, न उन्हें माला या फूल अर्पित कर कुछ स्वागत ही कर पाया। अब यह नशा सर पर सवार हुआ। पर ऐसा सौभाग्य तो बार-बार नहीं प्राप्त होता। जो हो गया वही बहुत था। उसी से संतों ष करना चाहिए। ठीक है। पर ऐसा हो पाया, तो बहुत अच्छा होता, यह विचार सब समय में उठता रहा। 14 अक्टूबर के सन्ध्या समय की बात है। कपड़ा पहन दवाखाना जाने को तैयार हुआ। वेग उठा, चलने ही वाला था कि देखा सामने से बड़ी भीड़ उमड़ती चली आ रही है। महर्षि जी आ गये। अरे! पत्नी-बच्चों को पुकारा। गुलमेंहदी और गेंदा फूल सामने फूले हुए थे। तोड़ कर भर अंजुली हाथ में लिया। भागता गेट पर आया। गाड़ी फिर उनकी वहीं रुकी। वही दिव्य रूप। देवता इनसे भिन्न थोड़े ही होंगे। चरण छूआ। पुष्पों की वर्षा की। पत्नी और बच्चों ने भी चरण छूकर फूल चढ़ाये। उनके होंठ हिले। आशीर्वाद की मुद्रा में मैं उन्हें बुदबुदाते देखता रहा। फिर उनका दिव्य रूप आँखों से ओझल हो गया।
 आज के युग में भगवान् के बारे में यह धारणा लोगों के मन में हो गयी है कि घनघोर तपस्या के बाद ही उनका दर्शन संभव है। नहीं, ऐसी बात नहीं है। अटल श्रद्धा और दृढ़ इच्छा शक्ति चाहिए। हृदय शुद्ध हो। महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के रूप में दर्शन हो सकता है, और वे हमें प्रकाश प्रदान कर सकते हैं।


वह अनमोल सत्संग [श्री वियोगी हरि]
 महर्षि मेँहीँ परमहंस के बारे में बहुत वर्ष हुए जब राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन ने सन्त-मत पर चल रही चर्चा के दौरान कुछ कहा था बड़ी श्रद्धा के साथ, ऐसा कुछ याद पड़ता है। बाद में कई सज्जनों के मुख से परमहंस जी के सम्बन्ध में सुना। उनकी चंद रचनाएँ भी देखने का अवसर मिला; परन्तु अभीतक महर्षि मेँहीँ के दर्शन का सुयोग मुझे नहीं मिला है। लालसा है कि सुयोग मिलते ही उनका दर्शन करूँ। मात्र दर्शन ही; क्योंकि सन्त की प्रसादी अध्यात्म का जिज्ञासु ही पा सकता है। मैं अपने को वैसा जिज्ञासु नहीं मानता।
 महर्षि के एक-दो भक्तों ने मुझे लिखा और डॉ0 नागेश्वर चौधरी मेरे निवास-स्थान पर कृपापूर्वक मुझसे कुछ दिन पूर्व मिले थे। मुझसे कहा गया है कि मैं महर्षि मेँहीँ परमहंस जी को अर्पित किये जानेवाले ‘अभिनन्दन-ग्रन्थ’ के लिये अपनी कुछ पंक्तियाँ भेज दूँ। इधर मेरा लिखना बहुत कम हो गया है। फिर भी थोड़ा-सा समय निकालकर सत्संग की महिमा पर एक प्रसंग नीचे दे रहा हूँ। प्रसंग यह बड़ा पवित्र और अनमोल है।
 सिक्खों के आदिगुरु नानक एक बार सूफी संत शेख फरीद से मिलने अजोधन गये, जो आज पाकपट्टन के नाम से मशहूर है। ‘शेख फरीद’ इस पहुँचे हुए फकीर की उपाधि थी। असल नाम शेख इब्राहीम था। गुरु नानक और शेख फरीद ने एक दिन जंगल में बैठकर अध्यात्म-विषय पर काफी देर तक चर्चा की। दोनों महात्माओं ने खूब घनघोर ब्रह्म-रस बरसाया। गुरु नानक के शिष्य मरदाना ने रबाब का स्वर छेड़ा, जब आदिगुरु ने यह सबद कहा-
  जप तप का बंधु बेड़ला जितु लयहि वहेला ।
    ना सरबरु ना ऊछलै, ऐसा पंथु सुहेला ।।
  तेरा एको नाम मजीठड़ा
       रता मेरा चोला सदरंग ढोला ।।
  साजन चले पिआरिआ किउ मेला होई ।
      जे गुण होवह गंठीडीऐ मेलेगा सोई ।।
  मिलिआ होइ न वीछुड़ै जै मिलिया होई ।
       आवागउणु निवारिया है साचा सोई ।।
  हउमै मारि निवारिअ सीता है चोला ।
     गुर वचनी फलु पाइआ सह के अमृत बोला ।।
  नानकु कहै सहेली ही सहु खरा पिआरा ।
     हम सह केरीआ दासीआ साचा खसमु हमारा ।।
-(रागु सूही)
अर्थात्-जप और तप का बेड़ा बना ले, और धार को पार कर जा।
न फिर झील है, न प्रवाह, ऐसा सहज पंथ है वह।
प्रभो, तेरा नाम ही वह मंजीठ है, जिसमें मैं अपना यह चोला रंग
डालूँ। प्यारे, वही रंग पक्का है।
साजन से तेरी भेंट कैसे होगी फिर?
तेरी गाँठ में गुण होंगे, तभी तो वह तुझे मिलेगा।
और तुझ से मिलकर एकाकार होकर वह फिर बिछुड़ेगा नहीं।
आवागमन से वह सच्चा स्वामी ही छुड़ा सकता है।
जिसने अहंकार को निकाल बाहर कर दिया, उस सखी ने अपने स्वामी
को रिझाने के लिए अपना चोला सी लिया।
गुरु के उपदेश से उसे फल मिल गया, अपने स्वामी के साथ अमृत-बोल
बोल-बोलकर।
नानक कहता है, हे सहेलियो, वह स्वामी पूरा प्यारा है।
 हम सब उसकी दासियाँ हैं, वह हमारा सच्चा स्वामी है।
शेख फरीद यह सबद सुनकर मस्ती में झूम उठे और अपना रचा यह सबद गाने लगे-
दिलहु मुहबति जिन्ह सेई सचिआ । जिन्ह मनि होरु मुखि होरु सि कांढ़े कचिआ ।।
रते इसक खुदाइ रंगि दीदार के । बिसरिआ जिन्ह नामु ते भुइ भारु थीए ।।
आपि लीए लाड़ लाइ दर दरबेस से । तिन्ह धंनु जणेदी माउ आए सफलु से ।।
परवदगार अपार अगम बेअंत तू । जिन्हा पछाता सचु चुंमा पैर मूं ।।
तेरी पनह खुदाइ तू बखसंदगी । सेख फरीदै खेरु दीजै बंदगी ।।
(रागु आसा)
 अर्थात् जिनकी दिली मुहब्बत है, उस परमात्मा के लिए वे ही सच्चे हैं। जिनके मन में कुछ है, और मुँह में कुछ और, उनकी गिनती कच्चों में की जायेगी।
 वे भी सच्चे हैं, जो खुदा के इश्क में रंग गये हैं, और उसके दर्शन के प्यासे हैं।
 जिन्होंने उसका नाम भुला दिया, वे भार हैं पृथिवी के।
 जो उसके दर के दरवेश हो गये, उनको उस प्रियतम ने दामन से बाँध लिया। धन्य है उन माताओं को जिन्होंने कि उन्हें जन्म दिया, उनका संसार में आना सफल है।
 हे पालनकर्त्ता, तू अपार है, अगम है और अनन्त है।
 जिन्होंने तुझ सच्चे स्वामी को पहचान लिया, मैं उनके पैर चूमता हूँ।
 अय खुदा, मैं तेरी शरण चाहता हूँ, तू बख्श दे मुझे।
 शेख फरीद को अपनी सेवा तू खैरात में दे दे।
 मैं विचार करता हूँ कि महर्षि मेँहीँ महाराज का सत्संग भी ऐसा ब्रह्मरस बरसानेवाला होता है। ऐसे सत्संग का रस वही पान कर सकता है, जिसके नसीब में ऐसा लिखा होता है।


महर्षि मेँहीँ की रचनाओं में सामाजिक चेतना [डॉ0 रामपूजन तिवारी]
 महर्षि मेँहीँ तथा अन्य संतों की वाणियों में उनके इर्द-गिर्द की परिस्थितियों की झलक मिल जाना कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। यह स्वाभाविक ही है कि उनका करुणाविचलित हृदय जगत् के प्राणियों के दुःख-दर्द के प्रति संवेदनशील हो। उनकी ममता-भरी दृष्टि प्राणिमात्र के कल्याण के लिए सर्वदा समुचित मार्ग का संधान करती रहती है; लेकिन संतों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि संसार के प्राणियों की समस्याओं से अछूता नहीं रह पाने पर भी वे उनसे अछूता ही रहते हैं। महर्षि मेँहीँ जैसे संतों की वाणियों के अध्येताओं के लिए इस तथ्य को ध्यान में रखना ही होगा, अन्यथा यह निश्चित है कि उनकी वाणियों के मूल्य-निर्धारण में वे भटक जाएँगे।
 सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरुक रहने पर भी समाज-सुधार संतों का ध्येय नहीं रहा है। समाज की बुराइयों को दूर करने का व्रत लेकर वे नहीं चलते। संतों के लिये महर्षि मेँहीँ के शब्दों में:-
 “आवागमन सम दुख दूजा, है नहीं जग में कोई ।
इसके निवारण के लिये, प्रभु-भक्ति करनी चाहिए ।।
जितने मनुष्य तन धारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिए ।।”
 आवागमन से छुटकारा पाना उनके लिए काम्य है तथा प्रभु-भक्ति ही उनके लिये वह अनमोल वस्तु है, जिसे प्राप्त करने के लिए वे साधना में रत होते हैं।
 इस मूल तथ्य की ओर सम्यक् दृष्टि नहीं रखने के कारण संतों को कभी समाज- सुधारक कहा जाता है और कभी विभिन्न सम्प्रदायों में एकता प्रतिष्ठित करने वाला मसीहा कहा जाता है। कबीर जैसे संतों के सम्बन्ध में यह बात इतनी बार दुहराई गई है कि उनका विशुद्ध भक्त का स्वरूप धूमिल हो उठता है। संत कबीर साहब के वचनों से इसका निराकरण हो जाता है। संत कबीर साहब कहते हैं:-
 “संगत ही जरि जाय न चर्चा राम की ।
  दूलह बिना बारात कहो किस काम की ।।”
 पलटू साहब का भी कहना है:-
‘पलटू कारज सब करै, सुरत रहै अलगान ।’
 वास्तव में जगत् के प्राणियों के प्रति संतों के हृदय में अत्यन्त करुणा और सहानुभूति वर्तमान रहती है, अतएव वे जगत् की समस्याओं के प्रति आकृष्ट होते हैं। उन समस्याओं का क्वचित् कदाचित् उनकी वाणियों में संकेत भी रहता है, लेकिन उनकी दृष्टि कहीं और लगी रहती है। जागतिक प्रपंच और जगत् के नाना क्रिया-कलाप उनकी दृष्टि में माया के कारण सत्य प्रतीत होते हैं और जगत् के प्राणी उनमें उलझे रहते हैं। कहा गया है-
 “जनम मरन जहँ लगि जग आलू । सम्पति विपति करम अरु कालू ।।
 धरनि धाम धनपुर परिवारू । सरग नरक जहँ लगि व्यवहारू ।।
  देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं । मोह मूल परमारथ नाहीं ।।”
 महर्षि मेँहीँ ने स्पष्ट शब्दों में सांसारिक सुख को तुच्छ कहा है और उसे तुच्छ, सारहीन समझने की अपने मन की चाह को ही सब कुछ माना है। महर्षि जी के शब्दों में-
 “जन्म मरण बाल यौवन बुढ़ापा । जर-जर कर्यो रु गेर्यो अन्ध कूपा ।।
 कीशं समं मोह मुट्ठी को बाँधी । कीचड़ विषय फँसि भयो है उपाधी ।।
 जगत सार आधार देहू यह वर । जतन सों सो सेऊँ सद्गुरु कुबुधि हर ।।
  यहि चाह स्वामी न औरो चहूँ कुछ । यही बिन सकल भोग गन को कहूँ तुछ ।।”
 संतों का एक मात्र काम्य गो0 तुलसीदास के शब्दों में मुखर हो उठा है-
सखा परम परमारथ येहू । मन क्रम बचन राम पद नेहू ।।
 अतएव मेरी दृष्टि में महर्षि मेँहीँ-जैसे संतों की रचनाओं में जब हम सामाजिक चेतना जैसी वस्तु को ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं, तब वह अत्यन्त सीमित परिधि के भीतर की ही वस्तु होती हैं, जो उनकी संपूर्ण रचनाओं को देखते हुए नगण्य जैसी ही होती है।
 महर्षि मेँहीँ तथा अन्य संतों की दृष्टि समाज की समस्याओं की ओर जाती है, तब उसका दायरा बहुत ही सीमित होता है। सामाजिक समस्याओं के कारण उत्पीड़ित जन-समुदाय के कष्टों और लाचारियों के फलस्वरूप उनका उदार हृदय करुणा से भर उठता है और उसी व्यथा को यदा-कदा अपनी रचनाओं में रूपायित करने के लिए वे विवश हो उठते हैं। इस जगत् के विभिन्न प्रपंचों को माया का जाल समझते हुए भी संतगण जगत् से प्राणियों के दुःख को देख नहीं सकते, अतएव उन प्रपंचों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हैं। वास्तव में उनका एकमात्र ध्येय सांसारिक प्राणियों को इस माया-मोह के बंधन से छुटकारा दिलाना है। उनकी दृष्टि में कल्याण का मार्ग इस जगत् से विमुख होने में है; जगत् की समस्याओं में उलझने में नहीं। फिर भी वे इस संसार के जीवों को सुखी देखना चाहते हैं, अतएव सामाजिक समस्याओं के प्रति उदासीन भी नहीं रह पाते।
 समय के परिवर्तन के साथ सामाजिक परिवेश परिवर्तित होता है। आज के भारत की परिस्थितियाँ ईसवी सन् की सोलहवीं शताब्दी की परिस्थितियों से भिन्न हैं। परिस्थितियों की भिन्नता के कारण संतों का वाणियों में भी सामाजिक समस्याओं का उभार कभी अधिक, कभी कम हुआ है। यह उभार चाहे कम हुआ हो या अधिक, मूलतः संतों का काम्य, संतों का चरम साध्य अपरिवर्तित ही रहा है।
 महर्षि मेँहीँ की वाणियों का अध्ययन इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही करना न्यायसंगत होगा। सामाजिक समस्याओं के प्रति महर्षिजी अधिक जागरुक हैं। वर्तमान युग राजनीति की सर्वग्रासी उलझनों में पूर्ण रूप से उलझा हुआ है। महर्षिजी ने एक स्थल पर कहा है, इस देश में “घूसखोरी, चोरी और नैतिक पतन वर्तमान हैं, जिनसे जनता में दुःख फैला है। इससे बचने के लिए संतमत उपदेश करता है। कानून चलता ही है और घूस-फूस भी चलते ही हैं। इसलिये सदाचार का पालन करो। सदाचार के पालन से देश में स्वराज्य में सुराज्य हो जाएगा।” अन्यत्र उन्होंने कहा है, “संसार में महात्मा गाँधीजी की तरह रहो। अर्थात् संसार के सब काम को करो और परमार्थ के सब साधनों को भी निभाते जाओ।” इन कथनों से स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि वे देश की परिस्थितियों से अपने को अछूता नहीं रख सके हैं, फिर भी उनकी चिन्तनधारा आध्यात्मिकता से ही अनुप्राणित रही है। कल्याण-मार्ग के उद्घाटन में भले ही उनके वचनों में देश और समाज की समस्याओं का कहीं-कहीं संकेत मिल जाय; लेकिन जिस अर्थ से हम सामाजिक चेतना का प्रयोग करते हैं, उसे उन वचनों में ढूँढ़ने का प्रयास उचित नहीं होगा। महर्षिजी इस देश के महर्षियों और संतों की परम्परा में पड़ते हैं, जिन्होंने आध्यात्मिकता के धरातल से ही मनुष्य तथा उसकी विभिन्न समस्याओं को देखा है।


महर्षि मेँहीँ और सन्तमत में प्रतिष्ठित सुरत-शब्द-योग [डॉ0 प्रताप सिंह चौहान]
 किसी अति सामान्य व्यक्ति का भी मूल्यांकन कितना कठिन है, इस तथ्य से वे सभी व्यक्ति परिचित हैं, जिन्हें ईश्वर ने समीक्षक बुद्धि दी है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सामान्य व्यक्ति भी आत्मस्वरूप ही है, जीव-धर्म ही उसे अपने स्वरूप नाम से पृथक् करके अन्यथा व्यापृत करता है, इसी से वह साधारण प्रतीत होता है और उसमें अच्छे-बुरे विशेषण जुड़ जाते हैं; किन्तु उसकी मानसिकता में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं, अतएव उसके स्थिर व्यक्तित्व के विषय में अन्तिम शब्द नहीं कहा जा सकता। फिर महर्षि ‘मेँहीँ’ ने तो अपनी निरन्तर साधना के द्वारा अपने ‘स्व’ के सभी आयामों का साक्षात्कार कर लिया है और वे ब्रह्मनिष्ठ होकर ब्रह्म-स्वरूप हो गए हैं, अस्तु उनके व्यक्ति का आलोचन और रूपायन लौकिक अथवा बुद्धिवादी समीक्षक के सामर्थ्य की बात नहीं है; क्योंकि बुद्धि का वृत्त चाहे जितना बड़ा हो, सीमित ही होता है और सीमित बुद्धि से असीम का आकलन कथमपि संभव नहीं है। अस्तु महर्षि मेँहीँ के विषय में हम केवल इतना ही कहने का साहस कर सकते हैं कि मानवता और देवत्व की सरणियों को अपनी निरन्तर साधना-द्वारा पार करके ईश्वरत्व में प्रतिष्ठित हो गए हैं अर्थात् वे मानवाकार में ईश्वर हैं।
 विभिन्न विद्वानों के मतानुसार वे सुरत-शब्द-योग में दीक्षित हुए थे और उसी साधना-पद्धति के निरन्तर अभ्यास से उन्होंने परम सिद्धि प्राप्त की। उनकी यह सिद्धि हठयौगिक नहीं हैं, जिससे अणिमादि सिद्धियाँ सम्बद्ध हैं। ये सिद्धियाँ तो ऐहिक वैभव देने के कारण सांसारिक ही हैं। इनमें स्थूल जगत् से ऊपर आश्चर्यजनक चमत्कार भी सन्निहित हैं; किन्तु मन को उसके विक्षेपों से मुक्त करके निरुद्धावस्था में पहुँचाने में ये सर्वथा असमर्थ हैं। फलतः हठयोग की साधना-द्वारा साधक को आत्म-साक्षात्कार नहीं हो सकता और वह स्वरूप-स्थित होकर मुक्त नहीं हो सकता। स्वरूप-स्थिति अथवा आत्म-साक्षात्कार के प्रयास को ही आध्यात्मिक साधना-द्वारा अभिहित किया है; अर्थात् वह साधना, जो आत्मोपलब्धि अथवा स्वरूप-प्राप्ति के लिए की जाती है, वही आध्यात्मिक है। इस संदर्भ की साधनाओं के भी अनेक प्रकार हैं; किन्तु गन्तव्य सबका एक-आत्मोपलब्धि। सभी मन को विक्षेप-रहित करके निरुद्ध करने में एकमत हैं। सभी धारणा से आरम्भ करने के कारण अजपा जप पर विशेष बल देती हैं। इनमें से कुछ जप को अजपा जप और फिर अजप में प्रतिष्ठित करने की समर्थिका है, और कुछ अजपाजप से ही प्रारम्भ करने पर बल देती हैं। हम समझते हैं कि इन शब्दों को इस प्रसंग में स्पष्ट कर देना चाहिए, जिससे हम जिस साधना-पद्धति पर विचार कर रहे हैं, उसे समझने में सरलता रहे।
 जप, आध्यात्मिक साधनान्तर्गत वह पद्धति है, जो इष्ट देवता के विग्रह और मंत्र से संबद्ध है। इस प्रणाली में इष्ट की मूर्ति अथवा चित्र पर ध्यान केन्द्रित करके उससे संबद्ध मंत्र का जप किया जाता है। जाहिर है, हमारा मन स्थूल के जिस स्तर पर है, उससे वह सहसा सूक्ष्म को पकड़ने में असमर्थ है। सूक्ष्म मन से ही सूक्ष्म को पकड़ा जा सकता है; किन्तु यहाँ पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि स्थूल (ग्रॉस) के चिन्तन से तो स्थूल की ही प्राप्ति होगी, सूक्ष्मतम आत्मोपलब्धि उससे कैसे सम्भव हो सकती है? इसके उत्तर में अध्यात्मवेत्ताओं का कथन है कि स्थूल अथवा जड़ में भी इस स्तर का साधक सूक्ष्म-चैतन्य की ही दृष्टि रखता है। वह पत्थर और चित्र की पूजा नहीं करता और न वह स्थूल मूर्ति अथवा चित्र को ही कोई आश्रय देता है, वरन् मूर्ति के अथवा चित्र के चेतन अधिष्ठातृ देवता की ही साधना करता है। मूर्ति अथवा चित्र तो मात्र प्रतीक है। वैसे शास्त्र और अनुभवी ऋषि कल्प संतों के अनुसार तो जड़-चेतन जगत् प्रभु का ही स्वरूप है। ब्रह्म से बड़ा तो कुछ भी नहीं है; अर्थात् ब्रह्मान्तर्गत ही सभी कुछ दृश्य-अदृश्य है। इसीलिए वेदान्त की प्रतिष्ठा है “सर्वमखल्विदम् ब्रह्म।” किन्तु इस संदर्भ में साधक अथवा भक्त के भाव का ही महत्त्व है। अर्थात् साधक अथवा भक्त पत्थर अथवा चित्र-भाव से पूजा नहीं करता, वरन् उसमें वह देवता को ही प्रतिष्ठित देखता है, इसलिए धारणा दृढ़ होने पर उसे अपने अभीष्ट की सिद्धि अनिवार्य है। यह हो सकता है कि सिद्धि-प्राप्ति में विलम्ब हो; किन्तु सद्यः सिद्धि-प्राप्ति की भविष्यवाणी तो किसी साधना-पद्धति के लिए आश्वस्त रूप से नहीं की जा सकती, उसमें तो पूर्व-संस्कार और निरन्तर साधना ही अपेक्षित फल-प्रदायक सिद्ध हो सकते हैं।
  “अजपाजप” मानसिक जप है। वैसे ‘जप’ में भी मूर्ति, चित्र और मंत्र के माध्यम से मनोनिग्रह अथवा मन को विक्षेप-रहित करने का ही प्रयास है; किन्तु शुद्ध मानसिक है। ‘अजपाजप’ को योग-ग्रन्थों में श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया में केन्द्रित किया गया है। अर्थात् ऊर्ध्वश्वास में ‘हं और अधः श्वास में ‘सः’ की कल्पना की जाती है। इस प्रकार ‘हंसः’ का मानसिक जप चलता है। यही सिद्ध होने पर ‘सोहं’ के रूप में अनुभूत होता है। अर्थात् ‘मैं’ ही आत्म स्वरूप हूँ? किन्तु ‘अजपाजप’ मात्र इतने तक ही सीमित नहीं है। अन्यत्र 15-16 प्रकार के ‘अजपाजप’ भी परिगणित हुए हैं। वस्तुतः ‘अजपाजप’ ध्यान-पद्धति की ही अभिधा है। ‘सुरतिशब्दयोग’ भी इसी संदर्भ का ‘अजपाजप है। सूफियों का सुरतिशक्तियोग भी ‘अजपाजप’ ही है। इसी प्रकार एतद्संबन्धी अन्य उदाहरण भी दिए जा सकते हैं।
 इस निबन्ध में हमें ‘सुरति शब्द योग’ के ‘अजपाजप’ का आलोचन अभीष्ट है; क्योंकि महर्षि ‘मेँहीँ’ इसी पद्धति के महापुरुष हैं। ‘सुरति-शब्द’ योग की परम्परा अति प्राचीन है और इसके सूत्रें को विद्वानों ने वेदों, उपनिषदों और गीता में भी प्राप्त किया है; किन्तु हम यदि उतनी दूर न जाकर मात्र मध्ययुगीन भारत की संत-परम्परा को देखें, तो इस साधना-पद्धति का सर्वातिशय ही महामहिम और परम वैभवपूर्ण रूप प्राप्त होगा। मध्ययुगीन संत कवियों में कबीर का स्थान सर्वोच्च माना गया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि इस परम्परा में दीक्षित अन्य संतों की उपलब्धियाँ कबीर से किसी भी मात्र में कम रही हैं। प्रायः इस परम्परा के सभी संत अध्यात्म के चरम शिखर को प्राप्त करके जीवन-मुक्त हो गए थे। दादू, सुन्दरदास, पलटू साहब, रैदास आदि अनेक संत इसी परम्परा की श्रेष्ठ विभूतियाँ हैं, किन्तु इस कलि में प्रभु एक ही व्यक्ति को यशस्वी बनाता है। कदाचित् कबीर का स्थान इसी कारण यश की दृष्टि से सर्वोपरि हो गया। आध्यात्मिक उपलब्धि में सभी संत बराबर रहे हैं। कबीर ने अपनी साधना-पद्धति की विशेषता का उल्लेख करते हुए एक दोहे में इस प्रकार कहा है-
 “जाप मरै अजपा मरै, अनहद हू मरि जाय ।
  सुरति समानी शब्द में, ताहि काल नहि खाय ।।”
 इस दोहे में कबीर ने पिपीलिका-मार्गीय जप, ध्यान-मार्गीय अन्य अजपाओं से सुरति-शब्द-मार्गीय साधना को श्रेष्ठतर मानते हुए यह स्थापना की है कि अन्य स्थूल-सूक्ष्म साधनाओं से सुरति-शब्द-योग की साधना आत्मोपब्धि और जीवनमुक्त करने में सर्वाधिक समर्थ है। उन्होंने उसकी चरमोपलब्धि को यह कहकर प्रतिष्ठा दी है कि इस मार्ग के साधक को काल नहीं खा सकता। इसका अभिप्राय यह है कि वह सीमित काल-वृत्त से मुक्त होकर जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाता है। और यह तब होता है कि जब अहं और इदम् के सम्बन्ध से मुक्ति मिल जाती है। अर्थात् ‘मैं’ जब संसार के अनेक पदार्थों से जुड़ जाता है, तब वह संसारी हो जाता है और यही ‘मैं’ जब परमात्मा में जुड़ जाता है, तब आध्यात्मिक हो जाता है। सारांश यह है कि वस्तुओं के प्रति जो ‘अहं’ भाव है, जबतक वह ऊर्ध्वमुखी होकर परमात्मा की ओर नहीं लग जाता, तबतक जीव की अपने स्वरूप में स्थिति नहीं हो सकती, फलतः वह आवागमन के चक्र से भी छूट नहीं सकता। ‘सुरत-शब्द-योग’ में अहं-निरसन का सबसे बढ़कर उपाय सन्निहित है। इसी कारण इस मार्ग के सन्तों ने इस तथ्य का एक स्वर से समर्थन किया है। इस सन्दर्भ में महात्मा दूलनदास का कहना है-
             “कोई बिरला यहि बिधि नाम कहै।
मन्त्र अमोल नाम दुइ अक्षर, बिनु रसना रट लागि रहै ।
होठ न डोलै जीभ न बोलै, सुरति धरनि दिढ़ाइ गहै ।।
दिन औ राति रहै सुधि लागी, यह माला यह सुमिरन है ।
  जन दूलन सतगुरन बतायौ, ताकी नाव पार निबहै ।।”
 सन्त चरनदास का इसी संदर्भ में कथन है कि-
 “करते अनहद ध्यान के, ब्रह्मरूप हो जाय ।
  चरनदास यों कहत है, बाधा सब मिटि जाय ।।”
 इसी को स्पष्ट करते हुए उन्होंने अन्यत्र कहा है-
 “अनहद शब्द अपार, दूर सूँ दूर है। चेतन निर्मल शुद्ध, देह भरपूर है ।।
निःअक्षर है ताहि और निःकर्म है। परमातम तेहि मानि, वही परब्रह्म है ।।
या के कीन्हें ध्यान होत है ब्रह्म हीं। धारै तेज अपार जाहि सब भर्म ही ।।
वा पटतर कोइ नाहि जो यों ही जानिये। चाँद सूर्य अरु सृष्टि के मांहि पिछानिये ।।
या को छोड़ै नाहि सदा रहै लीन ही। यही जो अनहद सार जानि परवीन ही ।।”
-चरण दास
 इस ध्यान के महत्त्व का वर्णन करते हुए सभी सन्त थकते नहीं। शब्द की महिमा का वर्णन करते हुए सन्त धरणीदास जी एक पद में कहते हैं-
 “अजहुँ मन सब्द प्रतीति न आई ।
चंचल चपल चहूँ दिसि डोलै जगत नाहि चतुराई ।
सब्द तें सुक मुनि सारद नारद गोरख की गरुआई ।।
सब्द प्रतीत कबीर नामदेव जागत जक्त दोहाई ।
सदन, धना, रैदास, चतुरभुज नानक मीराबाई ।।
सन्त-अनन्त प्रतीति शब्द की प्रगट परम गति पाई ।
धरनी जो जन शब्द सनेही मोहि बरनी नहि जाई ।।”
 इन सब उद्धरणों से यह सिद्ध हो जाता है कि सभी साधनाओं के मध्य सुरत-शब्द योग की साधना का सहजता और अहं-निरसन की दृष्टि से सर्वोपरि स्थान है। इसी कारण महान् से महान् सन्त इस साधना-पद्धति का अनुसरण करके अध्यात्म के चरम शिखर पर है। महात्मा धरणी दास के उपर्युक्त पद में कबीर, रैदास, सदन, मीराबाई आदि सभी सन्त इसी पद्धति के अनुगामी बनकर परम-चैतन्य की प्राप्ति कर सके थे। विभिन्न जातियों और वर्गों के साधकों के लिये यह मार्ग खुला हुआ था। कोई भी सांसारिक निषेध इसे ग्रहण करने में बाधक न था। ऐसी उदारता इस मत के विशेष प्रचार के पूर्व और उसके बाद भी अन्य किसी साधना-पद्धति में दृष्टि-गोचर नहीं होती; किन्तु इसका ग्रहण करना जितना सहज था, उतनी सहज आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं थी; इसीलिये सन्त कबीर ने इस साधना-पद्धति को ग्रहण करने वाले साधकों को अपनी एक साखी में इस प्रकार चेतावनी दी है-
 “सीस उतारै भुंइ धरै, तापर राखै पाँव ।
  दास कबीरा यौं कहै, ऐसा होय तो आव ।।”
 अर्थात् इस मार्ग में आनेवाले साधक को शीश देना पड़ेगा। शीश देने का अर्थ है-अहंकार का त्याग। अहंकार का त्याग कितना कठिन है, इससे सभी परिचित हैं; किन्तु कबीर ने इस मार्ग पर आनेवालों के लिये इससे कम शर्त नहीं लगाई थी।
 महर्षि मेँहीँ ने इस शर्त को स्वीकार करके इस मार्ग में प्रवेश किया था। इस मार्ग में प्रविष्ट होने के पूर्व उन्होंने ध्यान-त्राटक आदि को भी सीखा था। इस समय तक वे घर में ही रहकर विद्यार्थी-जीवन बिताते हुए आध्यात्मिक साधनाओं में निरत हुए थे। अन्ततोगत्वा उन्होंने गृह-त्याग कर प्रव्रज्या ले ली। इसमें अनेक जगह घूमे। अन्त में आपने सन् 1933 ई0 के मार्च से सन् 1934 ई0 के नवम्बर तक कुप्पाघाट (भागलपुर) की गुफा में सुरति-शब्द-योग का अनवरत एवं गम्भीर अभ्यास कर आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया। निःसन्देह इस प्रकार के सन्त अत्यन्त दुर्लभ रहे हैं। महर्षि मेँहीँ ने सन्तमत-सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया है और भागलपुर में ही एक आश्रम बनाकर सन्तमत का प्रचार करने में निरत हैं। निःसन्देह ऐसे ऋषि-कल्प महात्मा के द्वारा सन्तमत का प्रचार मानवता के लिये वरदान सिद्ध होगा। इन शब्दों के साथ मैं ‘महर्षि’ का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ और परमपिता परमात्मा से यह प्रार्थना करता हूँ कि वे मानवता को उदात्त भूमि में प्रतिष्ठित करने का अपना यह शुभ-कार्य आगामी अनेक वर्षों तक करते रहें।


साधु-सन्तों का अध्ययन [श्री आनन्द शंकर माधवन]
 अनादि काल से यह गंगा दिखाई दे रही है। न जाने कब तक बहती रहेगी। पाप-प्रक्षालन-यज्ञ का भी मानों कोई अन्त ही नहीं। गंगा घाट अनेकों। अनेकों नव-नव घाट सम्भव भी। प्रत्येक साधु को एक-एक घाट ही समझा जाय। घाट होकर गंगा में उतरने और स्नानादि से अपने को पूत करने में सुविधा अधिक है। पर उतरना होगा आपको हर हालत में, अगर आपको अपने को पूत करना है। गंगा स्वयं आपके घर में नहीं आयेगी।
 समुद्र के साम्राज्य में स्वराज्य माँगती हैं तरंगें। वे इसके लिये संघर्ष करती हैं और राहादल को भी सहर्ष वरण करती हैं। अनादि काल से उनकी यह माँग जारी है। समुद्र सिद्ध है। वह चुप रहता है। सिद्धों की चुप्पी असिद्धों के हल्ले से अधिक ताकतवर साबित होती है। अपनी ही संतान से समुद्र परेशान; क्योंकि संतान सत्यान्वेषी ज्ञान-पिपासु और अध्यात्म-साधक नहीं है। वातावरण को क्षुब्ध रखना ही ये अज्ञानी अविवेकी संतान अपनी कामयाबी समझती है। बार-बार वे उमड़-उमड़ आती हैं। शकल-सूरत सभी को एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी स्वभाव और कार्य में सभी एक दूसरे से अभिन्न हैं। समुद्र थकता नहीं है। वह सतत इस कोशिश में लगा रहता है कि तरंगें साधनशील बनें और ज्ञानी हो जायँ और अपना अस्तित्व-रहस्य भी जान जायँ।
 मानव भी तरंगें हैं, किसी महासमुद्र की। किसी महाप्राण के वे आंशिक प्राण हैं। प्रकाश-किरणें सत्य हैं, तो सूर्यगोल भी साथ है। विचारों के भी जन्ममरण होते हैं और उनके पुनर्जन्म भी। और तब तत्सम्बन्धी कार्यों और कार्य-कर्त्ताओं के भी जन्म-मरण होते हैं और उनके पुनर्जन्म भी। दिनभर के नानामुखी काम-धंधों के बाद मानव रात को सो जाते हैं। सुबह जगने पर फिर उन्हीं सब काम-धंधों में लग जाते हैं। ठीक उसी तरह उन विचार-सम्बन्धी कार्यों और कार्यकर्त्ताओं को भी समझा जाय। यही कारण है कि साधु-संत लोग हर जमाने में हर भूभाग में किसी-न-किसी रूप में दिखाई देते हैं।
 आज का भव्य मंदिर कल खण्डहर है। परसों बड़े प्रेम से उसका इतिहास खोजने लगते हैं। आज के पूज्य कल अपूज्य हैं। परसों उनकी खोज करने और उनपर शोध करने लगते हैं; उनका सम्मान करने के उद्देश्य से। भगवान् स्वयं गीता कितनी ही बार कह चुके होंगे और दुनिया सुन चुकी होगी। बार-बार उनको भी कहना पड़ रहा है, ऐसा है इन लोगों का स्वभाव। बार-बार उन्हें सुनाना पड़ता है। बार-बार पेड़-पौधों को फूलना पड़ रहा है, जैसे कि उस समस्या का अब तक भी सफल समाधान नहीं हुआ है, जिस समस्या का सफल समाधानार्थ उन्होंने फूलना-फलना प्रारंभ किया। बार-बार धर्मशास्त्रें के अध्ययन-अनुशीलन की जरूरत। बार-बार सत्य को सुनना-सुनाना पड़ता है कि हृदयंगम हो सके। ऐसा ही चंचल है इन तरंगों का स्वभाव। वेदों और उपनिषदों में प्रतिपादित सत्य को ग्रहण करने में मानव असमर्थ दिखाई देने लगे, तो उन सत्यों को सरल करके सुग्राह्य करके समझाने के उद्देश्य से ही रामायण, महाभारत, पुराण आदि कथा-साहित्य का प्रणयन किया गया था। संगीत, चित्रकला आदि नाना प्रकार के माध्यमों को भी इसी कार्य के सफल सम्पादन के लिये प्रकट किया गया।
 तात्त्विक दृष्टि से जीवन और चेतना; दोनों एक ही सत्य का प्रतिपादक है; पर जीवन उलझ जाता है संसार के नाना प्रकार के धंधों में। और तब वह अपनी वास्तविक प्रकृति चेतना को खो बैठता है। तब उसे समझाना और याद दिलाना पड़ता है कि उनकी मूल प्रकृति और स्वरूप चैतन्य है। सभी धर्मशास्त्रें और उनके प्रतिनिधि कार्यकर्त्ता साधु-संतों का लक्ष्य यही रहता है।
 विज्ञान और यांत्रिकला मानव की इस मूलभूत स्थिति में कुछ भी परिवर्तन या दिशाभेद नहीं ला सकी है; बल्कि वैज्ञानिकों को भी अपनी नाव को सही दिशा की ओर अग्रसर रखने के लिये धर्मशास्त्रें और साधु-सन्तों से प्रेरणाएँ ग्रहण करना आवश्यक पड़ रहा है।
 मानव नश्वर होते हुए भी वह उस अनादि, अखण्ड परमेश्वरी ज्योति का एक अंश भी है। यानी वह नश्वरता और अमरत्व; दोनों में एक साथ जी रहा है। मानव-मानव में धर्म-शास्त्रें का उदय उसके चैतन्य-जागरण का ही फलस्वरूप रहा है। सत्यान्वेषण-सम्बन्धी घोर तपस्या से ही चैतन्य का जागरण होने लगता है। सत्य को भी ढूँढ़ना पड़ता है।
 धर्मशास्त्रें में प्रमुख रूप से एक चीज प्रतिपादित है-मानव मूलतः और प्रथमतः ईश्वरांश है। यानी ईश्वरीय ज्योति उसमें स्थापित है। उसी का परिचय प्रतिपादन स्वरूप उसका जीवन बीतना चाहिये, तभी सुखी और ऐश्वर्यसम्पन्न जीवन व्यतीत कर सकेगा। सभी साधु-संतों का एक मात्र श्रम और चाह, इसी ओर रहती है। उनके इस श्रम और चाह में उनका कुछ भी स्वार्थ नहीं। सिर्फ जनहित कल्याण कामना के अलावा साधु के भीतर कुछ भी नहीं रहता है। इसलिये तो उसे साधु कहा जाता है। उसे अपनी कुण्डलिनी की फिक्र नहीं रहती है। समूह की कुण्डलिनी को कैसे जाग्रत किया जाय; यही उनको एकमात्र फिक्र रहती है। उनके आश्रमों का, भाषण-प्रवचनों और साहित्यिक अनुष्ठानों का भी यही भीतरी लक्ष्य रहता है। साधु कहेगा-मेरा विषय मात्र एक है-जन साधारण को परमेश्वर से अवगत रखना, लगनशील मुमुक्षु को परमेश्वर तक पहुँचा देना। रोशनी जला देने के अलावा अंधकार से बचे रहने का क्या उपाय है? युधिष्ठिर से संगत करने के अलावा दुर्योधनों से बचे रहने का क्या उपाय है? साधु-संतों से निरन्तर संगत करने से चोर, चोट्टों से बचे रह पायेंगे। तो हमें इन साधु-संतों से कितने कृतज्ञ रहना चाहिये!
 समझो, एक दीप जल रहा है। उस दीप के प्रकाश में हम अपना अध्ययन कर सकते हैं। उसे बुझा देने से हमें लाभ नहीं है। उसके आविर्भाव-रहस्य ढूँढ़ना भी एक व्यर्थ प्रयास है। प्रत्येक साधु इसी प्रकार का एक-एक द्वीप है। दीप स्वयं जल रहा है। इसलिये वह प्रकाश-वर्ष कर पा रहा है। जो आलोक-वर्षा करना चाहते हैं, उन्हें स्वयं सूर्यगोल जैसे प्रज्वलित रहने की साधना करनी होगी।
 हम फौरन राय कायम करने लगते हैं। कभी-कभी, कोई-कोई चीज सुनते ही हम कह बैठते हैं, यह ठीक नहीं, यह सही है, यह अच्छा है, अमुक आदमी मूर्ख है इत्यादि। बुद्धिमान आदमी सम्पूर्ण वक्तव्य किसी भी समस्या पर कभी नहीं देगा। वह कहेगा-मुझे ऐसा लगता है, हो सकता है ऐसा हो इत्यादि। विचारहीन प्रमादी लोग ही फौरन निष्कर्ष की ओर दौड़ लगायेंगे। जो लोगों के इस प्रकार राय कायम करने का आधार क्या है? अक्सर हमारे मानस में बाजार में जो बातें सुनने को मिलती हैं या अन्य परिस्थिति-जन्य सूक्ष्म शक्तियाँ हैं और अपार अब तक के अनुभव निष्कर्ष आदि हैं, वे ही सब राज्य करते हैं। हमारे मानस पर शासन करने वाली ये अवांछनीय शक्तियाँ ही हमारी रायों के लिये अधिकतर जिम्मेदार हैं। हम स्वयं भी इन अवांछनीय शक्तियों का भृत्य-जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इस दास्य स्थिति से साधु-संत हमें मुक्त करना चाहते हैं; क्योंकि साधु परमेश्वर-प्रतिनिधि कार्यकर्त्ता हैं। साधु कहते हैं-प्रत्येक मनुष्य में चैतन्य का जागरण और विकास आवश्यक है; क्योंकि तभी वह सार्थक जीवन व्यतीत कर सकेगा। चैतन्य का जागरण भीतरी क्रांति से ही संभव है। कर्त्तव्य-अकर्तव्य का बोध आ जाना ही इस भीतरी क्रांति का प्रारंभ है। हमारी कीमत यह नहीं कि हम कितने सब कुछ जानते हैं कि कहाँ तक इसमें चैतन्य जाग्रत् है। आजकल इस चैतन्य-जागरण की ओर जो अनवरत साधना करते रहने से ही प्राप्य है; लोगों की रुचि और आस्था कम हो गयी है। लोग अखबारों को ही सबसे महत्त्वपूर्ण अध्ययन-सामग्री समझते हैं। अखबारों में असाधक और अदूरदर्शी पेशेवार राजनीतिज्ञों की उछल-कूद के समाचार ही प्रकाशित होते हैं। साधु की साधना के इतिवृत्त उसमें थोड़े ही स्थान प्राप्त करते हैं। तो उन्हें पढ़कर इसे क्या सार चीजें प्राप्त करनी हैं? हम पढ़ें ऐसी चीजें और करें ऐसे कार्य कि मानस पर दीर्घकाल से जमी, पड़ी काई सब धुलने जग जाय। इसके लिये धर्म-शास्त्रें और साधु-सन्तों के अध्ययन के अलावा क्या उपाय है?
 मानव आज भयाक्रान्त है। उसको सूझ नहीं रहा है, क्या करे क्या नहीं। सर्वत्र अराजकता और तबाही है। सभी पवित्र मानवीय कर्मक्षेत्रें पर आज अपूज्य नेतृत्व और अपूज्य शासन है। दिशा-ज्ञान अच्छे-अच्छे आदमी को भी रह नहीं गया है। सभी एक दूसरे से भिड़े हुए हैं ऐसी स्थिति में मानव को उसकी सजग आत्मा ही सँभाल सकती है; पर उसकी आत्मा सुषुप्त पड़ी है। तभी तो वह इस तरह दिग्भ्रान्त और पतनोन्मुख है। उसे अपनी आत्मा से परिचित करावेगा कौन? यहीं पर हमें साधु-संत और उनके सदनुष्ठान, हमारे उद्धार-कर्त्ता के रूप में दिखाई देते हैं! हम कितनी गहराई तक पतनगर्त में डूबे पड़े हैं, इसका बोध हमें तभी होगा, जब हम उनके सान्निध्य में पहुँच जाते हैं।
 प्रत्येक दीप का एक ही कार्य है-आलोक वर्षा। एक दीप का प्रकाश दूसरे दीप के प्रकाश से फौरन मिल भी जाता है और वह सम्मिलित बनकर एक-सा भी हो जाता है। साधु-संतों का पारस्परिक बन्ध भी इसी प्रकार का होता है। वहाँ पन्थ-भिन्नता या भाषाभिन्नता, लक्ष्य-भिन्नता या स्वभाव-भिन्नता नहीं है; पर असाधकों का पारस्परिक सम्बन्ध स्वार्थजन्य गठबन्धन मात्र है, स्वभाव सामीप्य का दुष्परिणाम मात्र है।
 आधुनिक संस्कृति मानव को एक दूसरे के निकट पहुँचाने लगी है, पर यह निकटता हृदय सान्निध्य पर आधारित नहीं है। यह निकटता दूध में चीनी जैसे एक दूसरे में विलयन नहीं है। सबको एक दूसरे पर शक है और भय भी। यातायात की सुविधा और अन्य वैज्ञानिक उपकरण संसार के सभी मानवों को एक ही संस्कृति में बाँधने और गूँथने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में लाचार भी हम एक दूसरे को उपेक्षा की दृष्टि से देख नहीं सकते, बल्कि पर्याप्त महत्त्वपूर्ण दृष्टि से उसपर नजर रखिये। हम जो भी कर रहे हैं, उसका संसार के सभी मानवों पर प्रभाव पड़ रहा है, इसलिये हम ऐसे ही कार्य करें कि उसका प्रभाव संसार वालों पर अनुकूल और दिशाबोध-जनक साबित हो। हम अच्छे हैं तो मात्र हम ही नहीं लाभान्वित हैं, समस्त संसार भी लाभान्वित है। उसी हिसाब से अगर हम बुरे हैं तो मात्र हम नहीं गिरते, समस्त संसार को ही हम पतनगर्त की ओर धकेल रहे हैं। इस रहस्यभरी स्थिति को सतत ध्यान में रखना जरूरी है; क्योंकि तभी हम अपनी जिम्मेदारी को पूर्ण रूप से निभा सकेंगे।
 भारतीय जीवन का आधार यहाँ के धर्मशास्त्र हैं। प्रातिनीध्य जीवन व्यतीत करनेवाले अगर ठीक नहीं हैं, तो उस धर्म से क्या लाभ? अगर मुसलमान ठीक नहीं है, तो इस्लाम धर्म से क्या लाभ? अगर ब्राह्मण ठीक नहीं है, तो हिन्दूधर्म का मूल्य क्या है? धर्मशास्त्र के प्रतिनिधि मनीषी लोग वस्तुतः साधु-संत हैं। वे ही धर्म के झंडे उठाये हुए हैं। उन्हीं पर धर्म का भविष्य है। अगर धर्म गिरा, तो मानवता ही डूबी। इसलिये साधु-संतों पर मानवता का भविष्य निर्भर है, ऐसा कहा जा सकता है। साधु-संतों का अध्ययन करना और उनका अनुगमन करना ही धर्म को समझने का और उसका अनुशीलन करने का सुगमतम उपाय है।
 मानवता की दीर्घकाल से चली आ रही व्याधि अन्नाभाव से सम्बन्धित नहीं है, न वस्त्रभाव से या स्वास्थ्याभाव से सम्बन्धित ही। असल व्याधि चैतन्य के अभाव से सम्बन्धित है। उसमें चैतन्य को साधु-संत ही जाग्रत और विकासशील कर सकता है। प्रत्येक मानव चूँकि वह ईश्वरांश है, इसलिये देवता बनने के प्रत्याशी के रूप में ही जन्म लेते हैं। वह अगर दुनिया में आकर शैतान के रास्ते पकड़ लेते हैं, तो उसका साफ अर्थ है दुनिया में शैतानी व्यवस्था ही प्रबल है, शैतानी संस्कृति ही जोरों पर है। सर्वत्र व्याप्त इस आसुरी संस्कृति से सूक्ष्म और स्थूल, दोनों जगत् में साधु-संत ही मुकाबला और संघर्ष कर सकते हैं। पर उनका संघर्ष-मार्ग पुष्पवाद पर आधारित है-यानी अपनी सुगन्ध और सौन्दर्य का परिचय देते हुए फल-प्रसव करते हुए धीरे- धीरे शहादत को प्राप्त करना। प्रत्येक साधु परमेश्वर-रूपी गाछ पर उगे एक-एक कालजयी पुष्प हैं। बार-बार उस गाछ पर पुष्प आते ही रहते हैं।
 दैवी-संस्कृति सर्वत्र जाग्रत् और प्रबल करना ही साधु-सन्त का प्रमुख कार्य रहता है। परमेश्वर-साक्षात्कार और परमेश्वरी विभूतियाँ और सब प्रकार के ऐश्वर्य प्राप्ति पर मानव होने के नाते और फिर देवता बनने के प्रत्याशी होने के नाते भी मानव के जन्म-सिद्ध अधिकार हैं। इस अधिकार की प्राप्ति के लिये उसे संघर्ष करना पड़ता है। इस संघर्ष में ही मानव को साधु-संत काम आते हैं। स्वाभाविक तौर पर मानव को अपने इस अधिकार की प्राप्ति नहीं हो रही है, तो उसका अर्थ है, व्यवस्था में कहीं गड़बड़ी है, जीवन की अध्यात्म-सम्मत गति में ही कहीं रुकावट पड़ रही है। इस गड़बड़ी और रुकावट का सफल इलाज साधु-संत ही कर सकते हैं; क्योंकि प्रत्येक साधु मानव के और समाज के भी आध्यात्मिक वैद्य है। व्यक्ति का विकास ही समष्टि के उद्धार का सोपान है। जिम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति की है, इलाज भी प्रत्येक व्यक्ति का होता है; क्योंकि व्यक्ति ही वस्तुतः समाज भी है, राष्ट्र भी है, विश्व भी है। एक भी व्यक्ति असुर संस्कृति का रह गया, तो वह समाज सुरक्षित नहीं है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति सुधर जाय और वह सही रास्ते से अग्रसर होने लग जाय-यही साधु-संतों की दृष्टि रहती है।
 आधुनिक युग में साधु-संत इसके लिये सेवा-मार्ग ही उपयोगी मार्ग मानते हैं। इसलिये साधु कहते हैं प्रत्येक व्यक्ति सेवा-धर्म को अपनावे। संतमत का यही मूल पहलू है। साधु कहते हैं, सेवा से सेवक ही अधिक लाभान्वित होते हैं, न कि सेव्य। देशवासियों के पारस्परिक सेवाकार्य ही देश की गौरव-गरिमा को अक्षुण्ण रख सकेगा। जन-चैतन्य को जाग्रत और प्रज्वलित करने और उसे विकासशील करते रहने से बढ़कर सेवा क्या है? इस प्रकार की सेवा में ही साधु-संत लगे रहते हैं। ऐसे सेवक साधु ही सही अथ्ार् में देवता भी, परमेश्वर-प्रतिनिधि ऋषि भी हैं। चैतन्य को जाग्रत करने की योजनाबद्ध श्रम को ही साधना कहते हैं। ऐसे साधक ही जीते हैं, असाधक सभी मर ही जाते हैं। असाधक जीवितकाल में ही मृत हैं। साधक मृत्यु के बाद भी जीवित रह जाते हैं। साधना के राजपथ को ही जन-साधारण के समक्ष साधु प्रशस्त करते हैं।
 अन्धा प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य का क्या बयान कर सकेगा? उसे बोध की कहाँ, सौन्दर्य क्या चीज है? उसी तरह बहरे को क्या पता संगीत क्या चीज है? सूर्य को क्या पता अन्धकार क्या होता है? उसी तरह जिसे भगवत्-साक्षात्कार प्राप्त है, वह क्या जानता है, पाप किसे कहते हैं, पापाचारी कैसे होते हैं? महान् सृजनपरक और महान् युग-प्रवर्त्तक आन्दोलन का भगवत्-साक्षात्कार जिसे प्राप्त है, वही सफलतापूर्वक कार्य कर सकते हैं। रामायण, महाभारत जैसे कालजयी ग्रन्थों का प्रणयन हम-आप क्यों नहीं कर पा रहे हैं? ईसा पर ईसाई धर्म चल निकला। बुद्ध पर बोद्ध- धर्म चल निकला। गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा धर्म को चलाया। ऋषि दयानन्द ने आर्य-समाज की स्थापना की। हम-आप ऐसा कोई महान् कार्य क्यों नहीं कर पा रहे हैं? तो यही बात है। भगवत्-साक्षात्कार को प्राप्त करने से बढ़कर कुछ भी करणीय नहीं है। यही बात हमें साधु-संत समझा रहे हैं। वे चाहते हैं, प्रत्येक मानव साधु-जीवन व्यतीत करे। प्रत्येक घर आश्रम जैसे परिणत हो, प्रत्येक अध्यापक साहित्यकार, राजनीतिज्ञ आदि साधु के रूप में परिणत हो, उनका यही कहना है। मानवता को सर्वनाश से बचाये रखने का यही एकमात्र उपाय है।
 आदमी अपनी सूझ के अनुसार कार्य करते हैं। पर उसके भीतर उदय हो रही इस सूझबूझ का क्या रहस्य है? उसके आविर्भाव के क्या कारण है? जैसे मानव का जागरण वैसे उसकी सूझ-बूझ भी। यह सूझ-बूझ ही वास्तविक ताकत है। पूरे राष्ट्र के लिये भी यही सत्य है। समूह की सूझ-बूझ जहाँ तक जाग्रत् है, वहाँ तक ही देश की भी ताकत समझिये। इस सूझ-बूझ के ही अभिभावक हैं-हमारे साधु-संत। अतः ऐसा कहा जा सकता है कि हमारे साधु-संत ही हमारे देश के कर्णधार हैं। उनके बनाये गये रास्ते पर चलने में ही हमारा कल्याण है। उनका अध्ययन-मनन करना और उनका अनुसरण करना ही नाना प्रकार के सर्वत्र व्याप्त दुर्व्यसनों से और दुर्विचारों से अपने को बचाये रखने का उपाय भी है।
 अतः हम साधु-संतों का सम्मान करना जानें, उनके नेतृत्व को स्वीकार करें, उनके शासन को सर्वत्र चालू करें। पूज्य शासन और पूज्य नेतृत्व को स्थापित करना ही ऐश्वर्य को आवाहन करने का एकमात्र उपाय है।
 लाख-लाख साधु प्रकट हों, लाख-लाख आश्रम स्थापित हो जायँ; फिर से उपनिषदों का प्रणयन हों। राज करें साधु-संत! विश्व विजय करें ऋषि लोग।


महर्षि मेँहीँ: साधना के अनिकेत शिखर [डॉ0 विष्णुदत्त राकेश, एम0 ए0, डी0 लिट्0]
 इस शताब्दी के साधना-सिद्ध संतों में महर्षि मेँहीँ का स्थान अग्रगण्य है। जहाँ उन्होंने संतमत के मूल तत्त्वों का उद्घाटन 1926 ई0 से ही करना प्रारम्भ कर दिया था, वहाँ निरन्तर सत्संग-सुधा की वर्षा करते हुए वह 1983 ई0 तक भी नहीं थके। वह निर्गुणियाँ-परम्परा में दीक्षित होते हुए भी पहले संत हैं, जिन्होंने वेद, उपनिषद्, गीता, पुराण, अध्यात्म-रामायण, शिव संहिता, ज्ञान-संकलिनी तंत्र, दुर्गासप्तशती, रामचरितमानस तथा कबीर, नानक आदि संतों की वाणियों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में संतमत की प्रतिष्ठा और पुनर्व्याख्या की है। महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य, गोरखनाथ, रामकृष्ण परमहंस, तिलक तथा गाँधी के उपदेशों में भी वह अविरोध ही देखते हैं। ईश्वर, जीव, प्रकृति, सांख्यपक्ष, सद्गुरु, भक्ति, शक्तिपात तथा मोक्ष-तत्त्वों का विवेचन और आचार-पक्ष का विश्लेषण उन्होंने मानवतावादी धारा के संदर्भ में ही किया है। ज्ञान, वैराग्य, अनासक्त कर्म-योग तथा मुक्ति की विचारणा के कारण तथा अध्यात्म-चिन्तन की अविरोधी और अखण्ड धारा रेखांकित करने के कारण महर्षि मेँहीँ ऋषि नहीं, महर्षि हैं और हैं इस शताब्दी की अध्यात्म-साधना के अनिकेत शिखर। नारायणी दृष्टि का उनमें विराट् विकास हुआ है, तभी तो बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की ओर से साहित्य-साधना के सम्मानार्थ पुरस्कार-राशि प्रदान की, तो उन्होंने उसे यह कहते हुए लौटा दिया कि इस राशि को गरीबों में अथवा असहाय विद्यार्थियों की सहायता में खर्च कर दिया जाय या ऐसे कोष में जमा कर दिया जाय, जिससे असहायों को सहायता की जाती हो।
 प्रायः लोगों की यह धारणा रही है कि वेद में कर्म, ज्ञान तथा उपासना का ही निरूपण हुआ है, पर आगमिक साधना के मूल तत्त्व गुरु, दीक्षा, कुण्डलिनी-जागरण तथा नाद-विन्दु, सुरत-शब्दयोग की धारणा वेद-सम्मत नहीं है। इस दिशा में पातंजल तथा कुण्डलिनी-योग सहित वैदिक योग-परिचय ग्रन्थ श्री स्वामी विष्णुतीर्थ जी ने लिखा। इस चर्चित पुस्तक का प्रथम संस्करण संवत् 2015 वि0 में निकला। इससे भी सुखद आश्चर्य यह है कि महर्षि मेँहीँ ने इस पुस्तक से भी दो वर्ष पूर्व वेद-दर्शन-योग नामक ग्रन्थ की रचना की। वेद के चुने हुए सौ मंत्रें की व्याख्या और टिप्पणी देकर आपने इस दिशा में पहल की थी। उदाहरण के लिए दृष्टियोग, शब्दयोग निःशब्द तथा ज्योति-दर्शन के लिए उनकी टिप्पणियाँ देखिए-
  “वेद-मंत्र में यह आदेश है कि जो संत उस परम पद तक पहुँच चुके हैं, उनका अनुसरण और अनुकरण करना हितकर है। देखें ऋग्वेद अ0 2 व0 16। अ0 21।। नादानुसंधान करनेवालों का अनुकरण और अनुसरण करने का आदेश वेद में है, इसमें संदेह नहीं। दृष्टियोग का निर्देश ऋग्वेद अ0 2 व0 20।2 अ0 2 में हुआ है। मानस-जप और मानस-ध्यान स्थूल सगुण रूप-उपासना है, एकबिन्दुता वा अणु से भी अणु रूप प्राप्त करने का अभ्यास सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है; सारशब्द के अतिरिक्त दूसरे सब अनहद नादों का ध्यान सूक्ष्म, कारण और महाकारण सगुण अरूप उपासना है और सारशब्द का ध्यान निर्गुण निराकार-उपासना है। सभी उपासनाओं की यहाँ समाप्ति है। उपासनाओं को सम्पूर्णतः समाप्त किए बिना शब्दातीत पद (अनाम) तक अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर तक की पहुँच प्राप्त कर परम मोक्ष का प्राप्त करना अर्थात् अपना परम कल्याण बनाना पूर्ण असम्भव है। पवमान धियाडितोऽभियानि कनिक्रदत्-‘मंत्र की व्याख्या भी वह अनाहत नाद के प्रसंग में करते हैं। दृष्टियोग और शब्दयोग को संतमत में विहंगम योग कहा गया है। “जातवेदसे सुनवाम सोम मरातीयतो निदहाति वेदः” मंत्र का अर्थ है, जात वेदा अग्नि के लिए हम सोम को निचोड़ते हैं; क्योंकि विघ्न करते वैरियों को ज्ञान-रूप वह दग्ध कर देता है। यहाँ सुषुम्न ही अग्नि है और आज्ञाचक्र के ऊपर का शिरोभाग सोम है, इससे बहा हुआ अमृत चन्द्र (इड़ा) और सूर्य (पिंगला) नाड़ियाँ पीती रहती हैं, फलतः वह देहस्थ अन्य प्राणरूपी देवताओं को नहीं मिलता। योगी सूर्य-चन्द्र का जब निरोध करता है, तब सोमामृत की आहुति सुषुम्ना रूपी अग्नि में पड़ने लगती है। अग्नि उस आहुति को प्रत्येक भाग में पहुँचाने लगता है। इस प्रक्रिया में आनेवाले व्यवधान से मुक्ति पाने का संकेत ऋचा में है। आचार्य शंकर ने सुभगोदय में कहा है-
 “यदा चन्द्रार्कौ तो स्वसदन निरोधन वशत् अशक्तो पीयूषापहरणे सा च भुजगी ।
  प्रबुद्धी क्षुत्क्रुद्धा दशति शशिनं वैदवगतं, सुधा धारा सारेः स्नपयसि तनु बन्दवकत्ने ।।”
 महर्षि मेँहीँ पराभक्ति को प्रमुख मानते हैं। इस भक्ति में बिना कान के शब्द सुनते हैं, बिना आँख के रूप देखते हैं, बिना जिह्वा के उच्चारण करते हैं, बिना पैर के नृत्य करते हैं, बिना हाथ के ताल बजाते हैं और शरीर-रहित होकर संग रहते हैं; इसमें बहुत आनन्द होता है। कठोपनिषद् भी कहता है-
‘अशरीरं शरीरेष्व नवस्थेष्ववस्थितम् । महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ।’
 आप शरीरों में शरीर-रहित तथा अनित्यों में नित्य हैं। शरीर (स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण) रूप कुरतों को हटाकर आप अकेले हो जाइए, तब परमात्मा को खोजना नहीं पड़ेगा। हम शरीर और इन्द्रियों से आवृत्त हैं, जैसे अपने शरीर को कपड़े से लपेटते हैं। अपने शरीर को देखने के लिए कपड़े को उतारकर ही देख सकते हैं। उसी प्रकार अपने निज रूप पर से शरीर और इन्द्रियों की लपेटन को उतारकर ही उसे देख सकते हैं। भजन करने की इस रीति को गोस्वामी तुलसीदासजी इस प्रकार बतलाते हैं-
‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवंत । मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।’
 मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय तथा तुरीयातीत पाँच अवस्थाएँ मानी गई हैं। पूर्ण योगी तुरीयातीत अवस्था को प्राप्त कर ब्रह्म रूप हो जाता है।
  “पंचावस्थाः जाग्रत्स्वप्न सुषुप्ति तुरीय तुरीयातीताः सर्वं परिपूर्ण तुरीयातीत ब्रह्मभूतो योगी भवति।” पलटू साहब भी कहते हैं-
‘तुरीया सेती अतीत सोधि फिर सहज समाधी । भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ।।’
 जीवात्मा जाग्रत अवस्था में नेत्र में, स्वप्न में कंठ में, सुषुप्ति में हृदय में तथा तुरीयावस्था में मस्तक में रहता है। ब्रह्मोपनिषद् कहता है-
‘नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कंठे स्वप्नं समाविशेत् सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्घ्नि संस्थितम् ।’
 सर्वसाधारण को यह नहीं ज्ञात है कि जगने के स्थान आँख से ऊपर उठा जाता है या नहीं। यदि ऊपर उठा जाता है, तो उस स्थान का नाम क्या है, उस स्थान पर पहुँचने पर कौन-सी अवस्था होती है और उस अवस्था में रहने के सदृश ही इस स्थूल जगत् सम्बन्धी ज्ञान रहता है वा इससे भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है। चेतन विश्व-ब्रह्माण्ड और पिण्ड में; दो रूपों (समष्टि और व्यष्टि) में परिव्याप्त है और वही अन्तःकरणव्यापी रहकर अन्तःकरण सम्बन्ध वाह्यकरणों (इन्द्रियों) द्वारा ज्ञान-गुण को प्रकाशित करता है और व्यष्टि चेतन कहलाता है। संतमत में इसको सुरत भी कहते हैं।1 इसे ही रूप-रसादि से हटाकर किसी एक जगह पर रख सकें, तो विषयों से छूट सकते हैं। स्थूल विषय से मुड़ जाने के लिए नहीं जानें, तो जग नहीं सकते। यह जागना दृष्टि-साधन से होगा। नाद-विन्दूपनिषद् में लिखा है-
 “दृष्टिः स्थिरा यस्य बिना सदृश्यं वायुः स्थिरोयस्य बिना प्रयत्नम् ।
  चित्तस्थिरं यस्य विनावलम्बं स ब्रह्मातारान्तरं नादरूपम् ।।”
 अर्थात् जिसकी दृष्टि बिना किसी दृश्य के स्थिर हो जाती है, जिसकी प्राणवायु बिना किसी प्रयत्न के अचल हो जाती है और जिसका चित्त बिना किसी अवलम्ब के स्थिर हो जाता है, वह तारब्रह्म (प्रणव) के आन्तरिक नाद का स्वरूप ही हो जाता है। सिमटी निगाह से देखना दृष्टि-साधन है। इसके बाद विन्दु का उदय होता है। विन्दु दृश्य जगत् का उपादान कारण है और अदृश्य जगत् नादात्मक दृश्य जगत् का मूल विन्दु है। कोई भी नक्शा बनाने में पहले विन्दु होगा। दृश्य जगत् का जहाँ अन्त होगा, वह भी एक विन्दु पर होगा। नाद तो वह चीज है, जिसका सृष्टि के आदि में परमात्मा ने सृजन किया। एकविन्दुता प्राप्त होने से अर्थात् विन्दु में आरूढ़ हो जाने से दृश्य जगत् के अन्त तक आ जाओगे। विन्दुध्यान से दृश्य जगत् से छूट जाओगे। नाद में अपने उद्गम स्थान पर खींच लाने का गुण है। इसका उद्गम स्थान पर स्वयं परमात्मा है, इसलिये इसके ध्यान से खिचकर उस परमात्मा तक पहुँच जाओगे।3 महर्षि मेँहीँ ने तुलसीदास के एक दोहे का इस संदर्भ में मौलिक अर्थ किया है।
‘औरउ एक गुपुत मत, सबहि कहउ कर जोरि ।’
 अर्थात् मैं सबको और एक गुप्त विचार कहता हूँ। वह यह है कि किरणों (चैतन्यवृत्तियों, सुरत की धारों) को जोड़कर कल्याण करने वाला भजन किए बिना कोई मेरी भक्ति नहीं पाता। कर का अर्थ है किरण। किरण प्रकाश-रूप होनी चाहिए। शरीर में चैतन्य वृत्ति वा सुरत की धार ज्ञानमयी तथा प्रकाशमयी है, अतएव इसी वृत्ति को किरण मानना चाहिए।2 सारांश यह कि वेद और संत-साहित्य में समन्वय स्थापित करने का अपूर्व उद्योग महर्षि मेँहीँ ने किया है। तुलसी, सूर की पंक्तियों से भी योग-मार्ग की सम्पुष्टि कर सगुण-निर्गुण उपासना के भेद को भी उन्होंने स्पष्ट किया है। नेत्र और कान से उसकी उपासना का जो संकेत छान्दोग्य ने “तदेत दृष्टं च श्रुतं चेत्पुपासीत चक्षुस्य श्रुतो भवति” कहकर किया था, उसी का विन्दु-नाद रूप निर्वचन महर्षि मेँहीँ ने किया। आगमिक साधना की नैशमिक व्याख्या मेँहीँ की मौलिक देह है। रामचरितमानस-सार सटीक, विनय-पत्रिका-सार सटीक तथा संतवाणी सटीक में भी उनकी यह मौलिकता सर्वत्र परिलक्षित होती है।
 महर्षि मेँहीँ ने साधनागत अनुभूतियों को छन्द-बद्ध भी किया है। उनके 144 पदों का संकलन महर्षि मेँहीँ-पदावली के नाम से हुआ है। सुरत-नाद-योग का चित्रण उन्हीं के शब्दों में सुनिए-
 “सूरति दरस करन को जाती, तकती तीसरि तिल खिरकी ।
 जोति बिन्दु ध्रुवतार इन्दु लखि लाल भानु झलकी ।।
 बजत विविध विधि अनहद शोरा पाँच मण्डलों की ।
 सन्तमते का सार भेद यह बात कही उनकी ।।
 समझा ‘मेँहीँ’ लखा नमूना बात है सत हित की ।”
 महर्षि स्वयं सिद्धपुरुष हैं, अतः साधनागत अनुभवों को उन्होंने प्रामाणिकता के साथ उजागर किया है?
 “दृष्टियोग अभ्यास अतिहि करतहि करत।
कँपनी सहजहि छुटै प्रौढ़ होवै सुरत ।।
  तिल दरवाजा टुटै नजर के जोर से।
अरे हाँ रे मेँहीँ, लगे टकटकी खूब जोर बरजोर से।।
  तीनों बन्द लगाइ देखि सुनि धरि ध्वनि धारा।
चलिए शब्द में खि्ांचत बजत जो विविध प्रकारा।।
  झींगुर का झंकार भवँर गुंजार हो।
  अरे हाँ रे मेँहीँ घण्ट संख शहनाइ आदि ध्वनि धार हो।
तारा सह ध्वनि धार टेम दीपक बरे।।
खुले अजब आकाश अजब चाँदनी भरे।
पूर-अचरजी चंद सहित ध्वनि कस लगे।।
अरे हाँ रे मेँहीँ जाने सोइ धीर वीर साधन पगे।
साधन में पगि जाइ अतिहि गम्भीर हो।।
या तन सुधि नहि रहे धीर वर वीर सो।
साँझ भोर दिन रैन कछु जानै नहीं।।
अरे हाँ रे मेँहीँ बाहर जड़वत रहे माँहि चेतन सही।
सार शब्द ध्वनि संग सुरत हो अकह में लीनी।।
अध्वनि अशब्द अनाम परमपद गति को भीनी।
द्वैत द्वन्द्व सो रहित सो प्रभु पद पाइ के।।
अरे हाँ रे मेँहीँ सुरत न लौटइ बहुरि न जन्मै आइकै।
 महर्षि ने साधना-विधि पर पदावली में तथा मोक्ष-दर्शन में पूरा प्रकाश डाला है। स्थूल सगुण रूप उपासना, नामोच्चारण, दृष्टियोग (अमादृष्टि, प्रतिपदा दृष्टि तथा पूर्णिमा दृष्टि), सुरति-शब्द-योग तथा आचारपक्ष पर उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट विचार प्रस्तुत किए हैं। व्यास और बुद्ध को अमादृष्टि का साधक, शंकर को प्रतिपदा दृष्टि का साधक उन्होंने बताया है। पूर्णिमा दृष्टि की कठिनाई बताई है तथा अध्यात्म-शिक्षा, सत्संग, वासना-त्याग तथा प्राण-स्पन्द-निरोध को संत जिज्ञासु का साध्य बताया है। डॉ0 सम्पूर्णानन्द जैसे मनीषी नादानुसंधान के लिए इस युग में महर्षि मेँहीँ को ही आदर्श मानते थे। मुझसे बाबूजी ने उनकी चर्चा की थी। आज महर्षि जीवन के सौ शरद पूर्ण कर रहे हैं। वे हमारे बीच यथेच्छा से रहें और लाखों संतप्त जिज्ञासुओं को अमृत घूँट पिलाते रहें। इस कामना के साथ उनके चरणों में अनेक प्रणाम निवेदित कर रहा।


संत कवि मेँहीँ का दर्शन [डॉ0 महेश्वर प्रसाद सिंह, रीडर हिन्दी-विभाग, डी0एस0कॉलेज, कटिहार]
 युक्तिपूर्वक तत्त्व-ज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न को दर्शन कहा जाता है। दर्शन से सृष्टि के सत्यभूत तात्त्विक स्वरूप का परिचय प्राप्त होता है। परिवर्त्तनशील ब्रह्माण्ड और पिण्ड के भीतर एक अपरिवर्त्तनशील नियामक तत्त्व की सत्ता विद्यमान है। ब्रह्माण्ड की नियामक सत्ता का नाम है ब्रह्म और पिण्ड की नियामक सत्ता की संज्ञा है-आत्मा। प्राचीन दार्शनिकों ने ब्रह्माण्ड और पिण्ड का ऐक्य सर्वतोभावेन स्वीकार किया है तथा ब्रह्म और आत्मा की एकता प्रतिपादित की है। इसी के साथ सृष्टि, माया आदि का विश्लेषण संपृक्त है; क्योंकि ये ही जीव और ब्रह्म की पृथक्ता में कारणस्वरूपा हैं; अतः ब्रह्म, जीव, माया, जगत् आदि पर विचार करना ही दर्शन का मुख्य उद्देश्य है। चिन्तन और विचारणा की लम्बी परम्परा में इन सबकी व्याख्याएँ अनेकानेक रूपों में करने का प्रयास किया गया है और उन व्याख्याओं पर व्याख्याताओं की शिक्षा-दीक्षा, संस्कार आदि का प्रभाव पड़ा है। अतः इनके विवेचन-विश्लेषण में कहीं एक दूसरे के विचारों का समर्थन, तो कहीं विरोध मिलता है।
 श्रेष्ठ भारतीय साहित्य प्रायः किसी-न-किसी दार्शनिक विचार-धारा से अनुप्राणित है। इस दृष्टि से संस्कृत साहित्य में श्रीशंकराचार्य की “विवेक चूड़ामणि”, विद्यारण्य की “पंचदर्शी”, सुरेश्वराचार्य की “नैषकर्म्य सिद्धि” आदि सरस रचनाएँ द्रष्टव्य हैं। यूँ सामवेद की मनोहारिणी ऋचाओं, उपनिषदों से गहन-गंभीर श्लोकों, नाथ-सिद्धों की आकर्षक वाणियों से लेकर सूर, तुलसी, मीरा, कबीर, नानक आदि तक की रचनाओं में दार्शनिक भावों और विचारों की अनुपम झाँकियाँ प्राप्त होती हैं। हिन्दी के पूर्वांचल के संत कवि मेँहीँ का साहित्य भी दार्शनिक विचारों से गुंफित है। इन्होंने भी अपने साहित्य में ब्रह्म, जीव, माया, जगत् आदि पर विचार किया है।
 संत कवि मेँहीँ की ब्रह्मविषयक विचार-धारा ने उपनिषदों, नाथ-सिद्धों और निर्गुणकाव्य की ब्रह्म-भावना से प्रभाव ग्रहण कर अपने रूप का निर्माण किया है। उपनिषदों में ब्रह्म को अद्वैत माना गया है-एक माना गया है। ‘मुद्गलोपनिषद्’ में एक ही देव का अजन्मा रहते हुए भी अनेक प्रकार की प्रविष्टि-द्वारा अनेक रूपों में व्यक्त होना बताया गया है- “एको देवो बहुधा निविष्ट अजायमानो बहुधा विजायते।” ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्’ में भी उस अद्वैत-एक ब्रह्म को ही सब जीवों में स्थित, सर्वव्यापी, सर्वभूतान्तरवासी, सबके कर्मों का नियामक, सबका आश्रयभूत, सबका साक्षी, अनिवर्चनीय और निरुपाधि बताया गया है- “एको देवः सर्वभूतेषुगूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षीचेता केवलो निर्गुणश्च।।” संत कबीर ने ‘साहब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय।’ द्वारा ब्रह्म को एक माना है। गुरु नानक ने ‘साहब मेरा एको है भाइ एको है।’ द्वारा ब्रह्म के एक होने की घोषणा की है। संत दादू ने-‘अविगत अल्लह एक तूं, गुनी गुसाईं एक।’ द्वारा ब्रह्म की अद्वैतता दिखाई है। इसी तरह संत कवि मेँहीँ ने भी अद्वैत ब्रह्म का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति’ में ‘एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा’ रखने की सलाह देकर अद्वैत ब्रह्म के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की है। पुनः स्वरचित “महर्षि मेँहीँ पदावली” में ‘अनादि, एकहि जो ही कहाई---------सोई पीव प्यारा, सोई पीव प्यारा।” ---------------------- ‘सब घट एकहि राम।’ 
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एक अनीह, अरूप, अनामा, अज, अव्यक्त, सो राम ।’
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‘अलख, अद्वैत, अधाम।’ द्वारा इन्होंने ब्रह्म की अद्वैतता प्रतिपादित की है, अतः द्वैत-भावना-रहित इनका ब्रह्म एक है। ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्’ में ‘केवलो निर्गुणश्च’ की उक्ति-द्वारा ब्रह्म को निर्गुण कहा गया है तथा ‘सर्वभूताधिवासः’ कहकर उसे सर्वभूतात्म की संज्ञा दी गई है। ‘बृहदारण्यकोपनिषद्’ में ‘नेति-नेति’ की शैली द्वारा ब्रह्म को अनिर्वचनीय और निरुपाधि बताया गया है। ‘मुण्डकोपनिषद्’ में ज्ञानीजन का परात्पर ब्रह्म में मिलना वर्णित है। ‘मैत्रेय्युपनिषद्’ में भी ‘परमोऽस्मि परात्परः’ की उक्ति मिलती है। संत रैदास ने अच्छर, अतरक, निरगुन, अंत-अनंदा’ की उक्ति में ब्रह्म को निर्गुण कहा है। संत कबीर ने ‘सकल मांड में रमि रहा, मेरा साहिब सोय’ द्वारा ब्रह्म की सर्वात्मकता प्रतिपादित की है। संत सुन्दर दास ने ‘नाहि-नाहि कहत रहै सोई तेरो रूप है’ की उक्ति में ब्रह्म के प्रतिपादन हेतु निषेधात्मक शैली अपनाई और उसे निरुपाधि बताया है। संत दादू ने ‘परब्रह्म परात्परं सो मम देव निरंजन’ द्वारा परात्पर ब्रह्म का उल्लेख किया है। इसी प्रकार संत कवि मेँहीँ ने भी अपनी रचनाओं में ब्रह्म का वर्णन किया है। ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’ में इन्होंने ‘सत रज तम पर’ और ‘त्रयगुण दश इन्द्रिन के पार’ ब्रह्म को बताया है। अतः इनका ब्रह्म निर्गुण है। उसी पुस्तक में ‘मेँहदी में लाली घीउ दूध में, फूल में वास समान, हो राम-राम।’ की उक्ति-द्वारा ब्रह्म को सर्वभूतात्म कहा है। पुनः उसी पुस्तक में-
 “नहि स्थूल रूपी, नहीं सूक्ष्म रूपी ।
  न कारण स्वरूपी, नहीं व्यक्त रूपी ।।
  नहीं जड़ स्वरूपी, न चेतन स्वरूपी ।
  नहीं पिण्डरूपी, न ब्रह्माण्ड रूपी ।।”
 कहकर इन्होंने ब्रह्म-वर्णन के लिये निषेधात्मक शैली ग्रहण की है और ब्रह्म को अव्यक्त, निरुपाधि बताया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में परात्पर ब्रह्म का भी वर्णन किया है। इसके निमित्त इनका एक प्रसिद्ध पद्य, जो इनकी कई पुस्तकों-‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’, ‘सन्तवाणी सटीक’, ‘ईश्वर-स्वरूप और उसकी प्राप्ति’ आदि में प्रकाशित है, द्रष्टव्य है-
 “सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण-सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।
सब नाम रूप के पार में, मन बुद्धि के पार में ।
गो गुण विषय पँच पार में, गति भाँति हू के पार में ।।
------- सर्वेश हैं, अखिलेश हैं, विश्वेश हैं सब पार में ।”
 उपनिषदों में शब्दब्रह्म का उल्लेख मिलता है। उनमें ‘ओऽम्’ को शब्दब्रह्म बताया गया है। ‘तैत्तिरीयोपनिषद्’ में इसकी मोहक उक्ति मिलती है। उसमें बताया गया है कि ओऽम् शब्दब्रह्म है और वही सब कुछ है- “ओमिति ब्रह्म। ओमितिदं सर्वम्।।” नाथसिद्धों ने अपने साहित्य में शब्दब्रह्म का वर्णन किया है। ‘नाथसिद्धों की बानियाँ’ में बताया गया है कि ॐ कार जाननेवाला सिद्धयोगी ब्रह्म हो जाता है-ॐ कार का जानै मंत। जैसा सिद्ध अलष अनंत।” संत-काव्य में ‘ओऽम्’ को सारशब्द, सत्यशब्द आदि की संज्ञा से अभिहित किया है। संत कबीर ने ‘सबद-सबद बहु अंतरा, सारसबद चित देय।” बताकर तथा संत दरिया ने ‘दरिया सागर’ में “सत्तशब्द जिन्ह केवल जाना। अभय लोक सो सन्त समाना।” लिखकर शब्दब्रह्म का महत्त्व प्रतिपादित किया है। इसी प्रकार संत कवि मेँहीँ ने भी अपनी रचनाओं में शब्दब्रह्म को महत्त्व दिया है। अपनी ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’ में ‘सतनाम परमनाद’ और “एक ओऽम् सतनाम ध्वनि धर मेँहीँ हो भव पार।” की उक्तियों में शब्दब्रह्म के महत्त्व का वर्णन किया है। नाथ-सिद्धों ने अपनी रचनाओं में शून्य ब्रह्म का उल्लेख किया है। उसे परम तत्त्व बताया है। ‘गोरखबानी’ में एक स्थल पर कहा गया है कि वही माता है, वही पिता है, वही स्वयं निरंजन है-
 “सुनि ज माई सुनि ज बाप । सुनि निरंजन आपै आप ।।”
 निर्गुण काव्य में भी शून्य ब्रह्म समादृत है। गुरु नानक ने ‘प्राणसंगली’ में परमतत्त्व के अर्थ में ‘शून्यब्रह्म की चर्चा की है-
           “सुन्न ते सम्भू होवे आदि ।
सुन्न ते नीलु अनीलू अनादि । सुन्न लेख लिखिया नीसानु ।
 सुन्न ते सहज कला परमानु । सुन्न ते कीता धरती असमानु ।”
 संत गरीब दास ने भी परम तत्त्व के अर्थ में शून्य ब्रह्म का उल्लेख करते हुए कहा है-
 “सुन्न सनेही जानिये मढ़ी महल नहि ठाँव ।”
 इसी तरह संत कवि मेँहीँ ने भी अपनी ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’ में नाद-ही-नाद की शून्य समाधि में आदि की सुधि पाने की चर्चा कर आदितत्त्व ब्रह्म-भावना-शून्यद्वारा व्यक्त की है:-
 “आगे शून्य समाधि नाद ही नाद की, लहै संत का दास जाहि सुधि आदि की ।”
 निष्कर्षतः यह प्रमाणित होता है कि संत कवि मेँहीँ ने उपनिषदों, नाथसिद्धों और संतों की तरह अद्वैत, अव्यक्त, निर्गुण, सर्वभूतात्म, निरुपाधि, परात्पर, शब्द और शून्य ब्रह्म का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है। अतः इनका ब्रह्म-विचार सन्तमतानुसार है।
 उपनिषदों में शरीर-बद्ध आत्मा को जीवात्मा कहा गया है। ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्’ में परमेश्वर के लिए हंस शब्द का प्रयोग किया गया है और बताया गया है कि संपूर्ण स्थावर-जंगम विश्व का नियामक हंस नौ द्वार वाले देहरूपी पुर में स्थित रहकर बाह्य जगत् के विषयों के ग्रहणार्थ लालायित रहता है-
 “नव द्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः ।
  वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ।।”
 इससे ज्ञात होता है कि आत्मा शरीर-बन्धन में आकर जीव की संज्ञा पाता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की उक्ति-द्वारा जीव और ब्रह्म को तत्त्वतः एक बताया गया है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान् श्रीकृष्ण की उक्ति है कि देह में जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है- “ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।” इसका अभिप्राय है कि जीव शरीर-बद्ध आत्मा को कहते हैं। पुनः उसी पुस्तक में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि सब क्षेत्रें में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझो-
‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।’
 इसका अभिप्राय है कि क्षेत्रज्ञ या शरीर-बद्ध आत्मा अथवा जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न है। संत कबीर ने ‘ज्यूं दरपन प्रतिव्यंब देखिए’ की उक्ति में प्रतिविम्ब के माध्यम से जीव और ब्रह्म की एकता दिखाई है। उन्होंने शरीरस्थ आत्मा को जीव के अर्थ में हंस कहा है- “या देही का गर्व न कीजै, उड़ि गया हंस तँबूरे का।” संत-काव्य में ‘गीता’ की तरह जीव को अंश और परमात्मा को अंशी बताया गया है। बिहार के संत दरिया ने ‘अंश हमार उहाँ चलि जाई। जिव बाचै के एही उपाई।।” द्वारा जीव को ब्रह्म का अंश कहा है। हाथरस के सन्त तुलसी साहब ने भी ‘अंस बुंद आतम तन बासा, सिध खोज कहुँ अंत रहाई।’ द्वारा जीव को ब्रह्म का अंश बताया है। संत कवि मेँहीँ ने भी शरीरबद्ध आत्मा को जीव कहा है तथा जीव और ब्रह्म में अभेद बताया है। इन्होंने जीव और ब्र्रह्म के अंशांशि सम्बन्ध को अपनी रचना ‘महर्षि मेँहीँ पदावली’ में व्यक्त करते हुए कहा है-
 “जीवात्म प्रभु का अंश हैं, जस अंश नभ को देखिये ।
  घट मठ प्रपञ्चन्ह जब मिटैं, नहि अंश कहना चाहिये ।।”
 इसका अभिप्राय है कि जिस प्रकार घटाकाश और मठाकाश महदाकाश न होकर उसके अंश हैं, उसी प्रकार जीवात्मा ब्रह्म का अंश है; पर जब अंश अंशी में मिल जाता है, तो वह अंशीस्वरूप हो जाता है। जिस प्रकार घट और मठ का प्रपंच हटने पर घटाकाश और मठाकाश, महदाकाश हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव का अनात्म-आच्छादन हटने पर जीव ब्रह्म हो जाता है। अंश-रूप जीवात्मा अंशी ब्रह्म में मिलकर एक हो जाता है। अभेदता की इस स्थिति में जीव और ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं रहता। निष्कर्षतः यह सिद्ध होता है कि संत कवि मेँहीँ ने उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता और संत-काव्य के जीव-वर्णन की तरह अपनी रचनाओं में जीव-वर्णन किया है। अतः इनका जीव-वर्णन भी सन्तमत-सम्मत है।
 उपनिषदों में माया को जीवात्मा के बन्धन का कारण कहा गया है। ‘माण्डक्योपनिषद्’ के शांकर भाष्य में बताया गया है कि नाम और रूप ब्रह्म की उपाधि है-यही बन्धन है और यह झूठा है-यही माया है।
 ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में वर्णित है कि त्रिगुणात्मिका प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर-बंधन में बाँधते हैं-
 “सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृति संभवाः । निबन्धिति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ।।”
 ‘गीता’ में माया ब्रह्म की क्रियाशक्ति है, जो जगत् रूप में भासित होकर ब्रह्म को आवृत्त करती है। निर्गुण काव्य में माया को त्रिगुणात्मिका कहा गया है। संत कबीर की उक्ति है-
‘सत, रज, तम थैं कीन्हीं माया ।’
 इसी प्रकार संत कवि मेँहीँ ने भी माया को त्रिगुणात्मिक बताया है। इन्होंने अपने ‘सत्संग-योग’ नाम की पुस्तक में लिखा है- “जड़ात्मिका प्रकृति त्रयगुणमयी है और त्रयगुण के सम्मिश्रणरूप को जड़ात्मिका मूल प्रकृति कहते हैं।” अपनी ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’ में परमात्म-वर्णन करते हुए इन्होंने लिखा है- “भरो मूल माया में नाहीं सो माया।” इस उक्ति-द्वारा इन्होंने जड़ात्मिका मूल प्रकृति को मूल माया कहा है। यह माया जीव के लिए बन्धन-स्वरूपा है। महर्षि मेँहीँ-पदावली में इनका कथन है- “माया में मगनो नहीं, यह अहै दारुण फाँसिनी।” इन्होंने द्वैत को माया कहा है-बन्धन कहा है और इस द्वैत के हँटने पर जीव-ब्रह्म की एकता बताई है-
 ‘महर्षि मेँहीँ पदावली में ‘सब द्वैत माया हो’ बताकर पुनः उसी पुस्तक में-
 “घट तम, प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
  इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।।”
 कहकर माया को बन्धन बताया है और उसके अभाव में जीव-ब्रह्म का अभेद दिखाया है। संत कवि मेँहीँ की दृष्टि में प्रकृति माया है। यह प्रकृति सान्त है। अतः यह अनाद्या नहीं है। अपने ‘सत्संग-योग’ नामक ग्रंथ में इन्होंने लिखा है- “प्रकृति को भी अनाद्या कहा गया है, सो इसलिये नहीं कि इसकी उत्पत्ति के काल और स्थान नहीं हैं; क्योंकि इसके प्रथम नहीं; परन्तु इसके होने पर ही काल और स्थान वा देश बन सकते हैं। यह परम प्रभु की मौज से परम प्रभु में ही प्रकट हुई, अतएव परम प्रभु में ही इसका आदि है और परम प्रभु देशकालातीत हैं और वे अनादि के भी आदि कहलाते हैं। प्रकृति को अनादि सान्त भी कहते हैं।” अतः संत कवि मेँहीँ की दृष्टि में माया अनाद्या, सान्त है। वह उत्पत्ति-ज्ञान की दृष्टि से सान्त एवं देश-काल-ज्ञान की दृष्टि से अनाद्या है। निष्कर्षतः स्पष्ट है कि संत कवि मेँहीँ ने उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता और संत-काव्य के माया-वर्णन की परंपरा में ही माया पर विचार किया है; किन्तु फिर भी इन्होंने माया को अनाद्या, सान्त बता कर माया-वर्णन में नवीनता प्रदर्शित की है।
 उपनिषदों में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति बताई गई है। ‘मुण्डकोपनिषद्’ में नामरूपात्मिका सृष्टि का कारण ब्रह्म निर्दिष्ट किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण की उक्ति है कि मेरी माया चराचर-सहित संपूर्ण सृष्टि को रचती है। इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म सृष्टि का मूल कारण है और उसकी माया से सृष्टि का सृजन होता है। संत-काव्य में भी ब्रह्म से सृष्टि का उत्पन्न होना बताया गया है। संत कबीर ने ‘करता किरतिम बाजी लाई। ओंकार से सृष्टि उपाई।’ द्वारा ब्रह्म से सृष्टि-निर्मित होना कहा है। संत-काव्य में यह भी बताया गया है कि ब्रह्म से ही सृष्टि की उत्पत्ति होती है और उसी में उसका विलय होता है। सन्त दादू ने- “उत्पति परलै करै आपै, दूसर नाहीं कोई।” द्वारा ब्रह्म से सृष्टि का उत्पन्न होना और उसी में उसका विलीन होना वर्णित किया है। संतों की दृष्टि में सृष्टि अनित्य और मिथ्या है। सन्त कबीर ने ‘यह संसार कागज की पुड़िया बूँद पड़े घुल जाना है।” द्वारा सृष्टि की अनित्यता बताई है। संत पलटू ने- “यह संसार रैन का सुपना, रूपा भ्रम सीपी केरा है।” द्वारा सृष्टि को भ्रम और मिथ्या कहा है। इसी प्रकार संत कवि मेँहीँ ने भी ‘अज आदि मूल परमातम जो’ कह कर ब्रह्म को सृष्टि का मूल कारण बताया है। पुनः इन्होंने ‘सत्संग-योग’ में ‘जब परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज होती है तभी सृष्टि उपजती है।” द्वारा ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति बतायी है। संत मेँहीँ ने इस सृष्टि को मिथ्या और भ्रम कहा है। ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’ में- “यह जग भरमक भीती” द्वारा सृष्टि को मिथ्या और भ्रम भी बताया है। उसी पुस्तक के कई स्थलों पर इन्होंने कहा है कि सृष्टि ब्रह्म में ही विलीन होती है।
 निष्कर्ष-संत कवि मेँहीँ की दार्शनिक विचार-धारा का शास्त्रीय एवं संत-परंपरा के आलोक में जो विवेचन प्रस्तुत किया गया है, उससे यह स्पष्ट है कि इनका चिन्तन प्रायः दार्शनिक चिन्तन-परंपरा के अनुकूल ही है। इन्होंने स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन एवं साधनानुभूति के द्वारा अपने दार्शनिक विचारों का निर्माण किया है। इनके ‘सत्संग-योग’ नाम की पुस्तक से इस बात का पता चलता है कि वेद, उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता आदि का इन्होंने गंभीर अध्ययन किया है। इनके अतिरिक्त महापुरुषों के जीवन, साहित्य, साधना और विचार-धारा का भी इन्होंने सम्यक् ज्ञान प्राप्त किया है। सन्त-साहित्य में इनकी विशेष अभिरुचि रही है; इसलिये अपनी समग्र कृतियों में प्रायः सभी संप्रदाय के संतों की वाणियों का इन्होंने अध्ययन-विश्लेषण किया है। वेदों से लेकर संतों तक की ज्ञान-परंपरा का इन्होंने स्वाध्याय-सत्संग एवं साधनानुभूति द्वारा परिचय प्राप्त किया है।


महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज: दर्शन और चितन [डॉ0 सत्यदेव साह, एम0 ए0, पी-एच0 डी0]
 परमाराध्य अनन्त श्री-विभूषित परमपूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज प्राच्यकालीन ऋषि-महर्षि तथा आधुनिक संत बुद्ध, कबीर, नानक आदि संतों की परम्परा के वर्त्तमान संत है। “संतों के मत वा धर्म को संतमत कहते हैं।”1 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का दर्शन और चिंतन संतमत की वह चिन्तन-धारा है, जो प्राज्ञैतिहासिक काल से ही ब्रह्म-विद्या वा मोक्ष-साधना का संबल और संदेश मानव-जाति के बीच बाँटती रही है, जो उसके इहलोक और परलोक, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कल्याण का सृजन सदा से ही करती आ रही है। इनका दर्शन और चितन ईश्वर की ज्ञान-योग-युक्त भक्ति की सर्वांगपूर्णता से सम्पन्न, वेद-उपनिषद् एवं स्वानुभूति से सम्पुष्ट तत्त्व ज्ञान का एक सर्वथा सुबोध, सर्वग्राह्य एवं विलक्षण आत्म-बोध-दर्पण है। नीचे हम इनके दर्शन और चिन्तन को समास रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।
 शान्ति, निर्वाण, सर्वेश्वर वा मोक्ष-प्राप्त संतों या पूर्ण भगवद्भक्तों का सर्वथा असंदिग्ध, युक्तियुक्त एवं अद्वितीय मत ही “संतमत” है। देशकाल, मतमतान्तर, साम्प्रदायिक बाह्याचार की विविधताओं-विभिन्नताओं से यह सर्वथा असंपृक्त है। यह अपवर्ग या मोक्ष की ओर ले चलनेवाला मत है। “संत-पंथ अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ” (गो0 तुलसीदासजी)। अतः संतमत मोक्ष-धर्म का ज्ञान देता है। ध्येय वस्तु (शान्ति पद वा परम पद) एक-ही-एक है और उसकी प्राप्ति का मार्ग भी एक-ही-एक है, जिसकी खोज और उस पद तक आरोहण संतों ने स्वाभाविक प्रेरणावश किया और उसकी प्राप्ति के विचारों को अपनी पूतवाणी-द्वारा प्रकट किया, जिनका गम्भीरतापूर्वक अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि सभी संतों का एक मत है। परम पद, मोक्ष वा सर्वेश्वर का पद प्रकृति के परे का पद है।
 सारे सांतों के पार में अनन्त तत्त्व की स्थिति को माने बिना, बुद्धि संतुष्ट नहीं हो सकती। ऐसा अनन्त तत्त्व दो नहीं हो सकता, वह किसी के बाद का नहीं हो सकता। वह एक-ही-एक और सबसे प्रथम का होगा। ऐसे तत्त्व (सर्वेश्वर, परम प्रभु परमात्मा, शान्ति, मोक्ष, शब्दातीत वा अनाम पद-ये सब एक ही साध्य वा लक्ष्य के द्योतक हैं) की खोज और प्राप्ति संतमत का अभीष्ट है। जीव की नित्य लालसा सदा शान्तिमय सुख पाने की है, जिसकी पूर्ति सांसारिक पदार्थों एवं विषयों से असम्भव है। संसार के पदार्थ एवं विषय अनित्य हैं, ये नित्य शान्ति-सुख नहीं प्रदान कर सकते, साथ ही जिन करणों वा इन्द्रियों-द्वारा विषयों को ग्रहण किये जाते हैं, उन्हें भी विषयों को भोगने की असीमित शक्ति प्राप्त नहीं है, वे भी अनित्य ही हैं-उनसे नित्य सुख-शान्ति की आशा दुराशा और भ्रम मात्र है। अतः एकमात्र शान्ति वा सर्वेश्वर तत्त्व को उपलब्ध कर लेने पर ही जीव नित्य शान्ति-सुख को पा सकता है। “दुःखों से छूटने और परम शान्तिदायक सुख को प्राप्त करने के लिये जीवों के हृदय में स्वाभाविक प्रेरण है। इस प्रेरण के अनुकूल सुख को प्राप्त करा देने में सन्तमत की उपयोगिता है।”1 “माया-बद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है। इस प्रकार रहना जीव के सब दुःखों का कारण है। इससे छुटकारा पाने के लिये सर्वेश्वर की भक्ति ही एकमात्र उपाय है।”2 उक्त तत्त्व की उपलब्धि का यत्न ईश्वर-भक्ति है। इस तरह के यत्न में पवित्र आचरण की अनिवार्यता होती है, जो व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक तथा इहलौकिक और पारलौकिक जीवन के लिये कल्याणकारक और शान्तिदायक होता है; क्योंकि सदाचार (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा3, व्यभिचार, काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिढ़, द्वेष आदि पापों एवं विकारों से अपना बचाव तथा सत्य, शील, दया, संतों ष, क्षमा, नम्रता आदि सद्गुणों का आश्रय) जीवन में अत्यावश्यक रूप से प्रतिष्ठित करना होता है। नेकी और परिश्रम की कमाई पर निर्भर रहकर सन्तोषपूर्वक जीवन बिताना भक्ति- साधन के अनुकूल और सहायक है। “साधक को स्वावलम्बी होना चाहिये। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिये। थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को सन्तुष्ट रखने की आदत लगानी उसके लिये परमोचित है।”
 “जीवन बिताओ स्वावलम्बी भरम भाँडे़ फोड़िकर ।
  सन्तों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ’ माथ धर छल छोड़िकर ।।”1
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
 इसीलिये सन्तमत के अनुसरण में समाज, देश वा विश्व का कल्याण अनिवार्य रूप से है। ऊपर वर्णन में आ चुका है कि परमात्मा प्रकृति के परे है। परमात्म-प्राप्ति ही सन्तमत का अभीष्ट है, अतः बिना प्रकृति पार हुए लक्ष्य वस्तु की उपलब्धि वा अनुभूति नहीं हो सकती। सन्तमत की साधना प्रकृति के आवरणों को पार करने की कला सिखलाती है। यह कला भक्ति का रहस्य या ‘भजन-भेद’ के नाम से जानी जाती है।
 बिना कम्प के कुछ बन नहीं सकता। कम्प बिना शब्द के अस्तित्व नहीं रखता है। प्रकृति बनने के लिये भी, बनने से पूर्व, प्रकृति-पारवासी परमात्मा ने सृष्टि के लिये मौज की। मौज का कम्पमय और कम्प का शब्दमय होना स्वाभाविक और अनिवार्य ही है। एक मिट्टी की गोली बिना कम्प के नहीं बन सकती है, वह कम्प गोली के अणु-अणु में समा जाता है। प्रकृति वा सृष्टि में समाया हुआ परमात्मा से उत्थित आदिशब्द महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के दर्शन तथा और चिन्तन में एवं संत-साहित्य में वर्णित अनाहत नाद, सार शब्द, आदि नाम, सत्य शब्द, राम नाम उपनिषदों में वर्णित ॐ, स्फोट, उद्गीथ, प्रणव आदि कहलाया है। उनका निम्न पद्य इसे बहुत ही सुन्दर ढंग से स्पष्ट करता है।
 “अव्यक्त अनादि अनन्त अजय अज, आदि मूल परमातम जो ।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा जिनसे कहिये स्फोट है सो ।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही, ब्रह्मनाद शब्दब्रह्म ॐ वही ।
अति मधुर प्रणव ध्वनि-धार वही, है परमातम प्रतीक वही ।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही, है सार शब्द सत्त शब्द वही ।
है सत चेतन अव्यक्त वही, व्यक्तों में व्यापक नाम वही ।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही, सर्वकर्षक हरिकृष्ण नाम वही ।
है परम प्रचण्डिनि शक्ति वही, है शिव शंकर हर नाम वही ।।
पुनि राम नाम है अगुण वही, है अकथ अगम पूर्ण काम वही ।
स्वर-व्यंजन-रहित अघोष वही, चेतन ध्वनि-सिन्धु अदोष वही ।।
है एक ॐ सतनाम वही, ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही ।
मुनि-सेवित गुरु का नाम वही ।।
भजो ॐ ॐ प्रभु नाम यही, भजो ॐ ॐ ‘मेँहीँ’ नाम यही ।।”
 परमात्मा से ही उत्थित होने के कारण परमात्मा की सारी विशेषताओं और विभूतियों से यह शब्द युक्त है; क्योंकि अपने स्वभाववश केन्द्र के गुण को साथ लेकर चलता है और सुनने वाले को केन्द्र में आकर्षित करता है तथा अपने गुण से गुणान्वित भी करता है। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के दर्शन और चिन्तन में भक्ति-साधना का सर्वस्व इसी शब्द की खोज और प्राप्ति है; क्योंकि यह आदि शब्द प्रकृति के सारे आवरणों से साधक को पार करता है। इस शब्द की खोज को “नादानुसंधान”, “सुरत-शब्द-योग”, नाम-भजन, नाद-ध्यान, शब्द-ध्यान, शब्द- साधन आदि विभिन्न नामों से व्यक्त किया गया है। “शब्द के डगर पर चढ़े हुए की अधोगति असम्भव है।1 “निःशब्द अथवा अनाम से शब्द अथवा नाम की उत्पत्ति हुई है, इसके अर्थात् नाम के ग्रहण से इसके आकर्षण में पड़कर, इससे आकर्षित हो निःशब्द वा शब्दातीत वा अनाम तक पहुँचना पूर्ण संभव है। इसमें सन्देह नहीं कि केवल सारशब्द वा आदिशब्द ही अन्तिम पद अर्थात् शब्दातीत पद तक पहुँचाता है।”2 “शब्द गह्यो जीव संसै नाहीं, साहब भयो तेरे संग”, “सबद खोजि मन बस करै, सहज जोग है येहि”-संत कबीर साहब । सृष्टि वा प्रकृति के पाँच मण्डल हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य। तीन आवरणों में भी इसे विभाजित किया गया है-अन्धकार, प्रकाश और शब्द। (देखें-अखिल भारतीय संतमत-सत्संग प्रकाशन, महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-3 द्वारा प्रकाशित “पिण्ड-ब्रह्माण्ड का सांकेतिक चित्र, यह चित्र महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के सम्पूर्ण योग-दर्शन को चित्र रूप में व्यक्त करता है।) पाँचों मण्डलों के बनने के लिये केन्द्र से कम्प वा शब्द की धार अवश्य ही प्रवाहित हुई, अतः पाँचों के पाँच केन्द्रीय शब्द हैं, जिनकी धार एक दूसरे से सम्बन्धित हैं-
             “बजती है पाँच नौबतें सुनि एक-एक को ।
             प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।”3 -महर्षि मेँहीँ पदावली
 “पंच सबद धुनकार धुन, बाजे गगन नीसाणु ।” (बाबा नानक)
 “पाँचों नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।।” (सन्त कबीर साहब)
 स्थूल मण्डल के केन्द्र में हो रहे शब्द-धार का ग्रहण क्रमशः ऊपर के सूक्ष्म शब्द-धारों को ग्रहण करावेगा। इस प्रकार सृष्टि वा प्रकृति के मण्डल वा आवरण खुलते जायेंगे और अन्त में महाकारण केन्द्र में सार शब्द को ग्रहण कर सुरत उसके आकर्षण में पड़ उसके केन्द्र में केन्द्रित हो, परमात्मा वा अनाम पद में मिल एकमेक हो जायगी और सारे आवरणों या मायिक पर्दों का अतिक्रमण भी हो जायगा।
 प्रकृति, सृष्टि, ब्रह्माण्ड वा संसार का पूर्ण प्रतीक यह शरीर वा पिण्ड है। शरीर वा पिण्ड के भी उतने ही आवरण हैं, जितने सृष्टि वा ब्रह्माण्ड के। इसी को लक्ष्य करके संत कबीर साहब ने कहा-
 “बूँद समानी समुँद में, यह जाने सब कोय ।
  समुँद समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ।।”
 शरीर रूप बूँद संसार में है, यह सब जानते हैं; लेकिन संसार-रूप समुद्र इस शरीर-रूप बूँद में है, यह कोई विरला समझता है।
 अतः स्थूल शरीर से पार होना, स्थूल संसार से पार होना है, सूक्ष्म शरीर के ऊपर उठना सूक्ष्म संसार से पार होना है और इस प्रकार से ऊपर उठना संसार से ऊपर उठना है। इसीलिये अन्य संतों की तरह महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज भी ईश्वर की खोज अपने शरीर के अन्दर ही करने को कहते हैं।
 “निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
  अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।”
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
 इसके विपरीत संसार में दौड़ने से प्रकृति के आवरणों से हम छूट नहीं सकते, शरीर और इन्द्रियाँ तो हमारे साथ ही रहेंगी, आवश्यकता तो शरीर और इन्द्रियों से ऊपर उठने की है।
 शरीर और संसार में घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्थूल जगत् वा स्थूल मण्डल के केन्द्र पर स्थित होने के लिये जिससे वहाँ हो रहे सूक्ष्म शब्द-धार का ग्रहण हो सके, सन्तमत में ‘दृष्टि-योग’ वा ‘बिन्दु ध्यान’ की साधना बतलाई गयी है। रूप-जगत् का बीज बिन्दु है। बिना बिन्दु के आकार-प्रकार नहीं हो सकते। बिन्दु अत्यन्त सूक्ष्म है; क्योंकि यह अविभाज्य और परिमाणशून्य होता है। इसकी स्थिति है, स्थान भर है, लम्बाई-चौड़ाई-मौटाई नहीं। बिन्दु-ध्यान’ वा ‘दृष्टि-योग’ की साधना के द्वारा साधक अपनी सुरत को स्थूल मण्डल के केन्द्र पर स्थिर कर पाता है। हमारी चित्तवृत्तियाँ फैली हुई हैं, अतः विन्दु-ध्यान-द्वारा विन्दु-ग्रहण की योग्यता के अर्जन के लिये रूप-ध्यान की साधना बतलाई गयी है, जिसे ‘मानस ध्यान’ वा ‘मानस-पूजा’ कहा गया है। इसके लिये सन्तों के यहाँ गुरु-रूप विशेष श्रद्धेय, ग्राह्य और पूज्य माना गया है। इष्ट-रूप की बाह्य सेवा-पूजा मानस ध्यान की सफलता के लिये सहायक ही है; परन्तु इसके पूर्व उक्त मानस ध्यान में बल प्राप्त करने लिये ‘मानस-जप’ की साधना बतलाई गई है। ‘मानस-जप’ (सद्गुरु प्रदत्त ‘मन्त्र’ वा ईश्वर-वाचक शब्द का श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मन-ही-मन एकाग्र जप) की सिद्धि के लिये वाचिक जप (उच्चरित जप) और उपांशु जप (ऐसा जप जिसमें केवल होंठ हिलें और आवाज न अपने, न दूसरे सुन पाएँ) सहायक है, अतः उपादेय हैं। उपर्युक्त ‘मानस जप’, मानस ध्यान एवं ‘विन्दु ध्यान’, ‘नादानुसन्धान’ वा ‘सरत-शब्द-योग’ की सिद्धि के लिये योग्यता प्रदान करते हैं जप और रूप ध्यान स्थूल सगुण रूप उपासना है। ‘विन्दु ध्यान’ सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है। ‘सुरति-शब्द-योग’ की साधना के क्रम में सार शब्द के अतिरिक्त दूसरे सब अनहद नादों का ध्यान सगुण अरूप उपासना है तथा सार शब्द का ध्यान निर्गुण निराकार उपासना है। इस प्रकार महर्षि मेँहीँ के दर्शन में ईश्वरोपासना की सर्वांगपूर्णता का समावेश है। “सभी उपासनाओं की यहाँ समाप्ति है। उपासनाओं को सम्पूर्णतः समाप्त किये बिना शब्दातीत पद (अनाम) तक अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर तक की पहुँच प्राप्त कर परम मोक्ष का प्राप्त करना अर्थात् अपना परम कल्याण बनाना पूर्ण असम्भव है।”2
 कथित साधना-विधियों का ज्ञान सच्चे और पूरे गुरु वा उनके द्वारा नियुक्त व्यक्ति से ही प्राप्त किया जाना श्रेयस्कर है। सच्चे और पूरे सद्गुरु सारशब्द प्राप्त संत वा महापुरुष होते हैं। उनकी शक्ति और योग्यता परमात्म-तुल्य होती है। ऐसे योग्य सद्गुरु की महिमा और उनके धारण करने का फल आपार है। ऐसे योग्य सद्गुरु में श्रद्धा रखनी, उनकी सेवा करनी और उनकी कृपा प्राप्त होनी वर्णित मोक्ष-मार्ग पर आरोहण के लिये अत्यन्त आवश्यक एवं महान् सम्वल है। पूरे और सच्चे सद्गुरु की ऐसी महिमा है कि उनकी सेवा से उनको प्रसन्न कर समस्त आध्यात्मिक साम्राज्य को अनायास में ही प्राप्त किया जा सकता है। “सत्संग, सदाचार, गुरु की सेवा और ध्यानाभ्यास, साधकों को इन चारों चीजों की अत्यंत आवश्यकता है। इन चारों में भी मुख्यता गुरु-सेवा की है जिसके सहारे उपर्युक्त बची हुई दोनों चीजें प्राप्त हो जाती हैं।”1 गुरु-सेवा के लिये उनकी आज्ञाओं पर चलना मुख्य बात है। अपेक्षित ज्ञान, आचरण और योग्यता से विहीन झूठे गुरु से संतमत बचने का उपदेश देता है।
 “झूठे गुरु के पक्ष को, तजत न कीजै बार ।
  द्वार न पावै शब्द का, भटकै बारम्बार ।।”
-सन्त कबीर साहब
  “और गुणों क सहित शुद्धाचरण का गुरु में रहना ही उसकी गुरुता है, नहीं तो वह गरु (गाय-बैल) है। क्या शुद्धाचरण और क्या गुरु होने योग्य दूसरे-दूसरे गुण, किसी में भी कमी होने से वह झूठा गुरु है।”2
  “दूसरे-दूसरे गुण कितने भी अधिक हों; परन्तु यदि आचरण में शुद्धता नहीं पायी जाय, तो वह गुरु मानने योग्य नहीं। यदि ऐसे को पहले गुरु माना भी हो, तो उसका दुराचरण जान लेने पर उससे अलग रहना ही अच्छा है। उसकी जानकारी अच्छी होने पर भी आचरणहीनता के कारण उसका संग करना योग्य नहीं। और गुणों की अपेक्षा गुरु के आचरण का प्रभाव शिष्यों पर अधिक पड़ता है।”2 बाहरी सत्संग में इस ज्ञान की चर्चा का श्रवण करना आवश्यक है। यह ध्येय वस्तु के लिये प्रेम और प्रेरण उत्पन्न करता है और स्वभाव से चंचत चित को ध्येय की ओर अनुकूल होने में बल देता है, तज्जन्य मनन और निदिध्यासन की ओर प्रेरित करता है, जो आन्तरिक सत्संग है।
 बाह्य और आन्तरिक सत्संग-वर्णित ध्यान और पवित्र जीवन जीने के आचरण और अभ्यास की नित्य आवश्यकता है।
 “सत्संग नित अरु ध्यान नित रहिये करत संलग्न हो ।
  व्यभिचार चोरी नशा हिंसा झूठ तजना चाहिए ।।”
 बराबर सत्संग से उपजा हुआ प्रेम हृदय में पात्रता, दीनता, आधीनता, विरह आदि सद्गुणों का सृजन करता है, जो साधक के साधना-पथ में तो सहायक होते ही हैं, उनके व्यक्तित्व को दैवी सम्पदाओं और लोक-मंगल की भावनाओं से परिपूर्ण कर देते हैं। इसीलिये श्री सद्गुरु महाराज द्वारा रचित “विनती” में पहली माँग “प्रेम और भक्ति” की ही है।
 “प्रेम भक्ति गुरु दीजिये, बिनवौं कर जोरी ।
  पल-पल छोह न छोड़िये, सुनिये गुरु मोरी ।।”
 वर्णित परमात्म-स्वरूप एवं उसको प्राप्त करने की साधना का ज्ञान ही ज्ञान है, उसके लिये क्रिया विशेष ही योग है; अतः यह ऐसी भक्ति है, जो ज्ञानयोग-युक्त है। सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के दर्शन और चितन को समास रूप में प्रस्तुत किया गया।


सहस्त्रशीर्षा संत श्री महर्षि मेँहीँ [निर्मल, गाँधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली]
 मैं कॉलेज का विद्यार्थी था। कौतूहलवश कुप्पाघाट देखने आया। दर्शन का छात्र होने के कारण तत्त्व-मीमांसा में गम्भीर रुचि थी, पर साधुवेश में सुगंध कम, स्वांग अधिक दीखता था। कुप्पाघाट की गुफाओं में उतरने में आनन्द आया। बाहर घूम-घाम कर देखने लगा। संत श्री महर्षि मेँहीँ दो-चार उपस्थित लोगों से चर्चा कर रहे थे। आत्मा-परमात्मा की बात में बाल की खाल खींचने वाले तर्क से ऊबे हुए चित्त को समाधान मिला। तभी से मुझपर संत श्री के सहज साधु-जीवन की अमिट छाप अंकित हो गयी। गुफाओं और संगमों पर ज्ञान-प्राप्ति होती है। “उपह् वरे गिरीणा’, संगमे च नदीनाम्, धिया विप्रो अजायत।”
 संत श्री के सामीप्य का कम मौका मिला। मैंने सबसे अधिक संत श्री की विभूतियों का दर्शन इनके शिष्यों में किया। कटिहार-पूर्णियाँ के गाँवों में स्व0 बैद्यनाथ बाबू के साथ घूमने का, भूदान-ग्रामदान के अभियान में भरपूर मौका मिला। शिविर सम्मेलनों में सौ-सौ साथी आते थे। प्रातःकालीन प्रार्थना और भजन के स्वर में “सब संतन की बड़ि बलिहारी” सुनकर हृदय मुग्ध हो जाता था।
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शिष्यों में निरुपाधिक भक्ति और अविकल प्रेम का सहज दर्शन मिलता है। गाँव के किसान, मजदूर, अपढ़ महिलाओं के सरल और सधे शब्दों में ज्ञान के नवनीत का जो रसास्वादन मिलता है, वह न तो उपाधि-धारियों के ग्रंथ और प्रवचनों में और न आज के तथाकथित भगवान् और भक्तों में कहीं अन्यत्र प्राप्त हो सकता है।
 छान्दोग्य उपनिषद् कह रहा है-
 “यदा वे वली भवति, अथ उत्थाता भवति,
उत् तिष्ठन् परिचरिता भवति, परिचरन् उपसन्ता भवति,
उपसीदन द्रष्टा भवति, श्रोता भवति, बोद्धा भवति, विज्ञाता भवन्त ।”
 संत महर्षि मेँहीँ के सम्मेलनों को देखने वालों को इस श्लोक की व्याख्या आसानी से समझ में आती है। हजारों-हजार लोग, बूढ़े, बच्चे, जवान, पुरुष और महिलाएँ सम्मेलन के संगम पर क्या लूटने आते हैं? कोई खेल-तमाशा नहीं, नाच-रंग नहीं। क्यों पागल बनकर आते हैं लाखों लोग! नेताओं के लिए श्रोताओं को गिरफ्रतार कर रखना पड़ता है। लाचार किये जाते हैं-स्कूल के निरीह छात्र, शिक्षक, कर्मचारी नेताओं की सभा में उपस्थिति बढ़ाने के लिए। विद्वानों की बात सुनने के लिए चाय की चासनी दी जाती है। खुले मैदान में सतुआ बाँधकर सपरिवार क्या सुनने आते हैं? संत के श्रोता सबल मन से सुनने आते हैं, मनन-चितन करते हैं, सत्य का साकार दर्शन कर समर्पित होते हैं।
 वैदिक ऋषि कहते हैं-अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां-----------ऋषि यदि लोक-भाषा में न बोलते तो “अहं राष्ट्री” ऐसा दावा न कर पाते।
   “राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार ।
तुलसी भीतर बाहरो, जो चाहसि उजियार ।।”
संत श्री अपने को विभूति इसलिये बना पाये कि उन्होंने अपने को शून्य बनाकर श्रेय भगवान् और भक्तों को दिया। ऐसे भक्त का जीवन “मणिगण ज्योति” स्वरूप बन जाता है। इनके सत्संग से “उघरहिं विमल विलोचन हिय के” चरितार्थ होता है। संत ने लोक-भाषा का व्यवहार किया और “आत्मदीपो भव” की साधना की।
 संत जी को 1976 में रानीपतरा चिकित्सालय में देखा। उनके दर्शन के लिये भक्तों की स्थिति- “लोचन घायल के घायल” जैसी हो रही थी। शबरी की तरह लोग मधु फल आदि सँजो कर रखे थे। वृद्ध शरीर पर बालवत् कोमल और कुंदन सदृश कांतिवान पके फल की तरह सुन्दर शरीर और मीठी वाणी। देह से मुक्त। उन्होंने कहा कि शरीर का बंधन अब छूट गया। सेवक जो मुझे कंधे पर ढो रहा है-पार्थिव रूप से उसके साथ मेरा एकाकार हो गया। जब आत्मा ब्रह्मलीन हो जाता है तो “पादां अस्य विश्वा भूतानि” की साकार अनुभूति होती है।
 वास्तव में विचार जबतक शब्द की मर्यादा और तर्क की तलवार के सहारे चलता है, तो घात करता है। सिद्धियों के घटाटोप और चमत्कारों की चकाचौंध से मनुष्य भ्रमित होता है। ग्रन्थों की गुफा में लोक भटक जाते हैं। लेकिन जो अपनी व्यष्टि को समष्टि में समाहित कर देता है वह सबका हो जाता है। ईशावास्य कह रहा है-
 “यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति ।
  सर्व-भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।।
  तस्मिन सर्वाण भूतानि आत्मैवा भूद्विजानतः ।”
 इसीलिये गीता में भगवान् ने कहा है-
 “ज्ञानेन तु तद्ज्ञानं येषां नाशितमात्मनः”
 एकता का सतत दर्शन अनेकता को पचाकर ही होता है। संत श्री की भाषा में सामान्य जन को अपने हृदय की सहज अभिव्यक्ति का दर्शन होता है। इसलिये आपके विचारों को सामान्य जन अपने हृदय की अभिव्यक्ति मानते हैं।
 हजारों-हजार लोगों के हृदय में संत का आलोक और संत के हृदय में हजारों-हजार का विश्व रूप साकार होता है।
 “सहस्त्र शीर्षा पुरुषः सहस्त्रीक्षः सहस्त्रपात।।”


हमारे गुरु पूरन दातार [श्री बलराम सिंह, प्राचार्य, बाल भारतीय शिवपुरी भट्ठा (पुरैनियाँ)]
 श्री सद्गुरु महाराज का व्यक्तित्व अपने आपमें विरल है। न तो आप हजारों बीघे जमीन या अन्य श्रोतों से आय-प्राप्त मठ के मठाधीश हैं और न खंजरी करताल बजानेवाले भस्म रमाये साधु ही हैं। आप तो राजयोगी हैं, जिन्होंने भगवान बुद्ध की तरह मध्यम मार्ग को अपनाया है। न तो दिखावा है न गुरुडम ही। अत्यन्त निर्मल चरित्र, सरल स्वभाव, सादगीपूर्ण रहन-सहन, सात्त्विक खान-पान, मन-कर्म-वचन से एक, उदारमना, देशभक्त, दयालु व साहित्य-सेवी, आत्म-निर्भर तथा सादगी से जीवन-यापन करनेवाले हैं। संकीर्णता से परे हैं, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध एवम् सिक्खो धर्मावलम्बी आपके शिष्य हैं। भिन्न-भिन्न देशवासी नेपाली, जापानी, रूसी, फ्रेंच, अंग्रेज आदि आपके शरणागत हैं। जाति, वर्ण, धर्म व देश की सीमा-कोई भी बाधा नहीं है, बल्कि सद्गुरु महाराज का आग्रह रहता है कि सभी धर्मों की पाबन्दियों का पालन करते हुए साधना-पथ पर अग्रसर हों। अहिंसा को परम धर्म मानते हुए भी अनिवार्य हिंसा से बचने के लिए पाखंड नहीं करते। स्वतंत्रता-आन्दोलन के समय कांग्रेस को नैतिक समर्थन देते रहे। 1962 ई0 में चीनी आक्रमण के सत्संगियों को देश के प्रति उनके कर्त्तव्य की ओर संकेत करते हुए आपने कहा था कि “यदि भारत सरकार मुझे आवश्यक सैनिक प्रशिक्षण देकर सेना में भर्त्ती के लिए अनुमति दे, तो मैं आक्रमणकारियों के विरुद्ध बंदूक उठाने को तैयार हूँ।” भारत के नागरिक होने के कारण आपको अपने देश के प्रति कर्त्तव्य बोध तो है, पर आपकी मानवता किसी भी देश की संकीर्ण सीमा से बँधी हुई नहीं है। उसी तरह धार्मिक संकीर्णता से भी परे हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी की तरह आप एक समन्वयवादी हैं। गो0 तुलसीदासजी महाराज द्वारा विरचित ‘रामचरितमानस’ नाना पुराण निगमागम-सम्मत तो है ही, साथ ही सगुण-निर्गुण, शैव-वैष्णव, देवभाषा (संस्कृत), जनभाषा (अवधी, ब्रजभाषा), प्रबंधकाव्य-गीतिकाव्य और विभिन्न छंदों के प्रयोग द्वारा समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय नम्रता के साथ यह कहकर दिया है-
 “स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबंध मति मंजुलमातनोति ।”
 उसी तरह सद्गुरु महाराज ने अन्य पदों तथा ‘गीता योग-प्रकाश’, वेद-दर्शन-योग, संतवाणी की टीका आदि पुस्तकों की रचना कर उसी समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है। प्रारंभिक काल में आपको कबीरपंथी समझकर कट्टर सनातनी एवं उच्च जाति के लोग अपने को दरकिनार रखते थे। संकीर्ण विचार के व्यक्ति और संतों के विभिन्न नामों पर चलने वाले सम्प्रदाय के अधिकांश लोग भी वेद, उपनिषद् को श्रद्धा की दृष्टि से नहीं देखते थे। श्री सद्गुरु महाराज ने वेद, गीता, रामायण आदि के सार-स्वरूप पुस्तकों की रचना कर और अन्य संतों की वाणी की टीका लिखकर वेद-उपनिषद्कालीन ऋषिवाणी व मध्य तथा वर्त्तमानकालीन संतवाणी के सार को ग्रहण कर अबतक की चली आ रही गहरी खाई को पाट दिया है। संत तुलसी साहब एवम् बाबा देवी साहब से चली आ रही परम्परा की अबाध धारा को क्षिप्रगति देकर और यत्र-तत्र बिखरे सूत्रें को एकत्रित कर आपने संतमत-सत्संग को दृढ़ भित्ति पर विशाल व व्यापक संगठन के रूप में खड़ा कर दिया है। अपने सद्गुरु महाराज बाबा देवी साहब के आदेशानुसार उत्तरी भारत के पश्चिम से पूरब की ओर फैले हुए भूभाग में व्यापक रूप से तथा उत्तरी बिहार के सुदूर ग्राम प्रान्तरों में सघनरूप से योग सम्मत भक्ति के बीज दीर्घकाल से छींट रहे हैं। लोक-मंगल की भावना से जन-जन के हृदय में भक्ति की भगीरथी की गुह्य योग विद्या को राजा भगीरथ की तरह आपने शास्त्रें, मठों, गिरि-कन्दराओं से निकालकर खुले समाज के सामने ला दिया है, जिससे आम जनता को पारमार्थिक लाभ हो रहा है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- “जो योगविद्या सूर्य से लेकर राजाओं तक चली आ रही थी और जो समाप्त होने जा रही है, हे पार्थ, उसे मैं पुनः तुम्हें प्रदान कर रहा हूँ।” बाबा देवी साहब सद्गुरु महाराज से विरासत में प्राप्त विद्या को बिना किसी भेद-भाव के सारी मानवता के कल्याणार्थ आप प्रदान कर रहे हैं। संतों की स्तुति करते हैं- “विन्दु-ध्यान-विधि, नाद-ध्यान-विधि, सरल-सरल जग में परचारी।’ आप भी सद्गुरु को जो, “अकपट परमोदार न कछु गुरु धारें छिपाई’ है उस “मंगल मूरति सत्गुरु’ को, जिनका रूप ही ‘मंगलमय मंगल करण’ है, उस सद्गुरु महाराज को बार-बार नमन करते हैं और “भजत है मेँहीँ धन्य-धन्य कहि” उनके यशोगान करते हैं। प्रारंभ से ही पाँव पैदल और बैलगाड़ी पर सवार होकर दुर्गम्य गाँवों में, हिमालय की तराई में जाकर सन्तमत-सत्संग का प्रचार करते रहे हैं, अत्यन्त दुर्बल क्षीण काया को लेकर सम्प्रति सत्संग करते हैं। आप अत्यन्त ही विनम्र हैं, फिर भी अनुशासन-प्रिय हैं। सत्संगियों का मार्गदर्शन करने हेतु आवश्यकतानुसार आवश्यक सख्ती भी बरतते हैं। सूगर कोटेड पिल्स जैसी वाणी से सत्संगियों का पथ-प्रदर्शन भी करते हैं। कृपा प्राप्त करनेवाले ही जानते हैं कि आप कितने भक्तवत्सल हैं। बिना किसी भेद-भाव के निम्न स्तर के लोगों को दीक्षा देकर आपने वरण किया है। वह सच्चे संत की उदारता और महानता की ही परम्परा है। एक बार श्री उदित बाबू (वर्त्तमान अभेदानन्द जी महाराज) ने बातचीत के क्रम में मुझे बताया था कि आपने सद्गुरु महाराज से कहा था कि कितना अच्छा होता अगर आपका जन्म ब्राह्मण-कुल में हुआ होता? स्वामी जी महाराज ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक उत्तर दिया था कि अगर मेरा जन्म अंत्यज परिवार में हुआ होता तो अछूत भी समझते कि हमलोग भी ईश्वर की भक्ति करने के अधिकारी हैं। इसी तरह इस आक्षेप का भी उत्तर शालीनता से देते हैं कि बिना पात्रता का विचार किये हुए ही आप दीक्षा देते हैं। सद्गुरु महाराज का दृढ़ विश्वास है कि “जितने मनुष्य तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी।” आपका कहना है कि आप अपने सद्गुरु महाराज बाबा देवी साहब की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए बीज छींट रहे हैं।
 आज संतमत-सत्संग विकास के शीर्ष बिन्दु पर आसीन एक जीवन्त संस्था है, “प्ज पे तंजीमत द पदेजपजनजपवद” महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-3 अध्यात्म-विद्या का एक प्रमुख केन्द्र है। पतित-पावनी गंगा के ढालवें कछार पर अवस्थित एक रमणीक स्थान है। गुरु-निवास, सत्संग-भवन, सत्संग-हॉल, प्रेस व प्रकाशन-विभाग तथा आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न अनेक निवास-भवन हैं। संतमत-सत्संग की मासिक पत्रिका ‘शांति-संदेश’ यहाँ से ही प्रकाशित होती है, जो सारे संसार को शांति का संदेश देकर अपने नाम की सार्थकता सिद्ध करती है। इस स्थल की अपनी विशेषता है, पता नहीं, कितने संत-महात्माओं ने ‘कुप्पा’ में साधना कर आत्म-साक्षात्कार किया है, वह भी अतीत के किस काल-खंड से, कौन जानें? आश्रम की सारी रूप-रेखा ऐसी है, मानों आधुनिक वास्तुकला के किन्हीं शिल्पी (आर्किटेक्ट) की भव्य-कल्पना मूर्त्तिमन्त हो गई हो। श्रीरामकृष्ण परमहंस के स्वामी विवेकानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द जैसे पार्षदों-पूज्य संतसेवी जी महाराज, शाही स्वामी जी महाराज, श्रीधर बाबा, विष्णुकांत जी महाराज, शिशु बाबा, लच्छन जी महाराज, हरिनन्दन बाबा, दलबहादुर बाबा, भगीरथ बाबा तथा सम्पादक जी आदि ‘अलख’ जगा रहे हैं। संतमत-सत्संग के कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए ‘अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग महासभा और उसकी प्रबन्ध-समिति है। धरहरा सत्संग आश्रम, मनिहारी सत्संग आश्रम के साथ-साथ ग्राम-ग्राम में सत्संग-आश्रम है, जहाँ प्रतिदिन प्रभात व संध्याकालीन नियमित रूप से सत्संग होता है। सत्संग के प्रचार-प्रसार के लिए थाना, जिला स्तर में समितियाँ हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र में वर्ष में एक बार सत्संग का आयोजन करती हैं। केन्द्रीय स्तर पर अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन और कभी-कभी विशेषाधिवेशन भी होता रहता है। सन्तमत साहित्य की सर्जना और अभिवृद्धि आपकी देन व प्रेरणा है। सत्संग-योग तो सन्तमत-सत्संग का ‘मैनिफेस्टो’ ही है। आपके व्यक्तित्व व कृतित्व पर कुछ विद्वान ‘थीसिस’ लिखकर ‘डाक्टरेट’ की डिग्री से अलंकृत भी हुए हैं।
 कहा जाता है कि श्रीरामकृष्ण परमहंस के लोटा मलनेवाले ‘लोटन महाराज’ के नाम से अभिहित हुए हैं। यही तो सिद्ध पुरुषों की महिमा है- “पारस परस कुधातु सुहाई” सद्गुरु महाराज की अहैतुकी कृपा से साधना के पथ पर मुझे सहज ही अनुकूलता प्राप्त होती रही है। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज अपने भक्तों से कहा करते थे कि धर्मशास्त्र और ग्रन्थ में सार-असार दोनों हैं, लेकिन गुरुमुख से निःसृत वाणी सार-ही-सार है। तारापुर अंचल के प्रख्यात पंडित श्रीउदयकान्त झा जी ने दया करके शास्त्रें के मर्म को समझाने का शुभावसर प्रदान किया है, उनके निर्मल व्यक्तित्व, पांडित्य एवम् साधना का लाभ प्राप्त करने का संयोग सहज ही प्राप्त हो गया, उसी प्रकार श्री 108 भूपेन्द्रनाथ सान्याल के शिष्य, तारापुर-निवासी डा0 दामोदर चौधरी के यहाँ नित्य में प्रार्थना, संकीर्त्तन और धर्म-ग्रन्थों का पारायण होता था, उस गोष्ठी में मैं भी नियमित रूप से भाग लेता था, अतः यह सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट होता गया कि सन्तमत का दर्शन वेद, उपनिषद्, गीता-सम्मत है। 1972-73 ई0 में मैं सोनवर्षा कॉलेज में था। उन दिनों श्रीरामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि रमण, महायोगी अरविन्द तथा देवराहा बाबा सम्बंधित साहित्य के अध्ययन का सुअवसर अनायास प्राप्त हो गया था। इस तरह साधना के पथ पर अग्रसर होने के लिए बल, प्रेरणा, दृढ़ता, विशेष कर मेरी भावना प्रदीप्त होती गई। कभी-कभी निराशा होती, कभी-कभी अभिरुचि ही नहीं रहती। ठीक वैसी ही मनोदशा में महर्षि रमण का ‘सुषाषितम्’ पढ़ने को मिल गया। महर्षि रमण ने अपने एक भक्त को समझाते हुए कहा था, “तुम साधना करते जाओ, हो सकता है, तुम्हें लगे कि साधना-पथ में तुम्हारी कोई प्रगति नहीं हो रही है, पर प्रगति अवश्य होती है, तुम करते जाओ।” नैराश्य की तमिस्त्री में आशा की ज्योति प्रकट हो गई। एक बार ईश्वर-भक्ति का नया अर्थ-बोध हुआ। मैं बेकारी की अवस्था में सद्गुरु महाराज के दर्शन करने गया। उन्होंने मुझे प्रेम से डाँटते हुए समझाया कि जो गृहस्थ हैं, बाल-बच्चेदार हैं, अगर वे उनका पालन-पोषण युक्तिपूर्वक करते हैं, तो वह ईश्वर-भक्ति ही है। हाँ, परिवार का पालन-पोषण भी करें और ध्यान-भजन भी करते रहें।
 श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है कि “सांसारिकता और भगवद्भक्ति में धागा-जैसा ही अन्तर है। अगर आप सोचते हैं कि यह मेरा परिवार है, जमीन-जायदाद मेरी है, तो यह सांसारिकता हैं; लेकिन जब यह भावना रहती है कि परिवार भगवान का है, सम्पत्ति भगवान की है और मैं भगवान की ओर से परिवार का पालन-पोषण करता हूँ, भगवान की सम्पत्ति का मैं मात्र व्यवस्थापक हूँ, तो यह ईश्वर-भक्ति है।” श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज का यह कथन कि सद्गुरु जो कुछ कहते हैं, वह सार-ही7सार है, मेरे लिए ‘संजीवनी’ सिद्ध हुई। कलकत्ता थियेटर कम्पनी के मालिक श्रीगिरीन्द्र घोष के लिए उनके सद्गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ही सब कुछ थे। मेरी भी ऐसी ही मनोदशा है सद्गुरु ही मेरे लिए सब कुछ हैं।
‘गुरु साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।’
 इसीलिए महाराजजी कहते हैं-
‘परम पुरुषहू तें अधिक गावें संत सुजान ।’
 देवराहा बाबा के तत्त्व चिंतन में सद्गुरु को परमात्मा से बढ़कर कहा गया है। इसका विश्लेषण करते हुए देवराहा बाबा ने कहा है कि भगवान ऐश्वर्ययुक्त हैं, अतः उनका स्मरण व ध्यान करने से साधक ऐश्वर्ययुक्त होते हैं और उससे अहमन्यता पैदा होती है और पतन की संभावना रहती है, पर सद्गुरु सभी विकारों से परे हैं, अतः उनके ध्यान-स्मरण से पतन की संभावना नहीं रहती है; क्योंकि वे तो निर्विकार हैं।
 “ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्ध ज्ञानेक्यामूर्त्तये, निर्मलाय प्रशान्ताय दक्षिणा मूर्त्तये नमः ।
  निधिये सर्वविद्यानामभिषजे भवरोगणाम्, गुरवे सर्वलोकानाम् दक्षिणामूर्त्तये नमः ।।”
 श्रीरामकृष्ण परमहंसजी कहते हैं, “सद्गुरु तदाकारकारित” हैं, वे जिस संज्ञा से अभिहित होते हैं, ‘मुनि सेवति गुरु का नाम’ चिन्मय नाम है, उनका भागवती तनु चिन्मयधाम है और शिष्य-भक्तों के लिए ‘चिन्मय श्याम’ है। मेरे लिए सद्गुरु सब कुछ चिन्मय नाम, चिन्मय धाम व ‘चिन्मय श्याम’ हैं। जो जिसका स्मरण-चिंतन करते हैं, उनके रूप-गुण से स्वयं विभूषित होते हैं। धर्मशास्त्रें की मान्यता है कि भक्तों को सारूप्य, सालोक्य, सायुज्य आदि मुक्ति मिलती है। गो0 तुलसीदासजी महाराज का कथन है-
‘जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।’
 ऐसे सद्गुरु सौभाग्य से ही मिलते हैं। इसी भाव-सागर में मेरे मन-प्राण लीन रहे, इसी कृपा की कामना है। वे भक्त-वत्सल हैं। अतः उनके पाद-पद्मों में ठीक-ठीक शरणापन्न हो जाऊँ, यही मेरी गति हो, यही एकमात्र अभिलाषा है। इसी कृपा का आकांक्षी हूँ; क्योंकि सद्गुरु ही सब कुछ हैं।
 “ध्यान मूलं गुरुमूर्त्ति, पूजा मूलं गुरुर्पदम् ।
  मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यम्, मोक्ष मूलं गुरुर्कृपा ।।”
 अतः कामना है कि ‘मत प्राणः श्री गुरौ प्रणः मुद्देहो गुरुमन्दिरम्।’ सद्गुरु श्री जगद्गुरु हैं। अतः उनके स्मरण-चिन्तन में ‘मदात्मा सर्वभूतात्मा’ हो जाती है। श्रीसद्गुरु भक्त-वत्सल होते हैं, उनकी अहैतुकी कृपा होती है और वे कर्त्तुम् अकर्त्तुम् सर्वथा कर्त्तुम् समर्थ हैं। जय गुरु महाराज!
।। ॐ श्रीसद्गुरवे नमः ।।

श्रीमद्भगवद्गीता और संतमत [प्रो0 बद्रिका प्रसाद चौधरी, एम0 ए0 (द्वय), अंग्रेजी, संगीत]
 संतमत के वर्त्तमान मूर्द्धन्य आचार्य तथा गीतोक्त स्थितप्रज्ञता-प्राप्त ईश्वर-कोटि के संत परमाराध्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शतवार्षिकी अभिनन्दन के अवसर पर संत-साहित्य और अध्यात्म-जगत् के प्रति इनकी अनुपम सेवा तथा अवदान का विवेचन प्रासंगिक है।
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने गीता के संबन्ध में अबतक फैली हुई भ्रान्त धारणाओं एवं विचारों के उन्मूलनार्थ ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ का प्रणयन कर अध्यात्म-जगत् की महती सेवा की है। इनके सत्प्रयास से यह स्पष्ट हो सका कि संत-महात्माओं द्वारा व्यक्त सत्यानुभव, वैदिक ऋषि-महर्षियों द्वारा वर्णित अनुभूतियों से सर्वथा अभिन्न है।
 संतमत अर्थात् सर्वसंतानुमोदित साधन-मार्ग में मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन तथा नादानुसन्धान का विवेचन मिलता है। इस तरह भगवत्-प्राप्ति के मुख्य साधनों में जप और ध्यान की, आर्ष ग्रन्थों से लेकर सभी संतों की वाणियों तक में प्रभूत चर्चा मिलती है। वेदान्त के प्रस्थानत्रयी में गीता का स्थान बहुमूल्य हीरक के रूप में देदीप्यमान है। विश्व वाघ्मय में अपने दार्शनिक गांभीर्य तत्त्वविवेचन की अनुपम शैली तथा साधन-निरूपण में अपूर्व ऋजुता के लिये गीता अद्वितीय आध्यात्मिक ग्रन्थ के रूप में समादृत एवं प्रचारित है। गीता में ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करने के लिये जप तथा ध्यान, दोनों का समुचित अवलम्बन श्रेयस्कर माना गया है। इस प्रकार गीता के साथ संतमत का तुलनात्मक विवेचन करते हुए ब्रह्म-निरूपण, मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन, नादानुसन्धान तथा सदाचार की अनिवार्यता विचारणीय विषय हैं।
 ब्रह्म-स्वरूप का निरूपण गीता में स्फुट रूप में विभिन्न अध्यायों में प्राप्त होता है। ब्रह्म की ये व्याख्याएँ औपनिषद् व्याख्या से पूर्ण साम्य तथा सादृश्य रखती हैं।
 “कवि पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
  सर्वस्य धातारमचिन्त्य रूपमादित्य वर्णं तमसः परस्तात ्।।” अ0 8, श्लो0-9
 तत्त्व-मीमांसा के संदर्भ में यह विचारणीय है कि गीता में दो प्रकार के पुरुष की चर्चा की गई है। इन्हें क्षर और अक्षर कहते हैं। सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो क्षर हैं और कूटस्थ जीवात्मा अक्षर या अविनाशी कहा जाता है।
 “द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
  क्षरः सर्वाणि भूतानि कुटस्थोऽक्षर उच्यते ।। अ0 15 श्लो0-16
 इन दोनों से उत्तम पुरुष भिन्न है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं उन्हें अविनाशी परमेश्वर कहा गया है। इस प्रकार तत्त्व-मीमांसा के तीन वर्गीकरण गीता में प्राप्त होते हैं, जिन्हें हम इस प्रकार समझ सकते हैं; व्यक्त, अव्यक्त और अव्यक्त से भी विलक्षण पूर्ण ब्रह्म परमात्मा।
 “उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ।। अ0 15 श्लो0 17
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ।। अ0 8 श्लो0 20
 महात्मा कबीर ने भी व्यक्त, अव्यक्त और उससे भी विलक्षण पुरुषोत्तम का विवेचन करते हुए कहा है-
 “सर्गुण की सेवा करो, निर्गुण का करु ज्ञान ।
  निर्गुण सर्गुण के परे, तहैं हमारा ध्यान ।।”
 बिहार के सन्त दरिया साहब ने निर्गुण-सगुण से परे उस पूर्ण ब्रह्म की सत्ता स्वीकार की है।
‘ओइ निरगुन सरगुन ते भीना ।’
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी में समान भाव उच्चरित हुआ है:-
 “सब क्षेत्र पर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
  निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।”
 गीता में ब्रह्म-निरूपण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रह्म के तटस्थ लक्षणों का विवेचन किया है-
         “अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्यितम ्।
          भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।।” अ0 13, श्लो0 16
 जो सभी भूतों में व्याप्त होकर भी विभक्त के समान दीखता है, जैसे महाकाश विभाग-रहित स्थित होता हुआ भी घट-मठादि में पृथक्-पृथक् प्रतीत होता है। यह ब्रह्म स्त्रष्टा, पालक और संहारक के रूप में क्रियाशील है। गुरु नानकदेवजी महाराज ने भी समान भाव अपनी वाणी में दर्शाया है-
 “एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु ।
  इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीवाणु ।।
 अर्थात् परम पुरुष से युक्त होने पर माया ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश-इन तीनों को सृष्टि-पालन और संहार के लिये उत्पन्न किया। कबीर साहब ने उपर्युक्त श्लोक के पूर्वांश के सदृश भाव को व्यक्त करते हुए कहा है-
‘सकल मांड में रमि रह्या, साहिब कहिये सोई ।’
 उपनिषद् से लेकर गीता तथा संतवाणियों में ब्रह्म की अनिर्वचनीयता, सर्वव्यापकता तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्मता सर्वमान्य है। यह परमात्म-तत्त्व त्रिगुणातीत है, अतः इसकी प्राप्ति के लिये मार्ग की सूक्ष्मता भी अनिवार्य है, जिसे तत्त्वद्रष्टा गुरु से प्राप्त करना अनिवार्य बतलाया गया है। गुप्त योग-विद्या का रहस्योद्घाटन गुरु-द्वारा ही संभव है। अतः गुरु की महिमा भगवान् श्रीकृष्ण ने भी गायी है-
            “तविद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
            उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।। अ0-4, श्लो0 34
 तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किये हुए प्रश्न द्वारा जानो। वे तत्त्वद्रष्टा पुरुष तुम्हें तत्त्वोपदेश करेंगे। पूर्णावस्था-प्राप्त संत ही गुरु होने की पात्रता रखते हैं तथा ऐसे गुरु की महिमा का गायन करते हुए संत जन पंचमुख हो गये हैं। कबीर साहब कहते हैं-
 “गुरु साहब कर जानिये, रहिये सब्द समाय ।
  मिलै तो दण्डवत् बन्दगी, पल-पल ध्यान लगाय ।।”
 गुरु की निष्कपट सेवा पर बल देते हुए गुरु नानक देव ने भी कहा है-
‘बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई । बिनु सतिगुर भेंटे मुकति न कोई ।’
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने भी गीता के स्वर में स्वर मिलाकर कहा है-
 “आहो भाई होऊ गुरु आश्रित हो, बिना गुरु अन्धकार
  सुझए न कछु सार, होऊ गुरु आश्रित हो ।
  आहो भाई गुरु सेवी भेद लेहु हो -------- ।”
 गीता की दृष्टि में सर्वोच्च आध्यात्मिक अवस्था स्थितप्रज्ञ होना है; जिसकी उपलब्धि समाधि-द्वारा ही शक्य है। स्थितप्रज्ञ की परिभाषा अर्जुन पूछते हैं-
           “स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
            स्थितधीः कि प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।” अ02, श्लो0 54
 इस श्लोक से यह स्पष्ट है कि स्थितप्रज्ञता प्राप्त करने के लिये समाधिस्थ होना अत्यन्त आवश्यक है। समाधि में ही वृत्तियों का पूर्णतया लय होता है, तभी मन की क्रिया समाप्त होती है। ध्याता, ध्येय और ध्यान की त्रिपुटी समाप्त हो जाती है। तीनों वहाँ एकाकार हो अखण्ड भाव समाधि में स्थित हो जाते हैं। स्थितप्रज्ञता के लक्षणों का उल्लेख करते समय भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
       “दुःखेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः ।
                वीतरागभय क्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।” अ0 2, श्लोक 56
       “राग द्वेषयिुक्तेस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
                आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।।” अ0 2, श्लोक 64
 इन श्लोकों का अभिप्राय यह है कि ‘दुख से अनुद्विग्न मन, सुख में निस्पृह, आसक्ति, भय-क्रोधादि से मुक्त रहनेवाला, राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से मुक्त रहनेवाला निष्काम पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है।’ द्वन्द्वों से मुक्त होने के लिये ध्यान-योग का अवलम्बन लेना होगा, तभी अखण्ड समाधि-लाभ होने पर पूर्ण निर्द्वन्द्वता की स्थिति प्राप्त होती है। गुरु नानक देव की वाणी में भी गीतोक्त स्थितप्रज्ञता के लक्षण समान रूप से उच्चरित हुए हैं-
 “सुखु दुखु दोनों सम करि जानै अउरु मानु अपमाना ।
  हरख सोग ते रहै अतीता तिनि जगि ततु पछाना ।।
  असतुति निदा दोउन तिआगै खोजे पदु निरबाना ।
  जन नानक इहु खेल कठिन है किनहु गुरुमुखि जाना ।।”
 गो0 तुलसीदासजी ने भी द्वन्द्वातीत होने की अनिवार्यता पर जोर दिया है, जो गीतोक्त स्थितप्रज्ञता के सदृश है-
 “सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
  तुलसिदास एहि दसा हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।”
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने भी स्थिरबुद्धि अर्थात् स्थितप्रज्ञ की निर्द्वन्द्वता की ओर संकेत किया है-
 “थिर बुद्धि सुजाना यती सयाना धरि ध्वनि ध्याना है ।
  सो ध्वनि सारा ‘मेँहीँ’ न्यारा सतगुरु धारे हैं ।।”
 “द्वैत द्वन्द्व सों रहित, सो प्रभु पद पाइके ।
  अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ सुरत न लौटइ, बहुरि न जन्मइ आइके ।।”
 स्थितप्रज्ञता की प्राप्ति समाधि की अवस्था में संभव है, जो ध्यान की पूर्णावस्था है। अतः साधन के रूप में जप और ध्यान की विवेचना आवश्यक है।
 जप की महिमा गाते हुए भगवान् श्रीकृष्ण गीता अ0 10 में कहते हैं- “यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि” अर्थात् मैं सभी प्रकार के यज्ञों में जप यज्ञ हूँ। गुरु नानक देव जी की वाणियों में नाम-जप-महात्म्य की प्रभूत चर्चा मिलती है।
‘जपि नाम धियाइ तू, जम डरपै दुख भागु ।’
 महात्मा कबीर ने भी जप की महिमा का उल्लेख किया है-
 “कबीर महिमा नाम की कहना कही न जाय ।
  चार मुक्ति और चार फल और परमपद पाय ।।”
 महर्षि मेँहीँ परमहंस जी की तपःपूत वाणी में भी जप की महिमा निःसृत हुई है-
‘अति पावन गुरु मंत्र मनहि मन जाप जपो ।’
 इस प्रकार सभी संतों की वाणियों में जप का जयघोष सुनाई पड़ता है।
 जप के साथ संतमत में मानस-ध्यान की आवश्यकता पर बल दिया गया है। गीता में भी सगुण साकार रूप का ध्यान दर्शाते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं।
        “मय्यावेश्य मनो ये मां नित्य युक्ता उपासते ।
         श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्तममा मताः ।।” अ0 12, श्लोक 2
 अर्थात् हे अर्जुन मेरे में मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्त जन अतिशय श्रेष्ठ-श्रद्धा से युक्त हुए मुझे सगुण रूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मेरे को अत्युत्तम योगी मान्य हैं।
 संतमत में गुरु-द्वारा बतायी विधि का अवलम्बन कर शुद्ध रूप गुरु-मूर्त्ति का ध्यान मानस ध्यान कहलाता है। इससे दृष्टि को एकबिन्दुता प्राप्त होती है, तथा दृष्टि-साधन में चित्त को शून्य में स्थिर करने की क्षमता आती है। संत कबीर साहब ने मानस-ध्यान की चर्चा करते हुए कहा है-
 “मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।”
 गुरु नानकदेवजी ने भी मानस ध्यान की महत्ता व्यक्त करते हुए कहा है-
‘सतगुरु की मूरति हिरदै बसाए । जो ईछै सोई फलु पाए ।।’
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने भी मानस ध्यान के सम्बन्ध में कहा है-
‘उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो ।’
‘प्रथमहि धारो गुरु को ध्यान । हो स्त्रुति निर्मल हो बिन्दु ग्यान ।।”
 मानस जप और मानस ध्यान स्थूलोपासना है। ब्रह्मात्मैक्य-बोध या अपरोक्षानुभूति ही मोक्ष है। सूक्ष्मनादोपासना द्वारा सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति शक्य है; अतः गीता में विन्दु-ध्यान या दृष्टि-साधन तथा सुरति-शब्द-योग या नादानुसन्धान की अनिवार्यता बतलायी गई है। गीता के छठे, आठवें तथा नौवें अध्याय का मुख्य विषय दृष्टि-साधन और नादानुसन्धान ही है। छठे अध्याय में दृष्टि-साधन का विशद विवेचन प्राप्त होता है। यथा-
   “तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
       उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ।।” अ0 6 श्लोक 12
  “समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
     संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।” अ0 6, श्लोक 13
 अर्थात् वहाँ मन को एकाग्र करके चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में किया हुआ अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे। उसकी विधि इस प्रकार है, काया, शिर और गले को समान और अचल धारण किये हुए दृढ़ होकर अपनी नासिका के अग्र देखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ स्थित रहे।
 यहाँ दो विवादास्पद विचार-विन्दु हैं, जिनकी समीचीन व्याख्या के अभाव में गीताकार के मूल प्रयोजन की अवधारणा नहीं हो पायेगी। नासिकाग्र से नासिका के अग्रभाग को यदि लिया जाय, तो निश्चित ही सुरत की यात्रा ऊर्ध्वमुखी नहीं हो पाएगी, अतः ज्योति का दर्शन संभव नहीं होगा। आँख खोलकर नासाग्र को देखना समझा जाय, तो देखने में कोई-न-कोई दिशा अवश्य होगी, अतः “दिशश्चानवलोकयन्य् अर्थात् दिशाओं को न देखते हुए सुरत-द्वारा देखना यहाँ अभिप्रेत है। यहाँ परम पूज्य महर्षिजी के विचारों का अवलोकन करना अप्रासंगिक नहीं होगा। अपने ग्रन्थ ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ में इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण भ्रांति निरस्त करते हुए जिस आलोकमयी वाणी में विवेचन किया है, वह अभूतपूर्व है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा है- “दिशाओं को नहीं देखते हुए नासिकाग्र में देखो। यहाँ विचारणीय है कि दिशाओं को नहीं देखने के लिये आँखों को बन्द करना होगा अथवा उन्हें खोलकर देखना होगा? चारों सीधी ओर, उसके चारों कोने और ऊपर तथा नीचे ये दश दिशाएँ हैं। आँखों को खोलकर देखने से कोई-न-कोई दिशा अवश्य देखी जायेगी; परन्तु आँखों को बन्द कर और बाहर के ख्यालों को छोड़कर देखने से दिशाओं का देखना छूटेगा।” संत कबीर साहब की वाणी से भी शास्त्र में वर्णित ‘अमादृष्टि’ का संकेत मिलता है:-
 “नयनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
  पलकों की चिक डारिके, पिय को लिया रिझाय ।।”
 आँख, कान और मुख को बन्द कर ध्यान करने का आदेश गुरु नानकदेवजी भी करते हैं-
‘तीन बन्द लगाय कर, सुन अनहद टंकोर ।’
 संत सूरदास ने भी इसी भाव को दर्शाते हुए कहा है-
 “नैन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को बास ।
  अबिनासी विनसै नहीं, हो सहज ज्योति परकास ।।”
                                       (कल्याण वे0 अंक, 1993 वि0 स0)
 महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज ने अपनी दिव्य अमृतोपम वाणी में स्पष्टतापूर्वक गीतोक्त भाव को दर्शाया है-
 “धर गर मस्तक सीध साधि, आसन आसीना ।
  बैठि के चखु मुख मूनि, इष्ट मानस जप ध्याना ।।”
  ग् ग् ग्
 “दोउ नैना बिच सन्मुख देख । इक बिन्दु मिलै दृष्टि दोउ रेख ।।”
 गीता के आठवें अध्याय में नादानुसन्धान की स्पष्ट चर्चा हुई है। श्लोक संख्या 12 तथा 13 द्रष्टव्य हैं-
 “सर्वद्वारणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
  मूध्र्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।।”
 ग् ग् ग्
 “ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।”
 अर्थात् पुरुष सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय (योग हृदय केन्द्र) में स्थिर करके और अपने प्राण को मूर्द्धा में स्थापन करके ‘ॐ’ इस एक अक्षर रूप सत् ध्वनि को उच्चारण करता हुआ, उसके अर्थ रूप ब्रह्म का चिन्तन करता हुआ स्थित रहे। मूर्द्धा में प्राण का स्थापन करने से तुरीयावस्था का अभिप्राय है, जिसकी प्राप्ति ॐ सत् ध्वनि के अवलम्बन द्वारा संभव है। अतः इसे नादानुसन्धान समझना चाहिए। पुनः छठे अध्याय में भी नादानुसन्धान की चर्चा की गई है-
                   “पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
                    जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्तते ।।” श्लोक 44
 अर्थात् पूर्व जन्मों में किये गये अभ्यास इतने प्रबल होते हैं कि वे साधक को पुनः अन्तः साधन में नियुक्त कर देते हैं तथा साधक शब्दब्रह्म अर्थात् नादानुसन्धान-द्वारा नाद-मंडल को पार कर परमात्म तत्त्व की प्राप्ति कर लेता है। सन्त कबीर की वाणी में भी समान भाव उच्चरित हुआ है:-
 “सब्द-सब्द बहु अन्तरा, सार सब्द चित्त देय ।
  जा सब्दै साहब मिलै, सोई सब्द गहि लेय ।।”
 गुरु नानकदेवजी ने भी निम्न पंक्तियों में नादानुसन्धान की चर्चा की है।
 “सभि सखिया पंचे मिलै गुरमुखि निज धरि वासु ।
  सबदु खोजि इहु घर लहै नानक ता का दासु ।।”
 महर्षि मेँही परमहंसजी के नादानुसन्धान की अद्वितीय व्याख्या गीता से पूर्ण साम्य रखती है-
 “नाद से नादों में चलि धरु, प्रणव सत ध्वनि सार ।
  एक ओऽम् सतनाम ध्वनि धरि, मेँहीँ हो भव पार ।।”
 वेदान्त जिसे अपरोक्षानुभूति कहता है, उसकी प्राप्ति मात्र ‘मैं ब्रह्म हूँ’, इस भावना द्वारा क्या संभव है? ब्रह्मानुभव समाधि की स्थिति में ही संभव है, जिसकी प्राप्ति ध्यान-योग (दृष्टि-साधन, नादानुसन्धान) द्वारा ही संभव है। इस योग का एक बार आरंभ कर देने से यदि बीच में व्यतिक्रम भी हो जाय, तो प्रयास व्यर्थ नहीं जाता। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -
          “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
     स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात् ।।” अ0 2, श्लोक 40
 अर्थात् इस योग के आरंभ का नाश नहीं है, और उल्टा फल रूप दोष भी नहीं होता है। इसलिये इस ‘योग-धर्म’ का स्वल्प साधना भी मानवेतर योनियों में जन्म लेने के भय से त्रण देता है। सन्त कबीर ने भी समान भाव को व्यक्त करते हुए कहा है-
 “भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनंत ।
  ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।”
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ में उपर्युक्त श्लोक पर टिप्पणी देते हुए अपने विचारों को व्यक्त किया है- “योगारम्भ-रूप संस्कार जब अभ्यासी के अन्दर बीज रूप से पड़ जाता है, तबसे वह उसके साथ तबतक वर्त्तमान रहता है, जबतक अभ्यासी को मोक्ष और परम शान्ति न मिल जाय।”
 गीता पूर्ण आध्यात्मिक गंथ है। अध्यात्म की अट्टालिका सदाचार की दृढ़ नींव पर ही निर्मित हो सकती है। गीता के सोलहवें अध्याय में जिस दैवी सम्पद् की चर्चा की गई है उसका सदाचार से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि सदाचार की स्थापना हो जाय तो व्यक्ति और समाज का जीवन स्वर्गिक आभायुक्त हो जाय-
 “अभयं सत्त्वसशुद्धिज्ञानं योगव्यवस्थितिः ।
 दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ।।” अ0 16, श्लो0 1
 ग् ग् ग्
  “अहिसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
   दयाभूतेष्वलोलुप्वं मार्दव ह्रीरचापलम् ।।” अ0 16, श्लो0 2
 अर्थात् दान से चौर्य वृत्ति का निरोध होता है? दम अर्थात् इन्द्रिय-निग्रह से व्यभिचार का निषेध होता है। इसी प्रकार अहिंसा और सत्य से सहज ही हिंसा और असत्य का त्याग हो जाता है। अचपल बुद्धि से शास्त्र-विरुद्ध कर्म जैसे नशा-सेवन आदि का स्पष्ट निषेध हो जाता है। इस प्रकार सन्तों ने जिसे पंच पाप कहा है, गीता में इस दैवी सम्पत् की विवेचना में उससे (पंच पाप से) सहज ही मुक्ति का पथ प्रशस्त हो जाता है। सन्त कबीर ने भी सदाचार पर जोर देते हुए कहा है-
 “साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाका हृदय साँच है, ताके हृदय आप ।।”
 गुरु नानक देव की उक्ति भी सदाचार के प्रसंग में द्रष्टव्य है:-
‘सूचै भांडे साचु समावै बिरले सूचाचारी ।’
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने गीतोक्त सदाचार की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए पंच पाप से बचने का आदेश दिया है-
 “सत्य सोहाता वचन कहिय, चोरी तज दीजै ।
  तजिय नशा व्यभिचार तथा हिंसा नहीं कीजै ।।”
 विशद विवेचन से यह स्पष्ट है कि “श्रीमद्भगवद्गीता” में वर्णित मोक्ष मार्गों का अद्भुत साम्य संत-वाणियों में पाया जाता है। इस प्रकार भारतीय अध्यात्म-चिन्तन धारा जो निगम और आगम से प्रारंभ हुई है अव्याहत रूप से मध्ययुगीन संत-महात्माओं से होती हुई अद्यतन संत महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज तक चली आयी है। ऐसा लगता है कि गंगोत्री से पुण्यतोया जाह्नवी की पावन धारा निःसृत होकर असंख्य धारों से होती हुई तापत्रय से संतप्त प्राणियों को अमृतोपम शीतलता प्रदान करती हुई गंगासागर में जाकर मिल गई है। भिन्न-भिन्न घाटों की गंगा का रूप माधुर्य बाह्यतः भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हुए भी उसका आन्तरिक तत्त्व समान भाव से निज स्वरूप में अक्षुण्ण रहता है।
 इसी प्रकार संतों के नाम-रूप भिन्न होने के कारण भिन्नता भासते हुए भी उनकी सत्यानुभूति सर्वथा एक और अपरिवर्त्तनीय है। सत्य की अभिव्यक्ति की शैली में पार्थक्य और वैविध्य संभव है, किन्तु अभिव्यक्त सत्य त्रिकालाबाधित, अखंड और एक है।
धर्म का स्वरूप और महर्षि मेँहीँ [डॉ0 गायत्री सिन्हा, जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर (म0 प्र0)]
 धर्म क्या है? यह मानव-जीवन के लिए एक गूढ़ प्रश्न है। जबसे मानव-सभ्यता प्रारंभ हुई है, मनुष्य धर्म के अर्थ को समझने की चेष्टा करता रहा है; किन्तु सारे प्रयासों के बाद हम में से कुछ व्यक्ति ही धर्म के वास्तविक अर्थ को समझते हैं। प्रश्न यह उपस्थित होता है कि मानव के मन में धर्म के अर्थ को समझने की एक तीव्र इच्छा क्यों रहती है? आज का युग विज्ञान का युग है। ऐसे समय में धर्म की चर्चा करना या तो मूर्खता समझी जाती है या पिछड़ापन; पर हम देखते हैं कि आज धर्म को समझने की अधिक आवश्यकता है। यदि यह कहा जाय कि मानव-जीवन में धर्म की आवश्यकता है, मानव, धर्म के बिना नहीं रह सकता है; क्योंकि मानव एक धार्मिक प्राणी है, तो यह अत्युक्ति नहीं होगी। मानव-विकास के साथ-साथ धर्म किसी-न-किसी रूप में उसके साथ अभिन्न रूप से जुड़ा रहा है; अतः सबसे पहले धर्म के वास्तविक अर्थ को समझना आवश्यक है। धर्म का अर्थ वास्तव में बहुत व्यापक है। धर्म को भारतीय दर्शन में मोक्ष-प्राप्ति का साधन माना गया है। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं-
 “धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रयः निग्रहः ।
  धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।। (मनुस्मृति, 3/9)
 धैर्य, क्षमा, काम-प्रवृत्तियों का दमन, चोरी न करना, पवित्रता, आत्मसंयम, बुद्धि, ज्ञान, सत्य बोलना, क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं। यदि धर्म की इस परिभाषा को स्वीकार किया जाये, तो हमें मानना पड़ेगा कि कोई भी मनुष्य नास्तिक नहीं है। वास्तव में धर्म को उचित रूप से न जानने के कारण साधारण व्यक्ति धर्म को मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, पूजा-पाठ इत्यादि से जोड़ते हैं और जो व्यक्ति इनमें सक्रिय रूप से भाग नहीं लेता है, उसे नास्तिक समझा जाता है। वास्तविकता तो यह है कि चाहे कोई व्यक्ति इस समस्त कर्मकाण्ड से दूर रहता हो, पर इसका तात्पर्य यह नहीं होता है कि उसके जीवन का कुछ उद्देश्य या मूल्य नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, पुराने धर्मों का मत था कि ईश्वर में श्रद्धा न रखनेवाला नास्तिक है, नवीन धर्म कहता है अपने में श्रद्धा न रखने वाला नास्तिक है। धर्म का अर्थ है-‘धारण करना’। विश्व के सभी धर्मों का मूल मंत्र है, सर्वोच्च शुभत्व की प्राप्ति। भारतीय दशर्न में धर्म की विवेचना इसी उद्देश्य को सामने रखकर की गयी है। धर्म न तो बौद्धिक तर्क का विषय है, नहीं कर्मकाण्ड तक सीमित है। धर्म अन्धविश्वास भी नहीं है। धर्म सत्य का दर्शन एवं आत्मानुभूति है। धर्म वह नहीं, जिसे व्यक्ति भय या संवेग के कारण स्वीकार करे। धर्म वह है, जो मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को परिपूर्ण कर आत्मा का परमात्मा से मिलन करवाता है। धार्मिक चेतना आत्म-त्याग की चेतना है। गीतोपनिषद् में भी धर्म की व्याख्या इसी उद्देश्य से की गयी है। सांसारिक भोग के बन्धन से मुक्ति ही धर्म है। जो अपनी आत्मा के समस्त बन्धनों को तोड़कर आत्मा के सत्य स्वरूप को जानने की चेष्टा करते हैं, वे ही धार्मिक हैं। धर्म का उद्देश्य हमारी आत्मा में सर्वव्यापी आत्मा का अनुभव कराना है। अतः विश्व के समस्त धर्मों में अपनी आत्मा को जानने पर जोर दिया गया है। वास्तव में हम अपनी आत्मा के द्वारा अपनी उन्नति कर सकते हैं। गीता में कहा गया है-
 “उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
  आत्मैवध्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।”
 अर्थात् अपनी ही आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा का उद्धार करो, अपनी आत्मा को नीचे मत गिरने दो; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। मानव-जीवन का आदर्श परमतत्त्व को प्राप्त करना है और इस कार्य में मानव की आत्मा ही उसकी एक मात्र सहयोगी है। सीमित आत्मा का धर्म असीम को खोजना है, जहाँ पर उसे पूर्ण सन्तुष्टि प्राप्त होती है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे समझाते हुए कहा है, धर्म सीमित व्यक्तित्व की असीम व्यक्तित्व में मुक्ति है।
 यद्यपि धर्म मानव-जीवन का एक अपरिहार्य अंग है, तथापि प्रत्येक काल में धर्म विद्वानों के लिए एक आलोच्य विषय रहा है। धर्म के सम्बन्ध में कहा जाता है कि “धर्म की उत्पत्ति भय या लालच से होती है, जिससे मानव की उन्नति तो संभव है ही नहीं, वरन् अवनति ही संभव है; क्योंकि इस प्रकार से धर्म को मानने से मानव आलसी व कायर हो जाते हैं। उनकी अपनी क्षमता का ज्ञान उन्हें नहीं हो पाता। धर्म की आलोचना करते हुए मार्क्स कहते हैं कि ‘धर्म मानव के लिए अफीम के समान है।’ धर्म तार्किक भाववादी व विश्लेषणवादियों के समक्ष भी आलोचना का विषय रहा है। बट्रेण्ड-रसेल के अनुसार-‘जिन मनुष्यों में धार्मिक विश्वास अधिक होते हैं, उन मनुष्यों में उन गुणों की मात्र कम होती है, जो मनुष्य को सुखी कर सके।’ इन आलोचनाओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जहाँ तक अन्ध-विश्वासों व रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वहाँ तक उपर्युक्त आलोचनाएँ उपयुक्त हैं; क्योंकि धर्म के नाम पर प्राचीन समय से अनेक गलत प्रचार व अन्याय होते आ रहे हैं। कई धर्मप्रचारक आज भी लोगों के मन में भय व प्रलोभन जाग्रत् कर या उन्हें चमत्कार दिखाकर अपने वश में कर लेते हैं, जैसे एक जादूगर अपनी जादुई करिश्मा दिखाकर लोगों को चमत्कृत करता है। यह बात भी सर्वविदित है कि धर्म के नाम पर जो शोषण, अन्याय व धार्मिक सम्प्रदायों के झगड़े हुए हैं, उन सबका कारण धर्म के वास्तविक अर्थ को न समझना ही रहा है; परन्तु यदि धर्म को उसके वास्तविक अर्थ में लिया जाये, तो ये समस्त आलोचनाएँ निराधार सिद्ध होती हैं। धर्म का उद्देश्य मानव को अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता से मुक्त करके उसे दिव्य जीवन का मार्ग दिखलाना तथा उसे उस ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करना है। धर्म का अर्थ चमत्कार नहीं है। जो व्यक्ति अपने को भगवान् कहकर लोगों को रेत से रत्नाहार बनाकर देता है, वह अपने भक्तों को कभी मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग नहीं बता सकता; क्योंकि वह स्वयं पथ-भ्रष्ट है। धर्म का कार्य है मानव की आत्मा को पवित्र करना। जो धर्म को सही अर्थ में लेगा, वह जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति ही समझेगा; क्योंकि धर्म का एक मात्र लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। धर्म जब तक परम्परागत अन्धविश्वासों को तोड़कर व्यक्तिगत अनुभव नहीं बनता है, तब तक वह सच्चे अर्थ में धर्म भी नहीं कहला सकता है। धर्म मानव को एक आध्यात्मिक जीवन की ओर ले जाता है। विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के समान वैदिक धर्म का भी उद्देश्य आत्मा के स्वरूप को जानना है, मानव-जीवन के अन्धकार को दूर कर उसे दिव्य प्रकाश की ओर ले जाना है, समस्त दुःखों से व मृत्यु से मुक्त कर अमृतमय जीवन की ओर ले जाना है।
 समस्त जगत् में मानव मात्र ही धार्मिक प्राणी है; क्योंकि मानव केवल जड़ नहीं है, उसमें चैतनता है। इसी चेतनता के कारण मानव अद्वितीय है। मानव कुछ हद तक अपनी आवश्यकताओं के कारण पशु के समान प्रकृति पर निर्भर करता है। उनकी अनेक आवश्यकताएँ भौतिक जगत् से ही पूर्ण होती हैं, पर मानव केवल इसी भौतिक सुख से सन्तुष्ट नहीं होता है। मानव के अन्दर सृजनशील आत्मा है जो सदैव मानव को इस भौतिक स्तर से ऊपर उठने की ओर उत्साहित करती है। मानव-आत्मा विकासोन्मुख है। भौतिक सुख ही परम सुख नहीं है, अज्ञानता के कारण जब मानव भौतिक सुख को ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य मान लेता है, तब वह बन्धन में पड़ता है। ईशोपनिषद् में कहा गया है “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।” जब मानव केवल भौतिक सुख में लिप्त रहता है, तब वह केवल स्वार्थ तक ही सीमित रहता है, वह वास्तविक मानवता को नहीं जान सकता है, पर जब वह शरीर, प्राण एवं बुद्धि के बन्धन से मुक्त होता है, तब उसे यह बोध होता है कि मानव-जीवन का उद्देश्य केवल भौतिक सुख प्राप्त करना नहीं है और केवल मात्र अपने प्राण की रक्षा करने के लिए उसका जन्म नहीं हुआ है। उसके मन में प्रश्न उपस्थित होता है कि वह कौन-सी सत्ता है, जो अमर है, जो उसे सदैव ऊपर उठने को प्रेरित कर रही है? जब वह इस प्रश्न का समाधान खोजता है, तो वह पाता है कि शारीरिक सुख उसे सन्तुष्टि प्रदान नहीं कर सकते। तब वह बौद्धिक स्तर से भी ऊपर उठना चाहता है। बौद्धिक ज्ञान से मानव की अनेक समस्याओं का समाधान अवश्य होता है, परन्तु मानव जीवन की अनेक ऐसी जटिल समस्याएँ हैं, जहाँ पर बुद्धि की पहुँच नहीं है। उनका समाधान अन्तर्ज्ञान या आत्मानुभूति से ही सम्भव है। यही कारण है कि मानव-आत्मा सदैव जड़, प्राण और बुद्धि के बन्धन में अतृप्त रहती है। मानव सदैव यह सोचता है कि उसका वास्तविक स्वरूप क्या है? तब उसके मन में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मैं कौन हूँ? वास्तव में शरीर से परे उसे अपने व्यक्तित्व का ज्ञान चेतना के स्तर में होता है, जिसके माध्यम से वह अपनी अमरता, पूर्णता व शाश्वत स्वरूप को जानता है। वही दिव्यत्व की अनुभूति है, जो मानव को परमात्म-पद में पहुँचा देती है। मानव का अस्तित्व केवल मात्र परमात्मा के लिए है जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के बिना एक रेत के कण का अस्तित्व नहीं हो सकता है, उसी प्रकार परमात्मा के बिना मानव-आत्मा अस्तित्ववान् नहीं हो सकती है। विश्व के सम्पूर्ण धर्मों में भिन्न-भिन्न रूप से इसी सत्य को स्पष्ट किया गया है। वास्तव में मानवता ही धर्म का आधार है। मानव के अन्दर सत्य, शुभ, सौन्दर्य अन्तर्निहित है, वह अपने कर्मों, कला, विज्ञान, संगीत आदि के माध्यम से इसे अभिव्यक्त करता है। अथर्ववेद में कहा गया है-यद् यद् विभूतिमत् सत्व श्रृमदूर्जितमेववातत्तदेववावगच्छ त्म मम तेजोद्दंश सभ्वम्। समस्त ऐश्वर्य, श्री, श्रेष्ठता वह परम आत्मा का ही अंश है।
 जबतक मानव अपनी आत्मा का साक्षात्कार नहीं करता, वह इस संसार में पशुवत् जीवित रहता है। मानव के पास इन्द्रियाँ हैं और ये इन्द्रियाँ मानव को सदैव बाहर की ओर आकर्षित करती हैं। यही कारण है कि मानव अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को भूलाकर इन्द्रिय-सुख को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य मान बैठा है। इस बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण मानव एक उद्देश्यहीन बहाव में ठीक उसी प्रकार बहता जा रहा है; जैसे नदी की तेज धार में एक तिनका बहता है। इस निरुद्देश्य जीवन में अपने व्यक्तित्व को जानना असम्भव है। अपने व्यक्तित्व का विकास आत्मज्ञान से ही संभव है। आत्मज्ञान हमें तब प्राप्त होता है, जब हम अपनी इन्द्रियों को वश में कर उन्हें अन्तर्मुखी बनाते हैं। अन्तर्मुखी वृत्ति से ही आत्मा पवित्र होती है। जब तक मानव अपनी आत्मा को नहीं जानता, वह अनेक प्रकार के अधर्मों में लिप्त रहता है, पर जब वह अपनी आत्मा के रहस्य से अवगत होता है; तो वह इन अधर्मों का पूर्णतः त्याग कर देता है। आत्मज्ञानी पुरुष केवल अपने हित के लिये कार्य नहीं करता है, अपितु वह विश्व के हित के लिए, समस्त मानव के हित के लिए कार्य करता है। जिस प्रकार सूर्योदय से अन्धकार प्रकाश में बदल जाता है और समस्त वस्तुएँ उस प्रकाश में स्पष्ट दिखाई देती हैं, उसी प्रकार मानव की आत्मा जब प्रकाशित होती है, तो समस्त कुंठाएँ तथा सीमित धारणाएँ समाप्त हो जाती हैं। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है-
 “भिद्यते हृदय-ग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्व संशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिनदृष्टे परावरे।।”
 आत्मज्ञानी पुरुष राग, द्वेष, काम-क्रोध से मुक्त होकर समस्त मानव में ईश्वर के स्वरूप को देखता है। जीव एवं जगत्, उसके लिए ईश्वर के ही रूप हो जाते हैं। यही नर-नारायण की भावना है। यही विश्व-बन्धुत्व की भावना है, इसे ही वसुधैव कुटुम्बकम् कहा गया है और यही धर्म का मूल रूप है। यह भावना धर्म के माध्यम से ही मानव के मन में आ सकती है। जिस व्यक्ति को आत्मज्ञान हो जाता है, वह सम्पूर्ण मानव को आत्म-साक्षात्कार के लिए प्रेरित करता है। वास्तव में आत्मज्ञान का मार्ग बहुत कठिन है। इस मार्ग का निर्देश आत्मज्ञानी ही कर सकते हैं। कठोपनिषद् में कहा गया है-उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति। आत्मज्ञानी व्यक्ति धर्म को भी उसके वास्तविक अर्थ में ग्रहण करता है। मृत्यु-भय के कारण व अपनी प्रिय वस्तु के खोने के डर से मानव अपने व्यक्तित्व का समुचित रूप से विकास नहीं कर पाता है; पर जब मानव अपनी आत्मा के माध्यम से परमात्मा को जानता है, तो वह अनुभव करता है कि वह अमृत का पुत्र है, मृत्यु उसे स्पर्श नहीं कर सकती; क्योंकि उसकी वास्तविकता अमर आत्मा ही है। वह अपना सर्वस्व इस परम आत्मा को अर्पित करने के लिए तत्पर रहता है। यह वास्तव प्रेम की अवस्था है। प्रेम के वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है। प्रेम के द्वारा ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है। यह आत्म-प्रेम मानव में जाग्रत होता है, जब वह सम्पूर्ण मानव को अपना ही समझे। यह अनुभूति तर्क या बुद्धि से परे आंतरिक अनुभूति है, जो रहस्यात्मक होती है। मानव को अपने सीमित आत्मा में ही असीम आत्मा का बोध होता है, यह तभी संभव है, जब मानव अपनी आत्मा को सीमित बन्धन से मुक्त समझता है। धर्म मानव को यह प्रेरणा देता है कि इस संसार के माया-जाल से मुक्त होकर असीम आत्मा को जाने, जो आनन्दमय है, सत्य है, शिव है, सच्चिदानन्दस्वरूप है; परन्तु प्रत्येक मानव इसे नहीं जान सकता है; क्योंकि प्रत्येक मानव की आत्मा का स्तर अलग-अलग है, इसीलिए कठोपनिषद् में कहा गया है-एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मान प्रकाशते। दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।। ईश्वर के साक्षात्कार के लिए व्यक्ति को अपना हृदय निर्मल, निष्पाप, निश्छल रखना चाहिए। जब शरीर के समस्त पाप, कलुष दूर हो जाते हैं, तब ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इसे कठोपनिषद् में इस प्रकार बताया गया है-
‘तमक्रतुः परमति वीतशोको धातु प्रसादान्यहिमानमात्यनः।’
 आत्मा को निष्पाप बनाने के लिए ही धर्म की आवश्यकता पड़ती है। वास्तव में आत्मा निष्पाप है और हमें उसका साक्षात्कार करना चाहिये। छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि आत्मा निष्पाप है, आत्मा अमर है, व्याधि-रहित है, भय-रहित है, तृष्णा-पिपासा-रहित है। आत्मा सत्यसंकल्प है, हमें इसी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। इस आत्मा को जानने से समस्त वासनाओं, तृष्णाओं से शान्ति मिल जाती है। वास्तव में यही मोक्ष की अवस्था है, जो मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जब मनुष्य धर्म को भूल कर अधर्म को अपनाता है, तो मानव का नैतिक पतन होता है और उस समय भगवान् अवतार के रूप में जन्म लेकर धर्म के मार्ग को आलोकित करते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
 “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।”
 भारतवर्ष के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से स्पष्ट होता है कि भारतवर्ष अवतारों व सन्तों की लीलाभूमि रही है। राम, कृष्ण, चैतन्य महाप्रभु, श्रीरामकृष्ण परमहंस, कबीर, गुरु नानक जैसे अवतारों व सन्तों ने इसी देश में जन्म लिया और अपने योग, तप तथा साधना के बल पर धर्म की स्थापना की है। आधुनिक भारतीय चिन्तकों में विवेकानन्द, गाँधी, श्री अरविन्द तथा महर्षि रमण आदि ने इसी परम्परा को आगे बढ़ाया। भारतीय सन्तों की गौरवशाली परम्परा में महर्षि मेँहीँ का अपना विशिष्ट स्थान है।
 महर्षिजी ने सैद्धान्तिक रूप से धर्म के स्वरूपादि का विधिवत् शास्त्रीय विवेचन नहीं किया है, पर उनके सम्पूर्ण साहित्य में धर्म के स्वरूप, उद्देश्य, आदर्श आदि का निर्वचन फुटकल रूप में मिलता है। उनकी मान्यता है कि धर्मों में सुमेरु है ईश्वर की मान्यता। महर्षिजी ने अपने एक प्रवचन में कहा है- “जैसे प्रत्येक जप करने की माला में सुमेरु होता है, वैसे ही संसार में सुमेरु पर्वत सबसे ऊँचा है; उसी तरह धर्मों में सुमेरु ईश्वर की मान्यता है। ईश्वर की मान्यता को हटा दो, तो धर्म उथल-पुथल हो जायगा-धर्म मिट जायगा। किसी भी धर्म में, जहाँ ईश्वर की मान्यता नहीं है, वहाँ धर्म का भाव अवश्य डगमग रहेगा।” (सत्संग-सुधा, द्वितीय भाग, पृ0 109) अर्थात् महर्षि जी की ऐसी भावना है कि धर्म के मूल में ईश्वर की मान्यता है। बिना ईश्वर के धर्म की कल्पना निष्प्रयोजन और व्यर्थ है। वहाँ धर्म के स्थायित्व का कोई संभावना नहीं है। महात्मा कबीर दास जी ने ठीक ही कहा है-
‘संगत ही जरि जाय न चर्चा राम की। दूलह बिना बारात कहो किस काम की।’
 धर्म-रूपी बारात का दूल्हा परमात्मा है। वह धर्म-स्थान व्यर्थ है जहाँ राम की अर्थात् परमात्मा की चर्चा नहीं होती। इससे स्पष्ट है कि संतमत की मान्यता के अनुसार धर्म का मूल ईश्वर-विषयक मान्यता है।
 इस ईश्वर के स्वरूप की चर्चा महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के साहित्य में विस्तार से की गई है। उनके विचार से वह प्रभु ‘अकथ अनामी सब पर स्वामी गो गुण प्रकृति परे’ हैं। उसका वर्णन शब्दों से संभव नहीं है। वह अदेशी भी है और सर्वदेशी भी। वह अनादि, अनन्त, सर्वप्रिय कन्त और सर्वव्यापक है। रंग-रूप और रेखाओं से न्यारा वह प्यारा पीव सर्वाधार है। क्षर-अक्षर से पार वह परमाक्षर प्रभु ही ऐसा है जिसका भजन कर जीव भवसागर को पार कर सकता है। “यह जो भूतल है, एक महान टापू है। इसमें कई महादेश हैं, सब मिलाकर महान् टापू है। इन सबको जिधर पार करो, उधर ही जल है। उसी तरह सृष्टि के तत्त्वों को जिधर पार करो, उधर ही ईश्वर है। ईश्वर का स्वरूप और उसका ज्ञान ऐसा देकर सन्तों ने कहा है-ईश्वर भजन करो। भजन वही है, जिससे सृष्टि के सब तत्त्वों को पार कर ईश्वर को पहचाना जा सके। इसी को हमलोग सोचते, समझते और विचारते हैं।” -(सत्संग-सुधा, द्वितीय भाग, पृ0 112)
 स्पष्ट है कि धर्म की जड़ ईश्वर-विषयक मान्यता है। वह ईश्वर अद्वय, अकथ, अनामी और अनन्त है, उसका भजन कर ही उसको पाया जा सकता है। जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं हुआ, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हुई और जिसका चित्त असमाहित अर्थात् अशान्त है, वह ईश्वर को आत्म-ज्ञान के द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता।
 ईश्वर को देखने के लिए काम-क्रोधादि मनोविकारों से मुक्त होना होगा। सच तो यह है कि ‘ईश्वर का दर्शन अपने अंदर में होता है, बाहर में नहीं। बाहर मायिक दृष्टि से देखा जाता है। ईश्वर इस दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। अन्तर की आत्म-दृष्टि से देखा जाएगा।” और इस प्रकार ईश्वर-दर्शन प्राप्त कर लेना ही जीवन की चरम सार्थकता है। ईश्वर-दर्शन-प्राप्त आत्मा के स्वरूप की चर्चा भी महर्षि जी ने विस्तार से की है-
 “जो मारे मरै ना, जो काटे कटै ना ।
जो साड़े सड़ै ना, जो जारे जरै ना ।।
जो सोखा न जाता, सोखे से कछू भी ।
नहीं टारा जाता, टारे से कछू भी ।।
नहीं जन्म जाको, नहीं मृत्यु जाको ।
नहीं बाल जौबन, जरापन है जाको ।।
जिसे नाहि होती, अवस्था हू चारो ।
नहीं कुछ कहाता, जो वर्णहु में चारो ।।”
 महर्षि मेँहीँ जी के ये शब्द वेद तथा उपनिषदों की परम्परा के अनुरूप अत्यन्त सरल रूप में मानव-जीवन के सर्वोच्च सत्य को उद्घाटित करते हैं। महर्षिजी के विचारों एवं अनुभूतियों के अनुशीलन से निश्चित रूप से मानव-मात्र को त्रिविध तापों से मुक्ति और आत्मानन्द की ओर उन्मुखता प्राप्त होगी। मानव-जीवन की चरम सार्थकता ईश्वर की प्राप्ति ही है और धर्म का यही परम लक्ष्य है।
महर्षि मेँहीँ का आत्म-साक्षात्कार
-डॉ0 बी0 पी0 शर्मा (चंडीगढ़)
 महर्षि मेँहीँ ‘संतमत’ के पोषक एवं प्रचारक हैं। इन्होंने ‘वेद-दर्शन-योग’ रचना में वैदिक दर्शन एवं संतमत को समानांतर माना है। हिन्दी साहित्य में मध्ययुगीन संत-भक्ति काव्य स्वामी रामानंद द्वारा प्रवर्तित वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की उपज है। मध्ययुगीन सुलतानी शासन काल में आर्य धर्म-संस्कृति और इस्लामी मजहब में संघर्ष चल रहा था। सिकन्दर लोदी जैसे आततायी एवं आतंकवादी शासक भारतीय धर्म-संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने में प्रयत्नशील थे। परिणामतः भारतीय संस्कृति सुलतानी शासकों द्वारा खण्डशः किए गए देवालयों के ध्वंसावशेषों पर खड़ी सिसक रही थी। भारतीय इतिहास के ऐसे आतंक भरे कुशासन काल में स्वामी रामानंद ने ऊँच-नीच वर्गों से द्वादशादित्य रूप अपनी शिष्य मण्डली का (अनंतानंद ब्राह्मण से चमार संत रविदास तक) संगठन कर सभी भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँधने का भगीरथ प्रयत्न किया था। अपने अधिकतर अपठित शिष्यों को ‘बहुश्रुत’ बनाया और विशिष्टाद्वैती भक्ति पद्धति के अनुसार सगुण-निर्गुणोपासना के विवाद में पड़ कर उपासक को साकार-निराकारोपासनार्थ अपनी भावभूमि पर खड़ा होने की स्वतंत्रता दे दी। संतमत की ऐसी ही कुछ पृष्ठभूमि है।
 ‘संत’ शब्द ‘ऋषि’ शब्द का पर्यायवाची है। ऋग् वेदानुसार-‘ऋषिः सः यो परहितः’। महाभारत के अनुसार-‘संत परहिते विहिताभियोगाः’ और श्रीमद्भागवत के अनुसार-‘संतश्चार लक्षणाः’। अतः मध्ययुग से प्रचलित ‘संत पद’ का वही व्यक्ति अधिकारी है, जो दिव्यद्रष्टा हो ब्रह्मज्ञानी हो, सदाचारी एवं परोपकारी हो तथा जिसने अपना जीवन ब्रह्म साधना और परहिताय समर्पित कर दिया हो। महर्षि मेँहीँ के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के अध्ययन से संत शब्द की उपर्युक्त सभी परिभाषाएँ उपयुक्त एवं यथार्थ जान पड़ती हैं। महर्षिजी के वास्तविक नाम- “रामानुग्रह लाल दास” से यह सत्य साबित होता है कि राम के अनुग्रह से ब्रह्म-साधना में इनकी लगन अबोध अवस्था से ही चली आ रही है। ब्रह्म से तादात्म्य भाव होने पर इनका नाम स्वयमेव ‘मेँहीँ’ में परिवर्तित हो गया-‘राम मुझ में है, मैं राम में हूँ’।
 वास्तव में जीवात्मा ब्रह्म का अंश है, इसी तथ्य के अनुसार नर से नारायण = (नर + अयन) शब्द बना, अर्थात् नर नारायण का निवास-स्थान है। पंचभौतिक नश्वर शरीर में स्थित आत्मा परम-आत्मा का अंश है, प्रत्येक नरदेह में स्थित आत्मा मानव को असत्याचरण, भ्रष्टाचार एवं अनाचार से रोकती है, पर सांसारिकता में फँसा मानव आत्मा की आवाज को दबाए रखता है। आत्मा का अनुसरण करने से दुर्लभ मानव-जन्म लौकिक-अलौकिक दृष्टि से सफल हो सकता है और इसके विपरीत आत्म हनन द्वारा अपना सर्वनाश करता है। इसीलिए गीता में कहा गया है-
‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मेव रिपुरात्मनः ।।’ (6/5)
 ब्रह्म सच्चिदानंदस्वरूप है। आनंदमय प्रभु से मानव-सृष्टि होती है:-
‘आनन्दात् खलु इमानि भूतानि जायन्ते अन्ते च आनन्दमेव प्रविशन्ति ।’
 अतः सांसारिक जीव नश्वर देह के द्वारा अपने घट भीतर आनंदमय प्रभु की स्थिति का अनुभव करता हुआ ऊँचा उठ कर आनंदमय जीवन व्यतीत कर सकता है। इसके विपरीत चंचल इन्द्रियों के वशीभूत मानव चोर, डाकू, व्यभिचारी आदि सभी कुछ बन सकता है। अतः नर नग है, हीरा है। एक मात्र ‘सेवा सुमिरण’ के द्वारा यह वह चमक सकता है एवं यशस्वी-मनीषी बन सकता है-
 “नर देही से नारायण मिले, नर देही से अघ सब खिलै ।
  ऐसो नर नग जाई अक्यारथ, सेवा सुमिरण यही बड़ स्वारथ ।।”
 महर्षि मेँहीँ के जीवन का यही लक्ष्य रहा है कि ‘सेवा-सुमिरण-ध्यान’ के द्वारा मानव स्वयं ऊपर उठ सकता है तथा देश-समाज को भी उन्नत कर सकता है। इनका किसी मतमतान्तर से विवाद नहीं और न तो इनकी विचार-धारा में किसी मत-वाद के खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति है। महर्षिजी के ‘सुरत-शब्द-योग’ के अनुसार योगी अथवा साधक का एकमात्र लक्ष्य अपने उपास्य देव से एकाकार होना है। ऐसी साधना से साधक अपने ध्येय में ‘मैमंता’ हो उठता है। योगियों ने इस स्थिति को ‘सुरति’ कहा है। योग दर्शन में इस स्थिति को सविकल्प समाधि कहा गया है और इस प्रक्रिया की चरम सिद्धि निर्विकल्प समाधि होती है, जिसे संत-भाषा में ‘निरति’ कहा गया है। इस स्थिति में ध्याता और ध्येय में पृथक्ता नहीं रहती। महर्षि मेँहीँ का जीवन सुरति-शब्द-योग-साधना के माध्यम से देश-समाज-सेवार्थ समर्पित है। अतः महर्षि मेँहीँ नर-नग हैं, हीरा हैं। उत्तरी भारत में इनकी चमक सर्वत्र है। ऐसी साधना के द्वारा महर्षिजी ने अपने जीवन को सार्थक बनाया है। इनका यशः सौरभ सर्वत्र फैल रहा है। इनकी सौवीं जन्मशती के शुभ अवसर पर इनके चरणों में ‘मैं’ अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ।
श्रीमद्भगवद्गीता का निष्काम-कर्मयोग और महर्षि मेँहीँ परमहंसजी [डॉ0 इकबाल नारायण चौपड़ा]
 शताब्दियों से श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय समाज में आध्यात्मिक भावना का मूल आधार बनी चली आ रही है तथा अपने सिद्धान्तों के द्वारा इसके भाग्य का निर्माण कर रही है। गीता प्रस्थानत्रय, उपनिषदों और ब्रह्मसूत्र के एक भाग के रूप में कार्य कर रही है, यह कथन कितना सही है, “सम्पूर्ण उपनिषद् गौ के समान हैं, गोपालनन्दन श्रीकृष्ण दोहनेवाले हैं, अर्जुन बछड़ा है तथा महान् गीतामृत ही उस गौ का दुग्ध है और शुद्ध बुद्धि वाला श्रेष्ठ मनुष्य ही इसका भोक्ता है।” गीता पर अनेक महत्त्वपूर्ण सारगर्भित व्याख्याएँ हो चुकी हैं; परन्तु वास्तव में गीता का माहात्म्य वाणी-द्वारा वर्णन करना असंभव है; क्योंकि यह एक परम पवित्र रहस्यमय ग्रन्थ है।
 गीता का आरम्भ अर्जुन के विषाद से होता है, जब मोह में व्याप्त अर्जुन कायरता, स्नेह और शोक-युक्त वचन कहकर अपने विशिष्ट कर्त्तव्य अथवा युद्ध करने से इनकार करता है। इस प्रकार का संकट केवल अर्जुन के सामने ही नहीं; परन्तु उन सभी मनुष्यों के सम्मुख है; जो अपने जीवन में कभी-न-कभी अपने कर्त्तव्यों के संघर्ष से जूझते हैं।
 नैतिक संकट प्रत्येक मनुष्य में आता है। आज हमारे समाज में नैतिक संकट सर्वत्र परिलक्षित हो रहा है। समाज में अधिकतर मनुष्य अपना कर्त्तव्य नहीं कर रहे हैं। भारत अमीर होते हुए भी गरीब है। भारत में प्रत्येक प्रकार की प्राकृतिक सम्पदा है, परन्तु उसका सही उपयोग नहीं हो रहा है। तस्करी, चोरबाजारी, लूटमार, बलात्कार, व्यभिचार, रिश्वतखोरी, अवसरवादिता, सामाजिक अन्याय आदि नैतिक दोष सर्वत्र दिखाई पड़ रहे हैं। इन बुराइयों का कारण “मनुष्य का अपने कर्त्तव्य से च्युत होना” है। प्रत्येक कार्य करते हुए मनुष्य अपने लाभ को ही सामने रखता है। कर्त्तव्य की भावना नहीं के बराबर है। मनुष्य वस्तुओं की चमक-दमक के पीछे दौड़ रहा है, जिससे समाज में मनुष्य, मनुष्य के गुणों से वंचित हो रहा है। मनुष्य अनैतिकता में जकड़ गया है।
 आसक्ति भी कर्त्तव्य-परायणता में बाधक है। राग से इन्द्रिय-सुख, इन्द्रिय-सुख से विषय का चिन्तन और फिर विषयों के चिन्तन से उनकी कामना की उत्पत्ति होती है। कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अविवेक मूढ़ाभाव बढ़ता है, अविवेक से स्मृतिभ्रम आदि का दोष उत्पन्न होता है तथा फिर ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है। भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आकर्षण एवं इच्छा मनुष्य के दुःखों, कष्टों, दुर्गति का कारण है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार भी दुःखों के कारण हैं, जो मनुष्य को पथभ्रष्ट कर रहे हैं एवं असुरक्षा की ओर ले जा रहे हैं। इन सब बुराइयों के कारण मनुष्य अपनी श्रेयसिद्धि नहीं कर पा रहा है। सकामी मानव सुख की इच्छा करता है और उसके पीछे ही दौड़ रहा है; परन्तु भौतिक सुखों का कभी अन्त नहीं होगा। इच्छाएँ हमेशा बढ़ती ही जाती हैं; एक की प्राप्ति के बाद दूसरी उभर आती है और उसकी प्राप्ति के बाद तीसरी। इनका क्रम जीवन-पर्यन्त चलता है; किन्तु सुख फिर भी नहीं मिल पाता, अतः भौतिक सुख जीवन का ध्येय नहीं हो सकता; क्योंकि यह क्षणभंगुर होता है, और क्षणिक वस्तुओं से संबन्धित नियम नैतिक नहीं हो सकते।
 गीता यह बताती है कि समाज में जब भी संकट का घटाटोप छा जाता है तथा अधर्म फैलता है और धर्म की ग्लानि होती है, तभी मानवता की माँग होती है कि वहाँ पर नैतिक पुनर्जीवन स्थापित हो। अनैतिकता, अधर्म, सामाजिक अन्याय हमेशा ही न छाया रहे; मानव सदैव दुःखों में न फँसा रहे, इनसे बचने का एक साधन निष्काम-कर्म-योग है, जिसकी सर्वोत्तम व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता में की गई है।
 निष्काम-कर्मयोग, मानव जीवन का सर्वोत्तम उद्देश्य, गीता का मुख्य प्रकरण है। विश्व के अधिकतर विद्वान् इससे सहमत हैं। महात्मा गाँधीजी सही ही कहते हैं कि आत्मसिद्धि गीता का सभी धार्मिक ग्रन्थों की तरह एक विषय है; परन्तु जीवन के दुःखों से बचाव के लिये कर्मों के फल का त्याग (निष्कामकर्म) एक अद्भुत उपचार है। गाँधीजी निष्काम कर्मयोग के स्थान पर अनासक्ति योग शब्द को अधिक महत्त्व देते हैं।
 निष्काम कर्मयोग तीन पदों का समूह है। ‘कर्म’ का शाब्दिक अर्थ है ‘जो किया जाए, ‘कार्य’। गीता में कर्म शब्द कई बार इस सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हुआ है; जैसे गीता में कहा है- “कोई भी पुरुष किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता।1 “वैदिक साहित्य में कर्म, शब्द, यज्ञ, दान, तप के अर्थ में प्रयुक्त होता है। गीता में भी कर्म शब्द कई बार इस अर्थ में आया है।2 गीता में इसका महत्त्वपूर्ण प्रयोग इस निम्न अर्थ में होता है-अपने रीति-रिवाजों, पूर्वजों से सीखे हुए और विशेष वर्ग तथा मनुष्य के कर्त्तव्य3, जिनको वर्ण धर्म या वर्णाश्रम धर्म भी कहा जाता है। कर्म का चतुर्थ अर्थ है, परमात्मा की श्रद्धाभाव से स्तुति4, परमात्मा को सभी कुछ अर्पण करने का कार्य; परन्तु वास्तव में तो गीता में कर्म शब्द तीसरे अर्थ में लिया गया है, जिसके अनुसार कर्म का अर्थ है सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखते हुए लोक-संग्रह के उत्थान के लिए स्वकर्त्तव्य अर्थात् स्वधर्म करना।
 ‘योग’ शब्द का अर्थ है-जुड़ा डालना या हल डालना, अनुपलब्ध की प्राप्ति, जोड़ना इत्यादि। श्रीमद्भगवद्गीता में योग शब्द का प्रयोग ‘युज्समाधौ’ तथा ‘युजिर् योगे’ दोनों अर्थों में हुआ है। गीता में योगी अर्थात् ऐसा मनुष्य, जो अपने-आप को समाधि में लीन कर देता है, सर्वोच्च श्रद्धा का अधिकारी माना जाता है। डॉ0 एस0 एन0 दास गुप्त कहते हैं, ‘वहाँ इस शब्द के प्रयोग के साथ एक यह विशेषता जुड़ी हुई है कि गीता ने एक ओर निर्गुण समाधिवाले तपःपूर्ण नियन्त्रण की प्रक्रिया और दूसरी ओर वैदिक ऋषियों के यज्ञादि कार्यों का सम्पादन करनेवाले एक नये प्रकार के योगी (युजिर् योग वाले अर्थ में) की धारणा, दोनों के बीच एक मध्यम मार्ग निकालना चाहा। ऐसा योगी, जो इन दोनों मार्गों के सर्वोत्तम आदर्शों का एक समन्वय अपने आप में स्थापित कर लेता है, अपने कर्त्तव्यों के प्रति सचेष्ट रहता है; किन्तु साथ ही उनके स्वार्थमय उद्देश्यों तथा आसक्तियों में लिप्त नहीं होता, वही सच्चा योगी माना गया है।’5
 तीसरा शब्द निष्काम है, ‘निष्काम का अर्थ है-फल की इच्छा छोड़ कर त्याग-भावना से कर्म करना। तीनों शब्दों एवं निष्काम-कर्मयोग का अर्थ है-सामाजिक कर्त्तव्यों को अनासक्ति, कर्म-फलों के त्याग एवं पूर्ण लगन के साथ करना, जिससे मनुष्य को अभ्युदय एवं निःश्रेयस् की प्राप्ति हो।
 कोई भी कर्म शुभ है, यदि यह आत्म-विश्वास अथवा आत्मनिर्भरता की उत्पत्ति है कर्म और धर्म एक दूसरे के पूरक हैं। निष्काम कर्म योग इन्हीं का ही समन्वय मात्र है। धर्म निरपेक्ष और शुद्ध रूप से सर्वथा मनुष्य की सांसारिकता और आध्यात्मिकता के लिए शुभ है। धर्म की प्रत्येक काल में स्थापना होनी चाहिए। परमात्मा धर्म की रक्षा के लिए युग-युग में किसी-न-किसी रूप में प्रकट होता है।6
 धर्म स्वः प्रकाशन एवं सिद्धि के लिए कर्म को अपना वाहन बना कर चलता है। इसका अभिप्राय है कि निश्चलता, जड़ता या स्थिरता किसी मनुष्य का जीवन-दर्शन नहीं हो सकता। कर्म करते रहना, उसका जीवन-दर्शन होता है।
 ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय, ये तीनों तो कर्म के प्रेरक हैं। इन तीनों के संयोग से तो कार्य में प्रवृत होने की इच्छा उत्पन्न होती है, कर्त्ता, करण और क्रिया, ये तीनों कर्म के संग्राहक हैं। इन तीनों के संयोग से कर्म बनता है। मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रनुसार अथवा विपरीत भी जो कार्य आरम्भ करता है, उसके पाँच ही कारण होते हैं।7 अधिष्ठान, कर्त्ता, करण अर्थात् इन्द्रियाँ, पृथक चेष्टाएँ तथा देव अर्थात् ईश्वर की सर्वोपरि शक्ति-ये पाँच कर्म के कारण हैं।8 यह विचारणा कि केवल आत्मा अथवा कर्त्ता ही करने वाला है, अनुचित है। अज्ञान एवं मिथ्याभिमान से ही मनुष्य अपने आपको कर्त्ता मानता है।9
 पृथ्वी में या इससे बाहर (स्वर्ग में) या देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं है, जो कि प्रकृति से उत्पन्न हुए इन तीन गुणों-सत्त्व, रजस्, तमस् से रहित हो; क्योंकि मानवमात्र सर्वजगत् त्रिगुणमयी माया का ही विकार है10 ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी गुण, कर्म, स्वभाव के कारण विभक्त मानव वर्ग के चार वर्ण हैं। अर्थात् पूर्वकृत कर्मों के संस्कार रूप स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के अनुसार ये वर्ण बने हैं।11
 मानव के जीवन का एक परम ध्येय यह होना चाहिए कि वह अपने कर्त्तव्यों को अपनी सम्पूर्ण शक्ति से सम्पन्न करे। कार्य करते हुए कर्त्तव्य की भावना ही सम्मुख होनी चाहिए। स्वधर्म-पालन जीवन में परमावश्यक है। स्वभाव अथवा गुणों के अनुसार किये गये कर्म में मनुष्य अधिक कुशल होता है; क्योंकि उस कार्य में रुचि अधिक होने से कार्य-उत्पादन अधिक होगा। स्वधर्म-पालन से ही सर्वत्र सत्कार मिलता है। परम पिता की प्रसन्नता भी निश्चित है। आत्मसिद्धि और भगवद्-प्राप्ति तो होती ही है; स्वतः लोक-संग्रह भी होगा। सभी अपने कार्यों को करेंगे, तो सभी कार्य होते चले जायेंगे और इससे कुछ भी करना शेष नहीं रहेगा।
 किसी भी समाज में विद्या-उपजीवी वर्ग, शासक वर्ग, किसान और व्यापारी वर्ग तथा श्रमिक वर्ग हमेशा थे, हैं और रहेंगे। हम उनको नाम चाहे कुछ भी दे दें; क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम तो हमें समाप्त करने होंगे; क्योंकि बहुत समय से तथा वर्त्तमान में भी इनका अवांछित प्रयोग होता आ रहा है। कोई भी मनुष्य समाज में जन्म से श्रेष्ठ या हीन नहीं। श्रेष्ठता या हीनता तो उसके कार्य से ही जानी जाती है, जैसे श्रीकृष्णजी भी अर्जुन को कहते हैं कि तू अपना धर्म कर, युद्ध कर। स्वधर्म को न करने से अपकीर्ति मिलती है और यह अपकीर्ति मनुष्य के लिए मरण से भी अधिक बुरी होती है।12 क्योंकि यह कभी एक बार मिलने पर समाप्त नहीं होती। अपकीर्ति से दुःख मिलता है; अतः मनुष्य स्वधर्म का आचरण करें; क्योंकि अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुण-रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय देने वाला है; क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करते हुए मनुष्य को पाप नहीं होता। कर्म या स्वधर्म करने से पहले अपने कर्म या धर्म का चुनाव कर लेना चाहिए। मनुष्य शून्य स्थान में नहीं रह सकता और न ही वह आचरण के नियम शून्य में बनाता है या उत्पन्न करता है। उसे तो जीवन के नियम यर्थाथ परिस्थितियों में से निकालने हैं, न कि अमूर्त सूत्रें से। कुरुक्षेत्र भी वास्तविक स्थान है, जहाँ पर अर्जुन को धर्म का निर्णय करना था। इसी प्रकार मनुष्य को वास्तविक जीवन में ही धर्म का चुनाव करना चाहिए। धर्म जीवन की परिस्थितियों के संदर्भ में लेना चाहिए। श्रीराधाकृष्णन भी कहते हैं कि चाहे हम तात्त्विक सत्यता की खोज करें या सामाजिक कर्त्तव्य की, हमें स्पष्ट होना है। सही ढंग और सही शक्ति से किये गये कर्म से ही हम ऊपर उठ सकते हैं। कर्मों में ज्ञान का महत्त्व बड़ा है। ज्ञान के बिना सही कर्म को नहीं जाना जा सकता। स्वधर्म को जानने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है।
 सत्त्व, रजस् और तमस् गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। ये तीनों गुण ही अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं।15 प्रत्येक शरीर में इन्हीं गुणों में से किसी गुण की प्रधानता होती है। रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है। तमोगुण और सत्त्व गुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है; और रजोगुण और सत्त्व गुण को दबा कर तमोगुण बढ़ता है। हमारे भोजन में इन्हीं तीनों गुणों का अंश होता है, मनुष्य जैसा भोजन करेगा, वैसा ही गुणधारी उसका शरीर बनेगा। इन्हीं गुणों के आधार पर कर्त्ता, बुद्धि और धारणा के भी तीन-तीन प्रकार होते हैं।16 सत्त्व, रजस् और तमस् प्राकृतिक गुणों की शरीर में प्रधानता पहचान कर कर्म करने चाहिए।
 इन्हीं गुणों के आधार पर तीन प्रकार के कर्म गीता में दर्शाये गये हैं।17 सात्त्विक कर्म-जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ कर्त्तापन के अभिमान से रहित, कर्म फल को न चाहनेवाले पुरुष-द्वारा बिना राग-द्वेष से किया जाये। राजस् कर्म-जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त हैं, तथा कर्मफल के चाहनेवाले और अहंकार-युक्त पुरुष-द्वारा किये जाते हैं। तामस् कर्म-जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ किये जाते हैं।
 मानव के लिये अनिवार्य है कि वह योग में स्थित हुआ अपने कर्त्तव्यों को पूर्ण करता जाए। कार्य करते हुए कर्म में ही ध्यान होना चाहिए; इसके अतिरिक्त किसी और तथ्य पर ध्यान नहीं जाना चाहिए। यही जीवन का एक सरल सूत्र है, जो कि लोक-संग्रह के लिए अत्यावश्यक है। तप भी सात्त्विक, राजसिक एवं तामसिक होते हैं।18 सात्त्विक तप सर्वश्रेष्ठ है। सात्त्विक यज्ञ फल की इच्छा के बिना किया जाता है।19
 श्रीमद्भगवद्गीता कर्मों में निष्काम या अनासक्ति का उपदेश देती है। जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार चलाये हुए सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं बर्तता है अर्थात् शास्त्रनुसार कर्मों को नहीं करता है, वह इन्द्रियों के सुख को भोगनेवाला पापी पुरुष व्यर्थ ही जीता है।20
 एक मनुष्य जो अपने सामाजिक कर्त्तव्य को पूर्ण नहीं कर रहा है और न सामाजिक शुभ में कोई अंशदान कर रहा है, वह नैतिक मनुष्य नहीं हो सकता। गीता का अनासक्ति योग या निष्काम कर्मयोग सामाजिक दायित्व के त्यागने की प्रेरणा नहीं देता; परन्तु शुद्धता, सच्चाई, यथार्थरूप और ईमानदारी से सामाजिक दायित्व को पूर्ण करने की प्रेरणा देता है।
 मानव-जीवन का सर्वोत्तम उद्देश्य, गीता के निष्काम योग या अनासक्ति योग के अनुसार, आत्मसिद्धि है, और इस साध्य को ध्यान में रखते हुए ही मनुष्य को सभी कर्मों के फल को त्यागना होगा। इस प्रकार ही समकालीन मनुष्य अहंकार रूपी विकार और सुख देनेवाली भौतिक प्रवृत्तियों छोड़ सकेगा, जो कि आधुनिक सभ्यता का दिखावा है।
 ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’21 यह गीता का केन्द्र-विन्दु है, जो मानव की लालसाओं, आकांक्षाओं और अभिलाषाओं को नियन्त्रण में रखने का उपाय सुझाता है। मनुष्य के कार्यों में सफलता-असफलता, जय-पराजय, लाभ-हानि आदि मात्र मनुष्य पर ही निर्भर नहीं करते, परन्तु दूसरे भी कई एक कारण व परिस्थितियाँ होती हैं जो इन्हें प्रभावित करती हैं। सुख-दुःख इतने जटिल और संगीन हैं कि मनुष्य ‘क्या करे’ और ‘क्या न करे’ की विचिकित्सा से बच नहीं सकता। जब इच्छित सुख नही मिलता, तब ‘प्रेरणा शक्ति’ और ‘वास्तविक प्राप्ति’ के अन्तर का ज्ञान होता है। यह अन्तर फिर दुःखों का कारण बनता है। इससे अच्छा है कि कर्मफल की ओर ध्यान न दें, ताकि वह शक्ति भी जो कर्मफलों की प्राप्ति की ओर लगाते हैं, वह भी कार्य करने में लगाएँ अर्थात् हम पूर्ण शक्ति, योग्यता से ही कर्म ही करें, जो कर्म हमारी प्रकृति के अनुसार हैं। कर्मफल प्राप्ति को जीवन का ध्येय न बनाएँ, परन्तु कर्म करने को ही जीवन का ध्येय बनाएँ। गीता में कहा है, ‘तू अनासक्त हुआ निरन्तर कर्त्तव्य कर्म का अच्छी प्रकार आचरण कर; क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।22 मानव अस्तित्व का सर्वोच्च या परम ध्येय तभी प्राप्त होगा, जबकि वह अपनी स्वार्थी प्रवृत्तियों, प्रेरणाओं और अहं भावनाओं के घेरे से बाहर निकल जाता है। गीता के अनुसार न तो कर्म-त्याग सम्भव है और न ही कर्म से बचाव इच्छित है, इसका अर्थ यह है कि हम अपने व्यक्तित्व को नियत कर्मों के अनुसार ही विकसित करें। यदि मनुष्य जीवन में अशान्ति, बेचैनी, निराशा, दुःख से बचना चाहता है, तो इस निष्काम-कर्म-योग को अपनाना होगा और जीवन की इस सच्चाई और यथार्थता को स्वीकारना होगा। यह न तो कोई भाग्यवाद है और न ही मनुष्य को कोई परिस्थितियों के हाथ में कठपुतली बनाना है। यह तो जीवन की हकीकत है।
 गीता मनुष्य को स्वधर्म पालन करने की और अकर्म से निवृत्त रहने की प्रेरणा देती है। अकर्म मृत्यु है। जड़ पदार्थ ही कर्म के बिना रह सकते हैं। “जो पुरुष कर्म में अर्थात् अहकार-रहित की हुई सम्पूर्ण चेष्टाओं में अकर्म अर्थात् वास्तव में उनका न होनापन देखे और जो पुरुष अकर्म में अर्थात् अज्ञानी पुरुष-द्वारा किये हुए सम्पूर्ण कर्मों, क्रियाओं के त्याग में भी कर्म को अर्थात् त्याग-रूप क्रिया को देखे, वह पुरुष मनुष्य में बुद्धिमान है और वह योगी सम्पूर्ण कर्मों का त्यागनेवाला है।”23 और “जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित, सदा परमानन्द परमात्मा में तृप्त है, वह कर्मों के फल और संग अर्थात् कर्त्तव्य अभिमान को त्याग कर कर्म में अच्छी प्रकार बर्तता हुआ कुछ भी नहीं करता है।”24 और ‘जिसने अन्तःकरण और शरीर जीत लिया है तथा सम्पूर्ण भोगों की साम्रगी जिसने त्याग दी है, ऐसा आशा-रहित पुरुष केवल शरीर सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप एवं दुःख को प्राप्त नहीं होता।”25
 गीता हमें ‘कर्म-त्याग’ का उपदेश नहीं दे रही, अपितु ‘कर्म में त्याग’ का उपदेश दे रही है। यही गीता का स्वाभाविक उपदेश दीखता है। तृष्णा में डूबना, कर्म के फल के पीछे दौड़ने की प्रवृत्ति का त्याग करना सर्वथा इच्छित है। कर्मों के पीछे दौड़ना तो गीता का उपदेश है। द्वेष, राग, अहंकार, लोभ, मोह, कर्मों के वास्तविक और स्थायी आधार नहीं हो सकते। अनासक्त होते हुए एवं निरन्तर कर्त्तव्य या कर्म करते हुए ही स्थिरचित्त मनुष्य लोक-संग्रह या परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। स्थिरचित्त वृत्तिवाला मनुष्य, गीता के अनुसार वह है, जो कि अपने कर्त्तव्य में रुचि रखता है, न कि कर्मों के फल में, कर्म करने में ही सुख, आनन्द अनुभव करता है।
 जीवन की व्यावहारिक परिस्थितियों में अनासक्ति योग का अपना ही विशेष नैतिक महत्त्व है। निष्काम अथवा अनासक्त भावना से कार्य-क्षमता बढ़ती है, क्योंकि इसमें कोई भौतिक या इन्द्रिय-आकर्षण नहीं होता। आसक्ति तो कार्य में बाधक है, क्योंकि आकर्षित वस्तु की अप्राप्ति मन में क्षोभ, दुःख पैदा करती है, जिससे क्रोधादि बढ़ते हैं, फिर उस वस्तु की प्राप्ति के लिये अनेक सही या गलत ढंग अपनाए जाते हैं, वास्तव में गीता प्रवृतियों और आध्यात्मिक शक्तियों या फ्रायड के शब्दों में लिबिडो और सुपर इगो की माँगों में समन्वय करती है, जो कि हमारे व्यक्तित्व के संतुलित विकास के पूर्व की आवश्यक शर्तें हैं। गीता का आरम्भ भी इसी तथ्य से होता है कि लोभ और अहंकार (जो कि सभी बुराइयों की जड़ है) से ही हमें अपने जीवन की यथार्थ परिस्थितियों में लड़ना होता है, या मुकाबला करना होता है और इनके जीवन से निकल कर बाहर फेंकना होगा, यदि हम प्रतापी, प्रतिष्ठित सत्यमय और विश्वस्त जीवन जीना चाहते हैं। “आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि-असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर, यह समत्वभाव ही योग नाम से कहा जाता है। इस समत्व रूप बुद्धि-योग से सकामकर्म अत्यन्त तुच्छ है।”26 “जो पुरुष कर्मों के फल को न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, और केवल अग्नि को त्यागनेवाला संन्यासी-योगी नहीं है, तथा केवल क्रियाओं को त्यागनेवाला भी संन्यासी-योगी नहीं है।”27 तथा “जो न तो इन्द्रियों में भोग-लिप्त होता है, तथा न कर्मों में आसक्त होता है, वह सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ है। यह पुरुष सुहृद, मित्र, बैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बन्धुगणों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाववाला अति श्रेष्ठ है।
 कई आलोचक कहते हैं कि गीता निष्काम कर्मयोग का उपदेश देती है, जिसका अर्थ है, इच्छा को त्याग करके कर्म करना। यदि इच्छा का त्याग ही कर दिया जाए, तो फिर बचेगा ही क्या? मनुष्य क्यों इच्छा-रहित कर्म करे? क्यों वह प्रेरणा-रहित बनना चाहेगा? मनुष्य कोई मशीन नहीं। यदि प्राकृतिक प्रेरणा या इच्छा का त्याग ही करना है, तो इस जीवन का सांसारिक उद्देश्य ही क्या रहेगा? गीता मनुष्य के मनोवैज्ञानिक तथ्यों से अपरिचित है; अतः उसने ऐसा अनासक्त योग या निष्काम-कर्म-योग का उपदेश दिया है।
 मुझे तो ऐसी आलोचनाएँ अजीब प्रतीत होती हैं। मनुष्य में पशुत्व और विवेक, दो जन्मजात गुण होते हैं। पशुत्व ही इसको क्षणिक इन्द्रिय-सुखों और प्रवत्तियों की ओर ले जाता है। विवेक मनुष्य को इन्द्रिय-सुखों की ओर नहीं ले जाता, अपितु वह तो स्थायी सुख, आनन्द और शान्ति की ओर ही मनुष्य को ले जाता है। यही गीता बता रही है कि क्षणिक इन्द्रिय-सुखों से मनुष्य में आसुरी वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। पाखण्ड, घमण्ड, काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, राग, द्वेष, झूठ, कठोरवाणी, अज्ञान, नास्तिकता आदि आसुरी वृत्तियाँ हैं। दैवी सम्पदा, जो कि विवेक का परिणाम है, से मनुष्य आनन्द और शान्ति को पाता है। अभय, अन्तःकरण की स्वच्छता, ध्यान-योग-दृढ़स्थिति, तत्त्वज्ञान, सात्त्विक दम, इन्द्रियों का दमन, भगवत् पूजा, उत्तम कर्मों का आचरण, कष्ट-सहन, मन, वाणी एवं शरीर से अहिसा, यथार्थ एवं प्रिय भाषण, अक्रोध अभिमानरहितता, कोमलता लज्जा आदि दैवी सम्पदा के लक्षण हैं। 30 यह तो मनुष्य को ही देखना है कि उसे क्या चाहिए? क्या वह पशु ही रहकर आसुरी सम्पदा को पाना चाहता है या कि वह मानव बनकर दैवी सम्पदा को प्राप्त करना चाहता है? आसुरी सम्पदा स्वार्थी बनाती है, जबकि दैवी सम्पदा महान् बनाती है। यह मनुष्य को सामाजिक कर्त्तव्य और लोकसंग्रह की ओर प्रेरित करती है। सभी मानव एक समान हैं और सभी मानवों का आनन्द ही वास्तविक आनन्द है। धर्म-युक्त कर्म ही आनन्द देता है। अपने कर्त्तव्यों को यदि सब करेंगे, तो मानवता स्वतः विकसित होगी। यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने के योग्य नहीं हैं; किन्तु ये निःसंदेह कर्त्तव्य हैं; क्योंकि यज्ञ, दान और तप-ये तीनों ही बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र बनाते हैं। सभी महात्माओं, दार्शनिकों एवं समाज-सुधारकों का महर्षि मेँहीँ के समान यही उपदेश है कि अनासक्त योग; निष्काम-कर्म-योग ही जीवन-दर्शन होना चाहिए, जिससे सर्वकल्याणकारी मानव-समाज बन सके। फल की आसक्ति से मुक्त होकर काम करने से काम में जिस तेज का समावेश होता है, वह निश्चय ही अप्रतिम है। फल-चिन्तन से मुक्ति के कारण शक्ति का केन्द्रण कुशलता-पूर्वक कर्म करने में ही हो जाता है। महर्षिजी का विचार है कि संसार में रहते हुए मनुष्य कर्म करने से तो बच सकता ही नहीं है। कर्म तो उसे करना ही होगा। अब उस कर्म के परिणाम से मुक्त रहने के लिए उसे युक्ति का सहारा लेना चाहिए। महर्षिजी कहते हैं-‘कर्म तीन प्रकार के होते हैं-क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। जो किसी प्रारब्ध के कारण से नहीं होता, केवल पुरुषार्थ से ही होता है, वह नया है। पुराने कर्म के कारण से ऐसा हुआ, सो नहीं, वह क्रियामाण कहलाता है। जितने कर्म करते हैं, वे जमा होते हैं। उस जमा में से थोड़ा-थोड़ा भोगते हैं, वह है प्रारब्ध। और अभी जो जमा है और उसमें जमा होता रहता है, वह है संचित कर्म। ध्यानाभ्यास करने वाला क्रियमाण कर्मरूप पाप से बचता रहता है; क्योंकि पाप करनेवाले से ध्यान नहीं होगा। पाप कर्म करने वालों का मन विषयी होता है, वह संसार में लिपटा रहता है, उसे ध्यानाभ्यास में एकाग्रता आवे और उसका ध्यान बने, यह संभव नहीं है। ध्यान करने वाला अपने मन को विषयों से हटाता है और पाप से बचाता है, खाना, पीना, पहनना भी विषय है; किन्तु वह इन सबको भोगते हुए इसमें लिप्त नहीं होता” (सत्संग सुधा-भाग-1, पृ0 87) महर्षि जी के कथन का आशय यह है कि संसार में रहकर इसमें लिप्त नहीं रहने से मनुष्य कर्मों के बंधन से बच जाता है।
 महर्षिजी का विचार है कि गृहस्थी के कर्त्तव्यों का पालन करते हुए मोक्ष पाना संभव है “संसार के पदार्थों में अनासक्त रहते हुए अपनी घर-गृहस्थी के कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए तथा उन कर्त्तव्यों के संग-संग परमात्मा के भजन में भी लौ लगाते रहने का अभ्यास करना चाहिए। इसी आशय का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद् गीता में अर्जुन को दिया है-तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च- “सदा मुझे स्मरण कर और जूझता रह।”
                                            (सत्संग-सुधा-भाग-1, पृ0 119)
 संत कबीर दास ने भी अनेक उदाहरणों द्वारा यही बताने का प्रयास किया है। मनुष्य सांसारिक कर्त्तव्य कर्मों को करते हुए प्रभु को स्मरण करते रहे, तो वह कर्म बंधन में नहीं फँसता-
 “जो कोई या विधि मन को लगावे, मन के लगाये हरि को पावै ।
जैसे नटवा चढ़त बाँस पर, ढोलिया ढोल बजावै ।
अपना बोझ धरै सिर ऊपर, सुरत बाँस पर लावै ।”
 जिस प्रकार मणिधर सर्प मणि को बाहर रखकर विचरण करता है, पर उसकी सुरति मणि में लगी रहती है, उसी प्रकार मनुष्य को कर्म करते हुए ध्येय पर सदैव दृष्टि रखनी चाहिए। संत पलटू साहब ने भी दूसरे शब्दों में यही बात कही है-
 “कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।
सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै ।।
आप रहे जल माँहि, सूखे में अण्डा देवै ।
    ग् ग् ग्
पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान ।
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान ।।”
  “कहने का आशय यह है कि संसार में रहकर तुम्हारा जो कर्त्तव्य है सो भी करो और भजन भी करो। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी तथा महात्मा गाँधी जी इसी उपदेश के अनुकूल रहकर देश-सेवा और निज-निज जीवन-यापन के कार्यों में लगे हुए थे। ऐसे लोगों के बारे में महर्षि जी का विचार है कि- “जो इन्द्रिय के स्वाद को तुच्छ मानता है, इन्द्रियों के स्वाद में फँसना अपने पर बंधन जानता है, वह गृहस्थ होते हुए भी योगी है।” (सत्संग-सुधा, प्रथम-भाग, पृ0 131) अतः महर्षि जी के विचार और गीता के विचार में अविरोध है। अनासक्त होकर कर्म करे और फल की आशा नहीं रखे, यह कहती है गीता और महर्षि जी कहते हैं कि अनासक्त होकर जगत् के कर्त्तव्य कर्म करे और सुरति को परम प्रभु में लीन रखे अर्थात् सुरति को फल-चिन्तन में नहीं लगाकर प्रभु-चिन्तन में लगावे। वस्तुतः गीता के निष्काम कर्मयोग का महर्षिजी ने पूर्णतः समर्थन ही किया है।
निर्देश सूची-
निर्देश 1 से 4, 6 से 13, 15 से 30 सभी श्रीमद्भगवद्गीता से ही लिये गये हैं।
1- 3- 5- तुलना 4-8, 9 (2) 3-14, 15, 18-3-
(3) 4-15, 17-41 (4) 12-10 (5) भारतीय दर्शन का इतिहास भा ग्र-1, पृ0 235 राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर।
(6) 4-7 (7) 17-15 (8) 17-14- (9) 3-27-
(10) 18-40- (11) 4-13, 17-41- (12) 2-33-34-
(13) 3-35- (14) भगवद्गीता, पृ0 114- (15) 14-5-
(16) 17-26 से 34- (17) 23 से 24- (18) 17-14 से 16-
(19) 10-11 (20) 3-16 (21) 2-40- (22) 3-9- (23) 4-17-
(24) 4-20 (25) 4-21-
(26) 3-19- (27) 2-47- (28) 6-1- (29) 6-4- (30) 16-1 से 3-
सन्तमता बिनु गति नहीं [डॉ0 रामजी सिह, पी-एच0डी0, डी0लिट0]
 महर्षि मेँहीँ की घोषणा है-
‘संतमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान। जौं चाहो उद्धार को बनो सन्त सन्तान।।’
 प्रत्यक्षतः इस घोषणा में सन्तमत की गरिमा की अभिव्यंजना और उसको ग्रहण करने के आग्रह का भाव दीख पड़ता है। भगवान् श्रीकृष्ण के शब्दों में भी ये भाव दिखायी पड़ेंगे, जब उन्होंने गीता के चरम-श्लोक में इसी तरह उद्घोषित किया था-
                    ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।
                      अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’ 18/66
 असल में बाह्य ज्ञानमार्ग के टीकाकारों को यह भक्ति-प्रधान उपसंहार प्रिय नहीं लगता; लेकिन उपनिषद् की ज्ञान-गंगा भी तो यही कहती है-
 “अन्यत्र धर्मादन्यत्र धर्मादन्यत्रस्मात्कृताकृतात् अन्यत्र भूताच्च भव्याच्य यत्तत्पश्यसि तद्वद।।”
                                                                         कठोपनिषद् 1/--/14
 सन्त पाल ने भी कहा है- “तू जो कुछ खाता, पीता या करता है, वह सब ईश्वर के लिये कर।” (1 करियथन, 10-31)। स्वयं प्रभु ईसा ने भी कहा- “तू अपने घरदार को बेच दे या किसी गरीब को दे डाल, और मेरा भक्त बन।” (मैथ्यू 19-16-30 और मार्क 19-21-31-) असल में भगवान् ने अर्जुन को निमित्त बनाकर समस्त मानव-समाज को बुद्धि के व्यामोह में भटकते हुए देखकर एक निश्चयात्मक पथ की ओर संकेत किया है- “निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरत सत्तम।” -गीता 18/4 केवल कर्त्तव्य समझकर परमेश्वरार्पण बुद्धि से सब कर्मों को करते रहने का और उसके द्वारा मृत्यु-पर्यन्त परमेश्वर-पूजन और उपासना को जारी रखने का जो ज्ञानयुक्त प्रवृत्ति मार्ग या भक्ति-प्रधान कर्मयोग है, उसे ही “भागवत-धर्म” कहते हैं।
 महाभारत के वन-पर्व में ब्राह्मण-व्याध कथा (वन, 208), शांतिपर्व में तुलाधार-जाजली-संवाद (शांति, 261), मनुस्मृति में यतिधर्म का निरूपण (6-96-97) आदि स्थलों में यही तत्त्व उजागर किया गया है। ‘कर्म करने’ या ‘कर्म नहीं करने’; दोनों में अहंकार पैदा हो सकता है, इसलिये कर्म फल को ईश्वरार्पण करना आवश्यक है; क्योंकि यह निर्णय भी तो व्यर्थ ही है-
                  “यदाहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यते ।
                  मिथ्यैषव्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।।” गीता 18/59
                                                                         
 गीता में भक्ति को अधिक महत्त्व दिया गया है ताकि जीव अहंकार में न पड़ जाय, इसलिये अन्त की बात जो सबसे गुह्य है- “सर्व गुह्यतमं भूयः”-उसमें समर्पण भाव का स्पष्ट संकेत है-
                 “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
               मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।” गीता, 18/65
 यों कुछ लोगों ने परमेश्वर-प्राप्ति के भी अनेक मार्ग बताये हैं-जैसे, अहिसा-धर्म, सत्यधर्म, मातृ-पितृ सेवा-धर्म; गुरुसेवा-धर्म, यज्ञयाग धर्म, दान-धर्म, संन्यास धर्म आदि; परन्तु गीता में भगवान् निश्चयात्मक उपदेश देते हैं कि उक्त नाना प्रकार के धर्मों की गड़बड़ में न पड़कर ‘मुझ अकेले को ही भज; मैं तेरा उद्धार कर दूँगा, डर मत।’
 सन्तमत किसी संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं है। सन्तमत की न कोई ऐतिहासिक सीमा है, न भौगोलिक। साम्प्रदायिक सीमा में इसे आबद्ध करना इसकी आत्मा को नष्ट करना है। जिस प्रकार सत्य पर न तो सुकरात का स्वाधिकार है, न शंकर का सर्वाधिकार, इसलिये सन्तमत को भी केवल इसके वर्तमान पुण्यधर पीठाधीश्वर या पूर्व के किन्हीं संत-महात्मा से बाँधना संतमत को संकुचित करना होगा।
 संत किसी जाति विशेष के अभिमानी नहीं और न किसी सम्प्रदाय विशेष के बन्दी ही होते हैं। विश्व के सद्विचार-उद्यान में विहार करना ही उनका स्वाध्याय होता है और विरोधों में सामंजस्य लाना ही उनकी साधना तथा स्वयं कष्ट उठाकर भी विश्व-कल्याण करना उनका स्वधर्म होता है। मेरी तुच्छ बुद्धि में जो सच्चे सन्त हैं, वही देवता हैं। सन्तवाणी ही देववाणी हैं। सन्तवाणी ही लोकोत्तर महत्ता का सबसे बड़ा कारण यह है कि संत पुरुष निष्काम होते हैं और उनका प्रत्येक कार्य कामना-कलुष से विमुुख तथा सर्वतोभद्र होता है; क्योंकि संतों की आत्मा परमात्म-तत्त्व की आराधना से विश्वात्मा की वस्तु बन जाती है। सन्त के सात्त्विक व्यक्तित्व की इतनी अकृत्रिम अभिव्यंजना होती है कि मानव-मन पर अमोघ मंत्र जैसा प्रभाव डालती है। सन्त पुुरुष के वचन की अमोघता का कारण यह है कि उनकी वाणी, विचार एवं व्यवहार में कोई अन्तर ही नहीं होता। सन्त भगवद्भक्त होते हैं। भगवद्भक्ति को पूर्ण करके सन्त कहलाते हैं। इस प्रकार सन्त और भगवन्त एक हो जाते हैं। इसीलिये संतवाणी में देववाणी की शक्ति प्रकट होती है।
 ‘संतमत’ वस्तुतः संतों का मत है। स्वाभाविक ही यह प्रश्न होता है कि ‘संत’ कौन है? उनका तात्त्विक स्वरूप क्या है? उनके लक्षण क्या हैं? यह निश्चित है कि संतों की यथार्थ पहचान बाह्य लक्षणों से नहीं हो सकती। हाँ, वे ही संत हैं, जो सत्य का साक्षात्कार कर चुके हैं, और वह सत्य ही चित् है और आनन्द भी है, अतः जो इस आदिमध्यान्तहीन सच्चिदानन्द में प्रतिष्ठित हैं, वे ही संत हैं। वे संत हैं, जो मोक्ष को प्राप्त कर प्रेम-सुधार्णव प्रभु के दिव्य प्रेम को रसास्वादन कर चुके हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान् श्रीकृष्ण उद्धव से संतों के कुछ लक्षण बताते हुए कहते हैं-
 “कृपालुर कृत द्रोहस्तितिक्षुः सर्वदेहिनाम्। सत्य सारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः ।।
  कामैरहत धीर्दान्तो मृदुः शुचिरकिचनः। अनीहो मितभुक् शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ।।
  अप्रमत्तो गंभीरात्मा धृति माञ्जित षडगुणाः। अमानी मानदः कल्पौ मैत्रः कारुणिकः कविः ।”
-श्रीमद्भागवत 11/11/29-31-
 इसी तरह भगवान् कपिल माता देवहूति से भी कहते हैं-
 “तितिक्षिवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम्। अजातशत्रवः साधवः साधुभूषणाम् ।।
  मय्पनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढ़ाम्। मत्कृतेत्यक्त कर्माणस्त्यक्त स्वजन बा धवाः ।।
  मदाश्रयाः कथा मृष्टा श्रणंवन्ति कथयन्ति च। तपन्ति विविधा स्तापा नैतान्मद्गतचेतसः ।।
  त एते साधवः साध्वि सर्व संग विवजितः। संगस्तेष्वथ ते प्रार्थ्यः संगदोषहरा हिते ।।”
-श्रीमद्भागवत, 3/25/21-24-
 इसी प्रकार योगीश्वर हरि राजा निमि से भी संत-असंत के लक्षण बताते हैं:-
 “गृहोत्वा णोन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति ।
विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तम । ----
न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वाभनिवामिदा ।
सर्वभूत समः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ।। श्रीमद्भागवत
 श्रीरामचरितमानस में तो संत-असंत के लक्षण से ही कथा का प्रारम्भ किया गया है। “बंदउँ प्रथम महीसुर चरना” के पश्चात्-
 “सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ।।
साधु चरित सुभ सरिस कपासू। निरस विषद गुनमय फल जासू ।।
जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा। वंदनीय जेहि जग जस पावा ।।
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथ राजू ।।
अकथ अलौकिक तीरथ राऊ। देई सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ।।”
 दो0-सुनि समुझहि जन मुदित मन, मज्जहि अति अनुराग ।
    लहहि चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग ।।
  यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदासजी संतों को प्रणाम करते हैं, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है, और न शत्रु।
 “बंदउँ संत समान चित, हित अनहित नहि कोइ ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोइ ।
संत सरल चित जगत हित, जानि सुभाउ सनेहु ।
बाल विनय सुनि करि कृपा, राम चरन रति देहु ।।” मानस 1/3
 संत के लक्षण स्वयं भगवान् राम ने नारद को बतलाये-
 “सुनि मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्हके बस रहऊँ ।
षट विकार जित अनघ अकामा। अचल अकिचन सुचि सुखधामा ।
अमित बोध अनीह मित भोगी। सत्य सार कवि कोविद जोगी ।
सावधान मानद मद हीना। धीर धरम गति परम प्रवीना ।।”
  दो0-गुनागार संसार दुख, रहित विगत संदेह ।
      तजि मम चरन सरोज प्रिय, तिन्ह कहूँ देह न गेह ।
निजगुन श्रवण सुनत सकुचाहीं, परगुन सुनत अधिक हरषाहीं ।।
सम सीतल नहि त्यागहि नीती। सकल सुभाऊ सबहि सन प्रीती ।।
श्रद्धा क्षमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया ।।
दंभ मान मद करहि न काऊ। भूलि न देहि कुमारग पाऊ ।।
गावहि सुनहि सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत लीला ।। रामचरितमानस
 इसी तरह भगवान् श्रीराम ने भरत को भी संत के लक्षण बताये-
 “संत असंतन्ह कै असि करनी । जिमि कुठार चंदन आचरनी ।
काटइ परसु मलय सुन भाई । निज गुन देह सुगंध बसाई ।।
विषय अलम्पट सील गुनाकर । पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ।।
सम अभूत रिपु बिमद बिरागी । लोभामरष हरष मय त्यागी ।।
कोमल चित दीनन्ह पर दाया । मन बच क्रम मम भगति अमाया ।।
सबहि मान प्रद आपु अमानी । भरत प्रान सम मम ते प्रानी ।।
विगत काम मम नाम परायन । सांति बिरति बिनती मुदितायन ।।
सीतलता सरलता मयत्री । द्विज पद प्रीति धर्म जनयेत्री ।।
सम दम नियम नीति डोलहिं । परुष वचन कबहूँ नहि बोलहिं ।।”
 निन्दा अस्तुति उभय सम, ममता मम पद कंज ।
 ते सज्जन मम पान प्रिय, गुन मन्दिर सुख पुंज ।।
                                             -श्रीरामचरितमानस 7/38
 फिर काकभुशुण्डी जी ने भी गरुड़ के सप्त-प्रश्नों के उत्तर के प्रसंग में सन्तों के सहज स्वभाव का सरस एवं मार्मिक वर्णन किया है-
 “नहि दरिद्र सम दुख जग माहीं। सन्त मिलन सम सुख जग नाहीं ।।
पर उपकार वचन मन काया। सन्त सहज सुभाउ खगराया ।।
सन्त सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असन्त अभागी ।
भूरज तरु सम सन्त कृपाला। पर हित निति सह विपति बिसाला ।।
सन्त उदय संतत हितकारी। विस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।।”
-मानस 7/120/7-8
 वास्तव में जो ‘सत्’ पर आधारित हैं, वे ही सन्त हैं। ‘सन्त’ शब्द भी मूलतः संस्कृत ‘सन्’ शब्द के ‘अस’ धातु से बना हुआ ‘सत्’ का ही रूप है, जिसका अर्थ है-‘अस्तित्व’। जिसकी सत्ता सदा एक-सी बनी रहती है, जो सदा एकरस, चिरन्तन, शाश्वत और सनातन है; वह् ‘सत्’ है। “सदैव सोम्येदमग्र आसीत्य्-छान्दोग्य उपनिषद्, 6/2/1/ ‘सत् का अर्थ है, परमात्मा। “ॐ तत् सत् इति निर्देशो”-गीता 17/23/ अतः सन्त शब्द ‘सत्’ से बना है, जो सत्यभाव, श्रेष्ठभाव, साधुभाव एवं परमात्म-भाव का द्योतक है-
 “सद्भावे साधुभावे च सदित्येत्प्रयुज्यते ।
 प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।।” गीता 17/26
 जो सन्त के लिए केवल सत्यनिष्ठ और ईश्वर-निष्ठ ही नहीं; साधु-भाव-निष्ठ भी होना जरूरी है। गीता के अनुसार तो ‘सत्’ शब्द ब्रह्म, सत्ता, सात्त्विक भाव, उत्तम आचरण, उत्तम कर्मों में निष्ठा, निष्काम कर्म आदि कई अर्थों में बोधित होता है।
 इसलिये हम ऐसे गुणज्ञ को ही सन्त कहेंगे, वेश को नहीं। राहु, रावण और कालनेमि ने साधु का वेश बनाया; लेकिन वे सन्त नहीं थे, अन्त तक उनके कपट नहीं निभ पाये-
 “उघरहि अन्त न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू।”
-मानस 1/6/6
दूसरी तरफ बुरा वेश बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जामवन्त और हनुमान का हुआ-
‘किएहूँ कुवेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवन्त हनुमानू।।’
-मानस 1/6/7
 विभीषण का वेश तो राक्षस का है; लेकिन वृत्ति सन्त की है; अतः हनुमान ने पहचान कर हर्ष पाया-‘हृदय हरष कपि सज्जन चीन्हा।’
 सन्त जंगलों में ही मिलें, ऐसी बात नहीं। जो धुनि रमावे, वह भी सन्त नहीं। जो दूसरों के लिए दुःख नहीं उठा सकते, वे सन्त नहीं हो सकते- “सन्त सहहि दुख पर हित लागी।’ अतः गृहस्थ और राजपुरुष भी सत हो सकते हैं। जनक तो राजा थे; लेकिन सन्त थे। जनकपुर के नर-नारी गृहस्थ थे; लेकिन चूँकि धर्मशील, ज्ञानी और गुणवन्त थे, अतः वे सन्त थे-
‘पुर नर नारि सुभगि सुचि सन्ता। धरम सील ग्यानी गुनवन्ता।’
-मानस 1/216/6
 यह ठीक है कि सन्त के कुछ बाह्य लक्षण भी हैं, इसीलिये विभीषण के घर की पहचान होती है-
 “रामायुध अंकित गृह, सोभा बरनि न जाई ।
  नव तुलसिका बृन्द तहँ, देखि हरष कपिराई ।।” मानस, 5/5
 लेकिन बह्य लक्षण महत्त्वपूर्ण नहीं है, असल महत्त्व अन्तर का है, स्वभाव का है।
 “श्री रघुनाथ कृपालु कृपा तें सन्त सुभाव गहौंगो।” विनय-पत्रिका, 172
सत्संग
 यही कारण है कि सन्त के संग या उनके सत्संग पर इतना अधिक जोर है। सन्तमत के लिए भी सन्त-संग या सत्संग परमावश्यक है। सन्तों का संग ही मोक्ष का मार्ग है-
 “सन्त संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पन्थ ।
  कहहिं सन्त कवि कोबिद, स्त्रुति पुरान सद्ग्रन्थ ।।” मानस 7/33
 श्रुति, पुराण आदि समस्त शास्त्रें का यही मत है कि सत्संग को दृढ़ करना चाहिये-
 “स्त्रुति पुरान सब को मत यह, सतसंग सुदृढ़ धारिये ।
  निज अभिमान मोह इर्षा वस तिनहिं न आदरिये ।।” विनयपत्रिका, 186
 स्वर्गादि का सारा सुख भी सत्संग के एक क्षण के बराबर नहीं-
 “तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिअ तुला इक अंग ।
  तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग ।।”
 अच्छे कर्मों का फल है-स्वर्ग; लेकिन पुण्य क्षीण होने से वह नष्ट हो जाता है- “ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।।”-9/21/ योग से जो अनुभव ज्ञान प्राप्त होता है, वह मोक्ष-प्रद है।
 “धर्म ते विरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छ प्रद वेद बखाना ।।” मानव 3/15/1
यही कारण है कि सब सुखों की खान भक्ति की याचना की गयी है-
 “सब सुख खानि भगति तैं माँगी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ।।” मानस 7/84/3
 “अस बिचारि जे मुनि बिज्ञानी। जाँचहि भगति सकल सुख खानी ।।” मानस 7/115/8
इस भक्ति की पहली सीढ़ी है-सत्संग
यही कारण है कि नवधा-भक्ति में सत्संग को ही भक्ति का प्रथम चरण माना गया है-
 “प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।” मानस 3/48/8
 सत्संग तो राम-कथा का प्रवेश-पत्र ही है, जिसे प्राप्त किये बिना हमें अधिकार ही नहीं मिल सकता है-
 “राम कथा के तेइ अधिकारी । जिन्ह के सत्संगति अति प्यारी ।।” मानस 7/127/3
असल में सत्संग का प्रवेश-पत्र लिये बिना हम अध्यात्म-साधना में बढ़ नहीं सकते। उनके लिए भगवद्-भक्ति का द्वार ही बन्द है-
 “जे श्रद्धा संबल रहित, नहि संतन्ह कर साथ ।
 तिन्ह कहँ मानस अगम अति, जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ ।।” -मानस, 1/38
 अतः जो अध्यात्म-सरोवर में स्नान का पुण्य प्राप्त करना चाहें, उन्हें मन से सत्संग करना चाहिये-
 “जो नहाइ चह यहि सर भाई । सो सतसंग करउ मन लाई ।।” -मानस, 1/39/4
 यदि सत्संग मिल जाय, तो जीवन धन्य हो जाय। वह क्षण धन्य है, जब हमें सत्संग का सुख प्राप्त होता है-
 “धन्य धरी सोइ जब सतसंगा ।”
 भक्ति के अनेकानेक साधन बताये गये हैं-जप, तप, पूजा-पाठ, यज्ञ, व्रत, दान आदि। लेकिन सबसे सुगम और सरल उपाय है-संतों की संगति-
 “भगति के साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहि प्रानी ।।” मानस, 3/15-5
 क्योंकि संत तो सब जगह सब दिन सुलभ हैं- “सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।”
और इसके समान कोई अन्य लाभप्रद भी नहीं है-
 “गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन।।” मानस 7/125 (ख)
 जब सत्संग प्राप्त हो गया तो फिर दूसरी सभी प्रकार की भक्ति भी सुलभ हो जायगी-
 “सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।”
 इसलिये रामभक्ति के लिये सत्संग की कुंजी माँगी गयी है-
 “अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। रामभगति तेहि सुलभ बिहंगा।।” मानस, 7-119-18
 सत्संग ही रामभक्ति का प्रवेश-पत्र है। जहाँ सत्संग उपलब्ध हुआ, फिर भक्ति के दूसरे साधन भी स्वतः सुलभ होते जायेंगे-
 “सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।” मानस, 7 119/19
 संतों के पास भक्ति प्राप्त करने की युक्तियाँ होती हैं, अतः सत्संग से वे युक्तियाँ मिल ही जायँगी। रामकथा, ज्ञान, वैराग्य और न जाने क्या-क्या-यानी सत्संग में ये सब प्राप्त होते जाते हैं।
 “पावन पर्वत वेद पुराना। राम कथा रुचिराकर माना ।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ज्ञान विराग नयन उरगारी ।।
 भाव सहित खोजई जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी ।।”
मानस, 7/119/13-15
 सत्संग से सज्जन तो क्या दुर्जन को भी लाभ-ही-लाभ है। जिस प्रकार पारसमणि पत्थर के संस्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है, उसी प्रकार संत के संग से शठ व्यक्ति भी सुधर जाते हैं-
           “सठ सुधरहि सतसंगति पाई। पारस परस कुघात सुहाई।” मानस, 1/2/9
 लंकिनी का हनुमान के दर्शन एवं स्पर्श से उद्धार हो गया-
        “तात मोर अति पुण्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता।।” मानस, 5/3/7-8
 लेकिन लंकेश को संत का संग तो मिला था; किन्तु उसकी उसने अवहेलना की और विभीषण को घर से भगा दिया, हनुमान को दंडित और अपमानित किया, जगत् जननी सीता पर कुदृष्टि डाली। अतः उसे तो दंड मिलना ही चाहिये।
 “साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी।। मानस, 5/41/2
 असल में सत्संग के बिना विवेक ही नहीं हो सकता है-
 “बिनु सत्संग विवेक न होई।” मानस, 1/2/3
 लेकिन केवल विवेक ही क्यों, कीर्त्ति, गति आदि सभी कल्याण सत्संग के बिना दुर्लभ हैं-
 “मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।
 सो जानव सत्संग प्रभाऊ। लोकहूँ वेद न आन उपाऊ ।।
  सत संगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला ।।”
मानस1/9/2-6
 सत्संग एक शिक्षण है, संस्कार है, जो संतों के जीवन और आचरण से प्राप्त होता है। पुस्तक पढ़कर वह प्राप्त नहीं हो सकता है और न आचरण-विहीन प्रवचनकर्त्ता के व्याख्यान से ही लभ्य हो सकता है। संत का जीवन ही सत्य, प्रेम, करुणा की खुली पुस्तक होता है, अतः उसका सहज ही प्रभाव पड़ता है। उनका जीवन ही जगत्-कल्याण के लिए समर्पित रहता है। उनका हृदय तो दूसरों के दुःख को देखकर द्रवीभूत होता है- “संत हृदय नवनीत समाना।” “संत सरल चित जगत् हित।” अतः संत और उनकी संगति अध्यात्म के जंगम-विद्यापीठ हैं; लेकिन हमारी दृष्टि जब विपरीत होगी तो सत्संग मिलना ही दुर्लभ एवं दुर्घट है। नारद ने भी कहा है- “सत्संगो दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च।” नारदभक्ति सूत्र, 39 । हतभाग्यों को सत्संग प्राप्त ही नहीं होता-
 “सत्संगति दुर्लभ संसारा। निमित दंड भरि एकउ बारा।।” मानस, 7 122-6
 सत्संग-प्राप्ति और दुःसंग का त्याग-यह श्रुति का भी आदेश है। दुःसंग से आसुरी सम्पत्ति के सभी दुर्गुण और दुराचारों का विकास और विस्तार होता है। परम सुशीला प्रेम-प्रतिमा देवी कैकेयी मंथरा की कुसंगति के कारण, दुर्योधन शकुनि के कारण दुःख में पड़े, इसलिये दुःसंग तो नरक से भी बुरा माना गया-
 “बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ विधाता।।”
 इसलिये यदि हम कुसंग के संस्कार को भी दूर करना चाहें, तो सत्संग का लाभ लेना चाहिये-
 “हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहु वेद विदित सब काहू।।” मानस, 1 6/4
 सत्संग के सिवा दूसरा कोई उपाय ही नहीं-
 “सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहू वेद न आन उपाऊ।।” मानस, 1/2/3
 सत्संग से किसको लाभ नहीं हुआ? शबरी के घर भगवान ने जूठे बेर खाये, विभीषण का उद्धार हुआ, हनुमान विश्व-पूजित हुए, आदि-आदि- “केहि न सुसंग बड़प्पनु पावा”-मानस 1/9/4 दुःसंग तो काम, क्रोध, मोह पैदा करेंगे ही और इससे बुद्धिनाश और सर्वनाश होगा- “काम क्रोध मोह स्मृतिभ्रंश बुद्धि नाश सर्वनाश कारणत्वम्य् -नारद भक्ति सूत्र, 44
 लेकिन मानव अपने हतभाग्य से इतना जुड़ जाता है कि वह सत्संग-रूपी अमृत का पान करने से भी वंचित हो जाता है; बल्कि कभी-कभी तो पाकर भी खो देता है और फिर दुःसह दुःख पाता है। संतों की वाणी यदि हमारा लाभ न करे, तो दोष संत या संतवाणी का नहीं, हमारा है-हमारा ही मन पापी है- “सारहीन मन पापी।” विनय में कहा ही है-
 “बेनु करील श्रीखंड व सन्तहि दूषन मृषा लगावै ।
  सारसहित हत भाग्य सुरभि, पल्लब सो कहु किमि पावै ।।” पद-114
सत्कथा:
 सत्संग और सत्कथा का सम्बन्ध है। सत्कथा भी सत्संग का एक अंग है। ‘सत्कथा’ का अर्थ है, भगवत्कथा। यही कारण है कि ‘सत्कथा’ के आगे ध्यान और समाधि तक भी ज्ञानी भूल जाता है-
 “सुनि गुनगान समाधि बिसारी। सादर सुनहि परम अधिकारी।।”
-मानस 7/41/4
 “जीवन मुक्त महामुनि जेऊ। हरिगुन सुनहि निरन्तर तेउ ।।
  भव सागर चह पार जो पावा। रामकथा त कहँ दृढ़ नावा ।।”
-मानस 7/53/2-3
 सत्कथा की लोकोत्तर महत्ता एवं सांसारिक उपयोगिता अपार है। सत्कथाएँ वास्तव में सदाचरण की जाह्नवी, धर्म की दिव्य-रश्मि, और सन्मार्ग की साधना का संबल हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानव-मन के ज्ञान, सौन्दर्य और शील-ये तीन प्रधान रसात्मक तत्त्व हैं। इनमें शील उसका अविभाज्य आत्म-संपृक्त चरित्र-प्रधान तत्त्व है। यही कारण है कि सत्कथाओं से मानव-हृदय सर्वाधिक प्रभावित होता है। मानव ऊर्ध्वगतिशील वृत्ति का होता है, वह हमेशा ऊँचा उठना चाहता ही है। सत्कथाएँ जीवन और जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने में अभिमुख होती हैं। फिर मानव स्वभावतः सौंदर्योपासक भी होता है और सद्वृत्त तथा सत्कथा सात्त्विक सौंदर्य की चरम सीमा है। सत्कथा में एक सहज आकर्षण होता है और वह हमें अपनी ओर खींचती है।
 सत्संग की भाँति सत्कथा के मूल में भी ‘सत्’ है, जो परमात्मा की सबसे सार्थक संज्ञा है। सत्य को प्राप्त होने पर स्वभावतः सत्पुरुष में दीखने वाले गुण भी ‘सत्’ हैं, जैसे सद्गुण, सद्भाव, सद्विचार, सद्व्यवहार, सद् आहार, सद् विहार, सत्यवाणी आदि जो कुछ हैं, वे ही सत्पुरुष हैं। ऐसे ही सत्पुरुषों या उनको सदाचारों तथा सद्विचारों का संग ही सत्संग है। सत्संग के बिना सत्कथा भी शक्य नहीं-
 “बिनु सत्संग न हरिकथा तेहि बिनु मोह न भाग ।
  मोह गएँ बिनु रामपद होइ न दृढ़ अनुराग ।।”
 सत्संग ही संसार-सागर के दुख-दावानल से दग्ध मानव को उबारने का माध्यम है:-
 “संसार सिन्धुमति दुस्तरमुक्ति तीर्षोन्मन्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य ।
  लीला कथारसनिषेवणमन्तरेण पुसो भवेद्विधिदुखवादितस्य ।।”
श्रीमद्भागवत महापुराण 12/4 40
 सत्कथारूपी हरि-कथा छोड़कर सभी कथाएँ असत् एवं त्याज्य हैं-
 “मृषा गिरस्ता हयसतीर सत्कथा न कथ्यते यद्गवानधोक्षतः । भागवत 12/12/48
 जिसने सत्संग में सत्कथा का रसास्वादन कर लिया, फिर उसे अन्य कथा-देश-कथा, राज्य-कथा, कामिनी-कथा आदि सब फीकी लगती हैं। सत्कथा-श्रवण से तृप्त का तो प्रश्न ही नहीं है-
            “नानुतृप्ये जुषन् युष्मद्वयो हरिकथामृतम् ।” -भागवत, 11/3 2
 गोस्वामी जी ने भी कहा है-
    “रामचरित ते सुनत अघाही । रस विशेष जाना तिहि नाहीं ।।” -मानस, 75/2/1
 रामकथा का सत्संग रूपी पार-पत्र प्राप्त होते ही हम सत्कथा-भवन में प्रवेश करते हैं-यह है भक्ति की दूसरी सीढ़ी-
 “दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।” -मानस, 3/34/8
 रामकथा ब्रह्मविद्या का नवनीत है जिसे संतों ने मथकर निकाला है-
   “ब्रह्मग्योनिधि मंदर, ग्यान संत सुर आहि ।
  कथा सुधा माथ काढ़हि, भगति मधुरता जाहि ।।” -मानस 7/120 (क)
 यदि रामकथारूपी अमृत भी अच्छा नहीं लगे तो मानना चाहिये कि भगवान् में ही आस्था नहीं है-
 “हरिहर पद रति मति न कुतरकी । तिहि कहुँ मधुर कथा रघुवर की ।।”
                                                     -मानस 1/8/61
 सत्कथा की इस कलियुग में विशेष सार्थकता है। अभी का वातावरण विषाक्त है। मन पवित्र है नहीं। यज्ञ भी दुःसाध्य है। जप-तप-व्रत भी कठिन है; इसलिये सत्संग और सत्कथा ही आशा-किरण है-
 “महामोह महिषेसु बिसाला। रामकथा कलिकाल कराला ।।
  रामकथा ससि किरन समाना। सन्त चकोर करहि जेहि पाना ।।”
-मानस, 1/12 3-4
 सत्संग एवं रामकथा पंडितों को विश्राम देनेवाली, सबों को प्रसन्न करनेवाली, सर्प के लिए मयूर, विवेकरूपी अग्नि प्रकट करने के लिए मंथन करनेवाली लकड़ी एवं इस युग में सर्वमनोरथ सिद्धिदायी है।
 “रामकथा मंदाकिनी, चित्रकूट चितचास । -मानस 1 31
 सत्कथा सुन्दर चिंतामणि है और संतों की सुबुद्धि रूपी सभी का सुभग शृंगार है। इसीलिये तो सत्कथा सत्संग का आवश्यक एवं उपयोगी उपकरण है। मोक्ष का सबसे बड़ा बाधक है-मोह और मोह-निरसन के लिए साधन है-सत्संग। सती ने सीता का नाटक किया और फिर पार्वती शरीर में ही सत्संग-कथा सुनकर मोह-मुक्त हुई। नारद का मोह भी सत्संग-सत्कथा सुनने से ही दूर हुआ। यहाँ तक कि भक्तराज गरुड़ को भी ब्रह्म के सम्बन्ध में जो शंका हुई, वह भी अन्ततोगत्वा सत्संग-सत्कथा सुनने से ही दूर हुई।
 “नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवऊँ तहँ सुनहु तुम्ह जाई ।
  तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहुकाल करिअ सतसंगा ।।” -मानस, 7/60
      ग् ग् ग् ग्
महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें। -मानस 7/58/7
 श्रीमद्भागवत में तो जिस नवधा-भक्ति का वर्णन किया है, उसमें श्रवण को प्रथम स्थान दिया है-
       “श्रवणं कीर्त्तनं विष्णोः स्मरणं पाद सेवनम् ।
      अर्चनं वदनं दास्य सख्यमात्मनिवेदनम् ।।” -भागवत् 7/5/23
 वाल्मीकि ने भी श्रवण को ही पहली भक्ति बताया है। भगवान् राम से भी यही प्रार्थना की गयी है कि वे उनके हृदय में निवास करें, जिन्होंने श्रवण-भक्ति का सहारा लिया है-
 “जिन्ह के श्रवण समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ।।
  भरहि निरंतर होहि न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।”
-मानस 2 127 4-5
 अध्यात्म-जगत् में कथा-परम्परा पहले से ही चली आती है। देखिये न, एक भगवान् राम का चरित्र है, जिसे वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भवभूति, तुलसी आदि सभी ने गाया है। इसलिए संत-परम्परा में सत्संग-सत्कथा का अवलम्ब हरगिज नहीं छोड़ने का आदेश है-
 “अवलम्ब भवंत कथा जिन्हके । प्रिय संत अनन्त सदा तिन्हके ।।” -मानस, 7 11 6
 भगवान् शिव भी पार्वती से कहते हैं कि जो भगवान् की कथा गाता है, वह भवसागर से पार हो जाता है-
 “सोइ जस गाइ भगत भव तरही । कृपा सिंधु जनहित तनु धरही ।।” मानस, 1/121/1
 हनुमान का वह प्रसंग बड़ा मार्मिक है, जब उन्होंने भगवान् के दिव्यधाम को चलने को भी अस्वीकार कर अपनी इच्छा से एक ही वरदान माँगा- “आपकी जहाँ कथा होती रहे, तो मैं एक श्रोता के रूप में उपस्थित रह सकूँ।” यह है, भगवत्कथा का आनन्द-
 “प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लषन सीता मन बसिया ।।”
 संतमत में सत्संग का बहुत ही महत्त्व है। महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज नवधा भक्ति की महिमा स्वीकारते हुए कहते हैं- “पहली से पाँचवी भक्ति तक स्थूल भक्ति है। इसके आगे छठी भक्ति में दमशील बनने कहते हैं।” महर्षि जी भक्ति, योग और ज्ञान तीनों की आवश्यकता मानते हुए सगुण और निर्गुण के विरोध को भी समाप्त करते हैं। इसके अनुसार “आरम्भ से ही निर्गुण की उपासना नहीं हो सकेगी। ----------- उपासना का आरम्भ होगा सगुण से ही।”
साधना
 सत्संग और सत्कथा के साथ सद्गुरु की बतायी गयी साधना आवश्यक है। साधना भी सत्संग ही है; लेकिन यह ‘भीतरी सत्संग’ है। साधक को दोनों प्रकार के सत्संग करने चाहिये। सद्ग्रंथों का पाठ, सत्कथा का श्रवण आदि बाह्य सत्संग है; लेकिन ‘अन्तः साधना’ और “ध्यानाभ्यास” अन्तः-सत्संग है। महर्षि जी अन्तः शुद्धि एवं बाह्य शुद्धि (अन्तः साधना और बाह्य साधना) दोनों पर बल देते हैं; लेकिन बाहर से अन्दर जाना ही अध्यात्म-साधना का लक्ष्य है। इसलिये महर्षि अद्वैत और द्वैत, विशिष्टाद्वैत और शुद्धाद्वैत आदि के पचड़े में पड़ना नहीं चाहते और न किसी का खंडन ही करते हैं। उनका तो इतना ही कहना है- “परमात्मा को पहचानने के लिए चलो। चलने के लिए बाहर जाना छोड़कर अन्दर में जाओ।” यही कारण है कि महर्षि जी की साधना-विधि में “अन्तर्मार्गी उपासना पद्धति और उपनिषदों के अनुरूप ‘दृष्टि-योग’ और ‘शब्द-योग’ को अधिक महत्त्व दिया गया है। अपने ग्रन्थ ‘वेद-दर्शन-योग’ में महर्षि जी ने वेद में ‘ज्योति’ और ‘अन्तर्नाद’ का विवरण दिया है। इनके अनुसार “नादानुसन्धान करने वालों का अनुकरण और अनुसरण करने का आदेश वेद में है, इसमें संदेह नहीं है।” तुलना-ऋग्वेद संहिता, 2/14/1/2)-
 इसी प्रकार “श्री गीता-योग-प्रकाश” में महर्षि जी ने संत विनोबा के गीता-प्रवचन में उपस्थापित ध्यान-योग की अपेक्षाकृत उपेक्षा का अपूर्व समाधान किया है। महर्षि जी को संत विनोबा की यह उक्ति “अब ध्यान-योग अभ्यास का युग नहीं है” बिच्छू के समान डंक मारती है। वे ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ की भूमिका में स्पष्ट लिखते हैं- “किसी को नहीं चाहिये कि कर्मयोगी बनते हुए कर्मयोग का तो गुणगान करें और ध्यान-योग को आधुनिक काल के लिये अव्यावहारिक बताकर जनसाधारण को उससे विमुख करे।” “अब अगर कोई कहे कि अमुक योग-अभ्यास करने का युग नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि उनकी यह कथनी गीतोपदेश के विरुद्ध है।” इसीलिये जब महर्षिजी संत विनोबा से मिले, तो उन्हें मर्यादापूर्वक यह सत्परामर्श दिया- “हाँ, मैं मानता हूँ कि आपका अधिकांश समय इन यज्ञों (भूदान, सम्पत्ति दान आदि) के संचालन-सम्बन्धी विविध कार्यों में लग जाता है; किन्तु उसी समय में से कुछ समय यदि आप ध्यान के लिए भी निकाल लिया करें, तो सोने में सुगन्ध।” विनोबा उस समय भी कुछ ध्यान करते ही थे; लेकिन धीरे-धीरे तो उनकी ध्यान-साधना बढ़ने लगी और सूक्ष्म-प्रवेश कर अन्तर्मुख होकर ब्रह्म विद्या-मंदिर में ही वे ब्रह्म-साधना में लीन रहने लगे थे, वे यह अवश्य चाहते थे कि जो समाधि संत तुकाराम और एकनाथ को लगी थी, वह सम्पूर्ण समाज को सुलभ हो। अतः तत्त्वतः विनोबा का महर्षि की साधना से विरोध नहीं, केवल परिमाण और मात्र का भेद हो सकता है।
 महर्षिजी के अनुसार “मानस-जप और मानस-ध्यान सगुणरूप उपासना है। एकबिन्दुता या अणु से भी अणु रूप प्राप्त करने का अभ्यास सूक्ष्म सगुण रूप-उपासना है, सार-शब्द के अतिरिक्त दूसरे सब अनहद-शब्दों का ध्यान सगुण निराकार उपासना है। और सार शब्द की उपासना निर्गुण निराकार उपासना है। सभी उपासनाओं की यहाँ समाप्ति है। उपासनाओं को सम्पूर्णतः समाप्त किये बिना शब्दातीत पद (अनाम) तक अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर तक की पहुँच प्राप्त कर परम मोक्ष का प्राप्त करना अर्थात् अपना परम कल्याण बनाना पूर्ण असंभव है।” अनाहत नाद या शब्द-योग का अभ्यास कर योगी प्राणवायु को वश में कर लेता है, ऐसा वेद में भी उल्लेख है- “पवमान धिया हि तोऽधियो नि कनि यादतु धर्मणा वायुमारुह। ऋग्वेद, 9/25/3; 3/2/3 अथर्ववेद में भी प्रकाशमय लोक की चर्चा है।
 असल में सन्तमत की साधना मन को वश में कर प्रभु-प्राप्ति की प्रक्रिया है। स्थूल उपासना मानस-जाप से प्रारम्भ होती है, जिसमें मन को एकाग्र करने के लिए प्रथम प्रभु के वर्णात्मक किसी नाम का जाप करना जरूरी है; जो बाचिक, उपांशु एवं मानस-तीन प्रकार के हैं। यह सब मन के सिमटाव की प्रक्रियाएँ हैं। स्थूल सगुण रूप की उपासना विधि है-मानस-ध्यान, जिसमें साधक अपने गुरु, या किसी इष्टदेव के किसी उत्तम स्थूल रूप का ध्यान करता है। इसमें मन का अधिक सिमटाव होता है। साधक धीरे-धीरे मानस-जाप, मानस-ध्यान करता है और इस तरह अपनी वृत्ति को बहिर्मुख होने से रोकता है। यहाँ से उपासना आरम्भ होती है। फिर दृष्टियोग द्वारा साधक अपनी दोनों आँखों की फैली धाराओं को एक नोंक पर तबतक जोड़ता है, जबतक फैली हुई धारा एक बिन्दु पर न मिल जाती है। विन्दु प्राप्त होने पर अन्धकार मिट जाता है। यहाँ ब्रह्म-प्रकाश का उदय होता है। इस दृष्टियोग की तीन विधियाँ-अमा, प्रतिपदा, और पूर्णिमा हैं। महर्षि जी के अनुसार “दोनों आँखों की दृष्टियों को मिलाकर मिलन-स्थान पर मन को टिकाकर देखने से एकबिन्दुता प्राप्त होती है।” यही उनका दृष्टियोग है।
 महर्षिजी दृष्टियोग से शब्द-योग को आसान मानते हैं। पर एकबिन्दुता प्राप्ति के लिए दृष्टि-योग आवश्यक है।
 दृष्टियोग से एकबिन्दुता और एकबिन्दुता से दिव्यदृष्टि प्राप्त होने पर साधक अंधकार मंडल के पार चला जाता है। गगन मंडल में अनहद नाद गूँजता है, जो अनवरत होता रहता है। साधक उस नाद को पकड़कर विभोर हो जाता है। यही नाद अनहद नाद, ब्रह्मनाद है, जिसकी शक्ति अपार है। यही है-नादानुसंधान या सुरति-शब्द-योग। यही है-वेदमाता गायत्री- “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।”
 संतमत में, इसीलिये, शब्द की बड़ी महत्ता है। वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है। शब्द- साधना का अभ्यास कर साधक की साधना समाधि तक पहुँचती है, ध्वन्यात्मक शब्द की उपासना (नाद-ध्यान) सगुण अरूप उपासना है। इनके परे ‘सार-शब्द’ का ध्यान निर्गुण अरूप-उपासना है, जहाँ उपासना का अंत हो जाता है। साधक अंतःसाधना करते हुए पहले तम-मंडल, फिर प्रकाश-मंडल और अंत में शब्द-मंडल में प्रवेश करता है। तीनों बंद लगाकर सुरत-साधना या नाद-साधना करनी चाहिये। यानी आँख, कान और मुँह बन्द करके अन्तर्मुखी होकर एकांत में त्रिकाल संध्या करने का महर्षि जी ने आदेश दिया है। यहाँ साधक की निष्काम भक्ति पूर्ण हो जाती है। उसे एकात्मता की अनुभूति होती है। यानी नाद-योग की पूर्णता के अभाव में न तो पूर्ण निष्कामता संभव है, न आत्म-ज्ञान ही।
 साधना की यह प्रक्रिया लम्बी और निरन्तर प्रयास के योग्य है। इसीलिये सद्गुरु की आवश्यकता पर बल दिया गया है। यह गुरुवाद नहीं, साधना-विज्ञान की अनिवार्यता है। सद्गुरु मिलना कठिन है। सद्गुरु वही हैं जिन्होंने साधना का चरमोत्कर्ष अपने जीवन में प्राप्त किया है। यानी जो निर्वाण की प्राप्ति कर लेते हैं, वही सद्गुरु हो सकते हैं। गुरु की करुणा साधक के लिये आवश्यक अवलम्ब है। “सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और ध्यानाभ्यास” को नित्य करने पर जोर दिया गया है। नवधा भक्ति में भी तो- “गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान” कहा गया है।
‘गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई। जो विरंचि संकर सम होई।।’ मानस-7, 92/5
 सदाचार-सत्संग हो या सत्कथा या साधना, सदाचार के बिना सब सूना है। जिस प्रकार रंचमात्र नमक के बिना सभी व्यंजन फीके होते हैं। ‘यम-नियम’ की साधना के बिना ‘धारणा’ ‘ध्यान’ और ‘समाधि’ पर पहुँचना भी तो दुर्लभ ही है। भगवान् बुद्ध ने ‘आष्टांगिक मार्ग’, जैनों ने “सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रणि” और सांख्य-वेदान्त ने ‘श्रवण-मनन-निदिध्यासन’ आदि मोक्ष-मार्ग की साधना में सदाचार पर बल दिया है। चार पुरुषार्थ धर्म-साधना से ही प्रारम्भ होता है। धर्मविहीन अर्थ या काम भी त्याज्य है। वास्तव में धर्म ही लोक-जीवन के ईश्वरार्पित सदाचार का मार्ग है। पुराणों में सदाचार रूपी वृक्ष का मूल धर्म को बताया गया है, धन को उसकी शाखा, कामना-सिद्धि को पुण्य और मोक्ष को उसका फल कहा गया है। ईश्वर की ओर ले जानेवाली प्रवृत्ति ही सदाचार है और जो प्रवृत्ति उसके विमुख है, वह दुराचार है। गीता में भी भगवान् ने सदाचार की सम्पत्ति को दैवी और दुराचार की सम्पत्ति को आसुरी सम्पत्ति कहा है। असल में नैतिक जीवन में आचारहीनता के लिए किसी प्रकार का अवकाश ही नहीं है।
 यही कारण है कि संतमत सदाचार को अपना जीवन-सर्वस्व मानता है। आचरण और जीवन-नैतिकता और अध्यात्म अलग-अलग नहीं रह सकते। अतः ‘संस्कृति’ शब्द की भी व्याख्या ‘आचार’ को दृष्टि में रखकर ही की जानी ठीक है-संस्क्रियते मानवः अनया इति संस्कृति” अर्थात् सदाचारः। कहा ही गया है-आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः।’ “आचारः प्रथमो धर्मः” इस भारत देश में उत्पन्न हुए वेदविद् विद्वान् से सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्य अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करते थे-
 “एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः स्वस्व चरित्र शिक्षेरन् पृथिव्या सर्वमानवाः। -मनुस्मृति
 भक्त के लिए विचारों की शुद्धता, चरित्र की पवित्रता आवश्यक है। काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकार को धारण करके कोई भी संतमत का अनुयायी नहीं बन सकता है। स्वयं महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने कहा है-
 “व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिये।”
 महर्षिजी साधक के लिए सदाचार के अन्तःमूल्य पर जोर देते हैं, न कि बाह्य पाषंड पर। यही कारण है कि वे न तिलक लगाने को कहते हैं, न माला-सुमरनी हाथ में लेकर ही राम का जपना आवश्यक मानते हैं। संक्षेप में, बाहर के सारे पाखंडों को वे सदाचार का मूल मानते ही नहीं, व्यक्ति में जब धर्म प्रतिष्ठित होता है, तो उससे समाज और देश भी अछूते नहीं रहते। महर्षि ने स्पष्ट लिखा है- “मनुष्य के जीवन में पहले आध्यात्मिकता का पद है, तब सदाचार, फिर सामाजिक नीति और अंत में राजनीति का पद है।”
 समन्वय-संत-संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है और भारतीय संस्कृति समन्वय की संस्कृति है। शास्त्र तो एकपक्षीय हो सकते हैं; क्योंकि वे बुद्धि-प्रसूत हैं; लेकिन संत तो हृदय-प्रधान होते हैं, उनका हृदय तो नवनीत के समान कोमल होता है, अतः उनमें उदारता और व्यापकता स्वाभाविक है। सन्त समदर्शी और सारग्राही होते हैं। सत्य पर किसी एक व्यक्ति या पंथ का एकाधिकार हो भी नहीं सकता। सत्य न तो प्राची का है, न प्रतीची का, न पुरातन का है, न नूतन का; इसलिये वेदों में भी मध्यम मार्ग को निरापद माना गया है। “मध्यम् अभयम्य्। जैनों ने सत्य के अनेकानेक आयामों को समझकर ही अनेकांतवाद एवं स्याद्वाद का समन्वयवादी दर्शन रखा; उसी तरह भगवान् बुद्ध ने भी ‘मध्यम-प्रतिपदा’ का विचार रखा। यही कारण है कि “सर्वतोदेवनमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति” की भावना यहाँ की संस्कृति में है और यहाँ गोस्वामी तुलसीदास ने भी अपने समय के पंथ-सम्प्रदाय के समन्वय की विराट् चेष्टा की और आधुनिक युग में गाँधी जी ने भी “सर्व-धर्म-समभाव” का समन्वयकारी युग-दर्शन दिया। अक्सर धर्म जब निष्प्राण हो जाते हैं, तो वे पंथवाद की मरुभूमि में फँसकर अंधविश्वास और कर्मकांड को ही धर्म का पर्याय मानने लगते हैं। हमारे जितने महान् सन्त हुए हैं, उन्होंने प्रचलित धर्म का विनाश नहीं किया, खंडन-मंडन में अपनी शक्ति क्षय नहीं की; बल्कि समन्वय की चेष्टा की।
 महर्षि जी स्वयं कहते हैं-मुझे किसी सम्प्रदाय-द्वैत-अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत त्रैत आदि से झगड़ा नहीं है। किसी का मैं खंडन नहीं करता।” वे पुनः कहते हैं- “सबका ईश्वर एक है, इसीलिये सभी मत, पंथ, सम्प्रदाय एक हैं।” वास्तव में सन्तमत कोई सम्प्रदाय नहीं है। सब सन्तों के मत को मिलाकर सन्तमत कहते हैं। --- संत चाहे अपने देश के हों या दूसरे देश के, सब एक हैं।” यही है भारतीय संस्कृति। वैदिक काल से ही समन्वय का प्रयास होता रहा है- “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ------ एक देवो बहुधा कल्पयन्ति।” यद्यपि महर्षि निर्गुण, निराकार ब्रह्म को प्रधानता देते हैं; लेकिन उन्होंने निर्गुण-सगुण, रूप-अरूप का अद्भुत समन्वय किया है। महर्षि के अनुसार “अव्यक्त से व्यक्त हुआ है।” जिस प्रकार वेद में एक से अनेक की ‘सृष्टि भगवत् इच्छा से हुई है-‘एकोऽहं बहुस्याम।’ उसी प्रकार महर्षि भी मानते हैं कि “परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज हुए बिना सृष्टि नहीं होती।” गो0 तुलसीदासजी ने भी इसी प्रकार सगुणोपासक होकर, सगुण-निर्गुण का समन्वय किया था- “अगुनहि सगुनहि नहि कछु भेदा।”
 लेकिन इस प्रकार के वैचारिक समन्वय से भी महर्षिजी व्यक्ति और समाज, राष्ट्र और विश्व के समन्वय का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यह ठीक है कि व्यक्ति परमपुरुषार्थ है; लेकिन वे यह मानते हैं कि “सामाजिक नीति जब अच्छी होगी, तो राजनीति कभी बुरी नहीं हो सकेगी। वह आप-ही-आप सुधर जाएगी।” महर्षि इसी प्रकार विश्व-चेतना का विकास भी आवश्यक मानते हैं। सबसे बड़ी बात है कि महर्षि के उपदेश में ज्ञान, ध्यान और भक्ति का समन्वय है। वे कहते हैं-जहाँ योग (ध्यान) है, वहीं ज्ञान और भक्ति है। जहाँ भक्ति है, वहीं ज्ञान और योग हैं। मेरी दृष्टि में महर्षि जी ने केवल ज्ञान, भक्ति और योग का ही नहीं, कर्म का भी समन्वय किया है क्योंकि सदाचार पर उनका इतना अधिक बल देना कर्म की उपासना है। संतमत में मिथ्या ज्ञान का प्रलाप या जीवन-विमुख ध्यान और साधना नहीं, वहाँ तो एक जीवन-योग है।
भगवान् बुद्ध के ‘पंचशील’ और महर्षि मेँहीँ [आचार्य डी0एन0 (लामा), एम0ए0]
 समस्त प्राणियों को नाना प्रकार के दुःखों से मुक्त कराने के लिए उपाय खोजना हमारा परम कर्त्तव्य है। हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि संत-कवि और विद्वानों ने इस दुःख को जड़ से मिटाने तथा लोगों को इससे मुक्ति दिलाने हेतु सम्यक् मार्ग दिखाया। इन मार्गदर्शकों के बीच भगवान् बुद्ध एक अद्वितीय महापुरुष थे।
 इन दुःखों को मिटाने में भगवान् बुद्ध के सम्पूर्ण धर्म तथा शिक्षा के सार के रूप में तीन शील हैं- (1) शील (2) समाधि (3) प्रज्ञा।
 ठहरने के लिए आधार की भाँति कुशल धर्मों को धारण करना शील का अर्थ है। जैसे पृथ्वी सम्पूर्ण लोक का आधार होती है, उसी तरह शील भी समस्त गुणों का आधार होता है। शील से कार्यशुद्धि होती है और समाधि से चित्तशुद्धि।
 शील अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे-चतेनशील, संवरशील, तथा अनुल्लंघन शील। सदाचार पालन करना, हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मिथ्याभाषण और नशे के सेवन से विरत होना भी शील है।
 शील के गुण-शील समुद्रवत् गंभीर है।
विशुद्धि मार्ग में कहा गया है-
न गंगा यमुना चापि सरयू वा सरस्वती ।
निन्नगा वाचिश्वती मही वापि महानदी ।।
सक्कुणान्ति विशोधेतुं तं मलं इध पाणिनं ।
विशोधयति सतानं यं वे सीठजलं मल ।।
 अर्थ-गंगा, यमुना, सरयू या सरस्वती, अचिरवती (राप्तीनदी) महानदी आदि के जल से जिस मल को धोकर पवित्र नहीं किया जा सकता है, उस मल (प्राणियों के क्लेश) को इस शील के जल से धोया जाता है या धोया जा सकता है।
 विशुद्धि मार्ग में आगे कहा गया है:-
 “शील गन्ध समो गन्धो कुतो नाम भविस्सति ।
  यो समं अनुवाते च पतिवाते च वायति ।।”
 अर्थ:-शील रूपी गन्ध के समान दूसरी गन्ध कहाँ होगी, जो कि हवा के बहने की ओर और उसके विपरीत दिशा भी एक समान बहती है।
 महायान के अनुसार 10 अकुशल विरति शील के आधार पर शील के अनेक प्रकार होते हैं; किन्तु संक्षेप में शील तीन प्रकार का होता है-प्रतिमोक्ष शील, बोधिसत्त्व शील एवं गुह्य तन्त्र शील। सभी प्रकार के शीलों का इन्हीं तीनों में समावेश हो जाता है।
 विशुद्धि मार्ग के अनुसार चार परिशुद्धि शील में ही सब आ जाते हैं। जैसे, प्राति-मोक्ष संवरशील, इन्द्रिय संवर शील, आजीव, परिशुद्धि शील और प्रत्यय सन्निश्रित शील।
 धम्मपद में कहा गया है:-
 “सब्बपापस्य अकरणं कुसलस्य उपसम्पदा ।
  सचित परियोदपनं एतं बुद्धीन सासनं ।।”
 अर्थात् अकुशल या सभी प्रकार के पापों का न करना, कुशल वा पुण्य कर्मों को करना एवं अपने चित्त को दमन करना ही धर्म का मूल है। इसे ही बुद्ध-धर्म कहते हैं।
 10- अकुशल- इनको तीन भागों में विभाजित किया गया है। जैसे-कायिक, वाचिक एवं मानसिक।
कायिक अकुशल-जो अकुशल शरीर द्वारा किये जाते हैं, उन्हें कायिक अकुशल कहते हैं।
 इसी तरह जो अकुशल वाणी के द्वारा एवं मन के द्वारा किये जाते हैं, उन्हें वाणी और मानसिक अकुशल कहते हैं।
 3 कायिक अकुशल हैं; यथा:-1- प्राणातिपात (प्राणी की हिंसा) 2- अदत्तादान (चोरी) एवं 3- काम मिथ्याचार (काम-व्यभिचार)। 4 वाचिक अकुशल हैं; जैसे-1 मृषावाद (झूठ बोलना) 2- पैशुन्य (चुगली करना) 3- पारुष्य (कठोर वचन) तथा 4- सम्मिन्न प्रलाप (व्यर्थ बकवास करना)
 3 मानसिक अकुशल हैं; यथा 1- अमिथ्या, यह दूसरे की सम्पत्ति को अपने वश में करने की इच्छा है। यह विशेष प्रकार का लोभ है। 2- व्यापाद, यह दूसरे के अहित की कामना है। यह एक प्रकार का द्वेष है। 3- मिथ्यादृष्टि, यह मोह (अज्ञान) है। यह अनेक प्रकार की होती है।
 इन दश अकुशल कर्मों के 84 हजार क्लेशों की जड़ राग, द्वेष और मोह है।
 इन क्लेशों के प्रति 84 हजार धर्मखण्ड भगवान् बुद्ध ने दिया है। जबतक इन धर्मों को नहीं जानेंगे तबतक क्लेशों से मुक्ति नहीं मिल सकती है।
 इन शील का पालन करनेवाले पुद्गल 8 प्रकार के होते हैं; जैसे-उपासक, उपासिका, श्रामणेर, श्रामणेरिका, शिक्षमाणा, भिक्षु एवं भिक्षुणी।
 उपासक और उपासिका के पालनीय 5 धर्म निम्नलिखित हैं। ‘तथागत’ ने कहा है कि जो नित्य पंचशील का पालन करे, उसकी चार बातें बढ़ती हैं-आयु, वर्ण, सुख और बल। बुद्ध वचन इसलिये जरूरी है क्योंकि ऐसा करने से चित्त अकुशल कर्मों से मुक्त होकर कुशल कर्मों के ध्यान में लग जाता है और पवित्र होता है।
 ‘पाँचशील’-प्राणि-हिसा, चोरी, व्यभिचार, झूठ बोलना, सुरा (पक्की शराब), मेरय (कच्ची शराब), मद्य और नशीली चीजों के सेवन आदि से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करना आदि को पाँचशील कहते हैं।
 महर्षि मेँहीँ के चिन्तन, दर्शन और सिद्धान्त में प्रयुक्त पंचशील-झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना या मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी, इन पाँचों महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली, पृ0-6)
 पुनः वे अपनी कविता में उक्त बातों की पुष्टि करते हैं-
 “सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
  व्यभिचार, चोरी, नशा, हिसा, झूठ तजना चाहिए ।।”
 महर्षि जी ने यहाँ केवल अपने पंचशील का ही प्रतिपादन नहीं किया है, बल्कि साधक को नियमित रूप से दोनों प्रकार के सत्संग (बाहरी सत्संग एवं आन्तरिक सत्संग), ध्यान, दृढ़ता, संलग्नता के साथ करने का उपदेश भी दिया है। यथा-
काम क्रोध मद मोह को त्यागो। तृष्णा तजि गुरु-भक्ति में लागो ।।
मन कर सकल कपट अभिमाना। राग द्वेष अवगुण विधि नाना ।।
रस-रस तजो तबहि कल्याणा। धरि गुरु मत तजि मन-मत खाना ।।
पर-त्रिय झूठ नशा अरु हिसा। चोरी लेकर पाँच गरिसा ।।
तजो सकल यह तुम्हरो घाती। भवबन्धन कर जबर संघाती ।।
दारू गाँजा भाँग अफीमा। ताड़ी चण्डू मदक कोकीना ।।
सहित तम्बाकू नशा हैं जितने। तजन योग्य तज डारो तितने ।।
मांस मछलिया भोजन त्यागो। सतगुण खान-पान में पागो ।।
खान पान को प्रथम सम्हारो। तब रस-रस सब अवगुण मारो ।।
नित सत-संगति करो बनाई। अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा। अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।
 महर्षि जी ने एक ही पद्य में सन्तमत का सम्पूर्ण दर्शन चित्रित किया है। साधक को षट्विकारों का त्याग कर सदाचार पर चलकर और पंचशील का पूर्ण पालन करते हुए आत्म-दर्शन के हेतु नित्य नियमित ध्यानरत रहना चाहिए। यही महर्षि जी का मूल मंत्र है। भगवान् बुद्ध ने भी भिक्षु को ध्यान में लीन रहने का उपदेश दिया है।
 बौद्ध धर्म के तीन रत्नों में शील प्रथम है, दूसरी है समाधि और तीसरी प्रज्ञा। समाधि की आकांक्षा रखनेवाले साधक को सर्वप्रथम शील-पालन पर ध्यान देना चाहिए। परिशुद्ध शील होने पर ही चित्त एकाग्र होता है। अतः शील में भली भाँति प्रतिष्ठित होकर दस विघ्नों से मुक्त होना चाहिए। ये दस विघ्न हैं-आवास, कुल, लाभ, गण, कर्म, मार्ग, ज्ञाति, ग्रन्थ और ऋद्धि-
आवासो च कुलं लाभो, गणो कम्मं च पंचम ।
अद्धानं ञाति आबाधो ग्रंथो इद्धीति ते दस।।
 शील की बुद्धि ने धर्म में बड़ी प्रतिष्ठा है-कहा गया है कि दुःशील और असमाहित सौ वर्ष के जीवन की अपेक्षा एक दिन का शीलवन्त जीवन श्रेयस्कर है-
यो च वस्ससतं जीव दुस्सीलो असमाहितो ।
एकाहं जीवित सेय्यो सालवन्तस्स झायिनो ।
इस शील के अनुत्तर गद्य के समक्ष चन्दन, तगर इत्यादि की गंध की कोई बिसात नहीं है-
चन्दनं तगरं वापि उप्पलं अथ वस्सिकी ।
एतेसं गन्ध जातानं सीलगन्धो अनुत्तरो ।
 इस शील की आधारशिला पर बौद्धधर्म का विशाल हर्म्य टिका हुआ है। सचमुच मानव-जीवन में शील और सदाचार की महत्ता से इन्कार करना संभव नहीं है। भगवान् बुद्ध के पंचशील में हिसा, चोरी, नशा, व्यभिचार और असत्य से विरत रहने की बात कही गई है। इनके बिना साधना की भूमि में प्रवेश ही संभ्भव नहीं है। महर्षिजी का कहना है कि पापी व्यक्ति ध्यानी हो ही नहीं सकता है; क्योंकि उसकी वृत्ति सदैव पाप-विषयों में अनुरक्त रहती है। साधना के मार्ग में अग्रसर होने की सदाचार पहली शर्त है। “काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, चिढ़, द्वेष आदि मनोविकारों से खूब बचते रहना और दया, शील, सन्तोष, क्षमा, नम्रता आदि मन के उत्तम और सात्त्विक गुणों को धारण करते रहना, साधक के पक्ष में अत्यन्त हित है।” इसी प्रकार उन्होंने लिखा है- “साधक को स्वावलम्बी होना चाहिए। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिए। थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को सन्तुष्ट रखने की आदत लगानी उनके लिए परमोचित है।”
 भगवान् बुद्ध और महर्षि जी के वचनों के तुलनात्मक अनुशीलन से ज्ञात होता है कि दोनों महापुरुषों के विचार से शीलवान् व्यक्ति ही साधना के लोक में प्रवेश का अधिकारी हो सकता है। बिना शील के लोक-परलोक दोनों के लिए व्यक्ति अनुपयुक्त होता है।
 बौद्धधर्म के पंचशील हैं-1- पाणानिपाता वेरमणी (हिसा त्याग) 2- अदिन्नादाना वेरमणी (चोरी त्याग) 3- कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी (व्यभिचार-त्याग) 4- मुसावादा वेरमणी (असत्य त्याग) 5- सुरामेरयमञ्जपमादाट्ठाना वेरमणी (मद्यपान त्याग)
 इन पंच पापों के त्याग को पंचशील पालन माना गया है। भगवान् बुद्ध ने उपासकों को सम्बोधित करते हुए कहा था-हे गृहस्थगण! अधार्मिक अर्थात् दुःशील गृहस्थों को पाँच प्रकार की क्षति उठानी पड़ती है-
 1- वह घोर दरिद्रता के दुःख को प्राप्त होता है।
 2- उसकी चारों ओर बदनामी फैलती है।
 3- वह समाज में शंकितहृदय विचरता है।
 4- मरने के समय भी उसके चित्त की उद्विग्नता दूर नहीं होती।
 5- मरने के बाद वह नरक में पड़ता है।
 इसके विपरीत शीलवान् गृहस्थ को पाँच प्रकार का लाभ होता है:-
1- सुशील गृहस्थ जीवित दशा में भी सुख भोग करते हैं। 2- उनका सुयश चारों ओर फैलता है। 3- वे प्रसन्नतापूर्वक मनुष्य समाज में विचरण करता है। 4- मरणकाल में उनके चित्त में उद्विग्नता नहीं रहती। 5- मरने के बाद वे स्वर्ग प्राप्त करके दिव्य सुखों का भोग करते हैं।
 धर्म के ज्ञान के बिना शील का ज्ञान नहीं होता है। बिना शील के ज्ञान होने से क्लेशों से मुक्ति नहीं मिल सकती है। क्लेशों से ही प्राणियों को इस संसार रूपी सागर में बारम्बार भ्रमण करना पड़ता है।
 अभिधर्म कोष में कहा गया है-
धर्माणां प्रविचय्मन्तेरण नस्ति क्लेशानां यत उपशान्तयेऽभ्यु पायः ।
क्लेशैश्च भ्रमति भवार्णवेऽत्र लोक स्तद्धेतोरता उदिता किलैश शस्त्र ।।
 अर्थः-यतः धर्म-प्रविचय के बिना क्लेशों की शान्ति का कोई उपाय नहीं है और क्लेशों के कारण ही लोक इस भवार्णण (भवसागर) में भ्रमित होता है। अतएव कहते हैं कि इस प्रविचय के लिये बुद्ध ने अभिधर्म का उपदेश किया है।
 आज के महाविध्वंसकारी अणुयुग में शील अति आवश्यक है।
महर्षि मेँहीँ का सामाजिक दर्शन [राधेश्वर मण्डल, एम0ए0]
 महर्षि मेँहीँ का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ है। जनसाधारण की तरह इनकी जीवनचर्या शुरू हुई। कुछ कालोपरान्त इनके अन्तस् का सन्त जागा। अपने घर की सभी सुविधाओं को छोड़कर धीरे-धीरे साधना के कठिन मार्ग को अपनाया। संसार का सार तत्त्व है सत्य। सत्य ही ईश्वर है। इन्होंने इसी तत्त्व को श्रेष्ठतर समझा। इनका जन्म एक ग्रामीण अंचल में हुआ, अतः ग्रामीण जीवन से अपने आप को अछूता कैसे रखते? गाँव के अपढ़, असभ्य जनों के बीच रहना तथा ईश्वर-भक्ति का प्रचार-प्रसार करना इनका मुख्य उद्देश्य रहा। इन्होंने समाज की विषमता, विपन्नावस्था को निकट से देखा। देश गुलाम था। अँग्रेजों का शोषण-चक्र चल रहा था। अशिक्षा, अंधविश्वास, रुढ़िवादिता, पाखंड आदि समाज को पीछे ढकेल रहा था। मुट्ठी भर लोगों का जीवन भोग और विलास का जीवन था। जनसाधारण की हालत दयनीय थी। इनके मन में, इन सभी सामाजिक विषमताओं को देखकर प्रतिक्रिया हुई। समाज में फैली इन विषमताओं को दूर करने का इन्होंने संकल्प लिया। इन्होंने सोचा, जबतक लोगों का मानसिक स्तर, नैतिक स्तर ऊँचा नहीं होगा, तबतक सुधार असम्भव है।
 व्यक्ति के समूह को ही समाज कहते हैं। जबतक व्यक्ति-व्यक्ति में सुधार नहीं होगा, समाज और देश सुधर नहीं सकता। व्यक्ति के नैतिक, आध्यात्मिक स्तर को इस प्रकार पतन की ओर जाते देख, इनका हृदय दयार्द्र हो उठा। वे कहते हैं- “समाज में लोग सदाचारी बन जाएँगे, तो सामाजिक नीति अच्छी होगी और सामाजिक नीति जब अच्छी होगी, तो राजनीति कभी बुरी नहीं हो सकेगी, वह आप-ही-आप सुधर जाएगी।”
 साहित्यकार अपने साहित्य के द्वारा समाज की आधारशिला का निर्माण करता है। देश का आधार परिवार और समाज है। महर्षिजी का साहित्य समन्वय का साहित्य है। उन्होंने अपने साहित्य में केवल आध्यात्मिक बातों की ही चर्चा नहीं की है, वरन् सामाजिक रीति-नीति, आचार-विचार, रहन-सहन आदि का भी वर्णन किया है। सामाजिक सुव्यवस्था से देश में अमन-चैन रहता है। सामाजिक कुव्यवस्था से देश में अशान्ति फैलती है। जिस समाज के लोगों का चारित्रिक बल, नैतिक बल जितना उन्नत होगा, वह देश उतना ही महान् होगा। देश की चारित्रिक दुर्बलता कहाँ है? समाज में है। समाज को ठीक करना होगा। समाज के लोग बुरी आदतों के शिकार होते जा रहे हैं।
 इन्होंने सत्संग के द्वारा केवल आध्यात्मिकता का ही प्रचार नहीं किया है, अपितु अच्छी नीति का भी प्रचार किया है। संतमत के सात सिद्धान्तों में एक है-झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी-इन पाँच महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए।”
 उपर्युक्त सिद्धान्त से स्पष्ट होता है कि ये पाँच महापाप सभी बुराइयों की जड़ हैं। महर्षिजी ने लोगों में वैचारिक परिवर्तन का संदेश देते हुए कहा-भोजन के अनुरूप ही विचार बनता है। सात्त्विक आहार से विचार भी सात्त्विक बनता है। अतः इन्होंने लोगों से कहा-
 “दारू गाँजा भाँग अफीमा । ताड़ी चण्डू मदक कोकीना ।।
सहित तम्बाकू नशा हैं जितने । तजन योग्य तज डारो तितने ।।
मांस मछलिया भोजन त्यागो । सतगुण खान-पान में पागो ।।
खान पान को प्रथम सम्हारो । तब रस-रस सब अवगुण मारो ।।”1
 उपयुर्क्त सिद्धान्त सामाजिक नीति का सिद्धान्त है। यह कैसा आदर्श है। अगर लोग इन सभी बातों को, आचरणों को जीवन में उतारें, तो समाज की कितनी भलाई हो, कितना उपकार हो। महर्षि जी कहते हैं- “यहाँ घूसखोरी, चोरी और नैतिक पतन आदि वर्त्तमान हैं, जिससे जनता में दुःख फैला है, इससे बचने के लिए सन्तमत उपदेश करता है। कानून से नैतिक पतन छूट नहीं सकता। कानून चलता ही है और घूस-फूस भी चलते ही हैं। इसलिए सदाचार का पालन करो। सदाचार के पालन से देश में स्वराज्य में सुराज हो जायगा।
 महर्षि जी के सामाजिक दर्शन में विश्व-कल्याण की भावना निहित है, वर्त्तमान युग के इस महान् सन्त ने युग में परिव्याप्त अन्तर्द्वन्द, अन्तर-मालिन्य, अन्तर-संघर्ष और स्वार्थ को नजदीक से परखा है। इसकी चिन्तन-धारा युगानुरूप है। महर्षि जी कहते हैं-हमारे गुरु महाराज ने 1909 में कहा था, “पहले आध्यात्मिकता का पद है तब सदाचार का, फिर सामाजिक नीति और अन्त में राजनीति का पद है। तात्पर्य यह कि आध्यात्मिकता की ओर चलने से सदाचार का पालन करना आवश्यक होगा।” -----------
 -------------- अपने देश तथा सारे संसार को गुरु महाराज के उपर्युक्त उपदेश को मानना और पालन करना बहुत आवश्यक है। महर्षि जी के हृदय में राष्ट्र-चेतना के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय चेतना की धड़कन सुनाई पड़ती है। वे लोगों को आस्तिक बनने का संदेश देते हैं। विश्व में धर्म के नाम पर बड़ा रक्तपात हुआ है। आज हर व्यक्ति का अलग-अलग विचार है, रीति-नीति, रहन-सहन सभी अलग हैं, ऐसी हालत में देश एकता के सूत्र में कैसे बँधेगा। महर्षि जी, इस परिस्थिति में देश-विदेश के सभी पन्थों और सम्प्रदायों को मानव-धर्म के एक ही झंडे के नीचे आ जाने का निमंत्रण देते हैं। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है, यथा-
 “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।”
-श्रीमद्भगवद्गीता, अ0-18
 महर्षि जी की नवीन व्याख्या है कि सभी पंथ एक हैं, उनका विचार भी एक है, केवल समझ में विभिन्नता है। सन्तों का विचार एक है, उनका एक ईश्वर है और उस ईश्वर को प्राप्त करने का रास्ता भी एक ही है।
 अतः हम पाते हैं कि महर्षि जी में सर्वधर्म एकता की भावना है। महर्षि जी पुनः कहते हैं, यथा- “सन्तमत कोई खास सम्प्रदाय नहीं है। सब सन्तों के मत को मिलाकर सन्तमत कहते हैं। यहाँ किसी सन्त को छोटा अथवा किसी सन्त को बड़ा नहीं कहा जाता। साम्प्रदायिकता का भाव लेकर जो झगड़ा उठता है, वह इसमें बिल्कुल नहीं है। सन्त चाहे अपने देश के हों या दूसरे देश के, सब एक हैं।”1
 महर्षि जी कहते हैं- “मेल में बड़ा बल है।”2 इन्हें सभी धर्मों तथा सम्प्रदायों से मेल है। ये कहते हैं- “मुझे किसी सम्प्रदाय-द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, त्रैत आदि से झगड़ा नहीं है। किसी का मैं खण्डन नहीं करता हूँ। मैं कहता हूँ कि परमात्मा के लिए चलो। चलने के लिए बाहर जाना छोड़कर, अन्दर में चलो।”3
 महर्षि मेँहीँ इस युग के एक महान् समन्वयकारी संत हैं। इनकी भावना विश्वचेतना की भावना से ओत-प्रोत है।
 इनकी सामाजिक चेतना जन-मानस के हृदय को स्पर्श करती है। इन्होंने अपने प्रवचनों में लोगों को स्वावलम्बन का ऐसा पाठ दिया है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। आज समाज में इसकी बड़ी आवश्यकता है। इनका संदेश जन-जन के लिए है; यथा-
 “जीवन बिताओ स्वावलम्बी भरम भाँड़े फोड़िकर ।
  सन्तों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ’ माथ घर छल छोड़िकर ।।”4
 महर्षि जी को महात्मा गाँधी की राष्ट्रीय भावना में अटूट विश्वास है। ये कहते हैं- “संसार में महात्मा गाँधी के समान रहो। अर्थात् संसार के सभी कामों को करो और परमार्थ के सभी साधनों को निबाहते जाओ।”1 महर्षि जी सामाजिक उत्थान के लिए ज्ञान-विज्ञान का प्रचार करते हैं। इनकी शिक्षा सदाचार की शिक्षा है। इससे सामाजिक नीति सुदृढ़ रहती है, जिससे देश में अराजकता फैलने का भय नहीं रहता है।
 आज देश में हिंसा एक साधारण घटना मान ली जाती है, किन्तु इसका भयंकर परिणाम लोगों को भुगतना पड़ता है। इस प्रकार की हिंसा को महर्षि जी ने एक जघन्य कार्य माना और हिंसा की एक नवीनतम व्याख्या प्रस्तुत की-महर्षि जी ने हिसा को दो भागों में बाँटा है-(1) वार्य हिसा (2) अनिवार्य हिसा।
वार्य हिसा-
 वार्य हिसा को इन्होंने वर्जित बताया और कहा कि जिह्वा के स्वाद के लिये किसी प्राणी की हत्या करना अर्थात् भेंड़, बकरी आदि जानवरों को काटना या मछली मार कर खाना वार्य हिसा है। किसी के प्रति बुराई का ख्याल रखना या किसी के प्रति द्वेष भाव रखना या वाणी के द्वारा दुःख पहुँचाना आदि वार्य हिसा है।
अनिवार्य हिसा-
 अनिवार्य हिसा को इन्होंने आवश्यक बताया। इस प्रकार की हिसा किये बिना मनुष्य का काम नहीं चल सकता है, जैसे कृषक का कार्य। कृषक खेत में हल चलाता है, बीज बोता है, अनजाने उनसे कितने जीवों की हत्या हो जाती है। घर के कार्यों को करने में भी बहुत-से कीड़े-मकोड़ों की हत्या हो जाती है; लेकिन इसे हिसा नहीं कहा जा सकता है। महर्षि जी कहते हैं कि हिसा-अहिसा के भेद को जाने बिना लोग बहुत तरह की गलती कर बैठते हैं। आत्मा की रक्षा करना धर्म है। देश की रक्षा करने के लिए आक्रमणकारियों को मार डालना हिसा नहीं है। घर में डाकू मार-काट करे, माल लूटे, तो वहाँ उसे मार डालने में हिसा नहीं है। यह अनिवार्य हिसा है।
 महर्षिजी का सामाजिक दर्शन कितना आदर्शपूर्ण है। परिवार, समाज में शिष्टाचार का बहुत बड़ा महत्त्व है। महर्षि जी प्रवचन के क्रम में कहा करते हैं कि शिष्टाचार के अभाव में महाभारत का भयंकर युद्ध हुआ। महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने के कुछ समय पूर्व धर्मराज युधिष्ठिर शिष्टाचार के निर्वाह के लिए अपने गुरु द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह आदि के चरणों में प्रणाम निवेदन कर विजय श्री प्राप्त करने का वरदान माँगने गए थे। पूज्य गुरु द्रोण और भीष्म पितामह ने धर्मराज से कहा था कि अगर तू अभी मुझसे न मिलता, तो मैं शाप दे देता। इस प्रकार के शिष्टाचार की कथा महर्षि जी हमेशा कहा करते हैं। कभी-कभी तो लोककथा जैसे ‘कर्म-धर्म’ के द्वारा लोगों को बहुत-सी ज्ञान की बातें बताते हैं।
 आज के इस भौतिकवादी तथा वैज्ञानिक युग में मनुष्य सुख की तलाश में अहर्निश पाताल और अन्तरिक्ष की खाक छान रहे हैं। महर्षि जी कहते हैं कि भौतिक साधनों में सुख कहाँ? तृप्ति कहाँ? शांति कहाँ? जहाँ सुख की खान है, वहाँ मनुष्य उसे खोजने नहीं जाते। इन्द्रियों को जो सुख मिलता है, उसी को यथार्थ सुख समझ बैठते हैं। वस्तुतः आत्मा को जिससे सुख मिले, वह शाश्वत सुख है। आत्मा को सुख मिलता है, परमात्मा को प्राप्त कर लेने में।”
 महर्षि जी केवल आध्यात्मिक चितन में ही नहीं रहते, वरन् इनमें लोककल्याणकारी भावना, राष्ट्र-प्रेम तथा राष्ट्र-हित की भावना भी है। “देश को स्वतंत्र बनाने में आपने जो योगदान दिया, वह अवर्णनीय है। हाल में जब चीनियों ने अपने देश भारत पर आक्रमण किया था, तो आपने बिहार राज्य सुरक्षा-कोष में एक मुश्त दान दिया।
(श्रीगीतायोग-प्रकाश, पृ0-ठ)
 आक्रमण के समय महर्षि जी ने अस्सी वर्ष की जर्जर वृद्धावस्था में आत्म-विश्वास की ओजस्विनी भाषा में जो अपनी उद्घोषवाणी विश्व को सुनाई, वह अभयवाणी है- “आज या कल कभी-न-कभी इस शरीर का नाश हो जाना ध्रुव निश्चित है, किन्तु लोक कल्याणकारी कार्य में इस शरीर का बलि हो जाना अति श्रेयस्कर है, मैं बूढ़ा हो गया हूँ, हाथ-पैर काँपते हैं, फिर भी देश की रक्षा के निमित्त सरकार मुझे युद्ध में जाने के लिए कहे, तो मैं सहर्ष जाने के लिए तैयार हूँ। देश-रक्षार्थ युद्ध के लिए अपने देश के किसी भी व्यक्ति को मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।” (श्रीगीतायोग-प्रकाश, पृ0-ढ)
 निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महर्षिजी में एक साथ ही स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द और महात्मा गाँधी के स्वर मुखरित हो रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द वेदान्त-ज्ञान का प्रचार देश-विदेश में करते रहे पर दीन-दुखी और दलितों की सेवा में भी उसी निष्ठा के साथ दत्त-चित्त रहे। महर्षि अरविन्द ने देश की आजादी के लिए जी तोड़ परिश्रम किया। विश्ववंद्य बापू का जीवन तो वर्त्तमान भारत के इतिहास का प्रत्यक्ष साक्षी है। अहिसा और सत्य की पूजा के साथ ही हरिजनों, दलितों और दुखियों का उद्धार उनके जीवन का व्रत रहा। महर्षि जी में इन तीनों के आदर्श जैसे मूर्तिमान हो उठे हैं।
संतमत का लक्ष्य ‘व्यक्ति का विकास’ [मधु मेहता]
 अतीत में जब हमारे पूर्वजों ने अपने समस्त साम्राज्य में सद्गुणों का प्रादुर्भाव चाहा-तो उन्होंने सर्वप्रथम अपने निजी राज्य का सुधार किया। अपने निजी राज्य के सुधार के लिए उन्होंने सर्वप्रथम अपने परिवारों का सुधार किया। परिवारों के सुधार के लिए उन्होंने सर्वप्रथम व्यक्तियों का सुधार किया। व्यक्तियों के सुधार के लिए उन्होंने सर्वप्रथम उनके हृदय का सुधार किया। हृदय के सुधार के लिए उन्होंने सर्वप्रथम उनके विचार में सत्य और शुद्धता का संचार किया। विचार में शुद्धता के लिए उन्होंने उनके ज्ञान की सीमा का विस्तार किया और ज्ञान का यह सीमा-विस्तार उन्हें भौतिक वस्तुओं के निरीक्षण तथा खोज से मिला।
 वस्तुओं के निरीक्षण तथा खोज से उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। पूर्ण ज्ञान से उनके विचार में शुद्धता आई। विचार की शुद्धता से हृदय शुद्ध हुआ। हृदय की शुद्धता से उनके व्यक्तित्व में निखार आया। व्यक्तित्व में निखार से उनके परिवार में निखार और सुधार आया। उनके परिवार में सुधार से उनके राज्यों का प्रशासन सही और सफल हुआ और राज्यों का प्रशासन सही और सफल होने से संपूर्ण साम्राज्य में शांति और सुख प्रस्फुटित हुआ। -कन्फ्रयूसियस
 सुप्रसिद्ध चीनी दार्शनिक ‘कन्फ्रयूसियस’ के उपर्युक्त विचार पढ़कर मैं इस प्रकार प्रभावित हुआ कि मैंने इसकी प्रतियाँ तैयार कीं और उन लोगों के विचार की समानता की ओर संकेत करते हुए जो सच्चाई से अपने भौतिक जीवन में सत्य की खोज और पालन में लगे हुए हैं-अपने मित्रें को भेजा। जिन मित्रें को मैंने ये विचार भेजे थे, उनमें से एक मुझसे मिलने आया और बोला- “तुम अपना कीमती समय, पैसा और शक्ति इन पुराने दृष्टान्त (विचार) के प्रसार में-जबकि वे वर्त्तमान समय में लागू नहीं होते-क्यों नष्ट करते हो? आज लोग ऐसा कदम उठाना चाहते हैं, जिससे उनका भला हो।”
 जब मैंने प्रश्न किया कि मेरे लिए उनके मस्तिष्क में किस प्रकार के कदम उठाने का सुझाव है? तो वे बोले- “तुम जानते हो-हमारी सभी परेशानियों की जड़ हमारी गलत आर्थिक नीति है। सरकार द्वारा मुक्त व्यापार-औद्योगिक नीति अपनाने के लिए उसपर दबाव डालने के लिए एक अभियान प्रारंभ करो। तुम देखोगे कि हमारी सभी समस्याओं का अंत किस प्रकार और कितनी शीघ्रता से होता है।
 भारत में आज अनेक ऐसे विचारशील लोग हैं, जो हमारी अनेक समस्याओं का हल प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं। वास्तविकता यह है कि उनके सुझाव और उनके निवेदन (चाहे कितनी ही बुद्धिमता के क्यों न हों) हमारे राजनीतिज्ञों द्वारा अनसुने कर दिये गये हैं। ऐसा लगता है, जैसे उन्होंने इसी प्रकार चलते रहने का निर्णय कर लिया है, जिससे वे बिना रोक-टोक सदा राजनैतिक और आर्थिक सत्ता में बने रहें।
 ठीक जिस प्रकार राजनीतिज्ञ अपने आपमें परिवर्त्तन लाने के लिए तैयार नही हैं-उसी प्रकार हमारे विचारशील भारतीय भी इस राजनैतिक वास्तविकता को देखने और मानने से इनकार करते हैं और सत्ताधारी दल के साथ असफल प्रार्थी की भूमिका निभाते रहते हैं। इस मार्ग पर चलते हुए जबकि कुछ लोग दुनियादारी की दृष्टि से बुद्धिमान बन गये हैं और चापलूसी की आदत छोड़ दी है-बहुत-से ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए नीतियों में मौजूदा कमी से लाभ उठाने के लिए ध्यान केन्द्रित किया है।
 इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि जबकि राजनीतिज्ञों की एक बड़ी संख्या राजनीति के क्षेत्र में राजनैतिक लाभ और सत्ता के लिए आपसी स्पर्धा में लगी है। अधिकांश विचारशील भारतीय राजनीतिज्ञों से शोषित इस दुनिया में जीने के लिए उनके साथ अपने लक्ष्य का समझौता करने लगे हैं। इसका स्पष्ट प्रमाण बढ़ते हुए तनाव, असंतुलन और असुरक्षा के भय से मिलता है-जिसके कारण हम शारीरिक और मानसिक रूप से पहले की अपेक्षा अधिक हिसात्मक होते जा रहे हैं।
 दुःख की बात यह है कि हम इस दलदल से निकलने की उत्कृष्ट इच्छा में इन्हीं राजनैतिक मसीहा की राह देख रहे हैं और साथ-साथ उस मार्ग पर भी चल रहे हैं, जिसके कारण हमारी यह दशा हुई। ऐसे ही स्थल पर विश्व के महान् नेताओं (जैसे-कन्फ्रयूसियस, ईसा, कृष्ण, मोहम्मद और नानक आदि) का उपदेश सार्थक सिद्ध होता है। गोखले, रानाडे, विवेकानन्द, टैगोर और गाँधी जैसे महान् भारतीयों ने उनके उपदेशों के महत्त्व को समझा और लोगों को निर्भय और निःसंकोच रूप से ग्रहण करने की राय दी। उनका विश्वास था कि भारत को महान् बनने के लिए विचारशील भारतीयों के लिए यह समझना आवश्यक था कि यह तब तक संभव नहीं, जबतक कि वे स्वयं महान् नहीं बनते। वे जानते थे कि महानता राजनैतिक और आर्थिक सत्ता से नहीं आती। वे जानते थे कि व्यक्ति को विधान अथवा ताकत द्वारा नहीं बदला जा सकता।
 उनका विश्वास था कि राज्य का कर्त्तव्य है कि वह उनलोगों और उन संस्थानों की सहायता करे-जो अपने ज्ञान और आचरण से आपस में शांतिपूर्ण ढंग से जीने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे समझते थे कि किसी राष्ट्र की शक्ति बड़ी जनसंख्या से अथवा बड़े उत्पादन से अथवा बड़ी सैनिक शक्ति से अथवा एक या दो नेताओं की राजनैतिक शक्ति पर निर्भर नहीं है। बल्कि राष्ट्र की शक्ति सामान्य नागरिकों के साहस और चरित्र पर निर्भर करती है।
 उनका विश्वास था कि जबकि कृषि, उद्योग, विज्ञान और तकनीकी प्रगति तथा खोज पर किया गया खर्च जरूरी है-यह राष्ट्र को महान् तबतक नहीं बना सकता, जबतक कि राष्ट्र के नागरिकों को उपयोगी और ठोस ऐसी शिक्षा नहीं मिलती-जिससे वे अपने व्यक्तित्व में पूर्णता और प्रगति ला सकें और वे किसी भी व्यक्तिगत अथवा राष्ट्रीय समस्या का साहस और विश्वास के साथ सामना कर सकें।
 हमने इस आधारभूत सत्य को छोड़ दिया है। फलस्वरूप हम पूर्णतया चरित्रहीन और इतना अधिक भ्रमित हैं कि हम विश्वास और साहस के साथ अपनी मूर्खता स्वीकार कर एक नया मार्ग चुनने और राजनीतिज्ञों को अपने आपमें सुधार लाने पर मजबूर करने में हिचकते हैं।
 आज भारत को उस निबिड़ अंधकार से निकालने के लिए जो हमारे हृदय और मस्तिष्क पर छाया हुआ है और उसे सूर्योदय देने के लिए संपूर्ण परिवर्त्तन के गहन प्रयास की आवश्यकता है, जो उस ज्ञान से ही संभव है जो भारत को वास्तव में प्रशांत और सुखी बना सकें। उस ज्ञान के मूल उत्स इस देश के चिन्तक, सर्जक और संत हैं। महर्षि जी ऐसे ही चिन्तक संत हैं। महर्षि जी भी मानते हैं कि व्यक्ति के उच्चतक विकास से ही सृष्टि में शांति और सुव्यवस्था की स्थापना हो सकती है। व्यक्ति का उच्चतम विकास केवल भौतिक धारणा नहीं है। बिना आध्यात्मिक विकास के भौतिक विकास अधूरा है। अतः पूर्ण मनुष्य सुख प्राप्त करने के लिए भौतिक सफलताओं से आगे बढ़कर आध्यात्मिक सफलता के लिए प्रयास करना होगा-
  “उत्तम पुरुष के आचरण का अनुकरण लोग करते हैं और उत्तम पुरुष जिसे प्रमाण बनाते हैं, उसका लोग अनुसरण करते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण को यद्यपि तीनों लोकों में न कुछ करना था और न उन्हें कुछ भी अप्राप्त ही था, तथापि वे उपर्युक्त कारणों से कर्त्तव्य कर्मों में कुछ भी रुके बिना लगे रहते थे ताकि लोग उनका अनुकरण और अनुसरण करें। नहीं तो सारे लोक नष्ट हो जाएँगे और वे स्वयं अव्यवस्था के कर्त्ता बनेंगे तथा लोकों का नाश करने वाले होंगे। भगवान् श्रीकृष्ण ध्यान योगाभ्यास नित्य-प्रति उपर्युक्त कारणों से ही करते थे, नहीं तो उनको स्वयं अपने लिए इसकी कुछ भी आवश्यकता नहीं थी।”
-श्रीगीता-योग-प्रकाश, पृ0 49-50 ।
 ऊपर के उद्धरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि व्यक्ति जब चरम उन्नति प्राप्त कर लेता है, तब उसका प्रत्येक आचरण समाज के लिए अनुकरण योग्य उदाहरण बन जाता है। श्रीकृष्ण का जीवन इसका उदाहरण है। चरम उपलब्धि के बाद भी मनुष्य को कर्म से विरत नहीं होना चाहिए। लोक की लीक के लिए उसे अपने उत्तम कर्मों और ध्यानयोग का अभ्यास करते रहना चाहिए।
 अध्यात्म के उच्चतम लोक में सामूहिक साधना नाम की कोई वस्तु संम्भवतः नहीं होती। वहाँ व्यक्ति को अकेले अग्रसर होना पड़ता है। सूई की नोंक से भी पतली गली में सामूहिक संचरण के लिए शायद ही कोई अवकाश हो। अतएव यह स्पष्ट है कि साधना के क्षेत्र में जप, ध्यानाभ्यास आदि में एक खास दूरी तक ही समूह यात्रा संभव है। उसके बाद का विकास व्यक्ति का अलग-अलग है-परन्तु लक्ष्य सबका एक ही है। अतएव यह स्पष्ट है कि महर्षि जी समर्थित संतमत के साधन-मार्ग में व्यक्ति के चरम विकास को लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है; किन्तु यहाँ निश्चय ही व्यक्तिवाद के लिए कोई अवकाश नहीं है। व्यक्ति समाज की सबसे छोटी इकाई है। इसके स्वच्छ, सुन्दर और पवित्र होने पर इस इकाई से बननेवाले सारे संगठन सुन्दर और पवित्र होंगे। अतः पहली इकाई को पवित्र और शुद्ध बनाना प्रारंभिक आवश्यकता है। इससे आगे का कार्यक्रम स्वयं ही सुन्दर रूप से चलता रहेगा। संसार सँभल जायगा और उसके बाद परमार्थ भी सँभल सकेगा। महर्षिजी ने कहा है- “संसार की सँभाल बहुत जरूरी है, साथ ही यह भी जरूरी है कि संसार के उस पार में देखो। संसार में जबतक जीवन रहता है, तबतक इसकी सँभाल किए बिना आराम नहीं मिलता। संसार के पार में क्या है, इसकी खबर यदि नहीं ली, तो वह आराम, जिस आराम के बाद कोई तकलीफ नहीं आती, जिसके बाद कोई दूसरा आराम पाने की इच्छा नहीं होती, वह आराम नहीं मिलता। संसार में बहुत थोड़ी देर को आराम मिलता है। यह आराम या चैन का सुख क्षणिक है-अपूर्ण है; किन्तु संसार के बाद का सुख कल्याणपूर्ण और नित्य है। संतों ने कहा है कि संसार के कामों को भी करो और संसार के पार में भी देखने की कोशिश करो- “पलटू कारज सब करै, सुरत रहै अलगान।” सत्संग-सुधा, द्वितीय भाग, पृ0 67) अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति का सर्वांगिक विकास केवल भौतिक विकास नहीं है। भौतिकता की सीमा के परे की वास्तविकता के साक्षात्कार से ही व्यक्ति का संपूर्ण विकास संभव है, जो संतमत का लक्ष्य है।
भक्ति की पृष्ठभूमि और महर्षिजी की भक्ति का स्वरूप [डॉ0 रघुनाथ गिरि]
 विज्ञान के इस दिव्य आलोक के युग में मानव-बुद्धि अपनी पराकाष्ठा का दर्शन करना चाहती है। नवीन सुख-साधनों तथा अज्ञात तथ्यों की उपलब्धियाँ वैज्ञानिक साधना पर सार्वभौम मान्यता की मुहर लगा चुकी हैं, किसी भी तथ्य, धारणा, प्रत्यय या मान्यता को वैज्ञानिक प्रक्रिया में सत्य सिद्ध किए बिना सत्य स्वीकार करना, बुद्धिहीनता एवम् जड़ता का प्रमाण-पत्र है। मानव-मस्तिष्क स्वभावतः अपनी बुद्धि के ऊपर आए आक्षेप को सहन नहीं करता। यदि बुद्धिमत्ता की कसौटी विज्ञान-प्रणाली है, तो वह उसको ही लेकर चलेगा, चाहे उसके लिए जो भी त्याग करना पड़े। आज का मानव वैज्ञानिक युग में रहता है। विज्ञान उसकी सत्यता की कसौटी है, विज्ञान का दिव्य आलोक उसका पथप्रदर्शक है। इस दिव्य आलोक के समक्ष प्राचीन मान्यताओं के टिमटिमाते दीप निष्प्रभ हो चले हैं। आज का विज्ञानवादी मनुष्य विज्ञान के इस आलोक के समक्ष प्राचीन मान्यताओं को टिमटिमाते दीपवत् निष्प्रभ समझते हैं, धर्म, ईश्वर, कर्मवाद, स्वर्ग, नरक, आत्मा एवम् पुनर्जन्म आदि पर विश्वास करना नहीं चाहते। फलस्वरूप एक ओर समाज में अत्याचार, अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार, चोरी, घूसखोरी, उत्पीड़न, शोषण, उद्दण्डता, उच्छृंखलता एवं अनैतिकता इतने वेग से बढ़ रही है कि इनको रोकने में विज्ञान अपनी असमर्थता प्रदर्शित कर रहा है और विज्ञान अपने नवीन आविष्कारों के दौरान में उन तत्त्वों का भी समावेश करता जा रहा है, जो मानव-जाति के संहार के लिए पर्याप्त है। ऐसे विषम समय में पुरानी मान्यताओं पर विचार करना तथा उनका परीक्षण करना अनुचित और अनावश्यक नहीं हो सकता। किसी भी मान्यता को प्राप्त प्रमाण के बिना अंध रूप से स्वीकार कर लेना यदि अवैज्ञानिक है तो किसी मान्यता को प्रमाण के बिना अंधरूप से अस्वीकार करना भी उतना ही अवैज्ञानिक कहा जायगा; अतः इन सामयिक समस्याओं के संदर्भ में भक्ति के योगदान पर विवेचन करना असमीचीन नहीं होगा।
 किसी भी शब्द के अर्थ-विवेचन में व्युत्पत्यर्थ रूढ़्यर्थ और पारिभाषिक अर्थ पर विचार किया जाता है। हम ‘भक्ति’ शब्द के इन अर्थों पर कुछ विमर्श कर इस बात का परीक्षण करें कि क्या इन अर्थों में भक्ति आधुनिक युग में या किसी अन्य अधिक सभ्य कहे जाने वाले युग में आवश्यक है अथवा नहीं।
 व्युत्पत्यर्थ-‘भक्ति’ शब्द की निष्पत्ति ‘भज्’ धातु से भाव में ‘क्तिन्’ प्रत्यय करने से हुई है। धातु का अर्थ है-सेवा करना और प्रत्ययार्थ क्रियार्थ में ही अनुगत हो जाता है। यों भजन या भक्ति की निष्पत्ति ‘भज् विश्राणने’ से भी हो सकती है पर प्रस्तुत संदर्भ में उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इस व्युत्पत्यर्थ के अनुसार ‘सेवा’ (भक्ति) एक शाश्वत सत्य है। वह समाज में प्रत्येक काल में आवश्यक है। हाँ, सेवा के विषय तथा सेवक की भावना एवम् उद्देश्य पर उसके भले-बुरे की परीक्षा हो सकती है ‘भजन’ शब्द के पर्याय के रूप में ‘यजन’ शब्द का भी प्रयोग होता है (गीता 17/4 ‘यजन्ते सात्त्विका देवान्’ इत्यादि में) । पाणिनीय धातु पाठ के अनुसार “यज्य् धातु का अर्थ देव-पूजा, संगतिकरण एवं दान है। समाज व्यक्तियों से बनता है। बिना भली संगति की व्यवस्था हुए भले समाज का निर्माण संभव नहीं। दान भी समाज के लिए सदा उपादेय रहा है और रहेगा, इसमें दो राय संभव नहीं। इसके अनेक रूप भलीभाँति सबको विदित है, उनका विवेचन यहाँ अनपेक्षित है। हाँ, देव-पूजा के विषय में प्रश्न उठाया जा सकता है कि जब विज्ञान के युग में देव और देवलोक में आस्था न रही, तो उसकी पूजा की आवश्यकता ही क्या है? किन्तु जो लोग भारतीय संस्कृति से भली भाँति परिचित हैं, उनके लिए देववाद किसी अन्य विश्वासी परंपरा का नाम नहीं है। यहाँ देववाद का दूसरा नाम भावनावाद दिया जा सकता है। पुराण तथा स्मृति क्यों में उनके स्थलों पर यह बताया गया है।
 “न काष्ठे विद्यते देवः न पाषाणे न मृण्मये ।
  भावे हि विद्यते देवः तस्मात् भावो हि कारणम् ।।”
 अर्थात् देवता पाषाण, काष्ठ या मिट्टी की मूर्तियों में नहीं रहते; अपितु मानव की भावना में है, अतः देव-पूजा भावना की ही पूजा है, किसी दिव्य लोक में रहनेवाले देवता की नहीं। इसी प्रकार भक्ति के पर्याय अन्य शब्द शरणागति, प्रपत्ति, उपासना आदि के व्युत्पत्यर्थ को ध्यान में रखकर विचार किया जाय तो “समर्थ का आश्रय,” “सज्जन के पास स्थिति” आदि रूप में भक्ति किसी काल में भी अनावश्यक नहीं हो सकेगी।
 रूढ़्यर्थ-अपने रूढ़्यर्थ में भक्ति, श्रद्धा और विश्वास-रूप है। श्रद्धा और विश्वास से युक्त व्यक्ति भक्त कहा जाता है और विश्वास से प्रेरित कार्य, वचन एवम् मन से होनेवाले समस्त कर्म भक्ति हैं। श्रद्धा या विश्वास भक्ति का मूल है। यह एक अविश्लेष्य सरल, जन्मजात भाव है। यह मानव-हृदय का एक विशिष्ट गुण है। पशु आदि जीवों के जीवन में इसका कोई विशेष स्थान नहीं; क्योंकि वे प्रायः मूल प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर ही कार्य करते हैं; किन्तु मानव, जो बुद्धि या प्रज्ञा से प्रवृत्त होता है, श्रद्धा के बिना रह नहीं सकता। प्रज्ञा या विचार की अपेक्षा श्रद्धा मानव-जीवन में अधिक संतुलन और सामंजस्य लाती है। जो कार्य विचार से बहुत दिनों में होता है, वह श्रद्धा तुरन्त कर देती है। यही कारण है कि भारतीय परंपरा में ज्ञान और भक्ति को एक मानकर भी भक्ति को श्रेष्ठ कहा गया है, हम विचार की दृष्टि से एक साधारण कपड़े के टुकड़े और राष्ट्रीय झण्डे में कोई भेद भले न मानें, पर श्रद्धात्मक भेद इतना अधिक है कि वह हमारे व्यवहार को नियमित करता है। श्रद्धा मौलिक होती है और ज्ञान अर्जित, इसीलिए गीता में कहा गया है कि “श्रद्वावाँल्लभते ज्ञानम्य् अर्थात् श्रद्धावान् को ज्ञान प्राप्त होता है। श्रद्धा मानव में है और रहेगी। श्रद्धा का महत्त्व भारतीय धर्म-परम्परा में ऋग्वेद-काल से अब तक अक्षुण्ण रहा है। ऋग्वेद के ऋषियों ने “श्रद्धया अग्निः समिध्यते, श्रद्धया हूयते हविः” आदि मंत्रें में श्रद्धा के महत्त्व का स्पष्ट रूप से निर्देश किया है। इन मंत्रें की व्याख्या करते हुए आचार्य सायण श्रद्धा शब्द की व्याख्या “पुरुष गतौ अभिलाषः” कर्त्ता में विद्यमान प्रेम या अभिलाषा करते हैं। वेदान्त सार में गुरु-द्वारा उपदिष्ट वेदान्त वाक्यों में विश्वास को श्रद्धा माना गया है। इन व्याख्याओं से ऐसा प्रतीत होता है कि श्रद्धा ऐसी प्रारम्भिक मानसिक स्थिति है, जिसके कारण प्रेम, विश्वास, ज्ञान आदि का उदय तथा इनकी प्रतिष्ठा होती है। श्रद्धा शब्द की निष्पत्ति ‘श्रत् + धा’ से हुई है। ‘धा’ धातु का अर्थ है धारण और पोषण करना। अतः श्रद्धा का व्युत्पत्यर्थ है ‘श्रत्’ का धारण तथा पोषण करना। गीता के 17वें अध्याय के देखने से ‘श्रत्’ शब्द सत् का पर्यायवाची प्रतीत होता है। गीता के अनुसार ‘सत्’ शब्द का अर्थ स्थिति, भाव, साधु भाव, प्रशस्त कर्म, यज्ञ, तप, स्थिर भावना एवं इनके लिए कर्म हैं। यही ‘सत्’ कहे जानेवाले कर्म ही “श्रत्य् शब्द से व्यक्त किये जा सकते हैं-
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
प्रसस्ते कमणि तथा सच्छब्दः पार्थयुज्जयते ।।26।।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः स दति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ।।27।।
 यह अर्थ और स्पष्ट तब होता है, जब गीता में अश्रद्धा से किए गए तप, यज्ञ, दान को असत् कहा जाता है-
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं यत् । असदित्यच्यते पार्थ न तत्प्रेत्य नौ इह ।1
 इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव के मस्तिष्क से विश्वास या श्रद्धा को हटाया नहीं जा सकता। यह भले हो सकता है कि उसका विषय बदल जाय। भूतकाल में श्रद्धा और विश्वास का विषय अन्य हो, वर्त्तमान में दूसरा और भविष्यत् में तीसरा; किन्तु श्रद्धा और विश्वास के बिना मानव-जीवन संभव ही नहीं है। अतः श्रद्धा-विश्वास के रूप में ‘भक्ति’ को अनावश्यक कभी भी नहीं कहा जा सकता है। यही कारण है कि रामचरित-मानस के मंगलाचरण में ही गोस्वामी तुलसीदासजी शिव और पार्वती की, श्रद्धा और विश्वास के रूप में, वंदना करते हैं, जिससे उनके विषय में किसी को कोई संदेह न रहे-
‘भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।2
 पारिभाषिक अर्थ-शाण्डिल्य के अनुसार ईश्वर में अनुरक्ति भक्ति है- “सा (भक्तिः) परानुरक्तिरीश्वरे”3 और नारद के मत में वह परम प्रेम रूप है-सा तु परम प्रेमरूपा।4 भागवत पुराण में ईश्वर में स्वाभाविक अहैतुकी अव्यवहित मानसिक स्थिति को ‘भक्ति’ की संज्ञा दी है-
लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्यह्यु दाहृतम् । अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तम् ।।5
 शिव पुराण के अनुसार वह सत्प्रेमांकुर रूप है। पराशर ईश्वर की पूजा के अनुराग को और गर्ग ईश्वर की कथा और ख्याति के अनुराग को ‘भक्ति’ कहते हैं। मधुसूदन के अनुसार मानसिक वृत्तियों को परिवर्तित करने का साधन भक्ति है। वह हर्षरूप स्थायी है, जो मन को विशुद्ध रति में परिणत करता है तथा आगे चलकर शांत रस में विकसित हो जाता है।
 इन विभिन्न आचार्यों द्वारा दी गयी भक्ति की परिभाषा का विश्लेषण करने से पता चलता है कि सभी आचार्य भक्ति को एक मानसिक वृत्ति मानते हैं, जिसके लिए प्रसंगानुसार रति, अनुरक्ति, प्रेम, परम प्रेम, आसक्ति, प्रीति हर्ष, उल्लास, अभिलाष एवं रस आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है तथा इस मानव-वृत्ति का आलंबन ईश्वर को ही स्वीकार करते हैं; अतः यहाँ इन दो सर्वमान्य पहलुओं का कुछ विवेचन आवश्यक है। पहले हम इसके मानसिक वृत्तिरूपता पर विचार करें। इस सम्बन्ध में दो प्रश्न उठते हैं-पहला क्या भक्ति ज्ञान या क्रिया-रूप है अथवा इससे भिन्न? तथा दूसरा मनोभाव-रूप भक्ति में समस्त मनोभावों का समावेश होता है या कुछ भाव विशेष का? शाण्डिल्य इसके भावरूपता पर अधिक बल लेते हैं और इसके ज्ञानरूपता और क्रियारूपता के निवारण के लिए तर्क का आश्रय लेते हैं। उनका कहना है कि भक्ति यज्ञादि के समान क्रियारूप नहीं हो सकती; क्योंकि इसको क्रियारूप मान लेने पर एक ओर इसे कर्त्ता की स्वतंत्रेच्छा के अधीन होना पड़ेगा और दूसरी ओर इसके फल को भी कर्मफल के समान क्षय, अविशुद्धि तथा अतिशययुक्त मानना पड़ेगा। विचारपूर्वक देखने से पता चलता है कि आसक्तिरूप भक्ति कभी कर्त्ता की स्वतंत्रेच्छा पर आधारित नहीं हो सकती। हमारा प्रतिदिन का अनुभव ही साक्षी है कि पुत्र, कलत्र आदि में आसक्ति कोई ऐच्छिक क्रिया नहीं है, वह कर्त्ता की इच्छा के प्रतिकूल भी होती है। भक्ति के फल के सम्बन्ध में शाण्डिल्य का कहना है कि इसका फल नित्य और अनंत होता है। अतः क्षय, अतिशय और अविशुद्धि का लेश भी इसमें मानना अन्याय होगा। इसी प्रकार भक्ति को ज्ञानरूप भी नहीं माना जा सकता; क्योंकि इसको ज्ञानरूप मान लेने पर शत्रुविषयक ज्ञानकी शत्रुविषयक भक्ति या आसक्ति मानना पड़ेगा, जो किसी को अभीष्ट न होगा। जहाँ तक भक्ति के ज्ञान और क्रिया से भिन्नता का प्रश्न है, नारद और शांडिल्य, दोनों एकमत हैं; परन्तु नारद भक्ति को अंध मानसिक प्रवृत्ति न मानकर ज्ञानमूलक प्रवृत्ति मानते हैं। उनका कहना है कि भक्ति अंधप्रवृत्ति मूलक पाशविक प्रेम से भिन्न है; क्योंकि इसके पूर्व में ईश्वर का माहात्म्य ज्ञान रहता है। भक्ति कोई खरीद-बिक्री नहीं है, यह अंध प्रेम या स्वार्थलिप्सा का साधन नहीं, यह तो निःस्वार्थ प्रेम तत्सुख सुखित्व रूप है। पाशविक प्रेम के अनुरूप ‘जार प्रेम’ होता है, जहाँ स्वार्थ-लिप्सा और वासना-तृप्ति ही लक्ष्य रहता है। वह विशुद्ध प्रेम का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता है। नारद के इस मत से शाण्डिल्य सहमत नहीं हैं। वे भक्ति को स्वतंत्र मनोभाव मानने के पक्ष में हैं। इसके पूर्वांग के रूप में ज्ञान अनिवार्य रूप से आवश्यक नहीं। प्रायः भक्ति के पूर्व ज्ञान रहता है; किन्तु ज्ञान के अभाव में भक्ति का अभाव नहीं हो जाता है। इनका कहना है कि जैसे किसी सुन्दर नवयुवक के दर्शन मान से किसी नवयुवती में आसक्ति या प्रेम का उदय हो जाता है और वह उसके गुण-माहात्म्य-ज्ञान की प्रतीक्षा नहीं करती। हाँ, ये गुण माहात्म्य-ज्ञान उसकी आसक्ति की वृद्धि में सहायक होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास का मत नारद के मत के अनुकूल है। वे भक्ति के पूर्व ज्ञान का अस्तित्व स्वीकार करते हैं-
जाने बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीत होइ नहि प्रीती ।
प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई ।1 आदि में स्पष्ट है ।।
 गीता में भक्तों की चार श्रेणियाँ बतलाकर ज्ञानी को भी भक्त की कोटि में रखकर ज्ञान और भक्ति में अभेद बतलाया गया है। शिवपुराण तो पूर्ण रूप से ज्ञान और भक्ति में तादात्म्य स्वीकार करता है और ज्ञान के लिए भक्ति और भक्ति के लिए ज्ञान को आवश्यक मानता है। शाण्डिल्य भक्ति के भावनात्मक रूप के कट्टर प्रतिपादक हैं। वे किसी तरह ज्ञान और क्रिया को भक्ति मानने के पक्ष में नहीं हैं; किन्तु नारद और आनंदगिरि यज्ञ, तप, दान आदि क्रियाओं को भक्ति मानते हैं, यदि वे क्रियाएँ ईश्वरार्पण बुद्धि से की जाती हों। गीता भी नारद और आनंदगिरि के मत को दृढ़ करती है; क्योंकि यहाँ पर भी समस्त कर्मों को ईश्वरार्पण बुद्धि से किए जाने का विधान है। भगवान् कृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ यज्ञ, दान या तप करते हो, वह सब मुझे ही अर्पण कर दो। इस कर्मार्पण-रूप मुक्ति के लिए गीता और भी स्पष्ट रूप से निर्देश करती है-
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ।।2
 अर्थात् प्राणियों के मूल परमात्मा की अपने कर्मों से पूजा करके भी मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
 इस भावात्मक भक्ति के सम्बन्ध में दूसरा प्रश्न यह है कि भक्ति कोई भाव विशेष है या समस्त मनोभाव ही भक्ति है। गीता सर्वभाव को भक्ति मानने के पक्ष में है- “स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत” अर्थात् वही सर्वज्ञ है, जो सभी भावों से मेरा भजन करता है। इस “सर्वभाव” शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य शंकर सर्वात्मभाव रूपी अर्थ स्वीकार करते हैं। इनके मत में सर्वभाव का तात्पर्य सर्वभूतात्मभाव है, अर्थात् समस्त भूतों को अपनी आत्मा या ईश्वर रूप समझकर उनका भजन करना सर्वभाव से भजन करना है; किन्तु आनंदगिरि इस सर्वभाव का अर्थ समस्त मनोभाव, वाणी और कर्म करते हैं। इनके मत में सर्वभाव भजन का तात्पर्य ईश्वर में समस्त मनोभाव, वाणी और कर्म का समर्पण करना है। दोनों ही आचार्य अपने-अपने मत के समर्थन में गीता का ही प्रमाण उपस्थित करते हैं। आचार्य शंकर ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठिति,1 ‘तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत”2 ईश्वर समस्त भूतों के हृदय में विद्यमान है, अतः उसी को सर्वभाव से अर्थात् सर्वभूतात्मभाव से उसकी ही शरण में जाना श्रेय है, को प्रमाण मानते हैं। आनंदगिरि अपने मत की पुष्टि के लिए मेरे में मन लगाओ, मेरे लिए यज्ञ करो, मुझे ही नमस्कार करो, “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु3 आदि गीता वाक्य को उद्धृत करते हैं। ‘सर्वभाव’ शब्द की स्पष्ट व्याख्या करते हुए श्रीमद्भागवतपुराण में उन समस्त भावों के नाम-निर्देश तथा उनके द्वारा उपासना करनेवाले साधकों के उदाहरण भी उपस्थित किए हैं, जैसे काम, द्वेष, भय, स्नेह आदि किसी भाव से भगवान् में मन लगाकर अनेक लोग उस परम गति को प्राप्त करते हैं-
कामाद् द्वेषाद् भयाद् स्नेहाद् तथा भक्त्येश्वरे मनः ।
आवेश्य तदवं हित्वा बहवस्तद्गति गताः ।।5
 इन समस्त भावों के उदाहरण में भागवत का कहना है कि गोपियों ने काम से ईश्वर की उपासना की, कंस ने भय से, शिशुपाल आदि राजाओं ने द्वेष से, युधिष्ठिर ने स्नेह से, यादवों ने कुल-सम्बन्ध से और नारद ने भक्ति से भगवान् की उपासना की। इस प्रकार भागवत पुराण भक्ति के भावरूपता के महत्त्व को स्वीकार करते हुए उन भावों के ऊँच-नीच के प्रभाव से भक्ति को प्रभावित नहीं होने देता है। भावों का स्वयं कोई महत्त्व नहीं। महत्त्व उनके आलंबन विषय का है। कोई भी भाव हो यदि उसका आलंबन ईश्वर है, तो उसे भक्ति-पद प्राप्त है; अन्यथा वह भक्ति के आसन पर आसीन नहीं हो सकता; किन्तु मधुसूदन को भागवत का यह मत मान्य नहीं है। वे समस्त मनोभावों को भक्ति मानने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि हर्ष या उल्लास ही ऐसा मनोभाव है, जो चित्त की वृत्तियों को परिवर्तित कर उसमें विशुद्ध रति उत्पन्न करता है तथा आगे चलकर शांत रस में विकसित हो जाता है, जिस विकास-क्रम में ईश्वर का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इसलिए उल्लास या हर्ष-रूप स्थायी भाव को भक्ति कहना चाहिए। अन्य मनोभावों में भक्ति की सन्निकटता का विचार करते हुए मधुसूदन स्नेह का महत्त्व स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि स्नेहभाव, भक्ति-भाव के अत्यन्त सन्निकट है, जो वात्सल्य-रस (बड़ों से छोटों की ओर) और प्रेयोरस (छोटों से बड़ों की ओर) में परिणत हुआ करता है। मधुसूदन के मत में काम, भय और द्वेष; कभी भी भक्ति का स्थान ग्रहण नहीं कर सकते। काम शरीर-मात्र से विशेष सम्बन्ध रखने के कारण भक्ति बनने का अधिकारी नहीं तथा भय और द्वेष या अभिलाषा के प्रतिकूल होने के कारण भक्तिभाव में परिणत होने योग्य नहीं।
 अब हम भक्ति के आलम्बन ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ विवेचन प्रस्तुत करते हैं; क्योंकि भक्ति के स्वरूप के विषय में आचार्यों में मतभेद होने पर भी भक्ति के आलम्बन ईश्वर को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया गया है। ईश्वर के सम्बन्ध में दो प्रश्न उठते हैं-पहले का सम्बन्ध ईश्वर के स्वरूप से है और दूसरा ईश्वर के अस्तित्व से। ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में दो मान्यताएँ हैं-धार्मिक मान्यता और दार्शनिक मान्यता। धार्मिक मान्यता के अनुसार ईश्वर किसी लोक विशेष में रहता है और वहाँ रहकर वह अपनी सर्वशक्तिमत्ता से विश्व का संचालन करता है। वह भक्तों को सद्गति देता है तथा दुष्टों को दण्ड। वह इस जगत् के किसी न्यायप्रिय शक्तिशाली राजा का ही विशिष्टरूप है; किन्तु दार्शनिक मान्यता इसके बिल्कुल विपरीत है। इसके अनुसार ईश्वर समस्त प्राणियों में अनुभूत है, वह अन्तर्यामी रूप से सर्वत्र विद्यमान है। उसके अभाव की कल्पना भी सम्भव नहीं। दूसरे प्रश्न का सम्बन्ध ईश्वर के अस्तित्व से है। इस प्रश्न को भी दो प्रकार से रखा जा सकता है। प्रथम, क्या ईश्वर का अस्तित्व है? और दूसरा, क्या ईश्वर का अस्तित्व माना जा सकता है? इस प्रकार हम उक्त चार प्रश्नों पर दृष्टि डालें, तो देखेंगे कि ईश्वर के धार्मिक स्वरूप तथा ईश्वर के अस्तित्व के विषय में विज्ञान किसी प्रकार का सन्देह या शंका उठा सकता है; किन्तु इसके दार्शनिक स्वरूप और उसकी मान्यता पर किसी प्रकार का सन्देह संभव नहीं। विज्ञान भी इस बात को अस्वीकार नहीं कर सकता कि समस्त जड़-चेतन वस्तुओं में कोई एक शक्ति निहित है, जिसका सत्य-ज्ञान अभी तक नहीं हो पाया है और ईश्वर के न रहने पर भी उसके अस्तित्त्व की मान्यता का विश्व में स्थान है। भक्ति-भावना के लिये ईश्वर के अस्तित्व की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी उसके अस्तित्व की मान्यता की। हमें केवल यही चाहिये कि हमारी मान्यता में ईश्वर का अस्तित्व है और उसी के आधार पर हम अपने मनोभावों को उसमें केन्द्रित कर सकते हैं।
 भारतीय परम्परा में ईश्वर को आलम्बन बनाने का मुख्य कारण उसके दार्शनिक स्वरूप से है। भारतीय ईश्वरवादी परम्परा संसार से पलायनवादी नहीं, अपितु स्वार्थहीनतापूर्वक संसार के प्राणिमात्र में सद्भाव स्थापन की परंपरा है। भागवत पुराण ने ईश्वर की पूजा का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि जिस प्रकार हम पेड़ के धड़, तनों, शाखाओं, डालों और पत्तों को सींचने के लिए वृक्ष की जड़ का ही सिंचन करते हैं और उसी से उन सबका सिंचन स्वयं हो जाता है, उसी प्रकार विश्व के समस्त प्राणियों के मूलस्वरूप ईश्वर की पूजा स्वयं ही समस्त प्राणियों की पूजा बन जाती है-
 “यथा तरौर्मूलनिसेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः ।
  प्राणोपहारान्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतंज्या ।।”
 कारण यह कि ईश्वर तो समस्त विश्व की आत्मा है। वही मूल है, वही सबकी चरमावधि है- “सर्वेषामति भूतानां हरिरात्माअ्अ्त्मदः प्रियः।” गीता में भी यही बात बतलायी है कि भगवान् समस्त प्राणियों की आत्मा है और सबके भीतर अन्तर्यामी रूप से विद्यमान है- “अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशय स्थितः।” इसीलिए जो समस्त प्राणियों को ईश्वर में देखता है, वह समस्त प्राणियों में ईश्वर का भी दर्शन करता है- “यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति।” शिवपुराण तो स्पष्ट शब्दों में यह बतलाता है कि यह विश्व शिव का शरीर ही है और शिव की पूजा से इस वपुरूपी विश्व का पोषण-संवर्धन होता है। उसी तरह विश्व के समस्त प्राणियों की प्रसन्नता ही शिव की प्रसन्नता है। यदि कोई व्यक्ति विश्व के किसी भी प्राणी के रूप का कुछ अनिष्ट अवश्य करता है-
 “तद्वदस्य वपुर्विश्वं पुष्यते च शिवार्चनात् ।
तथा विश्वस्य संप्रीत्या प्रीतौ भवति शंकरः ।
देहिनो यस्य कस्यापि क्रियते यदि निग्रहः ।
अनिष्टमष्टमूर्तं वै कृतमेव न संशयः ।।” (शिवपुराण)
 गोस्वामी तुलसीदास ने भी ईश्वर-भक्ति के सम्बन्ध में इस तथ्य को स्वीकार करके ही कहा- “ईस्वर सर्वभूतमय अहई।”1 “सीय राम मय सब जग जानी। करौं प्रनाम जोरि जुग पानी।।”2 इत्यादि। ईश्वर-भक्ति के सम्बन्ध में अब महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के विचारों को देखें- “ध्यानयोग में नादानुसन्धान परम और अन्त का साधन है। इसके समाप्त हुए बिना योग समाप्त नहीं होगा। शून्य ध्यान वा विन्दु ध्यान द्वारा नादानुसन्धान (सुरत-शब्द-योग) का अभ्यास ग्रहण होगा।
विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम् ---------------।।13।। (योगशिखोपनिषद् अ0 2)
 अर्थ-विन्दु पीठ का भेदन करके नादलिंग उपस्थित होता है।
 “बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।2।।”
 अर्थ-परम विन्दु ही बीजाक्षर है। उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश) ब्रह्म में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है। -श्री गीता-योग-प्रकाश, पृ0 75
पुनः-
 ध्यानयोग का सार साधन नादानुसन्धान है, जो साधन के अन्त तक पहुँचाता है।
 तपस्वी से, ज्ञानी (वाचक ज्ञानी वा ध्यानयोग-अभ्यास में पूर्णता-विहीन ज्ञानी) से और कर्म्मकाण्डी से योगी अधिक है। योगियों में भी परमात्म-भक्त योगी श्रेष्ठ है। इसलिये हे लोगो! भक्त योगी बनो। -श्रीगीता-योग-प्रकाश, पृ0 76
 महर्षि जी के निम्नलिखित भक्त्यात्मकभजन में परमात्म-भक्ति स्पष्टतया वर्णित है-
 “आहो भाई सार भक्ति करु हो ---------------।”
 इस प्रकार भारतीय परम्परा में ईश्वर की पूजा पलायनवाद नहीं, निःस्वार्थ रूप से विश्व में सद्भावना, प्राणिमात्र के प्रति उपकार की प्रेरणा तथा समस्त प्राणियों की रक्षा एवं सेवा की भावना रही है, जिसकी आवश्यकता के विषय में काल का प्रश्न ही नहीं। अर्थात् वह भूत में जिस प्रकार अभीप्सित थी, वर्तमान में उसी प्रकार अपेक्षित है तथा भविष्य में भी उसकी अपेक्षा रहेगी।
 उक्त समस्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि भक्ति-भावना अनावश्यक नहीं हो सकती। यह मानव-जीवन में अनिवार्य तथा अपेक्षित है। इससे रहित मानव-जीवन एवम् मानव समाज की कल्पना भी संभव नहीं; क्योंकि भाव-विहीन मानव, पशु से भी हीनतर होगा। हम मानव विशेष भावों के कारण ही अपने को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठतर समझते हैं। यह भले हो कि भक्ति का आलंबन ईश्वर को न मानकर हम माता, पिता, गुरु राष्ट्र या समाज आदि में से किसी एक या अधिक को मानें; किन्तु भावना-विहीन मानव की कल्पना संभव नहीं।
 अब हम इसकी उपयोगिता पर कुछ प्रकाश डालना चाहेंगे। आज का युग उपयोगितावादी युग कहा जा सकता है; क्योंकि किसी वस्तु या मान्यता को स्वीकार करने के पूर्व यह प्रश्न सरलतया उठता है कि इसका इस युग में उपयोग क्या है? उपयोगिता के विषय में विचार करने के पूर्व उपयोग या उपयोगिता शब्द के अर्थ का निश्चय कर लेना आवश्यक होगा; क्योंकि एक परिस्थिति में जिसे उपयोगी कहा जाता है, अन्य परिस्थिति में उसे ही अनुपयोगी कह दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में हम उपयोग शब्द का एक आंशिक अर्थ लेते हैं और उसी के आधार पर निर्णय दे दिया करते हैं। उपयोग शब्द का सामान्य अर्थ उपेय के लिये योग या प्राप्ति किया जा सकता है अर्थात् प्राप्तव्य या प्राप्त करने योग्य वस्तुओं की प्राप्ति का साधन ही उपयोग और जो इस प्राप्ति में सहायक बनता है, वह उपयोगी कहलाता है। अब प्रश्न यह है कि मानव-जीवन में उपेय या प्राप्तव्य वस्तु क्या है? नैयायिकों ने इष्ट या उपेय या प्राप्तव्य के लिये विचार करते हुए केवल सुख और दुःख-निवृत्ति को अंतिम उपेय-प्राप्तव्य वस्तु माना है और इन उपेयों के साधनभूत सुखसाधन और दुःख-निवृत्ति के साधन भी उपेय मान लिये जाते हैं, अतः यहाँ विचारणीय यह है कि भक्ति मानव-जीवन में सुख या दुःख की निवृत्ति अथवा इनके साधनों में कुछ सहायक हो सकती है अथवा नहीं।
 पहले हम सुख को लेते हैं। सुख को साधारणतया भौतिक या विषयजन्य सुख और आध्यात्मिक या विचारजन्य सुख; दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। इसमें भौतिक सुख विषय इन्द्रिय संपर्क से उत्पन्न होने के कारण क्षणिक तथा अत्यधिक तृष्णा उत्पन्न करने के कारण दुखान्त हुआ करता है। इसी तृष्णा-तृप्ति सुख की आशा में चक्कर लगाते जीवन बीत जाता है और उसकी प्राप्ति नहीं होती है। इसी अनुभूति पर ययाति ने कहा था-
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।।
 अर्थात् विषय-भोग से भी इच्छाओं की तृप्ति नहीं हो सकती, वे तो उसी प्रकार निरंतर बढ़ती जाती हैं, जैसे हवि के डालने से अग्नि। अतः यदि इस सुख में भक्ति सहायक बने तो कोई क्षति नहीं। दूसरा सुख, जिसे हमने आध्यात्मिक की संज्ञा दी है, विचारजन्य सुख है। कविता; कला, परोपकार आदि में जो सुख की अनुभूति होती है, वह विचार प्रधान है विषय प्रधान नहीं। इसी क्रम में आगे चलकर आत्मतोष, आत्मबोध आदि चरम कोटि के सुख होते हैं, जिनमें व्यक्ति अपनी भौतिक सत्ता को भूलकर मानसिक एवम् आध्यात्मिक जगत् का आनन्द लेता है। इस विचारजन्य आध्यात्मिक सुख या आत्मतोष सुख में भक्ति का अत्यधिक महत्त्व है। एक सन्त-भक्त का उद्गार है-
चाह गई चिता सोई मनवाँ बेपरवाह । जाको कछु नहि चाहिए सो हं शामिटीशाह ।
 इसी प्रकार सांख्यविदों ने दुःख को तीन वर्गों में विभक्त किया है-आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक, जिनमें आध्यात्मिक को शारीरिक और मानसिक दो उपवर्गों में रखा गया है। विचार से देखने पर सभी दुःखों को इन्हीं दो, शारीरिक और मानसिक वर्गों में ही रखा जा सकता है; क्योंकि कारण भौतिक हो या दैविक, दुःख की उत्पत्ति शरीर और मन में ही होती है। शारीरिक दुःखों की निवृत्ति वैद्य, डॉक्टर, हकीम के निर्देश एवं औषधि-सेवन से होती है। जिसके लिए भी वैद्य और औषधि पर विश्वास परमावश्यक है। मानसिक दुःखों की निवृत्ति में ईश्वर पर विश्वास, कर्मफल पर विश्वास, सत्कर्म और ईश्वर-कृपा आदि पर विश्वास नितांत आवश्यक होता है। अतः दुःख की निवृति में भी विश्वास-रूप भक्ति का विशेष महत्त्व है। इसी आधार पर हम भक्ति की कतिपय उपयोगिताओं की चर्चा करेंगे।
 (1) आध्यात्मिक प्रवृत्ति में सहयोग-भक्ति की सर्वप्रथम उपयोगिता आध्यात्मिक प्रवृत्ति का उदय करना है, जिसकी परम आवश्यकता है। वही प्रवृत्ति इस विज्ञान की भौतिकता की प्रवृत्ति पर अंकुश लगा सकती है, अन्यथा मानव काम, क्रोध, लोभ-वश विज्ञान साधनों से मानव-मात्र के संहार के लिए किस क्षण उद्यत हो जायेगा, यह बतलाना बहुत कठिन है। आज विज्ञान ने अपने साधनों के द्वारा संसार को चकाचौंध में डाल दिया है; फिर भी विश्व में गरीबी भुखमरी, अत्याचार; उत्पीड़न, शोषण, युद्ध, घृणा, द्वेष, आक्रमण, अपहरण, घूस, चोरी आदि कुकृत्यों की मात्र बढ़ती जा रही है, जिसका निवारण केवल आध्यात्मिक प्रवृत्ति से ही संभव है।
 आध्यात्मिक प्रवृत्ति के सामान्यतया तीन साधन हो सकते हैं-
 (क) विज्ञान या इंद्रियजन्य ज्ञान (ख) तर्कजन्य ज्ञान या विचारजन्य ज्ञान (ग) विश्वास एवं श्रद्धाजन्य ज्ञान। इनमें विज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त संकुचित है। वह इस जन्म तथा अपनी भौतिकता के आगे बढ़ नहीं सकता। अतः उसके आधार पर अन्य जन्म, कर्म, फल, ईश्वर आदि अदृश्य तत्त्वों की परीक्षा और आकलन के द्वारा आध्यात्मिक प्रवृत्ति का उदय संभव ही नहीं। दूसरा साधन तर्क भी ‘अप्रतिष्ठ’ कहा जाता है क्योंकि तर्क का आधार एक ओर इन्द्रियजन्य ज्ञान होता है और दूसरी ओर मानव-बुद्धि। अतः एक बुद्धिमान के तर्कों का निराकरण दूसरा बुद्धिमान अन्य तर्कों से कर डालता है और तर्क स्वयम् अपने खंडन का मार्ग ढूँढ़ निकालता है। इसीलिए व्यास ने “तर्को प्रतिष्ठानात्य् कहा है। अर्थात् तर्क के द्वारा किसी चीज को स्थिर रूप नहीं दिया जा सकता है। अतः अदृश्य एवं अतर्क्य वस्तु की ओर प्रवृत्ति श्रद्धा द्वारा ही संभव है। इसीलिए उपनिषदों ने अध्यात्म प्रवृत्ति में प्रथम स्थान श्रवण को दिया है- “श्रोतव्यः मन्तव्यः” इत्यादि।
 (2) मानसिक रोगों के निवारण में सहयोग-आज का युग मानसिक रोगों का युग है। विज्ञान की बुद्धि ने मानव-जीवन के उत्थान का आधार प्रतियोगिता-प्रतिस्पर्द्धा एवं संघर्ष को बना दिया है, जिसमें अन्याय, पक्षपात, असफलता आदि की बहुलता दीख पड़ती है और जिनके फलस्वरूप विक्षिप्तता, पागलपन, हताशा मानस-ग्रन्थि, हिस्ट्रिया आदि अनेक असाध्य मानसिक रोग बढ़ते जा रहे हैं। यही कारण है कि समुन्नत कहे जाने वाले देशों में भी आत्महत्याएँ अधिक होती हैं। भक्ति-भावना, ईश्वर-प्रेम, कर्मफल पर विश्वास आदि ऐसे तथ्य हैं, जो मानव-मन को संतों ष एवम् विषमता में संयम की क्षमता प्रदान करते हैं और मानव-मन इन रोगों से छुटकारा पा लेता है तथा आत्मघात की ओर प्रवृत्त नहीं ही होता। हम पहले यह बतला आए है, कि ईश्वर-प्रेम के लिए ईश्वर का रहना आवश्यक नहीं, केवल ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास मात्र होना चाहिए। यह विश्वास परम्परागत संस्कार से चल सकता है जैसे भूत का भय संस्कारवश अनेक सुशिक्षित व्यक्तियों को भी रहता है, भले ही उनके जीवन में भूत का कभी दर्शन न हुआ हो।
 (3) नैतिकता की व्यवस्था में सहयोग-आज के युग में प्राचीन मानव-मान्यता के मूल्यों का विघटन हो चला है, नये मूल्यों का व्यवस्थापन न हुआ है और न होने की कोई संभावना दीख रही है, जिसके परिणाम-स्वरूप समाज में अनैतिकता का अधिराज्य हो गया है। असत्य, चोरी, मिलावट, हत्या, डकैती, घूसखोरी, मिथ्या-प्रचार, आत्मप्रशंसा, प्रवंचन, धूर्त्तता, कपट व्यवहार आदि मानव-जीवन के अंग बनते जा रहे हैं। इनके निवारण के लिए बने कानून, न्यायालय और पुलिस इनकी बुद्धि रोकने में असमर्थ है। आज का न्यायालय इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहाँ सत्य की प्रतिज्ञा के पश्चात् सभी असत्य बातें कही जाती हैं और न्याय एवं कानून के नाम पर अपराधी को मुक्ति और निरपराधी को दंड मिलना साधारण बात है। इन अपराधों का निवारण हम नियम और कानून तथा शासन के बल पर करना चाहते हैं, जिससे इनकी ओर वृद्धि होती है। रोग को छिपाकर या दबाकर दूर नहीं किया जा सकता है, उसके लिये उसका निदान और उसके मौलिक कारण का निवारण आवश्यक है। इन समस्त अपराधों का निवारण आवश्यक है। ये समस्त अपराध, जिन्हें हम अनैतिक कहते हैं, सद्भावना, परसत्ता में विश्वास तथा निःस्वार्थ प्रेम के अभाव के कारण हैं। इनको जागृत किए बिना कभी भी मानव-समाज से अनैतिकता जड़ से नहीं हटाई जा सकती। मानव के हृदय में कम-से-कम यदि मानव मात्र के प्रति भी सद्भावना और सत्प्रेम का अंकुर उग जाय तो विश्व को सुख-शान्ति और अमन-चैन मिल सकता है। आज प्रेम या सहायता के नाम पर छल और धोखे का व्यवहार निःसन्देह अंतर्भावना की कमी की ओर संकेत करता है। विश्व में विज्ञानजन्य साधनों के उपयोग से वस्तुओं की कमी पूरी की जा सकती है; किन्तु सद्भावना की कमी को हटाए बिना वह निरर्थक रहेगी और मानव दुःखाग्नि में जलता ही रहेगा। अतः सद्भावना का उदय परतत्त्व में विश्वास आदि को उदय कर मानव की नैतिकता में सहयोग करना भक्ति भावना की दूसरी उपयोगिता है।
 (4) धार्मिक तथा सामाजिक विरोधों और भेदों का विलयन-विश्व में रंग-भेद, वर्ग-भेद, स्थान-भेद, सम्प्रदायभेद के आधार पर जो समस्याएँ आये दिन उत्पन्न हो रही हैं, वे किसी से छिपी नहीं है। इन समस्त समस्याओं से आज विश्व का कोना-कोना व्याप्त हो रहा है। हमारा देश तो इन समस्याओं का आगार ही बना हुआ है। इन समस्त समस्याओं का समाधान भावना में परिवर्तन लाए बिना नहीं हो सकता। भक्ति-भावना से युक्त व्यक्ति के लिए “निज प्रभुमय देखहि जगत्, केहि सन करहि विरोध”1 की सूक्ति अक्षरशः सत्य होती है। उसके लिए यही उपदेश होता है कि “जात पात पूछे नहि कोई। हरि को भजे सो हरि का होई। जिसको ‘सबै भूमि गोपाल की’ दीख पड़े, उसे भला देश-भेद की भावना कैसे विचलित कर सकेगी। अतः इन समस्त समस्याओं का समाधान भक्ति-भावना को जागृत करने से सरलतया हो सकता है।
 (5) अन्याय के प्रति विरोध और क्रान्ति-आज विश्व में बुराइयों का दृढ़ स्थान इसलिये भी बनता जा रहा है कि बुराइयों को भली भाँति जाननेवाले इसका खुला विरोध नहीं करते। वे समझते हैं कि इन बुराइयों के आचरण करनेवाले तो मेरे आत्मीयजन हैं। पर भक्ति-भावनावाले व्यक्तियों में यह विलक्षणता होती है कि वे अन्यायप्रिय आत्मीयजन के विरोध में व्यक्त क्रान्ति करने लगते हैं-
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बन्धु भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितनि ।2
 आदि उसी क्रान्ति के ज्वलन्त उदाहरण हैं। आज यदि अत्याचार, घूस, मिलावट आदि के प्रति घर में विरोध होने लगे, तो इनके अस्तित्व को मिटाने में कुछ घण्टे ही लगेंगे; परन्तु यह कार्य भक्ति-भावना से युक्त द्वारा ही सम्भव है।
 (6) विज्ञान की उपलब्धियों से मानव-हित की प्रेरणा-आज विज्ञान हमें प्रत्येक कार्य के लिए सुव्यवस्थित और व्यापक साधन प्रस्तुत कर रहा है; किन्तु हमारे भीतर मानव-प्रेम की भावना नहीं है। अतः इन समस्त साधनों का उपयोग किसी वर्ग विशेष के हित के लिए होता है और दुर्बल वर्ग का दमन हो रहा है। यदि ईश्वर-प्रेम का व्यावहारिक रूप कम-से-कम मानव मात्र के प्रति प्रेम भी हो जाय, तो संसार में इन समस्त साधनों का सदुपयोग होगा। विश्व-कल्याण की प्रेरणा कहने मात्र से नहीं आ सकती उसका जनक तो स्वाभाविक प्रेम होगा। अतः भक्ति-भावना मानव-प्रेम को जागृत कर इन साधनों से मानव-हित की प्रेरणा दे सकती है।
 (7) विश्व शान्ति का प्रमुख सन्देश-इस प्रकार आज का विश्व, जिसे शान्ति की कामना है, पर मार्ग न मिलने के कारण आकुल है, शान्ति का सन्देश प्राप्त कर सकता है। यही मानव के प्रति परम प्रेम की भावना ही उसको विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रें के निर्माण से रोक सकता है। यही भावना उसको वर्ग-संघर्ष से अलग विश्वबन्धुत्व और विश्वशान्ति के लिये मार्ग प्रशस्त कर सकती है। अन्य सभी संधियाँ, शर्तें, बैठकें और अनेक राष्ट्रों के बीच निर्धारित अन्तर्राष्ट्रीय परम्पराएँ केवल दुर्बलों के लिये ही अनुष्ठेय हो सकती हैं, सबल राष्ट्र सबका स्वेच्छया उल्लंघन कर सकते हैं और करते हैं तथा निर्भय रहते हैं कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता है; अतः इस काल में यह नितान्त आवश्यक है कि इस भावना को प्रोत्साहन मिले। मानव-मानव में प्रेम बढ़े। एक दूसरे के हित को ईश्वर की पूजा समझे। इस प्रकार विश्व के समक्ष शान्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
जय गुरु!
सद्गुरु की असीम दया और आत्मा की प्रगति [श्रीमती यू0 फ्रयूजिता]
आदरणीय भाई ‘नागेश’,
  मैंने आपके पत्र 22 दिसम्बर 83 की प्रशंसा की। ‘स्मृतियाँ’ लिखने के लिये जो मुझे समय दिया गया वह बिल्कुल ही कम था और मैं कुछ शारीरिक और अन्य कठिनाइयों के चलते लिख नहीं सकी। मैं बहुत प्रसन्न होऊँगी, अगर आप उसके बदले इस पत्र को मेरी यादगारी में संक्षिप्त वर्णन के रूप में स्वीकार करें।
 सन् 1968 ई0 में मैंने गुरु महाराज के आज्ञानुसार कुप्पाघाट-आश्रम में प्रवेश किया और प्रातःकालीन सत्संग में भाग लिया और इस अवसर पर प्रवचन खत्म होने के पश्चात् उनका ध्यान नवागता के प्रति गया और उन्होंने अपने एक निकटस्थ सहयोगी से अपने प्रवचन को आंग्ल भाषा में रूपान्तर करने हेतु कहा। प्रवचन निम्न प्रकार था-
  “एक समय था कि एक मालिक के पास एक नौकर था। नौकर काफी तीक्ष्णबुद्धि का था, वह बिना समय नष्ट किए, कठिन परिश्रम करता था और सारे कार्यों को कर सकता था। वह हमेशा काम करते रहता था। और जब भी कोई काम करना होता था, तब वह तुरंत रवाना हो जाता था, और कार्य को सम्पन्न कर शीघ्र वापस लौट आता था। इसीलिए मालिक उसे बहुत प्यार करता था। वह इतना अधिक कार्य-दक्ष था कि कार्य को पूरा करके मालिक से पूछता कि अब मेरा आगे का क्या काम है? और मालिक तंग आकर थक जाता था। अन्ततः उसने एक उपाय निकाला और एक मोटे और लम्बे स्तम्भ को दरवाजे के निकट खड़ा किया और उसकी जड़ से नौकर को बाँध दिया। अब नौकर इधर-उधर नहीं जा सकता था और मालिक के आज्ञानुसार स्तम्भ पर चढ़ना-उतरना आरंभ कर दिया; इससे मालिक को चैन मिला। ------
 उस समय गुरु महाराज जी अकेले आश्रम में लम्बी छड़ी के सहारे भ्रमण कर रहे थे। गुरु महाराज के आशीर्वाद से और आश्रमवासियों की दया से मैं आश्रम में ठहर सकी और आश्रम में अपना समय दे सकी। मुझे मौका दिया गया-तीन सम्मेलनों में भाग लेने के लिए।
 गुरु महाराज जी के अमूल्य आशिष ने मुझे बहुत प्रकार के नादों को सुनने योग्य बनाया। हिमालय पर्वत में मैंने बहुत-से सुन्दर नादों को अपने अन्दर सुना-एक यात्री के रूप में भ्रमण करते हुए। एक बार चिंतन के दौरान मैंने एक जगह पर एक अद्भुत नाद को सुना और मैं बहुत घण्टों तक चमत्कृत, प्रभावित उसमें डूबी रही। मैं जबतक इस चमत्कृत क्षण से बाहर नहीं आयी, बाह्य संसार की आवाजें मेरे दिल को प्रभावित नहीं कर सकीं। मैंने गुरु महाराज से जब यह शिकायत की कि इस प्रकार के अद्भुत अनुभव को दुबारा कभी नहीं प्राप्त किया, तो उस पर गुरु महाराज ने मुझसे कहा कि- “लोभी मत बनो। इस प्रकार का अनुभव अगर एक बार भी किसी व्यक्ति को मिल जाता है, तो समझना चाहिये कि उसकी आत्मा ने काफी प्रगति की है; लेकिन इस अनुभव को किसी अन्य से नहीं बताना चाहिए।”
 जब मैं गुरु महाराज से पहली बार मिली और मैंने अपना अभिनन्दन जाहिर किया, तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा- “कितना भारी बोझ तुम अपनी पीठ पर लादे चल रही हो? तुम शायद नहीं जानती हो कि जिस चीज का तुम पीछा कर रही हो, वह तुम्हारे अन्दर ही मौजूद है और उसकी खोज में तुम काफी दूर देश से दूरी तय करके आयी हो।”
 जब कभी भी मैं गुरु महाराज से अलग हुई, तो इतना दुःख हुआ कि मेरी आँखों में आँसू भर गये। गुरु महाराज ने मुझे आश्वासन दिया कि जब कभी तुम मुझसे मिलना चाहोगी, मैं तुम्हारे समक्ष तुरंत प्रकट होऊँगा, चाहे तुम कितनी ही दूर क्यों न रहो।
 एक अवसर पर जब मैंने कहा कि जापान लौटने के बाद मैं एक आश्रम बनाने के बारे में सोचती हूँ। गुरु महाराज ने आश्रम के एक व्यक्ति के समक्ष जो उनकी बातों को स्पष्ट कर रहे थे, मुस्कराते हुए कहा- “यह अद्भुत होगा। अगर उन्होंने आश्रम का निर्माण किया; तो हमलोग अपनी सुविधानुसार शीघ्रातिशीघ्र वहाँ जायेंगे।”
 अब मैं हमेशा अनुभव करती हूँ कि गुरु महाराज जी वहाँ पर सदा परोक्ष रूप से विद्यमान रहते हैं। कितना वरदान-युक्त यह है।
 छायाचित्र ग्रन्थ के संबंध में जो आप चाहते थे, वह संलग्न है। उसमें से जो उपयोगी हो, उसे ले लें। अभिनन्दन ग्रन्थ का इन्तजार करते हुए आश्रमवासियों को मेरा सम्मान सूचित करें।
            भवनिष्ठा, जय गुरु !
 मैंने यह पत्र श्रीमती फ्रयूजिता के लिए लिखा। ह0-यूकिको फ्रयूजिता
  ह0-एम0 इक्यूची टोकियो (जापान)
सन्तमत प्रमादी नहीं; पुरुषार्थी बनाता है [श्री सन्तसेवी जी महाराज]
 कतिपय लोगों की धारणा है कि सन्तमत-सन्तों का मत लोगों को प्रमादी, पुरुषार्थहीन, अकर्मण्य, निरुत्साही एवं साहसहीन बनाता है। इतना ही नहीं, उनके विचारों में साधु-सन्तों ने सत्य और अहिसा का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर, शरीर और संसार की अनित्यता बताकर लोगों को कायर बना युद्ध से विमुख कर दिया, फलतः देश पराधीन हुआ।
 उनलोगों से निवेदन है कि वे इस विषय पर जरा गंभीरतापूर्वक विचार करें। वे स्वयं तो भ्रामक विचारों से भ्रमित हैं ही और अन्यों को भी अनावश्यक भटकन में डालते हैं, कृपया ऐसा वे न करें। अन्यथा यथार्थता से दूर रहने के कारण यथार्थ लाभ से सुदूर रहेंगे, इसमें सन्देह ही क्या?
 हमें जानना चाहिये कि सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब, सन्त पलटू साहब, सन्त दादू दयाल जी, सन्त रविदास जी प्रभृति सन्तों ने स्वोपार्जन करके रूखा-फीका, सलोना-अलोना खाकर अपना जीवन-निर्वाह किया और देश-कल्याण के लिये उनलोगों ने जितना बड़ा काम किया, उसका मूल्यांकन करने का दुस्साहस कौन कर सकता है?
 ‘दीन इस्लाम परिवार में पालित होते हुए सन्त कबीर ने वैदिक और इस्लाम-दोनों धर्मावलम्बियों को एकता का पाठ पढ़ाया। उन्होंने कभी भी किसी का पक्षपात नहीं किया, बल्कि जैसा जहाँ उनको उचित जँचा-कटु वा मधु, निर्भीकता से कहा-
 “हिन्दू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना । आपस में दोउ लड़े मरत हैं, दुविधा में लिपटाना ।।
 हिन्दू की दया मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी । यह करे जिबह वह झटका मारे, आग दोऊ घर लागी ।।”
-सन्त कबीर साहब
 मिथ्या रूढ़िवाद को मिटाने तथा सद्ज्ञान-प्रचार करने के हेतु उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं, उन्हें अपनी जान पर खेलना पड़ा। उस समय के सिकन्दर शाह लोदी तथा उनके गुरु शेख तकी द्वारा ये बेतरह सताये गये। उनलोगों ने इनको कभी देग (बड़े कड़ाह) में देकर चूल्हे पर चढ़ाकर उबाला, तो कभी हाथ-पैर बाँधकर हथियार-भरे कुएँ में फेंका, कभी बाँधकर बीच गंगाजी में डुबाया, फिर भी सन्त कबीर बेदाग निकले। उनको मारने की अनेक चेष्टा करने पर भी जब वे लोग असफल रहे, तब शेख तकी कहने लगा- “चेटक नेटक जुलाहा जाने। शाह सिकन्दर तू मत माने।” फिर उनको हाथी के पैर-तले दबवाने की कुचेष्टा की गई; किन्तु सन्त कबीर का वह बाल बाँका न कर सका। इस तरह सन्त कबीर साहब की बहत्तर कसनी प्रसिद्ध है। आज सन्त कबीर की लोक-कल्याणकारी वाणी देश-विदेश में, गाँव-गाँव में, घर-घर में, स्कूल-कॉलेज में, इतना ही नहीं, विद्वान्-अविद्वान् के मुँह-मुँह में लोकोक्ति के रूप में प्रचलित है।
 गुरु नानकदेवजी ने जनकल्याणार्थ देश-विदेश में भ्रमण करके लोगों को ईश्वर-भक्ति, सदचार-पालन एवं सत्संग करने के लिए सिखाया और काम, क्रोधादिक विकारों तथा छल, कपट-पाखंडादि दुर्गुणों से बचने की सीख दी।
 हमें और भी देखना है कि सन्तों ने ‘सर्वभूतहित’ के लिये कितना बड़ा त्याग किया है। हमें इस बात की अभिज्ञता होनी चाहिये कि महात्मा साक्रीटीज ने जहर का प्याला क्यों पिया? सेंट ईसा मसीह ने अपने को क्रॉस पर क्यों लटकवाया? पौराणिक ऋषि दधीचि ने अपने जीवित शरीर को गाय से चटवाकर वक्षअस्थि क्यों अर्पित की? क्या इन महान् विभूतियों में अपनी-अपनी कुत्सित स्वार्थ भावनाएँ भरी थीं? कदापि नहीं। “सन्त सहहिं दुख परहित लागी” को साकार रूप देने के लिये तथा “निज परिताप द्रवहिं नवनीता। पर दुख द्रवहिँ सन्त सुपुनीता।।” को चरितार्थ करने के लिये ही इन महान् आत्माओं ने अपनी कुर्बानी दी।
 हमारी आँखें खुलनी चाहिये कि जयचन्द और पृथ्वीराज कब के जैन, बौद्ध वा अन्य सन्तमतानुयायी थे, जिनके द्वारा भारत पराधीन हुआ था? हमें दुरालोचन-लोचन-विमोचन कर विवेक-विलोचन का निवारण करके अवलोकन करना चाहिये कि महाराजा अशोक, जो कि बौद्ध थे, सत्य और अहिसा के पुजारी थे, उनका साम्राज्य कितना विशाल, सुव्यवस्थित, सुसम्पन्न, सुगठित, सुशिक्षित और सुरक्षित था। आज स्वराज्य पाकर भी, क्या हम उस तरह की सुव्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं? यदि हम गंभीरतापूर्वक देखना चाहेंगे, तो देख सकेंगे कि सत्य और अहिंसा के महान् उपासक महात्मा गाँधी के द्वारा ही यह देश स्वाधीन हो सका है। और भी लीजिये, आपको स्मरण होगा कि जिन दिनों अन्य देशों के लोग हम भारतवासियों को बूतपूजक समझकर तिरस्कृत करते थे, उन दिनों स्वदेश से सुदूर विदेश जाकर एक सन्तमतानुयायी संन्यासी (स्वामी विवेकानन्दजी) ने ही भारत का मुख उज्ज्वल किया था।
 जानना चाहिये कि कोई भी सन्तमतानुयायी सफल योद्धा होने में समर्थ हो सकता है; क्योंकि उसको इस बात की विशेष शिक्षा मिली रहती है कि शरीर क्षणभंगुर है, अनित्य है। शरीर मरता है। आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है। शरीर म्यान है, आत्मा तलवार है। एक तलवार के जीवन में कितने म्यान बदलते हैं। एक जीवात्मा के जीवन में अनेक शरीर बदलते हैं। क्षेत्रज्ञ हैं। क्षेत्र वस्त्र के समान नूतन-पुरातन होता रहता है। एक जीर्ण पट के फटने पर अन्य नवपट धारण करते हैं, इसी भाँति एक देह-पात के बाद नव-नूतन तन ग्रहण करते हैं। इसलिये वह सन्तमतानुयायी योद्धा युद्ध-भूमि में काया की माया को छायावत् छोड़कर वीरतापूर्वक युद्ध कर दुश्मनों का मूली की भाँति उच्छेद कर डालेगा।
 दूसरी बात यह है कि सन्तमतानुयायी परम आस्तिक होते हैं, उनका परम बल परमात्मा है। उनको भगवान् श्रीकृष्ण के गीतोपदेश में दृढ़ विश्वास होता है कि भगवान् भक्त का योगक्षेम वहन करते हैं- “योगक्षेमं वहाम्यहम्य् (9/22) और यह बात भी सुनिश्चित है कि ईश्वर उनकी सहायता करते हैं, जो अपने से अपनी सहायता करते हैं-‘ळवक ीमसचे जीवेम ूीव ीमसच जीमउेमअसमेण्’ इसलिये वह और भी अत्यन्त निर्भीक होकर समर करेगा। सन्त कबीर साहब कहते हैं-
 “साध सती औ सूरमा, इनकी बात अगाध। आशा छोड़ै देह को, तिनमें अधिका साध ।
साध सती और सूरमा, ज्ञानी औ गजदन्त। एते निकसि न बाहुरै, जो जुग जाय अनन्त ।।
सिर राखे सिर जात है, सिर काटे सिर सोय। जैसे बाती दीप की, कटि उजियारा होय ।।”
 किन्तु जिसको केवल शरीर-ज्ञान है, आत्मज्ञान नहीं और जो नास्तिक है, वह क्या समर-भूमि में सम्मुख संग्राम कर सकता है? क्योंकि उसने तो शरीर को ही सब कुछ मान रखा है। शरीर नष्ट हुआ और स्थिति कुछ रही ही नहीं, इसलिये वह अपने शरीर की रक्षा के लिये अपनी दुम दबाकर पीछे ही भागेगा। साथ ही दूसरी कारण यह भी हो सकता है कि उसे अपने निज बल की ही जो न्यूनाधिक पूँजी है, सो है, उसकी बुद्धि वा अभिवृद्धि की कोई भी आशा-किरण उसे दिखाई नहीं पड़ती। इसलिये वह उस नये बछड़े के समान होगा, जो अपने कन्धे पर जुए लेकर सीधी राह में तो खूब दौड़ लगाता है; किन्तु बीहड़ मार्ग आने पर वह उस जुए को इस भाँति फेंक कर भागता है, जैसे सर्प केंचुली को।
 जरा खालसा-इतिहास के पन्ने उलटकर सन्तमत-योद्धाओं की वीरगाथाएँ पढ़िये। बन्दा वीर की वीरता, धीरता, गंभीरता एवं सहिष्णुता को देखकर हमें दाँतों-तले ऊँगली दबानी पड़ेगी। अल्पकाल में ही वह दुश्मनों के अनेक सिर भुट्टे की भाँति साफ कर डालता है। जब वह स्वयं दुश्मनों के हाथ पकड़ा जाता है और लोहे के चूँटे को अग्नि में रक्तवर्ण कर उससे उसके शरीर का मांस नोचा जाता है, उस समय भी बन्दा वीर प्रसन्न मुद्रा में उन दुश्मनों से प्रश्नोत्तर करता है। फर्रुखशियर के पूछने पर कि तुम्हारे साथ इतनी बेरहमी किये जाने पर भी तुम प्रसन्न दीखते हो, इसका क्या कारण है? बन्दा वीर ओजपूर्ण वाक्यों में कहता है- “तुम नहीं जानते, हमारे यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता है, तुम मेरा बाल बाँका नहीं कर सकते। तुम तो मेरे नश्वर शरीर मात्र को नोच रहे हो।” बन्दा वीर का शरीर छूटता है; किन्तु साहस अटूट रहता है। कोई सन्त-सन्तान ही इस वीरत्व-दशा को प्राप्त कर सकता है!
 गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज के दो रत्न (सुपुत्र), जो क्रमशः सात और नौ साल के थे, निर्भीक हो अपने को भित्ति में चुनवाते हैं; किन्तु धर्म-परिवर्त्तन नहीं करते हैं। क्यों? उनकी रग-रग में, रक्त की बूँद-बूँद में, बूँद के विन्दु-विन्दु में सन्तमत का जोश कल्लोल कर रहा था। दोनों मरते दम तक कहते रह गये- “हम गुरुपुत्र हैं, हम धर्म-परिवर्त्तन नहीं कर सकते।”
 गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज मीरी और पीरी दोनों तलवार रखते थे। गुरु अर्जुनदेव जी महाराज ने देशरक्षार्थ जितनी यातनाएँ झेलीं, वे अवर्णनीय हैं। गुरु तेगबहादुर सिंह जी महाराज ने “बहुजन सुखाय, बहुजन हिताय” अपनी जान दे दी। नरकेशरी गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने दुश्मनों के चंगुल से भारत भूमि को बचाने के लिये कौन-सा प्रयत्न उठा रखा? पुत्रें-सहित स्वयं युद्धाग्नि में जूझ पड़े।
 जिस महाभारत ग्रन्थ में कौरव-पाण्डवों की वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है, उसी (महाभारत) में पुत्र और परिवार के शोक में सन्तप्त उनके हृदयगत दौर्बल्य-जनित करुण-क्रन्दन, अश्रुपात और विलाप के भी भरपूर वर्णन मिलते हैं। कहाँ वह वीरत्व और कहाँ यह करुण क्रन्दन! मानों उस सारी वीरता को यह मटियामेट कर डालता है।
 किन्तु यहाँ स्वयं (गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज) अपने किले के बुर्जे पर बैठकर समरभूमि के सभी तमाशे देख रहे हैं। उनकी आँखों के सामने उनका ज्येष्ठ युवा पुत्र अनेक दुश्मनों का संहार कर वीरत्व दशा को प्राप्त करता है, ऐसी विपन्न अवस्था में भी उनके मुँह से आवाज निकलती है- “शाबाश बेटा! शाबाश!!
 पुनः द्वितीय पुत्र की पीठ ठोककर कहते हैं- “बेटा! अब तुम्हारी बारी है।” वह भी तैयार हो जाता है और युद्ध करते-करते वीरगति को प्राप्त होता है। फिर भी इनके मुँह से वही हर्षाशिष-ध्वनि गुंजायमान होती है- “शाबाश बेटा! शाबाश!!
 “यहाँ कहाँ करुण क्रन्दन यहाँ कहाँ अश्रुपात । यहाँ तो मुँह से निकलता, बार-बार धन्यवाद ।।”
 धन्य हैं गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज और धन्य है उनकी कीर्त्ति! आज हमारे बीच वे अव्यक्त होकर भी अमर हैं। भला ऐसा क्यों न हो! यहाँ तो महाभारत-मैदान में मोहग्रस्त महाबाहु को दिये माधव-मुरलीधर की मधुर मुरली-ध्वनि में वह मन्त्र सतत ध्वनित होता रहता था-तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च” (गी0 8/7) और जिसको उन्होंने चरितार्थ कर दिखलाया।
 एक बात और, सन्तमत किसी को घर-वार का परित्याग कर कानन-विहारी बनना नहीं सिखाता। यह तो स्पष्ट शब्दों में कहता है-
 “घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि बन नहि जावै ।”
ञ् ञ् ञ्
और भी,
 “घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।।”
 सन्तमत सिखाता है-
 “कपड़े रंगकर जो न कपट का जाल बिछावे। तन पर जो न विभूति पेट के लिये लगावे ।
  हमें चाहिये सच्चा जी वाला वह साधु। देश जाति जग हित कर जो नित जनम गँवावे ।”
 “पर उपकार बचन मन काया। सन्त सहज स्वभाव खगराया ।।
भूरज तरु सम सन्त कृपाला। परहित नित सह बिपति बिसाला ।।
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। परहित हेतु सबन्हि कै करनी ।।”
 तथा “विश्व उपकार हित व्यग्र चित सर्वदा त्यक्त मदमन्युकृत पुन्यरासी” अपने जीवन में उतारने के लिये। अतएव दृढ़तापूर्वक जानना चाहिये की सन्तमत मनुष्यमात्र को ज्ञान-विज्ञान के द्वारा उत्साह, स्फूर्त्ति, धैर्य, सत्साहस, स्वधर्मपालन तथा परोपकारादि सद्गुणों को भरकर उन्हें अनृण होना और सानुकूल जीविकोपार्जन कर स्वावलम्बी जीवन बिताते हुए स्वदेश-रक्षार्थ अपने को बलिवेदी पर चढ़ाना सिखाता है।
बन्ध और मोक्ष-दशा [श्री सन्तसेवीजी महाराज]
 मुक्ति एक सापेक्ष शब्द है, जो हठात् बन्धन का स्मरण दिलाता है। यदि बन्धन नहीं तो मुक्ति कैसी? मुक्ति या मोक्ष का अर्थ है-छूट जाना। किससे छूटना? जिससे जुटना हुआ है, किन्तु जिसका कभी किसी से जुड़ना नहीं हुआ, उसका बिछुड़ना कैसा? जो कभी बन्धनयुक्त हुआ नहीं, उसका बन्धन-मुक्त होना कैसा? जिसका संयोग ही नहीं, उसका वियोग कैसा? और जिसका वियोग नहीं, उसका फिर योग कैसा? इसलिए यह कहना युक्तियुक्त है कि जो बन्धनयुक्त होता है, वही बन्धनमुक्त होता है। जिसमें ‘योग’ का गुण होता है, उसी में वियोग का भी; और जिसमें वियोग का गुण होता है, उसी में संयोग का भी। जिसमें योग का गुण नहीं, उसमें वियोग का भी गुण नहीं। साथ ही विवेक-दृष्टि से अवलोकन करने पर तो यही प्रतीत होता है कि ये सभी योग-वियोग, बन्ध-मोक्ष, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, गुण-दोष प्रभृति माया-विरचित-मोहमूलक हैं। और ये उभय-प्रदर्शन तो अज्ञानता की स्पष्ट निशानी हैं ही, इनके लिये कहना ही क्या? भगवान् श्रीराम भरत जी से कहते हैं-
 “सुनहु तात माया कृत, गुन अरु दोष अनेक ।
  गुन यह उभय न देखियहि, देखिय सो अविवेक ।।”
(रामचरितमानस)
 शुद्धात्म-स्वरूप में न योग है, न वियोग, न भोग्य है, न भोगी। रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में लक्ष्मण-गुह-संवाद में पढ़िये-
 “योग वियोग भोग भल मन्दा । हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा ।।”
 अर्थात् मिलना-बिछुड़ना, भला-बुरा फल भोगना, मित्र-शत्रु और मध्यस्थ सभी भ्रम के फंदे हैं। विचारणीय है कि योग-वियोग आदि द्वैत को भ्रम क्यों कहा गया? इसलिये कि बिना भ्रम के विविधता नहीं हो सकती अर्थात् भ्रम या अज्ञानता के कारण ही द्वैत या विविधता का ज्ञान होता है और द्वैत वा विविधता में ही अपने यथार्थ स्वरूप की विस्मृति होती है, फलस्वरूप दुःख के भागी होते हैं।
 “रजत सीप महँ भास जिमि, यथा भानु कर बारि।
 जदपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि।।
  यहि बिधि जग हरि आश्रित रहई । जदपि असत्य देत दुख अहई ।।”
-रामचरितमानस
 “अपुनपौ आपुहि ते बिसरो ।
जैसे स्वान काँच मंदिर में, भ्रम से भूकि मरो ।।
ज्यों केहरि बपु निरखि कूपजल, प्रतिमा देखि गिरो ।
वैसे ही गज फटिक सिला में, दसननि आनि अड़ो ।।
मरकट मूठि स्वाद नहि बहुरै, घर घर रटत फिरो ।
कहै कबीर नलनी के सुगना, तोहि कवन पकरो ।।”
-सन्त कबीर साहब
 किन्तु यदि कठोपनिषद् के वाक्यानुकूल दृढ़ ज्ञान हो जाय कि (अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च) जैसे एक ही अग्नि इस लोक में प्रविष्ट करके प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रही है, उसी प्रकार एक ही अन्तरात्मा सम्पूर्ण भूतों में व्याप्त रहकर प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रही है और उससे बाहर भी है।” इस तरह सब पिंडरूप विविधताओं में एक ही आत्मा का निश्चयपूर्वक विश्वास कर लेने पर एक ही अद्वैत पदार्थ की सिद्धि हो जाती है। जो एक-ही-एक हो, दो नहीं हो, तब मिलना-बिछुड़ना किसका किससे हो? भोगी कौन और भोग्य क्या? हित कौन और अहित किसका? अर्थात् संयुक्त-वियुक्त, भोगी-भोग्य, हित-अहित, उत्तम-निकृष्ट और मध्यम आदि मानना बिल्कुल असत्य, भ्रम और अयुक्त सिद्ध हो जायगा। किन्तु यदि ऐसा ज्ञान केवल बौद्धिक विचार तक ही सीमित रहे, तो यथार्थ ज्ञान से सुदूर ही रहना होगा। यथार्थ ज्ञान के लिये तो उसकी अपरोक्षानुभूति होनी चाहिये और इसके लिये उपनिषत्कार ऋषि कहते हैं-
 “श्रवणमनननिदिध्यासनानि नैरन्तर्येण कृत्वा ।”
 अर्थात् श्रवण, मनन, निदिध्यासनादि का निरन्तर अनुष्ठान करना चाहिये। श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान के इन चारों अंगों में निष्णात हुए बिना केवल कथनी कथने से-जबानी जमाखर्च लगाने से काम नहीं चल सकता।
 “जब लग कथनी हम कथी, दूर रहा जगदीस।”
 “करनी बिन कथनी कथै, गुरुपद लहै न कोय ।
 बातों के पकवान से, धापा नाहीं कोय ।।”
-सन्त कबीर साहब
 “वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण भव पार न पावइ कोई ।
निसि गृह मध्य दीप की बातन्हि तम निवृत्त नहि होई ।।
जैसे कोउ एक दीन दुखित अति असन बिना दुख पावै ।
चित्र कल्पतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ।।
षट् रस बहु प्रकार व्यंजन कोउ, दिन अरु रैन बखानै ।
बिनु बोले संतों ष जनित सुख, खाइ सोई पै जानै ।।”
-गोस्वामी तुलसीदास जी
 मनमोदक से किसकी भूख मिटी है तथा पुरुषार्थहीन होकर ‘धन मिले, धन मिले’ की माला फेरने से-रट लगाने मात्र से आज तक कौन धनी हुआ है? “धन-धन कहत धनी जो होते, निर्धन रहत न कोई।” (सन्त कबीर साहब) इन्होंने (सन्त कबीर साहब ने) वाक्य से ही ब्रह्म बन जानेवाले की कड़ी आलोचना की है-
 “कहता पै करता नहीं, मुख का बड़ा लबार ।
आखिर धक्का खायगा, साहब के दरबार ।।
एक कहै दूजी कहै, दो दो कहै बनाय ।
ये दो मुख का बोलना, घना तमाचा खाय ।।”
संत पलटू साहब कहते हैं-
 “बाचक ज्ञान न नीका ज्ञानी, ज्यों कारिख का टीका ।।
बिनु पूँजी को साहु कहावै, कौड़ी घर में नाहीं ।
ज्यों खावै चोकर के लड्डू, का सवाद तेहि माहीं ।।
ज्यों सुवान कुछ देखिके भूँकै, तिसने तौ कछु पाई ।
बाकी भूँक सुनै जो भूँकै, सो अहमक कहवाई ।।
बातन सेती नहि होइ राजा, नहि बातन गढ़ टूटै ।
मुलुक मँहै तब अमल होइगा, तीर तुपक जब छूटै ।।
बातन से पकवान बनावै, पेट भरै नहि कोई ।
पलटूदास करै सोइ कहना, कहे सेती क्या होई ।।”
 बुद्धिमान जन को अपनी वर्त्तमान हालत पर विचार करना चाहिये। हमारी वर्त्तमान हालत क्या है? हम अज्ञानान्धकार में पड़े हैं। केवल विद्याबुद्धिविवेकहीनता के कारण ही हम अन्धकार में पड़े हैं, ऐसी बात नहीं, प्रत्युत् प्रत्यक्ष अन्धकार में पड़े हुए हैं। जरा बहिरवलोकन परित्याग कर हम अन्तरवलोकन तो करें, अमानिशीथ की काली घटा हमारे सम्मुख दीख पड़ेगी। माया का यह स्थूल रूप है।
 “देख माया को रूप तिमिर आगे फिरे ।”
-सन्त कबीर साहब
 “अन्धकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ ।”
-भगवान् बुद्ध
 यही हेतु है कि हमारे पूर्व के ऋषियों ने प्रभु से “तमसो मा ज्योतिर्गमय” की प्रार्थना की थी। यह बात केवल अपने देश के सन्तों ने कही है सो नहीं, विदेश में भी जहाँ कोई सन्त, पैगम्बर, सेन्ट (ै पदज) आदि हुए हैं, सबने कही है। प्रभु ईसा मसीह को ही लीजिये, वे कहते हैं- “शरीर का दीपक आँख है। इसलिये यदि तुम्हारी आँखें एक हों, तो तुम्हारा सारा शरीर प्रकाश पूर्ण हो जायगा। (पवित्र बाइबिल, सेन्ट मेथ्यू, अध्याय 6) “ज्ीम सपहीज वि जीम इवकल पे जीम मलमए पि जीमतमवितम जीपदम मलम इम ेपदहसमए जीम ूीवसम इवकल ेी सस इम निसस वि सपहीजण्य्
 भगवान् बुद्ध कहते हैं- “बुद्धिमान को अन्धकार की हालत से निकलकर चैतन्य अवस्था में जाना चाहिये।” जबतक हम चैतन्य अवस्था को प्राप्त नहीं होते, तबतक हम संसारासक्त हैं, जबतक हममें विषयानुरक्ति है, कामक्रोधादि विकारों से संत्रस्त हैं, जर्जर हैं, बर्बर हैं, अशांत हैं, चंचल हैं, अनित्य पदार्थों के पीछे दौड़ते हैं, इन्द्रियों के गुलाम बने हुए हैं। शरीर और संसार के जाल में बेतरह परिवेष्ठित हो तृष्णावश होकर हम जाल में फँसे खरगोश की तरह छटपटाते हैं, तबतक बन्ध-दशा है, जीवत्व-दशा है, परवशत्व-दशा है और यही हमारी वर्त्तमान परिस्थिति है। इसीलिये कहा भी है-
 “मायावस्य जीव अभिमानी। ईस वस्य माया गुनखानी।।”
 “पर बस जीव स्ववस भगवन्ता। जीव अनेक एक श्रीकन्ता।।”
ईस्वर अंस जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
सो मायाबस भयउ गुसाईं । बंधेउ कीर मर्कट की नाईं ।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि पड़ि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ।।”
-रामचरितमानस
 आशय यह है कि जैसे सुग्गा नलदार टाल पर बैठकर नीचे रखे हुए दानों को चुगते समय नीचे लटक जाता है और नल को अपने चुंगल से पकड़े रहता है। वह इस भ्रमवश चंगुल से नल को नहीं छोड़ता है कि उसको किसी ने उससे बाँध दिया है। बन्दर बहुत छोटे मुँहवाले बरतन में अपना हाथ घुसाकर उसमें रखी मिठाई को अपनी मुट्ठी से पकड़ लेता है। मुट्ठी बँधे हाथ को बरतन से निकाल नहीं सकता और मोह से मुट्ठी खोलता नहीं। इस तरह सुग्गे और बन्दर दोनों बझे पड़े रहते हैं। वैसे ही जीव माया में अपने मोह और भ्रम के कारण फँसा हुआ है। यद्यपि जड़ और चेतन की यह गाँठ यथार्थ में असत्य है, तथापि छूटना इसलिये कठिन है कि जीव के अन्तर में अन्धकार और मोह है। यह अन्धकार और मोह तभी दूर हो सकता है, जब सन्त सद्गुरु की सीख प्राप्त करके उनकी बताई लीक पर चला जाय। जीवत्वदशा के कारण ही चित्तधर्म उत्पन्न होते हैं, जिससे हम अपने को कर्त्ता, भोक्ता मानकर सुखी और दुःखी होते हैं, जो सारे क्लेशों और बंधनों के मूल कारण हैं। मुक्तिकोपनिषद् में भगवान् श्रीराम कहते हैं-
 “पुरुषस्य कर्त्तृत्वभोक्तृत्व सुखदुःखादि, लक्षणश्चित्तधर्मः क्लेशरूपत्वाद्बन्धो भवति।”
 महायोगी श्रीगोरखनाथ जी महाराज ने बहुत सरल ढंग से समझाया है-
 “सप्त धातु का काया प्यंजरा, ता माहि जुगति बिन सूवा ।
  सतगुरु मिलै त उबरै बाबू नहिं तौ परलै हूवा ।।”
 गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
 “भूलिउ मनु माइआ उरिझाइउ ।
  जो जो करम कीउ लालच लगि, तिह तिह आपु बंधाइउ ।।”
 राधास्वामी साहब ने सर्वसाधारण के बोधार्थ बहुत मोटे तरीके को अपनाया, वे कहते हैं-
 “बँधे तुम गाढ़े बंधन आन ।।टेक।।
पहला बंधन पड़ा देह का, दूसर तिरियाऽ जान ।
तीसर बंधन पुत्र विचारो, चौथा नाती मान ।।1।।
नाती के कहीं नाती होवै, फिर कहो कौन ठिकान ।
धन सँपति और हाट हवेली, यह बंधन क्या करूँ बखान ।।2।।
चौलड़ पँचलड़ सतलड़ रसरी, बाँध लिया अब बहुविधि तान ।
कैसे छूटन होय तुम्हारा, गहरे खूँटे गड़े निदान ।।3।।
मरे बिना तुम छूटो नाहीं, जीते जी तुम सुनो न कान ।
जगत लाज और कुल मरजादा, यह बन्धन सब ऊपर ठान ।।4।।
लीक पुरानी कभी न छोड़ो, जो छोड़ो तो जग की हान ।
क्या क्या कहूँ विपत मैं तुम्हरी, भटको जोनी भूत मसान ।।5।।
तुम तो जगत सत्त कर पकड़ा, क्यों कर पावो नाम निशान ।
बेड़ी तौक हथकड़ी बाँधे, काल कोठरी कष्ट समान ।।6।।
काल दुष्ट तुम्हें बहु विधि बाँधा, तुम खुश होके रहो गलतान ।
ऐसे मूरख दुख सुख जाना, क्या कहुँ अजब सुजान ।।7।।
शरम करो कुछ लज्जा ठानो, नहि जमपुर का भोगी डान ।
राधास्वामी सरन गहो अब, तो कुछ पाओ उनसे दान ।।8।।
 ऐसी परिस्थिति में स्वाभाविक ही यह प्रश्न उदित होता है कि जब हम बन्ध-दशा में हैं, तब इन बन्धनों से मुक्त होने का कोई मार्ग नहीं है? क्या ऐसा कोई यत्न नहीं कि जिससे हम पिजरमुक्त पखेरू की भाँति अनन्त विस्तृत व्योम-वितान की सैर करते हुए परमात्मरूप मधुर फल का मनमाना रसास्वादन कर सकें? यदि है, तो वह कौन-सा यत्न है? क्या, किसी मुकुन्द से (इस मुक्ति के लिये) अभ्यर्थना करनी होगी? या उनका वरदान प्राप्त करना होगा या किसी गिरि-गुफा में प्रविष्ट करके मुक्ति हासिल करनी होगी अथवा किसी ग्राम-विशेष, स्थल-विशेष, देश-विदेश वा लोक-विशेष में जाने की आवश्यकता है? शिवगीता सभी प्रश्नों का उत्तर एक श्लोक में दे देती है, वह कहती है-
 “मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति ग्रामान्तरमेव वा ।
  अज्ञान हृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।।” 13-32।।
 अर्थात् मोक्ष कोई ऐसी वस्तु नहीं कि जो किसी एक स्थान में रखी हो, अथवा यह भी नहीं कि उसकी प्राप्ति के लिये किसी दूसरे गाँव या प्रदेश को जाना पड़े। वास्तव में हृदय की अज्ञान-ग्रन्थि के नाश हो जाने को ही मोक्ष कहते हैं। यथार्थतः पूर्ण आत्मज्ञान जब और जहाँ होगा, उसी क्षण में उसी स्थान पर मोक्ष धरा हुआ है, क्योंकि मोक्ष तो आत्मा की ही मूल शुद्धावस्था है, निराली स्वतन्त्र वस्तु या स्थल नहीं।
 एक समय श्रीचतुरानन जी ने श्रीपंचानन जी से पूछा कि हे मन्मथारी! इस दुःखमय संसार में सब जीव पड़े हैं और अपने-अपने कर्मों का सुख-दुःखात्मक फलोपभोग कर रहे हैं, इनकी मुक्ति किस सुगम उपाय से हो, यह कृपया बताइये। श्री नीलकंठ जी ने इसका उत्तर यही दिया कि “कर्मबन्ध से मुक्त होने का उपाय कोई ज्ञान और कोई योग कहते हैं, परन्तु मेरा मत तो यह है कि-
 “योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।”
-योगशिखोपनिषद्
 अर्थात्-योगहीन ज्ञान और ज्ञानहीन योग मोक्षकार्य में समर्थ नहीं हो सकता, इसलिये मुमुक्षु को ज्ञान और योग, दोनों का अभ्यास दृढ़ता के साथ करना चाहिये।
जोइ ब्रह्मांड सोइ पिण्ड अन्तर कछु अहई नहीं [श्रीमती पद्मा देवी]
 प्रस्तुत शीर्षक की पंक्ति परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की अनुभवगम्य वाणी है। आपकी चेतना ब्रह्म में समाकर तदाकार हो चुकी है। आपने परब्रह्म परमात्मा के दर्शन किये हैं। समस्त पिण्ड-ब्रह्मांड आपके हस्तामलकवत् हैं। आपके वचन विलक्षण हैं। आपकी भाषा अलौकिक है। पूर्ववर्त्ती ऋषियों और संतों की वाणियों से आपके वचन की अद्भुत समता है। जैसे-संत कबीर कहते हैं-
 “बूँद समानी समुँद में, यह जानै सब कोय ।
  समुँद समाना बूँद में, बुझे विरला कोय ।।”
 अर्थात् समुद्र में बूँद समायी हुई है, यह सभी कोई जानते हैं, किन्तु बूँद में समुद्र समाया हुआ है, यह कोई विरला जानते हैं। संत कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि संसार समुद्र है और शरीर बूँद है। संसार में शरीर है, यह ज्ञान हरेक को है; लेकिन इस शरीर में सम्पूर्ण संसार है, ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान विरला ही कर पाते हैं। इसी तरह गुरु नानकदेव का वचन है-
 “सागर महि बूँद बूँद महि सागर कवणु बुझै विधि जाणै ।
  उतभुज चलत आपि करि चीनै, आपै ततु पछाणै ।।
  ऐसा गिआन बिचारै कोई। तिसु ते मुकति परम गति होई ।।”
 हाथरस-निवासी संत तुलसी साहब की वाणी में है-
 “पिण्ड मांहि ब्रह्मांड, ताहि पार पुनि तेहि लखा ।
  तुलसी तेहि की लार, खोलि तीनि पट भिनि भई ।।”
 परम पूज्य महर्षिजी महाराज ने उपर्युक्त संतों की साक्षी देते हुए बताया है कि जो ब्रह्मांड है, वही पिण्ड है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड में अन्तर नहीं है। अर्थात् पाँच तत्त्वों और तीन गुणों से यह संसार बना हुआ है। वैसे ही यह शरीर भी पाँच तत्त्वों और तीन गुणों से निर्मित है। जो ब्रह्मांड में है, वही पिण्ड में भी।
 “सतगुरु संत कबीर नानक गुरु आदि कही ।
  जोइ ब्रह्मांड सोइ पिण्ड अन्तर कछु अहई नहीं ।।”
 इस विषय की विशद व्याख्या आपने सत्संग-योग के चौथे भाग में की है। उक्त पुस्तक में आपने ‘अनन्त में सान्त और सान्त में अनन्त तथा ब्रह्माण्ड में पिण्ड और पिण्ड में ब्रह्मांड का सांकेतिक चित्र’ देकर अगम विषय को सुगम बना दिया है। उक्त चित्र में आपने पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों के अन्तर्गत सात-सात स्तरों का उल्लेख कर उभय में समता का दिग्दर्शन कराया है। वहाँ इसकी विशद् विवेचना करते हुए आपने अन्त में लिखा है- “विशेष सम्बन्ध इनमें यह है कि पिण्ड के जिस आवरण में जो रहेगा, बाहर के वा ब्रह्मांड के उसी आवरण में वह रहेगा। और पिण्ड के जिस आवरण को वा सब आवरणों को जो पार करेगा, ब्रह्मांड के उसी आवरण को वा सब आवरणों को वह पार कर जायेगा। अर्थात् जो पिण्ड को पार कर गया, वह ब्रह्मांड को भी पार कर गया। इसमें कुछ भी संशय नहीं है।”
 पुनः ‘सत्संग-सुधा’ (द्वितीय भाग) में आपने बताया है- “एक पिण्ड में जो सारतत्त्व है, संसार में भी वही व्यापक है। अर्थात् पिण्ड में जो सारतत्त्व व्यापक है, वही ब्रह्मांड में भी व्यापक है। यह शरीर पिण्ड कहलाता है। बाहर विश्व-ब्रह्मांड है। विश्व-ब्रह्मांड में जो तत्त्व है, शरीर में भी वे सब तत्त्व हैं। यदि अपने अन्दर सूक्ष्मतल पर कोई जाय, तो उसको सूक्ष्म तल पर का सब कुछ वैसा ही मालूम होगा, जैसा स्थूल तल पर रहने से उस तल का सब कुछ मालूम होता है। स्थूल तल पर आप दूर तक देखते हैं और विचरण करते हैं। उसी प्रकार सूक्ष्मतल पर आरूढ़ हुआ दूर तक देख सकता है और विचरण कर सकता है। स्थूल तल पर रहने से आपको मालूम होता है कि स्थूल शरीर में रहता हूँ और स्थूल संसार में काम करता हूँ। उसी प्रकार आप अपने सूक्ष्म तल पर रहें, तो मालूम करेंगे कि सूक्ष्म शरीर में हूँ और सूक्ष्म संसार में विचरण करता हूँ, काम करता हूँ अथवा देखता हूँ।”
 “ब्रह्मांड लक्षणं सर्व देहमध्ये व्यवस्थितम् ।” (ज्ञानसंकलिनी तंत्र)
 सम्पूर्ण ब्रह्मांड शरीर में है और सब देवता उस शरीर के अन्दर है।
 इतना ही नहीं, इस देह में सब विद्या, सब देवता और सब तीर्थ विराजमान हैं। केवल गुरु के उपदेश से ही देहस्थित ये सब विद्या, देवता और तीर्थ जाने जाते हैं।
 “देहस्थाः सर्वविद्याश्च देहस्थाः सर्वदेवताः ।
  देहस्थाः सर्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते ।।” (ज्ञानसंकलिनी तंत्र)
 देवता के निवास के सम्बन्ध में रामचरितमानस में इस भाँति लिखा है-
  “इन्द्रिय द्वार झरोखा नाना । तहँ-तहँ सुर बैठे करि थाना ।।” (उत्तरकाण्ड)
 साथ ही, नेत्र में सूर्य की, नासिका में अश्विनी कुमार की, कान में दशो दिशाओं की, मुख में अग्नि की, जिभ्या में वरुण की, अहंकार में शिव की, बुद्धि में अज की, मन में शशि की, चित्त में महतत्त्व की, श्वास में मरुत की और नीचे की इन्द्रिय में नरक की कल्पना की गई है। (लंकाकाण्ड) जहाँ गोस्वामीजी ने अपने इष्ट भगवान श्रीराम में विराट् रूप को देखा है, वहाँ हमारे परम पूज्य गुरुदेव ने अपने इष्ट गुरु में सभी देव-देवियों के सहित पूर्णब्रह्म परमेश्वर के दर्शन किये हैं। यथा-
 “देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू ।
  गुरु में करैं निवास कहत हैं संत सभू ।।” (महर्षि मेँहीँ-पदावली)
 एक संत का वचन है-
 “मन के देव चन्द्र बुधि ब्रह्मा वासुदेव चित केरे ।
अहंकार शिव दिशा करण के नयन भानु सिर हेरे ।।
रसना वरुण त्वचा के मारुत नाशा अश्विनी जानो ।
मुख के अग्नि इन्द्र हाथन के देव गुदा यम मानो ।।
लिग के देव प्रजापति सिरजत चरणन विष्णु विराजै ।
चौदह देव बसत यहि तन संग नित निर्भय ह्वै गाजै ।।”
 और, पूज्यचरण महर्षिजी की दृष्टि में- “आँखों में चन्द्र-सूर्य का, कान में दशों दिशाओं का, नाक में अश्विनी कुमार का, मुँह में अग्निदेव का, जिभ्या में वरुण का, हाथ में इन्द्र का, और पैर में उपेन्द्र (वामन) का वासा है। पुनः मूलाधार चक्र में गणेश का, स्वाधिष्ठान चक्र में ब्रह्मा का, मणिपूरक चक्र में विष्णु-लक्ष्मी का, अनाहत चक्र में शिव-पार्वती का, विशुद्ध चक्र में सरस्वती का वासा है। और परम प्रभु परमात्मा भी इस शरीर में विद्यमान हैं, जो अन्दर के मायिक स्थानों के परे केवल चेतन आत्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान में आने योग्य हैं। (सत्संग-सुधा, द्वितीय भाग) इस प्रकार ऋषियों एवं संतों के वचन से मिलते-जुलते आपके विभिन्न विषयक इतने साम्य वचन हैं, जिनसे ग्रन्थों की रचना की जा सकती है। किन्तु यहाँ स्थानाभाव के कारण अधिक उल्लेख करना संभव नहीं।
फुटल मनुषवा के भाग गुरु गम नाहि लही
गंग जमुन जुग धार मधहि सरस्वति बही ,
फुटल मनुषवा के भाग गुरु गम नाहि लही ।।1।।
सतगुरु सन्त कबीर नानक गुरु आदि कही ।
जोइ ब्रह्माण्ड सोइ पिण्ड अन्तर कछु अहई नहीं ।।2।।
पिगल दहिन गंग सूर्य इंगल चन्द जमुन बाईं ।
सरस्वति सुषमन बीच चेतन जलधार नाईं ।।3।।
सतगुरु को धरि ध्यान सहज स्त्रुति शुद्ध करी ।
सनमुख बिन्दु निहारि सरस्वति न्हाय चली ।।4।।
होति जगामगि जोति सहसदल पीलि चली ।
अद्भुत त्रिकुटी की जोति लखत स्त्रुत सुन्न रली ।।5।।
सुन मद्धे धुन सार सुरत मिलि चलति भई ।
महा सून्य गुफा भँवर होई सतलोक गई ।।6।।
अलख अगम्म अनाम सो सत पद सूर्त रली ।
पाएउ पद निर्वाण सन्तन सब कहत अली ।।7।।
छूटेउ दुख को देश गुरु गम पाय कही ।
सतगुरु देवी साहब दया ‘मेँहीँ’ गाइ दई ।।8।।