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महर्षि मेँहीँ-जन्मशती अभिनन्दन-ग्रंथ


कृतियाँ

साहित्यकार महर्षि मेँहीँ [डॉ0 नागेश्वर चौधारी ‘नागेश’]



महर्षि मेँहीँ का साहित्य, पद्य एवं गद्य-दोनों रूपों में उपलब्ध है। उन्होंने अपने ज्ञानयुक्त, अनुभवपूर्ण विचारों को पद्य और गद्य में अभिव्यक्त किया है। उनका साहित्य विशाल है। एक दर्जन से अधिक पुस्तकें महर्षि जी द्वारा विरचित हैं, जो निम्नांकित हैं- 


01- सन्तमत-सिद्धान्त और गुरु-कीर्त्तन, रचनाकाल सन् 1926 ई0, प्रथम संस्करण 1936 ई0
02- सत्संग योग (चार भाग), (रचनाकाल सन् 1934 ई0 से सन् 1939 ई0) प्रथम संस्करण
   सन् 1940 ई0
03- रामचरितमानस-सार सटीक, प्र0 सं0 सन् 1930 ई0
04- विनय-पत्रिका-सार सटीक, प्र0 सं0 सन् 1931 ई0
05- भावार्थ-सहित घटरामायण-पदावली, प्र0 सं0 सन् 1935 ई0
06- महर्षि मेँहीँ-पदावली (रचनाकाल सन् 1925 ई0 से सन् 1950 ई0) प्रथम सं0 सन् 1954 ई0
07- सत्संग-सुधा (प्रथम भाग सन् 1954 ई0 एवं द्वितीय भाग सन् 1964 ई0)
08- श्रीगीता-योग-प्रकाश (सन् 1955 ई0)
09- वेद-दर्शन-योग (सन् 1956 ई0)
10- ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति, प्र0 सं0 सन् 1963 ई0
11- मोक्ष-दर्शन, प्र0 सं0 1967 ई0
12- सन्तवाणी सटीक, सं0 2024 वि0 (सन् 1968 ई0)
13- ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति, सन् 1970 ई0


उपर्युक्त पुस्तकों की लम्बी सूची महर्षि जी के गहन अध्ययन, मनन और अनुभव का प्रतिफल है। दीर्घकालीन सत्संग से प्राप्त ज्ञान का प्रकाशन इनके साहित्य में हुआ है, जो जनसाधारण के लिये अत्यन्त उपयोगी है। पूर्णियाँ जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन का चौदहवाँ अधिवेशन उच्च माध्यमिक विद्यालय, बनमनखी (पूर्णियाँ) में दिनांक 1 एवं 2 जून 1952 ई0 को सम्पन्न हुआ, जिसका उद्घाटन सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य श्री शिवपूजन सहाय जी ने किया था। इस सम्मेलन में श्री लक्ष्मीनारायण सुधांशु, श्री जनार्दन झा ‘द्विज’ आदि साहित्यकार पधारे थे। सबके अनुरोध पर महर्षि जी ने उस सम्मेलन का अध्यक्ष-पद सुशोभित किया था। अध्यक्ष पद से आपने जो भाषण दिया था, वह अत्यन्त सारगर्भित और उपादेय था और विद्वानों द्वारा उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई थी। भारती की सेवा उन्होंने निःस्वार्थ भाव से की है। उनकी साहित्य-साधना को देखकर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् ने सन् 1967-68 सत्र में उन्हें पुरस्कृत किया। भिक्षु श्री जगदीश काश्यप (भूतपूर्व निदेशक, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, पटना) ने इस सम्बन्ध में ठीक ही कहा था- “महर्षि जी की वाणियों की विशिष्टताएँ देखकर राष्ट्रभाषा-परिषद् ने आपको नानक, कबीर की कोटि का सन्त मानकर सम्मानित और पुरस्कृत किया है।” उस अवसर पर महर्षि जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा- “मुझे न रुपये की आवश्यकता है और न सम्मान की।” बहुत दिनों तक 1500 रुपये का पुरस्कार परिषद् में पड़ा रहा। परिषद् के बार-बार आग्रह करने पर महर्षि जी ने उस राशि को गरीब विद्यार्थियों या शिक्षकों को दे देने की अनुमति दी। उन्होंने इस सम्बन्ध में जो पत्र भेजा था, उसका कुछ अंश यहाँ उद्धृत किया जाता है- “यों ही बेकार पड़ी राशि को गरीबों में अथवा असहाय विद्यार्थियों की सहायता में खर्च कर दिया जाय या ऐसे कोष में जमाकर दिया जाय, जिससे असहायों की सहायता की जाती हो।”
 महर्षि जी के विचारानुसार परिषद् के संचालक-मण्डल की बैठक में सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि इस रकम को “राजेन्द्र निधि” में जमा कर दिया जाये। दिसम्बर, 1969 के अन्त में यह रकम परिषद् की “राजेन्द्र निधि” में जमा हो गयी, जिससे हर वर्ष वृद्ध असहाय, गरीब साहित्यकारों को मदद मिलती है।
 महर्षि जी वैसे साहित्यकार नहीं, जो अर्थोपार्जन के लिये साहित्य-सृजन करते हैं। उन्होंने “बहुजनहिताय और बहुजनसुखाय” को ध्यान में रखकर सत्साहित्य का प्रणयन किया है। इस सम्बन्ध में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है कि सन्त लोग अपनी रचनाओं में बराबर इसी बात पर विशेष ध्यान देते जान पड़ते हैं कि मानव-समाज का सुधार और उसका विकास, उसके व्यक्तियों के सुधार एवं विकास पर अवलम्बित है।


कृतियों का सामान्य परिचय


01- सन्तमत-सिद्धान्त और गुरु-कीर्तन:
महर्षि जी द्वारा विरचित यह उनकी पहली पुस्तक है। इसमें उनकी 27 फुटकर कविताएँ संगृहीत हैं। दिनांक 29-10-73 ई0 को गैदूहा, रूपौली (पूर्णियाँ) में मैंने महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के समक्ष प्रस्तुत होकर उनसे साग्रह पूछा- “आपने सर्वप्रथम अपने अनुभवों को पद्य में व्यक्त किया या गद्य में ?” महर्षि जी ने कहा- “बहुत दिन हुए, ठीक-ठीक ख्याल नहीं; परन्तु पहली काव्य पुस्तक मेरी “सन्तमत-सिद्धान्त और गुरु-कीर्त्तन” ही है। इसके बाद ही “सत्संग-योग” का सम्पादन हुआ।” निश्चय ही प्रस्तुत पुस्तक इनकी पहली काव्य-कृति है। इसमें सन्तमत-सिद्धान्त निरूपित हुए हैं। ईश-स्तुति, सन्त-स्तुति, गुरु-कीर्त्तन, गुरु-प्रार्थना, आरती और सद्गुरु का जय-गान ही इस पुस्तक के वर्ण्य विषय हैं। इस पुस्तक के सत्रह संस्करण 1966 ई0 तक हुए थे। अब इस पुस्तक को “महर्षि मेँहीँ पदावली” में सम्मिलित कर दिया गया है। इनका रचनाकाल 1925-26 ई0 है। इसी बीच महर्षि जी ने इसमें संगृहीत कविताएँ लिखीं। इसका प्रकाशन-काल 1936 ई0 है।


02- सत्संग-योग (चार भाग):
यह पुस्तक महर्षि जी की अनमोल कृति मानी जाती है। “सत्संग-योग” उनके स्वाध्याय, चिन्तन और मनन एवं साधनात्मक अनुभूति को उजागर करता है। इसकी लोकप्रियता का प्रमाण यह है कि सन् 1980 ई0 तक इसके अष्ट संस्करण निकल चुके हैं। इसके चार भाग हैं। प्रथम भाग में वेदों, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत, अध्यात्म-रामायण, शिवसंहिता, महाभारत, ज्ञानसंकलिनीतन्त्र एवं दुर्गासप्तशती के ज्ञान-मोक्ष सम्बन्धी विचारों का संकलन है। वेद, उपनिषद्, गीता-रूपी त्रिवेणी का संगम यहाँ तैयार किया गया है। इस त्रिवेणी में अवगाहन करने से साधकों-भक्तों को भक्ति, योग, ज्ञान, वैराग्य एवं मोक्ष के मणि-माणिक्य प्राप्त होते हैं। इसमें महान् ग्रन्थों का निचोड़ है।
 ग्रन्थ के दूसरे भाग में महान् सन्तों के सदुपदेश संगृहीत हैं। भगवान् महावीर, भगवान् बुद्ध, महात्मा शंकराचार्य, योगी, गोरखनाथ, सन्त कबीर साहब, गुरु नानक देव, गोस्वामी तुलसीदास, भक्त प्रवर सूरदास, सन्त तुलसी साहब, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, राधास्वामी, लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी, बाबा देवी साहब प्रभृति पचास सन्तों, महात्माओं और भक्तों के सदुपदेशों का संग्रह इस भाग में हुआ है। इसमें पद्य और गद्य दोनों हैं। सन्तों के वचन-ईश्वर, जीव, प्रकृति, माया, साधना, योग, सद्गुरु, भक्ति और मोक्ष के सम्बन्ध में हैं। यह भाग महर्षि जी के गहन अध्ययन और मनन का परिचायक है।
 तीसरे भाग में देश और विदेश के महान् विद्वानों के आध्यात्मिक विचारों का संग्रह हुआ है, जो ‘कल्याण’ आदि पत्रें से संकलित हैं। चौथे भाग में महर्षि जी की अनुभूतियों की वाणी दी गयी है। महर्षि ने इसमें साठ वर्षों से अधिक के सत्संग-श्रवण और समाधिजन्य-अनुभूतियों की अभिव्यंजना अति सरल और सुबोध भाषा में की है। यहाँ कम-से-कम शब्दों में बड़ी गूढ़ तथा रहस्यात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है। विशिष्ट गुणों के कारण यह ग्रन्थ वर्त्तमान शताब्दी की गीता का गौरव प्राप्त कर चुका है। इसका रचनाकाल सन् 1934 ई0 से सन् 1939 ई0 है तथा प्रथम संस्करण का प्रकाशनकाल सन् 1940 ई0 है।


03- रामचरितमानस-सार सटीक:
इसमें महर्षि जी ने “रामचरितमानस” के उपदेशात्मक और साधनात्मक पदों का चयन कर उनकी व्याख्यात्मक टीका लिखी है। मानस का कथाक्रम कहीं भंग नहीं हुआ है। यहाँ विशेष रूप में यह प्रतिपादित किया गया है, जो लोग गोस्वामी तुलसी को केवल सगुण दाशरथि राम का उपासक मानते हैं, वे भ्रम में हैं। वस्तुतः तुलसीजी सगुण-निर्गुण से परे, राम के शुद्ध आत्मस्वरूप के ज्ञाता एवं आराधक थे। इस पुस्तक का रचनाकाल सन् 1930 ई0 है। इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण सन् 1930 ई0 में प्रकाशित हुआ।


04- विनय पत्रिका :
सार सटीक:-इसमें गोस्वामी तुलसीदास के विनय के पदों की सरल व्याख्या की गयी है। अर्थ-लालित्य के लिए यह पुस्तक भक्तों की दृष्टि से अधिक उपादेय हो गयी है। इसका प्रथम संस्करण सन् 1931 ई0 में और नवम संस्करण सन् 1980 ई0 में प्रकाशित हुआ।


05- घटरामायण पदावली:
“घटरामायण” संत तुलसी साहब की एक अन्यतम कृति है। यहाँ ‘घटरामायण’ के कुछ पदों का चयन कर उनकी सरलतम व्याख्या की गयी है। यहाँ महर्षिजी ने बताया है कि परमात्मा को अपने घट में कहाँ और कैसे पाया जा सकता है? आरम्भ में महर्षिजी ने एक विस्तृत भूमिका लिखकर तुलसी साहब और बाबा देवी साहब के विचारों का उद्घाटन किया है। इनका प्रथम संस्करण सन् 1935 ई0 में प्रकाशित हुआ था, तृतीय संस्करण सन् 1977 ई0 में निकला।


06- महर्षि मेँहीँ-पदावली :
यह महर्षि जी की एक मौलिक काव्य-कृति है। इसमें महर्षि जी की कुल 142 कविताएँ संगृहीत हैं। इस पुस्तक का रचनाकाल सन् 1925 ई0 से सन् 1950 ई0 तक है तथा इसका प्रथम संस्करण 1954 ई0 में प्रकाशित हुआ था। ,
 महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज ने समय-समय पर जिन पदों की रचना की, वे “महर्षि मेँहीँ-पदावली” में संगृहीत हैं।
  “पदावली” के पंचम संस्करण में प्रकाशक ने पदावली में व्यक्त विचारों का निम्नलिखित छः वर्गों में विभाजन किया है। यह विभाजन पूर्व के वर्गीकरण से सर्वथा भिन्न है, जो इस प्रकार है:-प्रथम वर्ग में प्रभु, सन्तगण और गुरु-तीनों को एक ही के तीन रूप समझकर इनकी स्तुति-प्रार्थना को रखा गया है। द्वितीय वर्ग में सन्तमत-सिद्धान्त हैं। तृतीय वर्ग में ध्यानयोग (मानस-जाप, मानस ध्यान, दृष्टि-योग, शब्द-योग) सम्बन्धी पदों का संकलन है। चतुर्थ में वर्ग ‘कीर्त्तन’ नाम देकर गेय पदों का संचय किया गया है। पंचम वर्ग में उपदेश और चेतावनी सम्बन्धी पदों की संयोजना है। षष्ठ वर्ग में अनाम, अनीह, सत्यपुरुष की आरती उतारी गयी है।
महर्षि मेँहीँ के काव्य का वर्गीकरण काव्य में व्यक्त विचारों या विषयों के अनुकूल इस प्रकार किया जा सकता है:-
1- ईश-गुरु-संत-सम्बन्धी काव्य।
2- साधनात्मक काव्य।
3- रागात्मक काव्य (नाम-संकीर्त्तन, उपदेश, चेतावनी और आरती)।
महर्षि जी ने काव्य की रचना न तो काव्यानन्द के लिए की और न यशोपलब्धि या अर्थोपार्जन की इच्छा से प्रेरित होकर। उन्होंने माना कि साधना की स्वानुभूति में विश्वजनीन हित की भावना अन्तर्निहित है। महर्षि जी ने स्वानुभूतियों को कहीं-कहीं काव्य की भाषा में अभिव्यक्त किया है, माध्यम लोकभाषा है। रज्जब, सुन्दरदास, नन्ददास-जैसे संतों और भक्तों की तरह वे शब्दों और शैली के चमत्कार के पीछे कभी नहीं दौड़े। महर्षि जी की काव्य-साधना उनके जीवन का साध्य न थी। वह तो उनकी साधना के क्रम में स्वानुभूतियों का अनायास, सहज स्फुरण है। साधनाजन्य सोपानों को पार करते हुए, ब्रह्मानन्द में विलीन होते समय जिस प्रकार के अनुभव, आनन्द एवं दृश्य की अनुभूतियाँ उन्हें हुईं, उन्हीं की सहज अभिव्यक्ति उनकी काव्य-साधना है। जिस प्रकार अनार पक जाने पर अपने-आप फट जाता है, उसी प्रकार महर्षि जी के विशाल हृदय में भावों का सहज स्फुरण होते ही वे अपने-आप लिपिबद्ध हो गये हैं। उन्हीं के शब्दों में उत्तर-
 प्रश्न:- “स्वामी जी! आप अब कविता क्यों नहीं लिखते हैं?”
 उत्तर:- “अब कविता लिखने की स्फुरणा नहीं होती है।”
 प्रश्न:- “अब स्फुरणा क्यों नहीं होती है?”
 उत्तर:- “एक समय था, जब कि साधना के समय अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने की एक व्यग्रता होती थी और मैं उन्हें पद्य-बद्ध कर लेता था।”
 यह स्पष्ट है कि महर्षि मेँहीँ सूर, तुलसी के सदृश पहले भक्त एवं साधक हैं, कवि बाद में। उनके काव्य का प्रतिपाद्य अनुभूतिजन्य भावों का सहजोद्रेक है। गोस्वामी तुलसी के सदृश “स्वान्तः सुखाय” रचित “रघुनाथ गाथा” में भी “बहुजन सुखाय” का भाव अन्तर्निहित है।


07- सत्संग-सुधा (दो भाग) :
इस पुस्तक का प्रथम संस्करण “स्वामी मेँहीँ वचनामृत” के नाम से सन् 1954 ई0 में प्रकाशित हुआ था, जिसका सम्पादन प्रो0 विश्वानन्द (उपप्राचार्य, कोशी कॉजेल, खगड़िया) ने किया था। अब यह पुस्तक “सत्संग-सुधा” के नाम से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण सन् 1969 ई0 में प्रकािशत हुआ। इस पुस्तक में महर्षि जी के समय-समय पर दिये गये प्रवचनों का संग्रह हुआ है, जो “संतमत-सत्संग” की मासिक पत्रिका “शान्ति-सन्देश” में प्रकाशित हो चुके हैं। सत्संग-सुधा, भाग 2 का प्र0 सं0 सन् 1964 ई0 में प्रकाशित हुआ।


08- श्रीगीता-योग-प्रकाश:
इसका प्रथम संस्करण सन् 1955 ई0 (सं0 2012 वि0) में प्रकाशित हुआ था। “गीता” अपने तत्त्व ज्ञान के लिये लोकविश्रुत है। महर्षि जी ने “गीता” में वर्णित ज्ञान, योग, भक्ति, उपासनादि की सन्त-साधना से एकरूपता स्थापित की है। इस पुस्तक में “गीता” की निगूढ़ साधना की सरल व्याख्या की गयी है।


09- वेद-दर्शन-योग:
वेद मानव-सृष्टि का आदि ग्रन्थ है। इस पुस्तक में महर्षि जी ने वेद के 100 मन्त्रें को चुनकर और उनपर अपनी टिप्पणी देकर उनकी व्याख्या की है। इस पुस्तक का प्राक्कथन सन्त-साहित्य के विख्यात विद्वान् स्व0 डॉ0 धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री ने लिखा है। इनका प्रथम संस्करण सन् 1956 ई0 (संवत् 2013 वि0) में प्रकाशित हुआ था। इसका तृतीय संस्करण संवत् 2035 वि0 में निकला।


10- ईश्वर-स्वरूप और उसकी प्राप्ति:
इस पुस्तक में ईश्वर के स्वरूप का निरूपण किया गया है। ईश्वर का स्वरूप कैसा है, उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? इसका विशद् विश्लेषण यहाँ किया गया है। इसका प्रथम संस्करण सन् 1963 ई0 तथा एकादश संस्करण सन् 1982 ई0 में प्रकाशित हुआ।


11- मोक्ष-दर्शन:
महर्षि जी की यह पुस्तक गद्य में लिखे उनके विचारों का संग्रह है। इसमें उन्होंने प्रभु, परमपद, सद्गुरु, प्रणवनाद आदि का सुन्दर और सरल विवेचन किया है। उन्होंने लिखा है कि शब्दयोग के बिना परमपद या मोक्ष पाना असम्भव है। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 1967 ई0 में और तृतीय संस्करण सं0 2037 वि0 में प्रकाशित हुआ था।


12- सन्तवाणी सटीक:
महर्षि जी ने इस पुस्तक में बत्तीस सन्तों की वाणियों के बोधगम्य अर्थ दिये हैं। यह एक प्रकार का भाष्य-ग्रन्थ है। इसमें सन्तों के रहस्यपूर्ण तथा गूढ़ पदों की सरल व्याख्या की गयी है। इसका प्रकाशन काल 1968 ई0 है।


13- ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति:
प्रस्तुत पुस्तक में ज्ञान की चर्चा है। इसमें बताया गया है कि ज्ञान के अभाव में योग नहीं होता। योग प्रेम-रहित नहीं होता। अतएव, ईश्वर की भक्ति के लिये ज्ञान, योग और प्रेम का समन्वय परमावश्यक है। किसी एक के अभाव में भक्त की साधना पूर्ण नहीं होती। महर्षि जी ने यहाँ निर्गुण, निराकार प्रभु की भक्ति पर बल दिया है। इसका रचनाकाल सन् 1970 ई0 है।
 महर्षि जी की कृतियों को देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि उनकी प्रतिभा सृजनात्मक है। सन् 1925 ई0 से लेकर 1970 ई0 तक उनकी कलम अबाध गति से चलती रही है। इसी बीच उन्होंने काव्य, गद्य, टीकाएँ, समालोचनाएँ लिखकर हिन्दी की सेवा की। उपर्युक्त ग्रन्थों को देखकर यह कहना पड़ता है कि महर्षि जी सन्त के अतिरिक्त सच्चे साहित्यकार भी हैं। उन्होंने साहित्य-सेवा के बदले कुछ नहीं चाहा। उनका समग्र साहित्य लोकहितकारी है। इस दृष्टि से इनकी कृतियों का बड़ा महत्त्व है।
 महर्षि जी की कविताएँ साधना की अनुभूतियों से ओतप्रोत हैं। साधनाजन्य अनुभूतियों का सहज स्फुरण इनकी कविताओं में हुआ है। यहाँ उनकी काव्य-शक्ति का भी परिचय मिलता है। महर्षि जी की टीकाएँ विशेष महत्त्व रखती हैं। उनमें सरलार्थ, विचार और स्वतन्त्र टिप्पणी है। उनकी टीकाओं की प्रवृत्ति खण्डनात्मक नहीं है। इनमें उनकी निष्पक्ष अन्तर्दृष्टि है। महर्षि जी की विश्व-विश्रुत ग्रन्थ-वेद, गीता आदि की समालोचनाएँ अति व्यावहारिक तथा सोद्देश्य हैं। उनका प्रबन्ध प्रौढ़ है।

महर्षि मेँहीँ की टीकाएँ और उनमें व्यक्त विचार [डॉ0 नित्यानन्द शर्मा]

स्वनामधन्य महर्षि मेँहीँ जी महाराज आज के महान् सन्तों, तत्त्ववेत्ताओं और योगियों में से एक हैं। उन्होंने अपने गहन अध्ययन तथा दीर्घ अनुभव-जन्य ज्ञान को टीकारूप में लिपिबद्ध करके सर्वसाधारण, विशेष कर जिज्ञासु-वृन्द का सचमुच बड़ा उपकार किया है। 
महर्षि मेँहीँ जी की तीन टीकाएँ मेरे देखने में आई हैं।
1- विनय-पत्रिका सार सटीक, 2- रामचरितमानस-सार सटीक, 3- सन्तवाणी सटीक।
हमारे देश में टीका-परम्परा अति प्राचीन काल से चली आ रही है। वैदिक साहित्य को निरुक्त और भाष्य के रूप में स्पष्ट किया गया है। लौकिक संस्कृत में तो उत्तमोत्तम ग्रन्थों के टीकारूप हमें सुलभ हैं। इस क्षेत्र में श्री मल्लिनाथ का नाम विशेष प्रसिद्ध है। टीका-जगत् के मानो ये सम्राट् ही हैं। संस्कृत के धार्मिक ग्रन्थों में श्रीमद्भगवद्गीता की सर्वाधिक टीकाएँ हुई हैं। टीकाओं की बहुलता वस्तुतः तत्सम्बन्धी ग्रन्थ की लोकप्रियता पर निर्भर है।
 हिन्दी में भी टीकाओं का प्रचलन आरम्भ से ही मिलता है। यदि विभिन्न टीकाएँ हमें प्राप्त न होतीं, तो न जाने हमारा कितना श्रेष्ठ साहित्य अनधीत ही रह जाता।
उत्तम टीका की यह विशेषता होनी चाहिये कि उसमें कृति का मूल भाव सर्वथा सुरक्षित रहे। साथ ही कठिन एवं दुरूह शब्दों और स्थलों को सुबोध शैली में स्पष्ट किया जाए। टिप्पणी के अन्तर्गत टीकाकार अपना मत भी व्यक्त कर सकता है। कठिन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने के लिये ‘मघवा मूल विडौजा टीका’ जैसी स्थिति से सर्वथा बचा जाए। इस सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह कथन द्रष्टव्य है-
“वास्तव में ऐसी ही टीकाओं की आवश्यकता है, जिसमें न तो मूल विषय से बादरायण सम्बन्ध मात्र रखनेवाला अनावश्यक विस्तार हो और न वचन की इतनी दरिद्रता हो कि पाठक बेचारे मुँह ताकते ही रह जाएँ।”
महर्षि जी की उक्त टीकाओं के सम्बन्ध में प्रत्येक पर पृथक्तः विचार करना अधिक संगत और समीचीन होगा।


1. विनय-पत्रिका-सार सटीक
 तुलसी के ग्रन्थों में ‘विनय-पत्रिका’ का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यों तो ‘विनय-पत्रिका’ पर अब तक अनेक टीकाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रमुख ये हैं-
 बाबा रामचरण दास जी की टीका, भक्त प्रवर बैजनाथ जी की टीका, महात्मा हरि प्रसाद जी की टीका, पं0 रामेश्वर भट्ट जी की टीका, पं0 सूर्यदीन शुक्ल की टीका, लाला भगवान दीन जी की टीका, श्री वियोगी हरि जी की हरितोषिणी टीका।
 उक्त टीकाओं में श्री वियोगी हरि जी की टीका अधिक लोकप्रिय एवं प्रामाणिक है। पर इन टीकाओं में भी महर्षि मेँहीँ जी महाराज की उक्त टीका निराली ही है। इस टीका में ‘विनय-पत्रिका’ के केवल बारह उत्कृष्ट पदों का चयन करके उनकी विस्तृत और विशद व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इस टीका का प्रकाशन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग-प्रकाशन-समिति- द्वारा किया गया है। इसके उद्देश्य के विषय में प्रकाशन-समिति-द्वारा यह वक्तव्य दिया गया है, “ऐसे निराश साधकों को गोस्वामी तुलसीदासजी की ‘विनय-पत्रिका’ के प्रच्छन्न और योग-रहस्यावरणित पद उद्घाटित हो जाने से सुधा-सिंचित आलोक-माला-सा मार्गदर्शक ही प्रतीत होगा और सत्यान्वेषी विनय-शील विद्वान भी अपने प्राप्त विद्या-प्रकाश को इस अनुभव-ज्ञान की दिव्य दीप्ति से उज्ज्वलित और परिमार्जित कर परिशुद्ध सत्य को अधिक शक्ति-शालिता के साथ अपना सकेंगे। ---------- तथा तमस् के भ्रमाच्छादनों को भंग कर सत्य का प्रचण्ड प्रकाश, प्रेमी जिज्ञासु के हृदय में प्रभु-भक्ति की सुधा-धारा बनकर बह सके, यही आशा अभिलाषा लेकर महर्षि जी रचित ‘विनय-पत्रिका-सार सटीक’ का प्रकाशन अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग- प्रकाशन की ओर से किया गया है।”
 टीकाकार ने स्वयं भी इस टीका के उद्देश्य पर भूमिका में इस प्रकार प्रकाश डाला है- “गोस्वामी जी --------------------- योग और ज्ञानयुक्त भक्ति में परिपूर्ण और निर्मल सन्त थे। ऐसे सन्त के अन्तिम ग्रन्थ में उनकी अन्तिम गति का भाव अवश्य ही वर्णित होगा। इसी भाव को जानने और उसे संसार के सामने प्रकाश करने के लिये यह ‘विनय-पत्रिका-सार सटीक’ लिखने का मैंने प्रयास किया है। इससे गोस्वामी जी महाराज की अन्तिम गति के और उस गति तक पहुँचने के मार्ग का पता लग जाता है। इस मार्ग को जानकर यदि मनुष्य इस पर चलें, तो अन्त में गोस्वामी जी महाराज की तरह परम कल्याण पा सकेंगे।”
 उक्त उद्देश्य की पूर्त्ति-हेतु सम्पूर्ण ‘विनय-पत्रिका’ में से केवल बारह पदों को ही चुना गया है। टीका में सर्वप्रथम प्रत्येक पद में यथावश्यक कठिन शब्दों के सरल अर्थ दिये गये हैं तथा पारिभाषिक शब्दों को स्पष्ट किया गया है। तत्पश्चात् प्रत्येक पद का भावार्थ देकर अन्त में ‘विचार’ शीर्षक के अन्तर्गत यथावश्यक स्वमत दिया गया है। महर्षि जी के ये विचार वस्तुतः अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अथच उपयोगी हैं, जिनका मनन कर तथा तद्वत् आचरण कर जिज्ञासुवृन्द का परम लाभ हो सकता है।
 टीका का आरम्भ मंगलाचरण से किया गया है। तत्पश्चात् प्रथम पद में तुलसी-द्वारा लिखित आरती दी गई है। भावार्थ के पश्चात् विचार में ‘दृष्टि-साधन’ अथवा ‘दृष्टि-योग’ को सोदाहरण स्पष्ट किया गया है तथा अन्त में यह निष्कर्ष दिया गया है कि इस आरती का सम्बन्ध राम के केवल सगुण रूप की उपासना से नहीं है, वरन् यह आरती वर्णात्मक नाम-भजन, मानस-ध्यान, दृष्टि-साधन सुरत-शब्द-योग-द्वारा की जा सकती है। इस आरती का यदि मनन किया जाए, तो ज्ञात होगा कि “गोस्वामी तुलसीदास जी ज्ञानी भक्त, योगी सन्त थे, न कि केवल मोटी उपासना करने वाले भक्त।”
 तीसरे पद में ‘विचार’ के अन्तर्गत ‘नाम-भजन’ को स्पष्ट किया गया है।
 महर्षि जी के अनुसार केवल वर्णात्मक नाम जपने से ही नाम-भजन समाप्त नहीं होगा, वर्णात्मक नाम-भजन के बाद मानस-ध्यान से और इसके बाद दृष्टि-योग से योग्यता प्राप्त करके ध्वन्यात्मक नाम भजन करने पर नाम-भजन पूर्ण होगा। इसी पद में प्रयुक्त ‘जागु-जागु-जागु जीव’ में जागने शब्द को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है ------- क्योंकि इस प्रकार भजन करने से सुरत स्थूल से सूक्ष्म में, सूक्ष्म से कारण में उत्तरोत्तर सिमटते-सिमटते, परदों को भेदते-भेदते त्रयवर्ग पर या चतुर्थ वर्ग में पहुँच जाती है और परम प्रभु से जा मिलती है। जीव का पूरा जागना यही है।”
 छठे पद में ‘ब्रह्म-पीयूष’ प्राप्ति का ‘विचार’ में यह साधन बताया गया है कि ‘जब अर्न्तमुखी उपासना-द्वारा आज्ञा-चक्र-केन्द्र-विन्दु पर सिमट आता है, तब जीव को ‘ब्रह्म-पीयूष’ प्राप्त हो जाता है। सातवें पद में ‘हृदय-प्रकाश’ प्राप्ति के सम्बन्ध में बताया गया है- “पद्य संख्या 1 में वर्णित राम की आरती के करने से अन्तर में प्रत्यक्ष ब्रह्म प्रकाश दरसता है। यह जाग्रत, स्वप्न और ख्याल की दृष्टि से नहीं दरसता। सुषुप्ति-सहित कही हुई तीनों अवस्थाओं को टपता हुआ जो परम विरही भक्त प्रेमावेश से मस्त होकर प्रभु से मिलने के लिये अपने अन्तर में चल पड़ता है, उसकी तुरीय अवस्था वाली दिव्य दृष्टि अन्तर में खुल जाती है, वह उसी दृष्टि से कथित प्रकाश को देखता है। भक्ति के इस रहस्य को जो नहीं जानते हैं, वे केवल बुद्धि-अक्ल और समझ को ही अन्तर का प्रकाश मानते हैं।”
 नौवें पद के ‘विचार’ में यह बताया गया है कि ब्रह्म के दो रूप निर्गुण और सगुण हैं। सत्संग से दोनों स्वरूपों की प्राप्ति का रहस्य जान सकते हैं। केवल सगुण रूप से प्रेम करके उसी रूप में संतुष्ट होना वांछनीय नहीं है। महर्षि जी के अनुसार तुलसीदास जी केवल सगुण उपासना के ही प्रेमी नहीं थे, वरन् उनकी गति निर्गुण रूप तक भी थी।
 दसवें पद में ‘विचार’ के अन्तर्गत यह बताया गया है कि हमारे देश में अति प्राचीन काल से योग-साधना-द्वारा भक्ति की जाती थी तथा इस कलिकाल में भी ऐसी ही भक्ति अपेक्षित है। इसी पद में चैतन्य वृत्ति, मीन-मार्ग, विहङ्गम-मार्ग, पिपीलिका-मार्ग पर चलने को हठयोग की क्रियाओं को नहीं करे, तो हानि नहीं। उसको तो नवधा भक्ति का अवलम्ब अवश्य चाहिए।”
 बारहवें पद के ‘विचार’ में यह दर्शाया गया है कि जो व्यक्ति राम को केवल बाहर-बाहर खोजते हैं तथा अन्तर्मुखी उपासना नहीं करते हैं, वे वस्तुतः मूर्ख हैं। इसी पद में वर्णात्मक नाम के साथ ध्वन्यात्मक नाम की महत्ता पर बल दिया गया है- “अन्त में ध्वन्यात्मक नाम का भी भजन अवश्य ही करना चाहिये। वर्णात्मक नाम अपने अर्थ-द्वारा गुण प्रकट करके नामी का केवल परोक्ष ज्ञान देता है और ध्वन्यात्मक नाम अपने आकर्षण द्वारा सुरत को नामी तक एकदम पहुँचाकर उसके अपरोक्ष ज्ञान का अनुभव करा सकता है।”
 इस प्रकार विनय-पत्रिका के इन बारह पदों में महर्षि जी ने यह प्रतिपादित किया है कि तुलसी की गति राम के केवल सगुण रूप तक ही नहीं थी, वरन् वे निर्गुण रूप के भी साधक थे तथा वे कबीर साहब आदि की भाँति योगी भक्त थे।
 इन बारह पदों का केवल यदि ध्यानपूर्वक मनन किया जाए, तो जिज्ञासुओं, मुमुक्षुओं और भक्तों को परम लाभ हो सकता है तथा वे भक्तिपूर्ण योग-साधना द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। इस दृष्टि से यह टीका सफल है।


2. रामचरितमानस-सार सटीक
 तुलसी के ग्रन्थों में ‘रामचरितमानस’ सर्वाधिक लोकप्रिय है। तुलसी की अक्षय कीर्ति का कारण भी ‘रामचरितमानस’ ही है। रामचरितमानस का नाम लेते ही ‘तुलसी’ और ‘तुलसी’ का स्मरण करते ही ‘रामचरितमानस’ हठात् हमारी आँखों के सामने आ जाता है। वस्तुतः दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। मानस की लोकप्रियता के कारण ही इसकी शताधिक टीकाएँ हमें प्राप्त हैं। पाठ-शुद्धि करके मानस के अनेक संस्करण भी प्रकाशित हुए हैं तथा हो रहे हैं। श्री अंजनी प्रसाद जी के ‘मानस-पियूष’ में कई खण्डों में मानस की अति विस्तृत और विशद व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
 महर्षि मेँहीँ ने मानस की टीका को सार रूप में प्रस्तुत किया है। इसमें प्रत्येक काण्ड के विशेष पद्य को सार रूप में दिया गया है, फिर उसकी व्याख्या की गई है। बीच की कथा की भाषा द्वारा पूर्ति कर दी गई है। इससे मानस की कथा का तार कहीं नहीं टूटता है। कहीं-कहीं विशिष्ट शब्दों को भी स्पष्ट किया गया है। इस टीका के प्रयोजन के विषय में महर्षि जी का यह वक्तव्य है- “इस उत्तम ग्रन्थ को तो “रघुबर भगति-प्रेम परिमित सी” के स्थूल रूप में सर्वसाधारण देखते ही हैं, और कुछ लोग इसे “सद्गुरु ज्ञान विराग जोग के” रूप में भी देख रहे हैं; पर इसके दोनों उपर्युक्त स्वरूपों को पूर्ण रूप से कोई विरले ही देख सकते हैं। रामचरितमानस के उपर्युक्त दोनों स्वरूपों का पूर्ण रूप से दर्शन करने के लिये ही मैंने उससे सार-संग्रह करने का प्रयास किया है।”
 इस प्रकार उक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु महर्षि जी ने इस टीका में मानस के प्रायः उन्हीं अंशों का काण्डशः चयन किया है, जिसमें प्रेमा-भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, योग-साधना और नीति का उल्लेख है। इसके साथ ही तुलसी-द्वारा प्रतिपादित ‘राम’ के स्वरूप को विभिन्न उदाहरणों-द्वारा ठोस तर्कों के बल पर स्पष्ट किया गया है तथा निष्कर्ष रूप में यह सिद्ध किया गया है कि तुलसी ने ‘मानस’ में सगुण लीला के माध्यम से राम के निर्गुण रूप को ही प्रतिपादित किया है। यह निर्गुण रूप प्रेमा-भक्ति-युक्त योग-साधना से प्राप्तव्य है, इसीलिये ‘सारांश’ के अन्तर्गत कोष्ठक में प्रायः उक्त साधना से सम्बन्धित शब्दावली का विशेष विवेचन किया गया है। यथा-सगुण-निर्गुण-भेद और निरूपण, माया, राम का वास्तविक स्वरूप, भक्तियोग, रामावतार का रहस्य, स्वप्न, जाग्रत, सुषुप्ति और तुरीयावस्था, दृष्टि-साधन के भेद, पति-सेवा की महत्ता, नीति, रामभक्ति की प्राप्ति के साधन, दृष्टि-योग, दम, शम, नादानुसन्धान (सुरत-शब्द-योग) नवधा भक्ति, योग-पावक, ब्रह्म-सुख, गुरुचरण-रज का महत्त्व, ज्ञान-विज्ञान, वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाम, दिव्य-दृष्टि, ज्ञान-भक्ति, सन्त-महिमा, मानस-पूजा ध्यान, नाम-जप, राम का व्यापक और व्याप्य रूप, अवधपुरी का वास्तविक अर्थ, कलिकाल में भी योगध्यान आदि संभव, भक्ति में आचरण की शुद्धता, ब्रह्म-जीव का पार्थक्य, सेवक-सेव्य भाव की महत्ता, भक्ति में ज्ञान, वैराग्य की आवश्यकता आदि।
 बालकाण्ड में गुरु-चरण-रज की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि “चरण-रज में चरणों की चैतन्य वृत्ति गर्मी रूप में समायी होती है। यही चैतन्य वृत्ति चरण-रज में सार है।”
 राम-नाम की व्याख्या करते हुए महर्षि जी पाठकों का ध्यान इस ओर आकृष्ट करते हैं कि राम के वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक दोनों रूपों को भजना आवश्यक है; क्योंकि इनके बिना न प्रभु-प्राप्ति होती है और न मोक्ष-प्राप्ति। चौ0 सं0 118 में ज्ञान-नयन की महत्ता इस प्रकार बताई गयी है कि ज्ञान-नेत्र प्राप्त करने के दो साधन हैं-
 (1) विद्याभ्यास (2) योगाभ्यास। इन दोनों के द्वारा ही ज्ञान-नेत्र प्राप्त करके मानस का रहस्य ज्ञात हो सकता है। कोरे शब्दार्थ ज्ञान से विशेष लाभ नहीं होगा।
 सगुण और निर्गुण रूप की व्याख्या के पश्चात् यह सिद्ध किया गया है कि यद्यपि मानस में सगुण रूप और लीला का अपेक्षतया अधिक विस्तार से वर्णन मिलता है, तथापि उसमें निर्गुण रूप और उसकी महिमा की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। पृ0 52। अन्य भी कई स्थलों पर उक्त निष्कर्ष की चर्चा की गई है। यथा-चौ0 167। महर्षि जी के अनुसार “राम का निर्गुण रूप सनातन और सहज रूप है, जबकि उनका सगुण रूप किसी कारण से प्रकट होनेवाला, असनातन, असहज और भ्रांति में डालनेवाला है।” पृ0 75, 82, 83, 89 ।
 महर्षि जी की मान्यता है कि मानस ने राम-भक्ति का द्वार ब्राह्मण से लेकर डोम-चाण्डाल और यवन पर्यन्त सब के लिये खोल दिया है।
 ‘नवधा भक्ति’ की क्रमशः व्याख्या करते हुए कहा गया है कि छठे प्रकार की भक्ति ‘दृष्टि-योग’ है। यहाँ शम और दम पर भी बल दिया गया है तथा बताया गया है कि भक्ति में शम के बिना सम की प्राप्ति संभव नहीं और इसकी सिद्धि के लिए नादानुसन्धान अथवा सुरत-शब्द-योग की साधना आवश्यक है। शबरी के प्रसङ्ग में भी यह सिद्ध किया गया है कि मातङ्ग ऋषि की शिष्या थी तथा उनकी कृपा से वह योग-क्रिया में पारङ्गत थी।
 उत्तरकाण्ड की महर्षि जी ने विशदता से व्याख्या की है। 91वें दोहे का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है- “यह राम-प्रताप-सूर्य त्रिकुटी महल में विराजित ओ3म् ब्रह्म का स्वरूप है। महर्षि जी ने यहीं यह भी सिद्ध किया है कि मानस में योग-साधना गुप्त रूप से प्राप्त है-‘जलचर को पकड़नेवाले जैसे युक्ति से जल-पुंज से पकड़ लेते हैं, उसी तरह विचारवान् भेदी जन रामचरितमानस से योग जलचर को निकाल लेते हैं। जो रामचरितमानस के इस तथ्य को नहीं समझ सके हैं, यदि वे सम्पूर्ण रामचरितमानस को कण्ठस्थ कर लें, तौभी उन्हें उससे होने योग्य सर्वश्रेष्ठ और सार लाभ कदापि नहीं होगा।” पृ0 268।
 671वीं चौपाई ‘कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। योग न मख जप तप उपवासा।।’ की टिप्पणी में बड़े मार्के की बात कही गई है कि “भक्ति-मार्ग में योग-जप-तप आदि न करने को लिखने में कवि का केवल यही आशय है कि लोग भक्ति की ओर आकृष्ट हो सकें। भक्ति-मार्ग के लिए भी जप और योग की आवश्यकता है। हाँ, यह भले ही कह सकते हैं जिस जप और योग से (जैसे केवल हठयोग से) सर्वेश्वर की भक्ति नहीं होती है, वह जप योग भक्ति-मार्ग में नहीं है।”
 चौपाई 705 में प्रयुक्त जप-यज्ञ के विषय में महर्षिजी की धारणा है कि ‘एक चित्त से नाम-भजन करने को जप-यज्ञ कहते हैं।’ यहाँ यज्ञ शब्द से अग्नि, घृत, तेल आदि सामग्री से युक्त यज्ञ की भ्रान्ति न होनी चाहिए। चौपाई 697 से 707 तक में वर्णित ‘नील-पर्वत’ आदि की योगपरक बड़ी विशद व्याख्या की गई है। अन्त में चौ0 सं0 950 “एहि कलि काल न साधन दूजा। जोग जज्ञ जप तप ब्रत पूजा।।” पर चौ0 सं0 951 “रामहिं सुमरिय याइय रामहिं। सन्तत सुनिय राम गुनग्रामहिं।।” के अन्तर्विरोध को यों स्पष्ट किया गया है कि इसका तात्पर्य यह जान पड़ता है कि भक्ति मार्ग में जिन जप-योगादि साधनों की आवश्यकता है, जिनके बिना भक्ति-मार्ग पर चलना ही असम्भव है, उन साधनों को कलिकालादि सभी कालों में करना चाहिए।” पृ0 802 । पर भक्ति-मार्ग का योगाभ्यास अत्यन्त सरल प्रेममय और परम शान्तिदायक परम प्रभु के परम पद से मिलानेवाला है। इस योगाभ्यास को नवधा भक्ति के वर्णन में व्याख्यायित कर दिया गया है। चौपाई 802-808 तक में महर्षिजी ने आग्रह पूर्वक कहा है कि जो लोग यह कहते हैं कि कलि-काल में योग-ध्यान आदि सम्भव नहीं है, वे भ्रम-ग्रस्त हैं। यह उनकी आलसी, प्रमादी और राक्षसी वृत्ति का परिचायक है; क्योंकि बुद्ध, शंकराचार्य, कबीर, तुलसी आदि जैसे सिद्ध पुरुष इसी कलिकाल में उत्पन्न हुए थे।
 रामचरितमानस की इस टीका में स्थान-स्थान पर इसके गूढ़ और रहस्यात्मक अर्थों को बड़ी विशदता के साथ स्पष्ट किया गया है। टीकाकार का यह उद्देश्य रहा है कि मानस के पाठक मानस के पाठ केवल श्रद्धान्ध भाव से न करें, वरन् इसमें निहित गूढ़ अर्थों को सोचें, समझें और तद्वत् आचरण कर परम लाभ प्राप्त करें।
 इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त टीका महर्षि जी के अनुभव-जन्य गहन विचारों से आपूर्ण है, जिनका अध्ययन और मनन जिज्ञासुओं के लिए परम कल्याणकारी है।


3. सन्तवाणी-सटीक:
 हिन्दी साहित्य के इतिहास में सन्त-साहित्य की महिमा और महत्ता सर्वविदित है। सन्तों की वाणियाँ और उनके जीवन की अनुभूतियों और विचारों का अपार सागर है-‘सन्तों का अनुभव योग-समाधि का अनुभव है, जो योग-अभ्यास की अन्तिम प्रत्यक्षता है, न कि केवल सोच-विचार का साहित्यिक अनुभव।’ महर्षि मेँहीँ के गुरु महाराज ने यह बतलाया था कि ‘सब सन्तों का एक ही मत है।’ इसी एक मत को जानने की बलवती इच्छा से महर्षि मेँहीँ महाराज जी ने संतों की वाणियों का संग्रह किया, फिर सत्संगी प्रेमियों के आग्रहपूर्ण निवेदन पर इसकी टीका भी कर डाली। इसका प्रकाशन भी अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग-प्रकाशन-द्वारा किया गया है।
 उक्त टीका के उद्देश्य के विषय में महर्षि मेँहीँ जी ने लिखा है:- “संतों ने ज्ञान और योग-युक्त ईश्वर-भक्ति को अपनाया। ईश्वर के प्रति अपना प्रगाढ़ प्रेम अपनी वाणियों में दर्शाया है। उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और परम मोक्ष प्राप्त हुआ था, उनकी वाणी उसी गम्भीरतम अनुभूतियों और सर्वोच्च अनुभव को अभिव्यक्त करने की क्षमता से सम्पन्न और अधिकाधिक समर्थ है। ‘सन्तवाणी सटीक में पाठकगण उसी विषय को पाठ करके जानेंगे।
 महर्षिजी ने सन्तों और पूर्ण भक्तों में भेद नहीं किया है। पूर्ण भक्त भी सन्त हैं और सन्त भी पूर्ण भक्त। अतः इस दृष्टि से सन्त और भक्त का भेद भ्रामक तथा निराधार है। इसीलिए महर्षिजी ने सन्त-वाणियों में सूर, तुलसी और मीराबाई के पद्यों को भी समाविष्ट कर लिया है।
 ‘सन्तवाणी सटीक’ में योगी जालन्धरनाथ से लेकर मीरा बाई तक के 32 सन्तों की उत्कृष्ट वाणियाँ संगृहीत की गई हैं। इसके अन्तर्गत योगियों की वाणी, निर्गुण सन्तों और सगुण भक्तों की श्रेष्ठ वाणियों का चयन किया गया है। राधा स्वामी सम्प्रदाय के सन्तों को और जैन साधुओं को भी इसमें स्थान दिया गया है। इससे टीकाकार के हृदय की विशालता अथच उदारता प्रकट होती है। व्याख्या में सर्वप्रथम कठिन शब्दों के अर्थ तथा उनके प्रतीकार्थ को स्पष्ट किया गया है, तत्पश्चात् सुबोध और सरल शैली में पद्य की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। भाव-साम्य के लिए अन्य कवियों के उदाहरण भी दिए गए हैं। उपनिषदों और तन्त्र-साहित्य से भी भाव-साम्य के उदाहरण लिए गए हैं। यथास्थान अन्तर्कथाओं का भी उल्लेख किया गया है। बाद में ‘सारांश’ देकर विषय को विशदता से स्पष्ट किया गया है।
 टीकाकार का मन सर्वाधिक कबीर-वाणियों की व्याख्या करने में रमा है। यही कारण है कि कबीर का अंश पृ0 13 से 130 तक के पृष्ठों में वर्णित और व्याख्यायित है। महर्षि मेँहीँ की टीका के साथ यदि पाठक इन वाणियों का अध्ययन और मनन करेंगे, तो उन्हें निःसन्देह परम लाभ प्राप्त होगा। अपने उद्देश्य में यह टीका भी सफल है।
 निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इन टीकाओं में महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का यह उद्देश्य रहा है कि तुलसी-साहित्य के तथा सन्त-साहित्य के गूढ़ और योगावरणित स्थलों को स्पष्ट करके प्रेमी भक्तों के समक्ष रखा जाए, जिससे वे इसका अध्ययन और मनन करके तथा उनके विचारों को हृदयङ्गम कर परम लाभ के अधिकारी बनें। महर्षि मेँहीँ के ‘विचारों’ में उनका ज्ञान और अनुभव भरा पड़ा है। उक्त दृष्टि से उनकी तीनों टीकाएँ सफल हैं तथा ये टीकाएँ हिन्दी-साहित्य की अक्षय निधि है।